Home / Slider / कहानी – सूदखोर के पाँव

कहानी – सूदखोर के पाँव

बलिराम मास्टर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी भाषा से मुहावरे झरते थे और वे पर्याप्त रूप से मुंहफट थे । उनके मुंह से ऐसे-ऐसे शब्द निकलते थे कि उनसे स्मृतियाँ उर्वर होने लगती थीं । उनको सुनते हुए शायद ही कोई ऐसा संवेदनहीन हो जिसके दुःख घाव की तरह न उपट आये।                                                        

“मास्साब ब्रह्माण्ड माने क्या होता है ।” स्टाफ रूम में चल रही गलचौर के बीच किसी ने नक्कारखाने की तूती तरह बलिराम मास्टर की ओर सवाल उछाल दिया ।

अभी बलिराम मास्टर कोई जवाब देते कि सरजू तिवारी ने ब्रह्माण्ड को परिभाषित करना शुरू कर दिया –“ बरमहांड माने जो है सो ।।।। जब ब्रह्मा जी ने सारी सृष्टि रची तब सबसे पहिले बर्मांडे को बनाया ।।।। गोसाईं जी कहे हैं ।।।।जो है सो ।।।”

लेकिन तिवारी जी की परिभाषा में किसी ने दिलचस्पी नहीं दिखाई । जियावन राम ने शैलेश सिंह के कान में कहा – “अब देखिये तिवारी गोसाईं जी का पोटा खींचकर सबके दिमाग पर मलेंगे ।”

शैलेश सिंह ने मुस्कराकर देखा । लम्बे-चौड़े डील-डौल वाले शैलेश अपने प्रगतिशील रुझानों के कारण ब्राह्मण अध्यापकों की आँख के किरकिरी थे । लेकिन प्रिंसिपल साहब के कारण वे किसी से दबते नहीं थे । कॉलेज में दो सांस्कृतिक समूह थे – एक मानसवादी थे जो हर बात के लिए गोस्वामी तुलसीदास पर निर्भर थे और तर्क से अधिक महत्व आस्था को देते थे । दूसरे थे जनमानसवादी जिनका तर्क था कि जिस बात से जन साधारण का भला न हो वे सब बातें फर्जी हैं और उनको दोहराने वाले लबार हैं । जनमानसवादी खेमे के सार्थवाह शैलेश सिंह थे । शैलेश की एक और विशेषता थी कि वे योग्य और गरीब विद्यार्थियों की मदद हमेशा कर देते । जियावन राम से उनकी गहरी दोस्ती थी और दोनों साथ में लंच करते थे , चाय पीते और पान खाते थे ।

जियावन राम की बात सुनकर शैलेश ने कहा –“चलिए पान खा आते हैं । तब तक तिवारी जी बोलते रहेंगे ।” लेकिन जियावन राम ने उन्हें रोका –“ बलिराम मास्टर को सुनते हैं ।” शैलेश रुक गए लेकिन उनकी दिलचस्पी बलिराम मास्टर की बातों में नहीं थी जबकि जियावन राम बलिराम मास्टर को चाव से सुनते थे । उन्हें उनसे वैचारिक ताकत मिलती थी । स्वयं जियावन राम कांशीराम के ज़बरदस्त प्रशंसक थे और जब भी कॉलेज में आरक्षण और दलित उभार के विरोध में बात चलती तो उन्हें बलिराम मास्टर का ही समर्थन मिलता । बहुत घनिष्ठ होने के बावजूद शैलेश आरक्षण के मुद्दे पर प्रगतिशील हो जाते और सवर्णों की गरीबी की बात को महत्वपूर्ण बैरोमीटर बताने लगते थे । तब जियावन राम उनसे पूछते –‘शैलेश जी आप हमेशा योग्य और गरीब विद्यार्थियों की मदद करते रहे हैं लेकिन ज़रा उनकी जाति भी बताएँगे ?’ यही शैलेश की कमजोर नस थी ।

हूट हो जाने के बावजूद तिवारी देर तक बोलते रहे । और उनका बोलना इस बात को अपरिहार्य बना रहा था कि बलिराम मास्टर भी बोलें ।

जियावन राम ने कहा –“तिवारी तो बरस गए मास्साब । आप बताइए न ब्रह्माण्ड क्या है ?

बलिराम मास्टर कहने लगे –“अरे भाई इसमें क्या बात है । ब्रह्माण्ड कौनों सही शब्द तो है नहीं । ऊ तो बनौवा शब्द है । जब ई शब्द नहीं बनाया गया था तब देखिये कि ऊ कहाँ से उठाया गया था । बरम अर्थात बरने वाला यानी जलने वाला और आंड अर्थात अंड माने गोला । मतलब ई दो  शब्द है । बरम और अंड जिसका मतलब है जलने वाला गोला । सारे दुनिया के विज्ञानी साबित कर चुके हैं कि सारे ग्रहों का समूह जलते हुए गोले हैं । हमारी पृथ्वी भी करोड़ों साल पहिले जलता हुआ गोला थी । बाकी सारी परिभाषाएं झूठी हैं ।”

सरजू तिवारी को मौका मिल गया –“ ई कौन ब्याख्या है भिया । इसको सिद्ध करिए कि ब्राह्मणों ने ब्रह्माण्ड का अविष्कार नहीं किया । भारत की कौन सी विद्या है जो इस जाति ने नहीं बनाई है ।दिमाग के बारे में काहे कहा जाता कि आज हमारे ब्रह्माण्ड में आग लगी है । और सारी दुनिया जानती है कि दिमाग किसे कहा गया  ।।।।”

गर्मी थोड़ी बढ़ने लगी । कई दिमाग बलिराम मास्टर को पटखनी देने के लिए खुरियाने लगे । लेकिन तब तक बलिराम मास्टर ने फेंटा कस लिया था –“दिमाग को तो कहना ही चाहिए ब्रह्माण्ड क्योंकि वह भी जलता हुआ गोला है । उसमें ज़िंदगी की आग जलती है ।”

“तो फिर आज तक दिमाग किन लोगों का तेज है मास्साब ?” संतराम द्विवेदी ने उन्हें उखाड़ने की कोशिश में योगदान करते हुए सवाल किया ।

बलिराम मास्टर ने तुरंत कहा –“जिनके दिमाग में गिजा का ईंधन जा रहा है उन लोगों का तेज है दुवेदी जी । जिन लोगों को चकाचक आराम मिल रहा है उन लोगों का । चाहे कोई भी हो । किसी जाति और धरम का हो ।”

“इयाह । क्या बात कही माटसाब ने । अब बोलिए ।। बोलिए !” शैलेश की प्रगतिशीलता को बल मिला तो उन्होंने चुटकी बजाते हुए कहा ।

लेकिन संतराम द्विवेदी ने वाक्आउट कर दिया –“ द्विवेदी का उच्चारण ठीक से कर नहीं सकते और चले हैं व्याख्या पादने ।”

चिंताराम मास्टर ने कहा –“दुवेदी ठीक तो है मास्साब । एकदम सही तद्भव ।”

थोड़ी देर में लोग अपनी-अपनी कक्षाओं के लिए निकले और बातें कल के लिए बची रहीं ।

बलिराम मास्टर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी भाषा से मुहावरे झरते थे और वे पर्याप्त रूप से मुंहफट थे । उनके मुंह से ऐसे-ऐसे शब्द निकलते थे कि उनसे स्मृतियाँ उर्वर होने लगती थीं । उनको सुनते हुए शायद ही कोई ऐसा संवेदनहीन हो जिसके दुःख घाव की तरह न उपट आयें । शायद ही कोई इतना घाघ हो जिसका सुख फूलों की तरह न गमकने लगे । वे बलिराम मास्टर छः फीट के ऊँचे-पूरे , गोर-अंगार और लम्बी बाहों वाले ऐसे पिता थे जिनकी हथेलियों में गृहस्थी के उभरे हुए घट्ठे थे और साँसों में एक धीरता थी । जिन दिनों वे रिटायर हुए उन दिनों पांचवें वेतन आयोग के लागू होने की सुगबुगाहट थी और अध्यापकों को पढाने में मज़ा आना बंद हो चुका था । वे सब अब जीवित समीकरण बिठाते और तमाम उलझी लटें सुलझाते थे । बलिराम मास्टर के साथ पचीस साल से पढ़ाने वाले गिरजा शंकर तिवारी ने आह भरकर कहा – “केवल आधा साल बाद और पैदा हुए होते मास्साब तो फिफ्थ पे कमीशन में तनख्वाह के बराबर पेंशन लेकर रिटायर होते ।”

बलिराम मास्टर मुस्कराए लेकिन बोले कुछ नहीं । गिरजा शंकर तिवारी को ताज्जुब हुआ कि इतने मढ़ी-कंजूस बलिराम  मास्टर पर इस बात का कोई असर ही नहीं हुआ तो वे मन ही मन उनकी जाति पर उतर आये – पाव भर दाना , शूद्र उताना । पिछड़ा होकर अध्यापकी पा गए तो राष्ट्रपति हो गए । असल औकात तो गाय-भैंस चराने की ही है न जी ।

सच बात तो यह थी अब लोग कार खरीदने के लिए जोड़-जुगाड़ करते लेकिन बलिराम मास्साब एक बात पर दृढ़ थे – ‘अपने घर में दुहान होना ही चाहिए ।’ इसके लिए वे बहुत मेहनत करते थे । उनके बारे में एक दृढ़ अफवाह भी थी – वे बहुत कंजूस हैं । इसके लिए भी वे बहुत मेहनत करते । उनका अपना खर्चा पांच नया भी नहीं था । न कोई नशा न पत्ती । लेकिन घर में जो उनके यहाँ बन जाता अच्छे-अच्छे घरों में मयस्सर न था । खाने के समय उनके जाने आज तक कोई भूखा न गया ।

किसी समय मास्टर साहब किसी भी अध्यापक के दुःख-सुख और कार-परोजन में आगे रहते । उन्हें अक्सर भितिउरी की ज़िम्मेदारी सौंपी जाती थी क्योंकि वे सबकी इज्ज़त अपने काँधे ओज लेते । अड़ोसी-पडोसी तो आँख भजते ही खाद्य पदार्थ को निर्यात कर देते और ऐन मौके तक चीजें घट जातीं जबकि मास्टर साहब इस्टीमेट से एक दाना जो इधर-उधर होने दें ।

लेकिन काम निसरते ही फिर वही राग — पिछड़े तो भैया हनुमान की तरह हैं । पहाड़ उठा लाते हैं लेकिन अपने लिए नहीं । मास्टर साहब इन सब बातों का अर्थ समझते थे । इसलिए अब वे अमूमन लोगों से बचते थे । एक बार वे अपने एक सहकर्मी की बेटी की शादी में भितिउरी संभालने गए थे । सब कुछ इतनी आज़ादी से निपटा कि शिकायत किसी को न हुई  । महीने भर बाद जब वे अपनी कक्षा से वापस स्टाफ रूम में जा रहे थे तब अचानक अन्दर हो रही बातें सुनकर ठिठक गए – शैलेश सिंह कह रहे थे – ‘बिटिया की शादी तो बहुत रजगज से निपटा दिए तिवारी जी ।’

तिवारी ने मुदित हो जवाब दिया –‘अरे भाई बलिराम मास्टर के हाथ सारा सरंजाम दे के हम तो बस नमस्ते-पाती में लगे रहे । वे बेचारे सब कुछ टनाटन संभाल दिए ।’

मास्टर साहब ने सुना तो उन्हें अपने व्यावहारिक ज्ञान पर गर्व हुआ । तिवारी उनके ऊपर इतना भरोसा और सम्मान रखते हैं यह उनके लिए एक भावनात्मक पुरस्कार था । वे और भी ध्यान से सुनने लगे ।

शैलेश ने कहा – ‘ आपने बहुत अच्छा किया । एक बड़ा भाईचारा कायम कर दिया । लेकिन द्विवेदी जी एक दिन बोले कि तिवारी अब बह गए हैं । अहीर-गंड़ेरिया को भी बराबरी में ला दिए ।’

तिवारी ने थोड़े तैश में आकर कहा –‘द्विवेदी का बतियाएंगे । उनका हरवाह तो उनके चूल्हे में से आग निकाल कर तमाखू चढ़ाता है । और फिर हम कौन आपन स्टैण्डर्ड गिराए भाई साहब । भितिउरी ही तो सँभालने कहे कौनों पंगत में शामिल थोड़े न किये । द्विवेदी बतियाएं मुझसे तब दूं जवाब ।’

पता नहीं शैलेश का मुंह कैसा बना लेकिन बलिराम मास्टर लद्द से ज़मीन पर गिरे और उनका गर्व चकनाचूर हो गया । वह दिन और आज का दिन । मास्टर साहब ने चिरौरी करने के बावजूद किसी के कार-परोजन में कोई सलाह तक नहीं दिया । भितिउरी संभालना तो बहुत दूर की बात है ।

समय बीता लेकिन वह घाव मुरझाने की बजाय रिसता ही रहा । उन्हें हर बात में जाति दिखने लगी थी और अक्सर उन्हें लगता कितना भी कर लो । लेकिन जाति हर चीज पर राख डाल देती है । अब जाति बदलना तो बूते से बाहर था इसलिए बेचैनी में व्याख्या बदलते । उन्हें लगता कि भगवान-भगवती तो सब बकवास है असली चीज है पैसा और सम्मान । दुनिया के सारे कवि-लेखक इसी के बारे में लिखते हैं । सारी कथाएं भूख और अभाव से उपजी हैं । उनका अंत पैसे में होना है । इसलिए कबीर और रहीम जो कवितायेँ कहते हैं उनमें एक आवाज है कि यह दुनिया ही सच है । इस दुनिया में सम्मान से जीने के लिए मंदिर में नहीं बैंकों में भगवान को खोजना पड़ेगा ।

अपनी इन्हीं मान्यताओं के कारण वे कॉलेज में एक दबंग शख्सियत होते गए थे । पारसनाथ तिवारी जैसे आध्यात्मिक पुरुष उनसे दूर भागते थे क्योंकि उन्हें लगता बलिराम मास्टर उनके उस नटवर नागर को खंडित कर देंगे जो कॉलेज में कुर्सी पर बैठे-बैठे उनकी आँख लगते ही सामने आ खड़ा होता था । अंग्रेजी के जनार्दन सिंह भी बिदकते थे जिनकी पामेस्ट्री और कुंडली शास्त्र बलिराम मास्टर के पास होते ही निष्क्रिय होने लगता था ।

वे भोर में तीन बजे उठते थे । सबसे पहले एक लोटा पानी पीते थे । थोड़ी दूर टहलते थे और बीस-पचीस मिनट बाद पखाने जाते । लौटने के बाद हाथ-मुंह धोकर गोरू-बछरू के लिए चारा काटने लगते । पांच साढ़े पांच बजे तक वे यह काम निबटा चुकते । यह उनकी दिनचर्या थी लेकिन जाड़े के दिनों में जब वे खचाखच लकड़ा काटते थे तो आस-पड़ोस के अनेक लोग भुनभुनाते हुए करवट बदलते कि भडुआचोद रात ही से लगता है सारी धरती खोद देगा । अरे जब मस्टरई की कमाई से झांट नहीं उखड़ रही है तो लकड़ा काटने से रुपया बियाने थोड़े लगेगा ।

लेकिन मास्टर साहब कब किसकी परवाह करते थे । उनकी वही दिनचर्या बारहोमास बनी रहती । चारा काटने के बाद वे थोड़ी देर सुस्ताते और फिर गाय-भैंस-बैल को नाद में लगाने के बाद आसन लगाकर बैठ जाते और योग करते । अक्सर वे बहुत लंबी साँसें खींचते और छोड़ते लेकिन कभी कभी तो शिव तांडव स्त्रोत्र का इतना जोशीला पाठ करते कि बैल तक कान उठाकर ताकने लगते । मास्टर साहब कहते – बैल तो नंदी के अवतार हैं । जब शिवजी की बात सुनते हैं तो उनके कान खड़े हो जाते हैं ।

उनका ध्यान तभी टूटता जब मस्टराइन गिलास में चाय लिए आतीं और पास ही रखकर तिखारती हुई चली जातीं – ‘देखना चहवा ठंढा न हो जाय ।’

मास्टर साहब सबेरे हर वह काम निपटा देते जिससे मस्टराइन को कम से कम कष्ट हो । दतुअन करते-करते वे पाँचों नादों में पानी भर डालते और अच्छी तरह दांत मांजकर मल-मल कर नहाते और खाना खाकर चकाचक धोती-कुरता जमाकर खरामा-खरामा सायकिल चलाते सेठ चूनामल राजकीय इंटर कॉलेज के लिए निकल पड़ते ।

वे अन्य अध्यापकों की तरह मरकहे नहीं थे और न ही विद्यार्थियों को काम के बोझ से लादते थे । बहुत हुआ तो किसी विद्यार्थी के कान खींचते समझाते – ‘बच्चा तुम्हारी मुक्ति तो बस विद्या में है । विद्या जो बखत पर काम आये । गुलाम आदमी पहलवान होकर भी क्या करेगा । उसकी आत्मा तो सूख ही जाएगी । इसलिए मैं कहता हूँ बबुआ  ध्यान लगाओ । यही समय है । एक समय ऐसा आएगा जब ध्यान लगाये भी न लगेगा ।’ विद्यार्थी हँसते हुए अपना कान छुड़ाता लेकिन मास्टर साहब के वात्सल्य पर उसकी आँखें भरभरा आतीं ।

मास्टर साहब के इसी व्यवहार के कारण विद्यार्थी उनके आगे-पीछे हमेशा चक्कर काटते थे । शायद उनके जैसे कोई और अध्यापक न थे जो कहते हों कि आज के होमवर्क में तुम घर जाकर ध्यान करो कि तुम क्या कर सकते हो । फिर दूसरे दिन कहते कि ध्यान करो तुम क्या नहीं कर सकते हो । तीसरे दिन फिर कहते आज ध्यान लगाना – जो तुम कर सकते हो वह क्यों कर सकते हो और चौथे दिन कहते आज के ध्यान का बिंदु यह कि तुम जो नहीं कर सकते उसे क्यों नहीं कर सकते हो ? पांचवें दिन भी ध्यान होमवर्क का केंद्र होता – जो तुम कर सकते हो उसे कैसे कर सकते हो ? छठे दिन – जो तुम नहीं कर सकते उसे कैसे नहीं कर सकते ? यह सिलसिला अनवरत चलता रहता – जो तुम कर सकते हो उसके लिए क्या जरूरी है ? जो तुम नहीं कर सकते उसके लिए क्या जरूरी नहीं है ? जो तुम कर सकते हो उसमें तुम्हारा मन कितना लग रहा है ? जो तुम नहीं कर सकते उसमें तुम्हारा मन कितना नहीं लग रहा है ? जो तुम कर सकते हो उससे तुम्हें क्या मिलेगा ? जो तुम नहीं कर सकते उससे तुम्हें क्या नहीं मिल सकेगा ? जो तुम कर सकते हो उससे तुम कितना खुश होओगे ? जो तुम नहीं कर सकते उससे तुम कितने खुश नहीं होओगे ? जो तुम कर सकते हो उससे दूसरे लोगों को ख़ुशी होगी । जो तुम नहीं कर सकते उससे दूसरों को कितनी ख़ुशी नहीं होगी और जो तुम कर सकते हो क्या उससे तुम्हारा जीवन चल जायेगा और तुम समाज का कोई दायित्व निभा पाओगे ? और जो तुम नहीं कर सकते क्या उससे तुम्हारा जीवन नहीं चलेगा और तुम समाज का कोई दायित्व नहीं निभा पाओगे ? इत्यादि इत्यादि ।

पता नहीं इन वाक्यों में क्या जादू था कि लड़के मास्टर साहब का होमवर्क करने की होड़ में रहते । दूसरे दिन कक्षा में बताते कि वे क्या कर सकते हैं और क्या नहीं कर सकते हैं ? हर विद्यार्थी की रुचियाँ खुल कर सामने आतीं जिसका सीधा अर्थ यह था कि कि वे किताबों का बोझ नहीं लादना चाहते थे । वे जानना और करना चाहते थे ।

लेकिन दूसरे अध्यापक मास्टर साहब की लिहाड़ी लेते विद्यार्थियों को हड़काते थे – ‘ससुरो ! विद्यार्थियो , बलिराम मास्टर जो गीता तुम लोगों को पढ़ाते हैं वह परीक्षा की रणभूमि में काम न आएगी । तब तो बिना सही उत्तर कॉपी में भरे गुजारा नहीं होगा । चाहे कुंजी से भरो । चाहे रट्टे से । इसलिए बच्चो , रट्टा मारो रट्टा । नहीं तो मतारी-बाप और गुरुजनों की शान में लग जायेगा बट्टा ।’

फिर भी कौन उनकी बात सुनता ! कभी कभी तो अनत कॉलेज के विद्यार्थी भी यहाँ आकर उन्हें सुनते । सभी उनकी इज्जत करते थे और कभी प्रधानाचार्य साथ में होते तो भी बच्चे उन्हें ही सबसे पहले कहते – माट्साब परनाम !

गरज यह कि ये बातें प्रधानाचार्य को ज़हर लगतीं थीं । वे मौके की तलाश में थे जिससे किसी दिन बलिराम मास्टर का गला दाब दिया जाय । लेकिन मास्टर साहब इसकी परवाह नहीं करते थे  क्योंकि न तो वे किसी अध्यापक के प्रतिद्वंद्वी थे और न ही प्रधानाचार्य के दावेदार ।

बस कुछ समय बाद वे कॉलेज से सबसे बाद में और अकेले जाने लगे । हालाँकि इसके पीछे एक बड़ा कारण था  मास्टर साहब के चित्त पर लगा घाव जो बरसों के संग-साथ वाले लोगों के व्यवहार से बना था और कभी कभी तो उन्हें लगता वे सारी व्याख्याएं पलट दें ।

और एक दिन जब प्रधानाचार्य राउंड पर थे तब मास्टर साहब की कक्षा में शुचि-पत्त सन्नाटा छाया हुआ था । केवल एक लड़का कबीर का दोहा पढ़ रहा था –

दुःख में सुमिरन सब करें , सुख में करे न कोय !

जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे को होय !!

यही एक दोहा बारी-बारी से अनेक लड़कों ने पढ़ा और उसके बाद मास्टर साहब ने पूछा – “इस दोहे में क्या है ?”

विद्यार्थी मास्टर साहब से घुल-मिल गए थे इसलिए सबने एक स्वर में कहा – “मास्साब हम आपसे ही सुनेंगे ।”

मास्टर साहब बोले – “ठीक है।” और वे उठकर खड़े हो गए । चाक उठाया और श्यामपट्ट पर लिखते हुए बोले –“इसमें खास बात है सुमिरन । सुमिरन माने स्मृत यानि स्मरण अथवा याद । कबीर जी याद करने की बात कर रहे हैं । और सुख में याद करने की बात कर रहे हैं । वे कह रहे हैं कि सुख में स्मरण करने से दुःख नहीं होता । इसलिए हमेशा स्मरण करना चाहिए । किसका स्मरण ?”

विद्यार्थियों ने एक स्वर में कहा –“भगवान का ।”

“हाँ , ठीक ।” मास्टर साहब बोले –“लेकिन एक बात फरिया लेनी चाहिए कि भगवान क्या है और क्या करता है ?”

कक्षा में फिर शुचि-पत्त सन्नाटा छा गया । मास्टर साहब बोले –“भगवान है नहीं । वह माना जाता है । माना जाता है कि वह सबको बराबरी का दर्जा देता है और सबका काम बनाता है । और ज़रा याद करके बताओ तो वह कैसे काम बनाता है ?”

विद्यार्थियों में से आवाज आई –“साधन के रूप में काम बनाता है ।”

“हाँ , साधन के रूप में ।” मास्टर साहब ने कहा –“इसका मतलब है भगवान साधन का रूप है । साधन के रूप हैं माँ-बाप , भाई-बहन , यार-दोस्त , विद्या , वाणी और ईमानदारी और सबसे बढ़कर है धन । क्योंकि धन की गड़बड़ी से न बराबरी का दर्ज़ा मिलेगा और न कोई काम बनेगा । न माँ प्यार करेगी । न बाप स्नेह देगा ।न भाई-बहन कहना मानेंगे । न यार दोस्त पास फटकेंगे । न विद्या आएगी । न वाणी मधुर रहेगी और ईमानदारी तो उड़कर कपूर की तरह पता नहीं कहाँ गायब हो चुकेगी । जब न पेट भरेगा और न इज्जत मिलेगी तो कौन ईमानदार रहेगा । कहने का मतलब है इन सबके समान रहने के लिए धन का स्मरण बहुत जरूरी है । जिसने धन का स्मरण नहीं किया उससे अभागा इस संसार में दूसरा कोई नहीं है ।”

लड़के टुकुर-टुकुर मास्टर साहब का मुंह देख रहे थे । मास्टर साहब ने आगे अपनी व्याख्या जारी रखी –“अक्सर तुमने देखा होगा कि जहाँ लोगों की भीड़-भाड़ और बस्तियां घनी होती हैं वहां मंदिर-मस्जिद और गिरजे भी गुलो-गुलजार होते हैं लेकिन जहाँ गाँव-गरीब का स्थान होगा वहां चौबारे में भी कोई दिया नहीं जलता । क्या भगवान वहां नहीं है । जरूर होगा  । लेकिन चढ़ावा नहीं है । जब चढ़ावा नहीं है तो पुजारी मुल्ला क्या करेंगे । वे भी तो शहर-बनारस ही भागेंगे न । तो इसका मतलब क्या है ?

“लेकिन सुनो ! कबीर के कहने का असली मतलब तुम समझो – वे कहते हैं जब धन नहीं होता तो सभी स्मरण करते हैं – हे भगवान् । हे भगवान् । लेकिन अब तो धन ख़त्म हो चुका है ।जब घन था तो कभी उसका ध्यान न किये तो अब पुकारते-पुकारते मर जाओ लेकिन धन नहीं आएगा । इसलिए संतों के संत कबीरदास जी तिखारते हैं कि जब तुम्हारे पास धन हो और तुम सुखी होओ तब भी स्मरण करो कि यदि उटपटांग खर्च करोगे तो धन खत्म हो जायेगा । इसलिए हमेशा याद रखो कि धन हमेशा तुम्हारे पास रहे और बराबर उसमें बढ़ोत्तरी हो ताकि जीवन सुखी रहे । किसी के आगे हाथ न फैलाओ क्योंकि इससे बढ़कर बड़ा दुःख कोई नहीं है । बालको ! कबीरदास का तात्पर्य वास्तव में यह है कि फिजूलखर्ची से बचो और अगर इससे बच जाओगे तो कभी दुखी न होओगे ।”

हुर्रे ! लड़के चीत्कार कर उठे और कुछ ने तालियाँ बजाई तो कुछ ने मेजें थपथपाई ।

मास्टर साहब ने उन्हें फिर तिखारा –“कबीर का सच्चा मंतव्य है कि सोचो अगर तुम फिजूलखर्ची करोगे तो क्या होगा और फिजूलखर्ची नहीं करोगे तो क्या नहीं होगा ? इसलिए तुम पैसा न रहने पर आइन्दा बचाने और आ जाने पर फटाफट उड़ाने के पागलपन से बचोगे । आज का होमवर्क तो तुम जान ही गए होगे । अब जाओ ।”

प्रधानाचार्य महोदय ने यह अजीबोगरीब व्याख्या सुनी तो वे आग-बबूला हो उठे और पैर पटकते हुए अपने कमरे में जा पहुंचे ।गुस्से में ही उन्होंने घंटी दबाई और तुरंत चपरासी ताराचंद हाजिर हुआ –“जी साब !”

“जाकर जरा बलिराम मास्साब को बुला लाओ ।”

मास्टर साहब अभी कुर्सी पर बैठने भी न पाए थे कि प्रधानाचार्य ने उनसे जवाबतलब किया –“यह आप कब से कबीरदास की छाती कूट रहे हैं ?”

मास्टर साहब कुछ न बोले ।

लेकिन प्रधानाचार्य उनकी कैफियत चाहते थे इसलिए जोर देकर कहने लगे –“उत्तर प्रदेश शिक्षा विभाग क्या इसका अर्थ यही बताता है ?”

मास्टर साहब ने तल्खी से जवाब दिया –“रहीम , कबीर , रैदास और मीरां अगर उत्तर प्रदेश शिक्षा विभाग की व्याख्या में अंट जाते तो पूरे देश की शिक्षा में उनकी कोई जगह ही न होती । आप ही बताइए कि अब तक होने वाली व्याख्याएं क्या शासन की व्याख्याएं थीं ? क्या उत्तर प्रदेश शासन कहता है ब्रह्मा अपने मुंह से प्रसव करते हैं ? इसका क्या तात्पर्य है कि क्षत्रिय छाती से पैदा हुए हैं ? क्या कबीर राम के बहाने भक्ति की ही बात करते हैं ज़िंदगी की कोई बात नहीं करते ? खैर छोडिये । कल मैं आपको बता सकता हूँ कि मेरी व्याख्या किस प्रकार सही है ।”

छाती से न पैदा होने की बात पर प्रधानाचार्य युगल बिहारी सिंह चिढ गए । ब्रह्मा की छाती से पैदा होने का मिथक ही उनकी सांस्कृतिक ताकत था । उसे एक पिछड़ा अध्यापक चुनौती दे यह कैसे गवारा होगा । इसलिए नहले पर दहला मारते हुए बोले – “कल भी आप यही पिछड़ा राग अलापेंगे ।लेकिन इतनी कैफियत और दीजियेगा कि यही सब पर्चे में लिखकर लड़के इम्तहान पास कर लेंगे ? वे यह सब सीखकर कौन सी नौकरी पा लेंगे ?”

मास्टर साहब ने मर्म पर यह चोट ओज लिया । यह कोई नई बात नहीं थी ।

अमूमन अध्यापक यदा-कदा उन्हें अहसास कराते रहते थे कि वे पिछड़ी जाति के हैं और आजकल पिछड़े बहुत आगे बढ़ रहे हैं । अध्यापक तक हो रहे हैं लेकिन बिहार में तो गुआर कहे जाते हैं।  गुआर माने गँवार । यह लाग-डांट इसलिए थी कि बलिराम मास्टर शायद ही कभी नागा करते हों और कॉलेज आकर वे गलचौर करने की जगह कक्षाएं लेते थे । वे लोकप्रिय थे और अमूमन विद्यार्थी उनका सम्मान करते जबकि हर अध्यापक और यहाँ तक कि प्रधानाचार्य की भी दो चार अट्ठकथाएं विद्यार्थियों में चलायमान थीं । एकमात्र बलिराम मास्टर ऐसे थे जो विद्यार्थियों की श्रद्धा और सहकर्मियों की हिकारत के केंद्र थे । बाकी सबका मामला तो माशाल्लाह उल्टा घूमता था ।

कॉलेज से लौटने के बाद मास्टर साहब थोड़ी सुस्ताते और फिर गोरू-बछरू की देखभाल में लग जाते । भोजन के पहले वे सभी बच्चों से पाठ सुनते । सबसे बड़े प्रेमनाथ एम एस सी कर चुके थे । शोभनाथ बी ए फाइनल में थे । प्राणनाथ उर्फ़ कक्कू बी ए फर्स्ट इयर में थे और बड़ी बेटी आंचल इंटर कर रही थीं । उनसे छोटे नेमिनाथ ग्यारहवीं में थे और फिर काजल , पायल , दीप्ति और चित्रा क्रमशः कक्षा नौ , सात और छः में पढ़ती थीं । उन दिनों गाँव में लड़कियां केवल मास्टर साहब की पढ़ने जाती थीं इसलिए जो लड़कियों के पढ़ने के पक्षधर न थे वे अक्सर उन्हें देखकर फब्ती कसते – हट जा ! माट्टर साहब की पलटन जा रही है ।

लेकिन इन सबसे बेखबर सभी प्राणी अपनी दिनचर्या में लगे रहते । नौ साढ़े नौ बजे तक सबके पाठ सुनने के बाद मास्टर साहब बिस्तर पर चले जाते ताकि अगली भोर तीन बजे उठ सकें ।

लेकिन आज तो न मास्टर साहब को भूख थी और न ही नींद के आने का आसार था । प्रधानाचार्य के सवाल उनके सामने अपना आकार बढ़ाते जा रहे थे । वे जितना उन्हें झटकारते सवाल उतने ही घेरते । उन्हें किसी और बात की चिंता न थी लेकिन जब अपनी व्याख्याओं की उपयोगिता और पाठ्यक्रम की आवश्यकता के बारे में सोचते तो मन डांवाडोल होने लगता । अपने बच्चों के बारे में सोचने लगे कि कोई अध्यापक अगर ऐसी व्याख्या सिखाये तो वे उन्हें कितने नंबर देंगे ! उन्होंने तो कई साल तक ऐसे ही पढाया । सहकर्मियों में व्याप्त जाति भावना को ध्वस्त करने के लिए लड़कों के दिमाग में नई व्याख्याएं बोते रहे हैं । गज़ब तो यह कि लड़के उनकी कक्षा में हमेशा बढ़कर ही आते । उन्हें लगा वे अतिरंजना के जिस छोर तक जा पहुंचे हैं उसके लिए उनका रंगमंच बहुत छोटा है ।

ऐसी ही उहापोह में उन्हें नींद आ गई और वे सुबह देर से उठे । मस्टराइन को चिंता हुई कि बेराम तो नहीं हो गए लेकिन जब जगाया गया तो वे ऐसे उठे कि नींद अभी पूरी ही न हुई हो ।

 

दूसरे दिन मास्टर साहब कॉलेज गए । प्रेयर के बाद प्रधानाचार्य के कमरे में गए तो उनका चेहरा गमगीन पाया । कल की व्याख्या पर बात होनी थी मगर सूरतेहाल कुछ दूसरी थी । वे कुछ देर बैठे रहे । आखिर  प्रधानाचार्य कराहती आवाज में बोले –“आज तो भद्रा ही ख़राब है मास्टर साहब ।”

मास्टर साहब ने उनकी ओर देखा ।

“हाँ ! जिस पत्थर से महल बनाने चले थे वही गिर कर सिर कुचल गया है ।” प्रधानाचार्य ने कहा –“चार साल पहले देवसिया इंडस्ट्री का दो सौ शेयर खरीदे थे । देवसिया इंडस्ट्री दवाइयां बनाती थी ।”

मास्टर साहब ने विस्मय से पूछा –“थी ?!”

“हाँ मास्टर साहब थी । तब बारह रुपये का एक शेयर था । पिछले हफ्ते वह दो सौ आठ तक पहुँच गया था । प्रमोद की अम्मा का विचार था बेच दूं लेकिन मेरा मन था कि देखूं कितना चढ़ता है । जब चार सौ तक जायेगा तो बेचूंगा लेकिन कल ब्रोकर ने बताया कि देवसिया इंडस्ट्री अपने शेयर छब्बीस रुपये पर बेच रही है ।” प्रधानाचार्य घाटे के अंधकार में सहानुभूति का उजाला चाहते थे ।

“आंय !” मास्टर साहब अचानक बोले फिर चुप हो गए । वे एकटक प्रधानाचार्य का चेहरा देखने लगे जो लगभग रुआंसे थे । यह एक अनहोनी बात थी । प्रधानाचार्य बड़े से बड़ा घाटा हंसकर झेल लेने वाले को दाद देते रहे हैं । आज वही प्रधानाचार्य इतने विगलित थे यह असाधारण बात थी । लेकिन कैसे दिलासा दी जाय । अभी वे कुछ सोच ही रहे थे कि  प्रधानाचार्य ने कहा –“मास्टर साहब ! पूरे छत्तीस हज़ार चार सौ का यह घाटा सहन नहीं होता ।”

मास्टर साहब ने हिसाब लगाया – 5200 – 2400 = 2800 । फिर घाटा कहाँ हुआ ? अट्ठाइस सौ तो मिले ही ।  लेकिन उन्होंने बताया नहीं । बोले –“आप तो हमेशा ही बड़ी से बड़ी परेशानी झेल लेते रहे हैं । आज आपका इतना कमजोर होना अचरज पैदा करता है ।”

प्रिंसिपल साहब के चेहरे पर किंचित राहत उतर आई । उन्होंने बड़े भाईचारे के साथ उन्हें देखा । फिर धीरे से बोले –“इतना चढ़कर गिरा तो बहुत कष्ट हुआ । अच्छा होता उतने का उतना ही रहा होता।”

मास्टर साहब ने कहा –“हाथ में जब तक धन आ न जाये तब तक हिसाब लगाकर मन खराब नहीं करना चाहिए । फालतू टेंसन होता है ।”

“लेकिन क्या करें मास्टर साहब यही तो मानव स्वभाव है । जो नहीं है उसी के लिए मारे-मारे फिरता है और जो होता है उसकी कद्र नहीं जानता । और कंगाली में आटा और गीला देखिये कि श्याम बिहारी जी बरसों से रुपया बाँटते थे । सगे भाई हैं इसलिए बिना जमानत तीन साल पहले चार रुपया सैकड़े आठ हज़ार रुपया लिए थे । एक साल तक तो ठीक से ब्याज दिए लेकिन दूसरे साल से सिलसिला टूट गया । सूद तो छोडिये मूल भी पानी में गया ।”

“ऐसा क्या ?” मास्टर साहब विस्मित हो उठे ।

“हाँ ऐसा ही  । पिछले हफ्ते से टांग तुड़ा के बैठे हैं । सब कुछ चौपट हो जायेगा । और कल उनकी दुलहिन हमरे हियाँ मदद के लिए आई थीं । प्रमोद की अम्मा बोलीं कि गाय तो चली ही गई अब चार हाथ पगहा भी दे दूं । कोफ़्त होती है और क्रोध तो इतना आता है कि श्यामबिहारी के खेत जुतवा लूं बाकी समझ में नहीं आता ।”

“अरे ये क्या कहते हैं प्रिंसिपल साहब !”

“ठीक कहता हूँ मास्टर साहब । दिल की बात है ।”

“मेरा मतलब है श्यामबिहारी आपके सगे भाई हैं । सोचिये आप के पास रुपये थे और आपने ब्याज की उम्मीद में बिना बिचारे दे दिया । आप जानते नहीं थे क्या होनेवाला है । लेकिन आठ हज़ार क्या दो हज़ार भी आपने श्यामबिहारी को मदद दी होती तो वे जीवन भर आपके हय में रहते । न सही वे आपकी बात मानते लेकिन आपको कितनी ख़ुशी होती आप नहीं जानते । और अब क्या है । वे टांग तुड़ा कर बैठे हैं और आपका दिल भी नहीं पसीजता । मदद तो दूर उल्टे आप उनका खेत जुतवाना चाहते हैं । सोचिये !”

प्रधानाचार्य को अचानक लगा कि किसी ने उनकी धोती खोल दी हो । वे बलिराम मास्टर से नज़र नहीं मिला सके । मास्टर साहब उनकी मनःस्थिति को समझ रहे थे । उन्हें यह तो मालूम था कि प्रधानाचार्य जुगाड़ी आदमी हैं । लेकिन सूद और शेयर भी उनकी ज़िंदगी का हिस्सा थे यह नहीं जानते थे । लेकिन अब अगर वे कुछ न कहेंगे तो वे बेचारे बहुत संताप झेलेंगे । इसलिए यूँ ही बोले –“क्या श्यामबिहारी जी से इतनी कड़ुआहट है ?”

“जब सब स्वार्थी हो जायेंगे तो कहाँ मिठास बचेगी मास्साब ।”

“प्रिंसिपल साहब ! फिर भी रिश्ते टूट तो नहीं जाते । आप लोग तो सहोदर भाई हैं ।”

प्रधानाचार्य कुछ न बोले । एकटक देखते रहे ।

मास्टर साहब ने यूँ ही कहा –“प्रिंसिपल साहब , सबको अपना मारा खाना खाना है और अपनी मौत मरना है । लेकिन रिश्ता तो हमेशा रहता है । चाहे चूल्हा अलग हो जाय चाहे शरीर न रहे । इतनी बड़ी जिन्दगी में क्या श्यामबिहारी ने कभी नहीं निभाया ?”

प्रधानाचार्य थोड़ी देर इधर-उधर देखते रहे मानो किसी की राह देख रहे हों । फिर मिनमिनाती आवाज में बोले –“हाँ , एक बार तो आगे बढ़ गए थे जरूर बाकी मैंने उनका रखा नहीं । जब प्रमोद कलकत्ता जा रहे थे तब अचानक पांच हज़ार की जरूरत पड़ गई । पास में उस समय था नहीं । अब किससे कहूं । तब श्यामबिहारी ने बिना मांगे ही पांच हज़ार दे दिया था । लेकिन मैंने साल भर के भीतर ही वापस कर दिया ।”

“आजकल  कहाँ हैं प्रमोद ?”

“आजकल ऊ आसनसोल में जूट मिल में सुपरवाइज़र हैं ।”

“उसमें कहीं श्यामबिहारी भी दिखाई दे रहे हैं क्या ?”

“आंय !!” प्रधानाचार्य का मुंह खुला रह गया ।

“चलता हूँ प्रिंसिपल साहब । दूसरा घंटा मेरा ही है ।” कहकर बलिराम मास्टर बाहर निकले तब भी प्रधानाचार्य शून्य में ही घूरते रहे ।

 

छठवें घंटे के बाद जब अधिकांश विद्यार्थी घरों के लिए निकल पड़ते और लघुआंश खेल के मैदान में होते तभी ताराचंद आगे आगे फुटबाल लिए निकला । पीछे-पीछे प्रधानाचार्य चले आते थे । मैदान में छबिनाथ मिश्र उर्फ़ छब्बू जी , मातावतार सिंह , जियावन राम , बलिराम मास्टर साहब , उमराव सिंह , चिंताराम और संतराम द्विवेदी आदि अपनी कुर्सियों पर उठंगे जाड़े की धूप सेंक रहे थे । प्रधानाचार्य ने ताराचंद के हाथ से फ़ुटबाल ले लिया और अध्यापकों की दिशा में सर्विस दी ।

अरे यह क्या ! सभी अध्यापक चकित थे । आज प्रधानाचार्य को यह हो क्या गया है ? फुटबाल लिए चले आये । ताराचंद ने गेंद वापस फेंकी तो उन्होंने बाहें चढाते हुए किक मारी । अध्यापकों को लगा बैठना अपमान है । वे छितरा गए और ऐसे खेलने लगे कि फिर गेंद प्रधानाचार्य के हिस्से में आई ही नहीं ।

प्रधानाचार्य अध्यापकों के साथ साथ दौड़ते रहे । लेकिन कोई भी उन पर ध्यान न दे रहा था । यहाँ तक कि विद्यार्थी भी साथ हो लिए । अब प्रधानाचार्य की गुजर कहाँ । फिर भी वे खूब खुश थे ।

बहुत देर बाद उन्हें बलिराम मास्टर साहब के साथ दौड़ने का मौका मिला । उन्होंने जोर की आवाज में पूछा –“आपके फुफेरे भाई जो हड्डी वाले डॉक्टर हैं मास्साब । उनके यहाँ चलेंगे क्या ? कल ही मैं श्यामबिहारी को दिखा देना चाहता हूँ उन्हें । कौनों गंभीर बात हो गई तो दिक्कत हो जाएगी ।”

एक पल को मास्टर साहब ने प्रधानाचार्य को देखा । बोले –“चलूँगा काहें नहीं ।।।” छब्बू मिसिर की जोरदार किक से छिटककर गेंद बलिराम मास्टर की ओर भनाक से आई और पलक झपकते ही उन्होंने लपाक से मारा ।

और ।। अरे ।। रे ।।वा।। यह मास्टर साहब का तीसरा गोल !!

 

परिचय – कहानीकार

बनारस के एक गांव मे जन्मे राम जी यादव की पहचान एक कहानीकार, कवि, सिनेकर्मी और प्रखर समीक्षक के रूप में है।बिभिन्न विषयों पर सैकड़ो लेख, कहानियां , कवितांए हिन्दी की तमाम महत्वपूर्ण पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही है। कई सम्पादित किताबों के अलावा कहानी संग्रह “अथकथा इतिकथा” एवं एक अन्य किताब “तुम खुदा ही सही पर हमारे किस काम के”  प्रकाशित । फ़िलहाल हिन्दी पत्रिका “गांव के लोग” के संपादक के रूप में कार्यरत।

फोन : +91 94546 84118

 

Check Also

अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक

स्वतंत्र न्यायपालिका के उत्तरदायित्व पर प्रस्ताव पारित। अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की ...