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प्रतिरोध की पुकार सी गूँज वाला नाटक – अक्सीडेंटल डेथ ऑफ़ एन अनार्किस्ट

कुमार विजय

मुंबई। जेफ़ गोल्डबर्ग स्टूडियो की ओर से नाटक ‘अक्सीडेंटल डेथ ऑफ़ एन अनार्किस्ट’ का मंचन मुंबई के खार रोड स्थित जेफ़ गोल्डबर्ग स्टूडियो में किया गया। नाटक का निर्देशन अशोक पाण्डेय ने किया था। व्यन्गात्मक शैली में लिखे इस नाटक में यह बखूबी देखने को मिलता है कि हम जिस समाज में रह रहे हैं उसकी राजनयिक, प्रसाशनिक, और न्यायिक व्यवस्था कितनी खोखली और भ्रष्ट हो चुकी है।

यह नाटक एक मौत की रहस्यमयी परतों को उघाड़ने वाली जाँच पर केन्द्रित है, दरअसल एक पुलिस थाने में एक अभियुक्त की मौत हो चुकी होती है जिसे पुलिस आत्महत्या बताती है और मीडिया इसे एक ह्त्या का मुआमला बताता है । पुलिस अपनी तफ्तीश की सारी रिपोर्ट कई वर्जनों में बना कर अपना कालर साफ़ कर चुकी है  पर  मीडिया की  वजह से इस केस की फ़ाइल दुबारा खुलती है और हाईकोर्ट के एक जज द्वारा इस केस की जाँच शुरू होती है पर यह जज असली जज नही होता वल्कि यह एक पत्रकार होता है जो मामले की असली तह तक जाने के लिए जज का किरदार ओढ़ता है और इस जाँच के माध्यम से व्यवस्था की भ्रष्टता को परत दर परत उघाड़ता जाता है।

डोरियो फ़ो उन नाटककारों मे से रहे हैं जिन्होंने नाटक को मनोरंजन का माध्यम नही बनाया वल्कि इस बिधा को उन्होंने सरकार और सरकारी व्यवस्था के खिलाफ हमेशा हथियार की तरह इस्तेमाल किया। वह लोकतंत्र के बड़े हिमायती और तानाशाही के घोर विरोधी लेखकों में से रहे हैं।  आज के भारत में इस नाटक की प्रासंगिकता कई गुना बढ़ जाती है और इस नाटक का मंचन करना किसी दुस्साहस जैसा दिखता है। अगर देश में चल रहे तमाम प्रसंगों का उध्दरण लिया जाया तो यह नाटक बार-बार जिस इन्कलाब और आजादी की बात दोहराता है वह मौजूदा समय में किसी को  अर्वन नक्सली कहने के लिए काफी हो जाती है ।

चार्ली चैपलिन ने हिटलर पर  ‘द ग्रेट डिक्टेटर ‘  नाम से  फिल्म बनाते समय कहा था की इस तानाशाह पर हंसा जाना चाहिए यह हँसी नही वर्दाश्त कर सकता। सचमुच कोई भी समय हो और दुनिया का कोई भी हिस्सा तानाशाह सब पर हँसना चाहता है अट्टहास की हद तक वह हंसना चाहता है पर वह किसी को भी अपने ऊपर हंसने की छूट नहीं देना चाहता और अगर जनता उसकी  गिरफ्त से बाहर आकर हंसने को सामूहिक स्वर में बदल देती है तब यह हँसी तानाशाही व्यवस्था और तानाशाह के लिय किसी बड़े बम धमाके से भी ज्यादा भयावह हो जाती है।  यह हँसी इस  नाटक का भी हथियार है जो हमें दक्षिणी ध्रुव से  उत्तरी ध्रुव की  बड़ी सहज यात्रा कराती है ।  यह नाटक बड़े सूक्ष्म तरीके से दिखाता है कि हमारी सुरक्षा के नाम पर रचा जा रहा सुरक्षा चक्र वास्तव में अपनी गिरफ्त में रखने का दुश्चक्र है और यह दुश्चक्र इतना जटिल और भयावह है की  यह किसी भी संवेदनशील आम आदमी को पागल बना सकती है पर इससे भी आगे निकलते हुए यह नाटक मुखर तौर पर यह भी स्थापित करता है कि जब यह सम्वेदनशील आम आदमी अपनी ताकत के साथ इस दुश्चक्र के खिलाफ लड़ने का हौसला ला लेता है  तब वह इस पूरी सड़ी और आराजक व्यवस्था को ध्वस्त करने की ताकत भी रखता है । लोकतंत्र के तीन खम्भों का काला चेहरा दिखाने के बाद यह चतुर्थ खम्भे और संवैधानिक तौर पर सबसे ज्यादा जन सापेक्ष समझे जाने वाले मीडिया को भी आईना दिखाता है और उसे चेताता भी  है की अगर वह जन सापेक्षता के वरक्स व्यवस्था की हिमायती बनने की चेष्टा करेगी तो उसका हश्र कितना भयावह हो सकता है ।

अशोक पाण्डेय निर्देशित यह नाटक आम आदमी की पीड़ा को उद्घृत करता है उनकी खामोशी को आवाज देता है । भावपूर्ण कथ्य के साथ वह रंग शिल्प पर भी लगातार नए और ज्यादा रचनात्मक प्रयोग कर रहे हैं। यह नाटक उनकी रचनात्मक उपस्थिति को और मुकम्मल बनाता है । नाटक में एस पी की भूमिका में संजय एम गोजबोक्स्मी  का अभिनय बेहद सहज और शानदार दिखता है। ऐसे नाटकों में अक्सर अभिनेता लाउड और आक्रामक हो जाते हैं पर एस पी के किरदार को वह इतने सलीके से जीते हैं कि  वह अपने साथ अपने दर्शकों को भी सहज ही नाटक में प्रवेश करा ले जाते हैं। मंच पर इतना सहज अभिनय कम देखने को मिलता है । यशराज सिंह अपनी अभिनेयता से नाटक की गति और ऊर्जा को बनाए रखते हैं, अक्षत मिश्रा भारतीय रंगशैली के सबसे चर्चित चरित्र  ‘जोकर’  को अपने पुलिस की वर्दी में इस तरह शामिल करते हैं कि उनके माध्यम से पूरी  व्यवस्था हास्यास्पद सी दिखने लगती है ।  नितेश शर्मा, अनिल मिश्रा और श्रुति अग्रवाल भी अपने किरदारों से न्याय करने में सफल रहे हैं। अनिल मिश्रा की गायकी भी प्रभावी रही है मेरा रंग दे वसन्ती चोला गाते हुए वह नाटक की अर्थवत्ता का विस्तार करते नजर आते हैं । संगीत, प्रकाश के साथ मंच परिकलपना प्रस्तुति के अनुरूप रही ।

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