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‘मेरा जीवन’: के.एम. अग्रवाल: 38: सत्य नारायण जायसवाल

के.एम. अग्रवाल

सालों से मन में यह बात आती थी कि कभी आत्मकथा लिखूँ। फिर सोचा कि आत्मकथा तो बड़े-बड़े लेखक, साहित्यकार, राजनेता, फिल्मकार, अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी, वैज्ञानिक, बड़े-बड़े युद्ध जीतने वाले सेनापति आदि लिखते हैं और वह अपने आप में अच्छी-खासी मोटी किताब होती है। मैं तो एक साधारण, लेकिन समाज और देश के प्रति एक सजग नागरिक हूँ। मैंने ऐसा कुछ देश को नहीं दिया, जिसे लोग याद करें। पत्रकारिता का भी मेरा जीवन महज 24 वर्षों का रहा। हाँ, इस 24 वर्ष में जीवन के कुछ अनुभव तथा मान-सम्मान के साथ जीने तथा सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस विकसित हुआ। लेकिन कभी लिखना शुरू नहीं हो सका।

एक बार पत्रकारिता के जीवन के इलाहाबाद के अनुज साथी स्नेह मधुर से बात हो रही थी। बात-बात में जीवन में उतार-चढ़ाव की बहुत सी बातें हो गयीं। मधुर जी कहने लगे कि पुस्तक के रूप में नहीं, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में पत्रकारिता के अनुभव को जैसा बता रहे हैं, लिख डालिये। उसका भी महत्व होगा। बात कुछ ठीक लगी और फिर आज लिखने बैठ ही गया।

गतांक से आगे…

सफर के साथी: 7

लगभग 12 वर्ष तक इलाहाबाद में प्रवास के दौरान पत्रकारिता से जुड़े अनेक ऐसे चेहरे हैं, जिनसे मुलाकात हो या न हो, वे प्रायः याद आते हैं। उनके बारे में भी लिखना अच्छा लगता है कि कौन कहाँ से आया और उसकी यात्रा कहाँ तक पहुँची ? इनमें कई ऐसे लोग भी हैं, जिनके बारे पर्याप्त जानकारी के अभाव में नहीं लिख पा रहा हूँ।

सत्यनारायण जायसवाल

मुझे सचमुच इस बात पर गर्व है कि मैंने अमृत प्रभात में ऐसे संपादक के नेतृत्व में काम किया, जिसने खुद की पत्रकारिता की शुरुआत 1944 में महान स्वतंत्रता सेनानी एवं पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा शुरू किये गये अखबार ‘ प्रताप ‘ से की थी। वैसे तो 1931 में कानपुर में हुए दंगे में, दंगाइयों को शांत कराने के उद्देश्य से सड़क पर उतर गये गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या कर दी गयी थी, लेकिन देश की आजादी के लिए उनके द्वारा शुरू किये गये अखबार ‘प्रताप’ को बालकृष्ण शर्मा नवीन आगे भी निकालते रहे।
सत्यनारायण जायसवाल के सीने में, किसी भी प्रकार के गलत, समाज और देश विरोधी कार्य अथवा उत्पीड़न के विरोध में एक आग थी, जो हमेशा जीवन पर्यन्त जलती रही। उन्हें टूट जाना पसंद था, लेकिन झुकना नहीं। उनके विचार काफी सोचे-समझे होते थे और उसपर वह अडिग रहते थे। वह अपने नाम के अनुरूप ही सत्य के पुजारी थे और अपने बाद की पत्रकार पीढ़ी को हमेशा दृढ़ता से लिखने की प्रेरणा और मौका देते रहते थे। कभी-कभी उनके स्वभाव में अक्खड़पन भी आ जाात था, जो परिस्थितियों की देन होती थी।

वैसे तो जायसवाल जी का जन्म 11 जनवरी, 1922 को उन्नाव के बरवटपुर गाँव में हुआ था, लेकिन प्रारंभिक शिक्षा के बाद ही वह कानपुर आ गये थे और फिर आगे की शिक्षा कानपुर में ही हुई। उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से सम्बद्ध डी.ए.वी. कालेज से राजनीति शास्त्र में एम.ए. किया।

जब जायसवाल जी एम.ए. कर रहे थे, उसी समय कानपुर में ही अटल बिहारी बाजपेयी ने अपने पिता के साथ एल.एल.बी. में प्रवेश लिया था जिसकी उस समय खूब चर्चा होती थी।

एम.ए. करने के दौरान ही जायसवाल जी का झुकाव पत्रकारिता और उस समय देश की गुलामी से मुक्त होने के लिए चल रहे अहिंसक और हिंसक संघर्ष की ओर हो गया था। 1944 में ही उन्होंने ‘प्रताप’ में उप संपादक के रूप में अपनी पत्रकारिता की शुरुआत की। दो साल बाद ही 1946 में वह आचार्य नरेन्द्र देव द्वारा लखनऊ से निकाले जा रहे अखबार ‘अधिकार‘ में आ गये। लेकिन यहाँ भी वह लगभग एक साल ही रहे क्योंकि तब तक अखबार बंद हो चुका था। जायसवाल जी पुनः कानपुर लौट गये और लगभग एक साल तक दैनिक ‘विश्वामित्र‘ में काम करते रहे।
1948-49 में इलाहाबाद के पत्रिका प्रेस से हिन्दी अखबार ‘अमृत पत्रिका‘ निकलना शुरू हुआ। इसी बीच जायसवाल जी का सम्पर्क तुषार कांति घोष से हुआ और फिर वह अमृत पत्रिका के कानपुर कार्यालय में विशेष संवाददाता बन गये। जायसवाल जी यहाँ लम्बे समय तक रहे, लेकिन जब 1959 में यूनियनबाजी के कारण अमृत पत्रिका का प्रकाशन बंद हो गया, तो जायसवाल जी कानपुर में ही ‘रामराज्य‘ साप्ताहिक में सेवा देने लगे। लगभग यह एक साल उनके समक्ष आर्थिक तंगी के रूप में आया। वह परेशान रहने लगे।

इस बीच लखनऊ से जयपुरिया ग्रुप का ‘स्वतंत्र भारत‘ अखबार शुरू हो चुका था। इस अखबार में मुख्य उप संपादक के रूप में काम कर रहे योगेंद्र पति त्रिपाठी 1957-58 में इसके संपादक बन गये।
अब जायसवाल जी की नयी यात्रा शुरू होनी थी, जो थी तो काँटों भरी, लेकिन एक नयी राह बनाती थी। 1960 में जायसवाल जी स्वतंत्र भारत में मुख्य उप संपादक होकर लखनऊ आ गये। कुछ समय बाद ही उन्हें ऐशबाग के न्यू लेबर कालोनी में एक मकान मिल गया, जहाँ परिवार के साथ रहने लगे।

स्वतंत्र भारत में काम करते हुए संपादक योगेंद्र पति त्रिपाठी ने इनकी प्रतिभा को पहचाना और फिर एक समय ऐसा जब त्रिपाठी जी ने जायसवाल जी से संपादकीय लिखने के लिए कहा। सामान्य रूप से संपादकीय लिखने का कार्य संपादक अथवा सहायक संपादक अथवा दोनों करते हैं। उन दिनों अपने समय के चर्चित पत्रकार अखिलेश मिश्रा स्वतंत्र भारत के समाचार संपादक हुआ करते थे।

स्वतंत्र भारत में संपादकीय लिखना शुरू करते ही इस अखबार की एक खास छवि उभरनी शुरू हो गयी। इनके संपादकीय में दम और निडरता होती थी तथा विषय में विश्वसनीयता होती थी। इनकी अपनी एक दृष्टि होती थी, जिस कारण संपादकीय की चर्चा होती थी। कुछ समय बाद तक जायसवाल जी को कागज पर लिखित रूप से सहायक संपादक पद तो नहीं मिला था, लेकिन उन्हें सहायक संपादक का वेतन मिलने लगा था।

बताया जाता है कि इसी बीच संभवतः 1972 में संपादक योगेन्द्र पति त्रिपाठी की अचानक मृत्यु हो गयी। और तब केन्द्र की पी.आई.बी. सेवा से वी आर एस लेकर लौटे अशोक जी पुनः स्वतंत्र भारत के संपादक हो गये। यह समय अब जायसवाल जी के लिए कठिन था, क्योंकि बताया जाता है कि अशोक जी ‘एस मैन’ चाहते थे और ऐसा बन पाना जायसवाल जी के स्वभाव में नहीं था।
कुछ समय बाद ही संपादक अशोक जी ने पायनियर अखबार से दीक्षित जी को बुलाकर स्वतंत्र भारत में भी सहायक संपादक बना दिया और जायसवाल जी को वापस डेस्क पर मुख्य उप संपादक के पुराने पद पर भेज दिया। यह कारवाई जायसवाल जी के लिए अपमानजनक थी। यह बात स्वतंत्र भारत और पायनियर के लगभग सभी स्टाफ को नागवार गुजरी। लोगों ने महसूस किया कि जायसवाल जी के साथ अन्याय हुआ है।

उन्हीं दिनों पायनियर के कृष्णा शंकर जी प्रेस कर्मचारी यूनियन के नेता थे और के.बी.माथुर इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट की नगर इकाई के अध्यक्ष थे। माथुर साहब ने अशोक जी से इस संदर्भ में बात भी की, लेकिन अशोक जी नहीं माने। कृष्णा शंकर जी ने जायसवाल जी को सुझाव दिया कि वह अशोक जी के इस आदेश का लिखित विरोध करते हुए डेस्क पर काम तो शुरू कर दें। बाद में उनके सुझाव पर जायसवाल जी लेबर कोर्ट में अपना केस ले गये। इस बीच प्रबंधतंत्र ने बहुत कोशिश की कि लेबर कोर्ट उनके पक्ष में निर्णय दे, लेकिन जायसवाल जी ने वेतन से संबंधित रजिस्टर के उस पृष्ठ को कोर्ट में पेश कर दिया, जिसमें उन्हें सहायक संपादक का वेतन दिया जाना सिद्ध होता था। इस पृष्ठ को प्रबंधतंत्र ने रजिस्टर से फाड़कर फेंक दिया था, जो इत्तेफाक से जायसवाल जी के हाथ लग गया। लेबर कोर्ट के जायसवाल जी के पक्ष में निर्णय आने के बाद जायसवाल जी फिर से घोषित रूप से सहायक संपादक बन गये और काम करने लगे।

नयी यात्रा की शुरुआत

जायसवाल जी पर सहायक संपादक पद को लेकर संकट आने के दौरान से के.बी.माथुर उनके और निकट आ गये। माथुर साहब जानते थे कि जायसवाल जी एक स्वाभिमानी और अपने कार्य में दक्ष पत्रकार हैं। उनकी दृष्टि बहुत साफ है और समाज तथा देशहित की बात हो या राजनीति की बात हो, वह सदैव सत्य और नैतिकता को पूरी ताकत और ईमानदारी से लिखते थे। यही कारण था कि जब 1977 में इलाहाबाद से अमृत प्रभात निकलने की बात हुई और पत्रिका प्रबंधतंत्र ने समाचार संपादक पद के लिए माथुर साहब का चुनाव कर लिया तो अमृत प्रभात के संपादक पद के लिए उन्हें जायसवाल जी ही सर्वथा उपयुक्त लगे और वे जायसवाल जी को इलाहाबाद ले गये।

कहा जाता है कि शुरू में पत्रिका प्रबंधतंत्र चाहता था कि उनकी व्यवस्था के अनुरूप माथुर साहब अखबार निकालें और संपादक के पद पर किसी को न लाया जाय। प्रबंधतंत्र को लगता था कि एन.आई.पी. में एस.के.बोस संपादक के रूप में हैं ही, इसलिए अमृत प्रभात के लिए अलग से संपादक की क्या जरूरत ? लेकिन माथुर साहब प्रबंधतंत्र को यह समझने में सफल रहे कि हिन्दी अखबार ‘अमृत प्रभात’ की अपनी अलग पहचान होगी तथा वह अंग्रेजी अखबार पर किसी प्रकार निर्भर नहीं होगा। इसीलिये इसका अपना संपादक आवश्यक है। प्रबंधतंत्र माथुर साहब के विचार से सहमत हुआ और जायसवाल जी अमृत प्रभात के संपादक बन गये।
शुरू-शुरू में संस्थान के प्रबंध निदेशक तुहिन कांति घोष को कुर्ता-पैजामा जैसे साधारण वेष-भूषा वाले जायसवाल जी कुछ प्रभावित करने जैसे नहीं लगते थे। वह चाहते थे कि कोट-पैंट वाला कोई स्मार्ट-सा व्यक्ति संपादक होता।

20 दिसंबर, 1977 से अमृत प्रभात का प्रकाशन शुरू हो गया और देखते-देखते छह महीने के भीतर ही अमृत प्रभात अपने संपादकीय तेवर और समाचार के बल पर घर-घर का अखबार बन गया। वह समय भी ऐसा था, जब प्रशासनिक अधिकारियों और नेताओं की चमड़ी भी बहुत मोटी नहीं होती थी। अखबार में ईमानदारी और पूर्वाग्रहमुक्त होकर छपे समाचारों का इन पर असर होता था। वे पत्रकारों और अखबारों को सम्मान देते थे। 

इलाहाबाद संस्करण के सफल होने पर प्रबंधकों ने करीब दो वर्ष बाद वर्ष 1979 के आखिर में लखनऊ से भी अमृत प्रभात का प्रकाशन NIP के साथ शुरू किया। उस समय बनारसी दास मुख्यमंत्री थे । कुछ महीने बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह मुख्यमंत्री बने। उस समय अखबार के तीखे तेवर के कारण सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की सरकार नाराज रही। करीब दो वर्ष तक अखबार के सरकारी विज्ञापन रोक रखे। जबकि खास बात यह थी कि अखबार के मालिक तुषार कांति घोष के पुत्र तरुण कांति घोष उस समय पश्चिम बंगाल में कांग्रेसी नेता थे लेकिन यूपी में उन्होंने संपादकीय विभाग को पूरी निष्पक्षता दे रखी थी।

संपादक जायसवाल जी की सबसे बड़ी खासियत थी कि समाचार संपादक माथुर साहब के किसी प्रशासनिक निर्णय में वह कभी हस्तक्षेप नहीं करते थे। इसी प्रकार माथुर साहब भी उन्हें पूरा सम्मान देते हुए समय-समय पर उनसे विचार-विमर्श कर लेते थे।

जायसवाल जी, उस पीढ़ी के संपादकों में थे, जो हमेशा अपने संपादकीय विभाग के डेस्क पर काम करने वाले, उप, वरिष्ठ या मुख्य उप संपादकों को समय-समय पर मार्गदर्शन करते रहते थे। उनकी कमियों को बताते थे और अच्छाइयों पर पीठ थपथपाते थे। उन्होंने दो-तीन मुख्य उप संपादकों को संपादकीय लिखने के लिए कई बार प्रेरित किया और उनके लिखे संपादकीय को प्रकाशित भी करते थे। इससे उन लोगों में अपने प्रति एक विश्वास पैदा होता था।

कुछ अपनी बात

मैं यदि अपनी बात कहूँ तो पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि मुझे स्वतंत्र रूप से निडर होकर लिखने की छूट थी। कई बार ऐसी स्थितियाँ पैदा हुईं, जब मेरी रिपोर्ट पर कोई बड़ा अधिकारी, कोई बड़ा कारखाने वाला या नेता तिलमिला जाते थे और मेरे विरुद्ध संपादक/समाचार संपादक से शिकायत करते थे, लेकिन मुझे सदैव उनका संरक्षण मिलता रहा। ऐसा होने का एकमात्र कारण था, मेरा ईमानदारी से लिखना। मैंने कभी किसी को डराकर किसी भी प्रकार का दोहन नहीं किया तथा सदैव पूर्वाग्रहमुक्त होकर जनहित और समाजहित के सिद्धांत को सामने रखा।

एक बार महापालिका के तत्कालीन प्रशासक एच.एन.अग्रवाल ने साक्षात्कार के दौरान कुछ उल्टी-सीधी बातें कहीं। मैंने उनकी बातों पर ही रिपोर्ट बना दी। वह मुझसे काफी नाराज रहने लगे क्योंकि उनकी इस रिपोर्ट पर उन्हें लखनऊ से मुख्य सचिव की टेलीफोन से डांट पड़ चुकी थी। मैं भी कुछ जिद्दी आदमी रहा। फिर तो मैं महापालिका के कार्यों, गतिविधियों से संबंधित खामियों को खोज-खोज कर लिखने लगा। नतीजा रहा, प्रशासक अग्रवाल बौखला गये और मेरे रिपोर्टों की फाइल लेकर संपादक जायसवाल जी से मिलकर मुझे अखबार से निकाल देने तक की बात कह दी। जायसवाल जी ने बहुत ही नम्रता से कह दिया कि अग्रवाल की कोई भी रिपोर्ट प्रिजुडिस होकर नहीं लिखी गयी है। और प्रशासक अग्रवाल तनतनाते हुए उनके कमरे से निकलकर चले गये।

इसी प्रकार फूलपुर के एक कारखाने की कमियों के संदर्भ में हमारे संवाददाता की एक रिपोर्ट छपी थी, जिसपर कारखाने के मालिक ने संपादक जायसवाल जी से आकर शिकायत की। जायसवाल जी ने मुझसे कहा कि मैं स्वयं जाकर इसकी सच्चाई को देखूँ और रिपोर्ट करूँ। मेरी जो रिपोर्ट छपी, उससे कारखाना मालिक और भी आहत हुआ क्योंकि मैंनें कारखाने की और भी गड़बड़ियों तथा श्रमिकों की परेशानियों और उत्पीड़न को सामने ला दिया था। कारखाना मालिक ने जायसवाल जी से मिलकर शिकायत की, ‘ अग्रवाल ने वहाँ जाकर विरोधियों से मुर्गे की दावत खायी है।’ जायसवाल जी ने कहा, ‘ अग्रवाल तो अंडा भी नहीं खाता।’ कारखाना मालिक निराश लौट गये।

एक बार एक स्थानीय विधायक सतीश जायसवाल, जो दूसरे के नाम पर महापालिका और विकास प्राधिकरण में ठेकेदारी करते थे, मेरी एक रिपोर्ट पर उनका स्वीकृत काफी बड़ा टेंडर निरस्त हो गया। विधायक एक दिन मुझसे मिले भी, लेकिन इस रिपोर्ट पर चर्चा करने का नैतिक साहस नहीं कर सके।

एन.आई.पी. के चीफ रिपोर्टर एस.के.दुबे और कुछ दूसरे संपादकीय सहकर्मी बार-बार मेरे विरुद्ध षड्यंत्र करते रहे लेकिन संपादक और समाचार संपादक इसके पीछे की सच्चाई को बखूबी समझते रहे, इसलिए मेरा कभी कोई नुकसान नहीं हुआ।

संपादक जायसवाल जी स्वाभिमानी व्यक्ति थे और आत्मसम्मान की रक्षा करने तथा किसी के अनाधिकृत हस्तक्षेप को तत्काल निरस्त करने में जरा भी हिचकते नहीं थे। एकबार अनुशासनहीनता के चलते उन्होंने एक मुख्य उप संपादक को तीन दिन के लिए निलंबित कर दिया। वह महोदय, अखबार मालिक के युवा पौत्र तमाल कांति घोष, जो उस समय अखबार में किसी प्रशासनिक पद पर भी नहीं थे, से मिले और अपना रोना रोये। उन्होंने कुछ उल्टी-सीधी बातें भी उनसे कही। तमाल बाबू तुरंत जायसवाल जी के पास आये और खड़े-खड़े ही बोले, ‘जायसवाल जी, इनका निलंबन वापस ले लें।’
जायसवाल जी को इस प्रकार हस्तक्षेप अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कहा, ‘ तुम कौन हो मुझे इस प्रकार आदेश देने वाले ? मुझे सिर्फ तुषार कांति घोष और प्रबंध निदेशक ही आदेश दे सकते हैं।’ इतना कहना था कि तमाल बाबू उल्टे पाँव उनके कमरे से बाहर चले गये। बताया जाता है कि इसके बाद से तमाल बाबू जायसवाल जी से बहुत नाराज रहने लगे

इसी प्रकार जायसवाल जी का रिटायरमेंट जब नजदीक आया तो उसके एक महीने पहले महाप्रबंधक से उनसे कहलवाया गया कि यदि आप अपनी सेवा और बढ़वाना चाहते हैं तो एक पत्र लिख दें। लेकिन जायसवाल जी ने कहा कि वह कुछ लिखकर निवेदन नहीं करेंगे। यदि प्रबंधतंत्र को लगता है कि उनकी सेवा की और आवश्यकता है तो वह स्वयं ही उनकी सेवा को विस्तार दे दे। वह साल-दो साल अखबार की और सेवा कर देंगे। लेकिन जब जायसवाल जी ने स्वयं लिखकर नहीं दिया तो उन्हें सेवा विस्तार नहीं मिला। और जायसवाल जी पूरे मान-सम्मान के साथ अखबार से विदा हो लिए थे। वह नौकरी को मान-सम्मान से बढ़ कर नहीं मानते थे।

जायसवाल जी के लिखे संपादकीय की आये दिन बुद्धिजीवियों और आमजन में चर्चा होती रहती थी। ‘खतरे की घंटी‘ शीर्षक से उनके संपादकीय पर उनकी प्रशंसा में ढेरों पत्र आये थे। हुआ यह था कि शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद जब राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को संविधान संशोधन करके पलट दिया तो पूरे देश में इसपर व्यापक प्रतिक्रिया हुई थी। तभी जायसवाल जी ने राजीव गांधी के इस कदम को खतरे की घंटी बताया था।

इसी प्रकार एकबार मुझे पत्रिका के रिपोर्टर के साथ जमुनापार जाकर लोकसभा चुनाव पर एक रिपोर्ट तैयार करनी थी। जिस जीप से हमें जाना था, वह बहुत खटारा थी और मैंने उस जीप से जाने से मना कर दिया था। मेरे पर पत्रिका का अपमान करने का आरोप लगाते हुए एक फाइल ही खोल दी गयी। दूसरे दिन पत्रिका के संपादक एस.के.बोस के साथ संपादक जायसवाल जी की बैठक हुई। जायसवाल जी ने कहा कि जमुनापार जाने का मुख्य उद्देश्य चुनाव पर रिपोर्ट तैयार करना था। अग्रवाल ने हमें रिपोर्ट दे दी, जो आज अमृत प्रभात में छप भी गया और आपका डीजल भी बच गया अब और क्या चाहिए ? और फाइल बंद हो गयी। ऐसी ही तमाम घटनाएं हैं, जो जायसवाल जी के व्यक्तित्व और सोच को व्यक्त करती हैं।वह हमेशा स्टाफ और अखबार के हित में सोचते थे और तदनुसार कार्य करते थे।

जायसवाल जी ने कभी भी अपने अखबार अमृत प्रभात को अपने प्रचार का साधन नहीं बनाया। कई बार किसी संस्था आदि के लोग आते और अपने कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बनकर चलने का अनुरोध करते। जायसवाल जी साफ कह देते कि अगर वह चलेंगे तो ऐसा कोई फोटो नहीं छपेगा, जिसमें वह स्वयं दिखाई दे रहे होंगे। हाँ, रिपोर्ट जरूर छप जायेगी। और संस्था के लोग कह देते, कोई बात नहीं, आप चलिए जरूर।

अमृत प्रभात में संपादक बनने के साल-दो साल बाद ही जायसवाल जी ने सेकेंड हैण्ड एक कार खरीदी, जिसे वह स्वयं ही चलाते थे। कभी-कभी ही किसी ड्राइवर को बुला लेते थे। कार चलाते-चलाते जायसवाल जी कभी-कभी दोनों हाथ ऊपर करके दोनों बाहों को नीचे सरकाते थे। इसमें दो-ढाई सेकेंड तो लग ही जाते थे। इस बीच यदि उनकी गाड़ी में बैठा होता था, तो वह घबरा ही जाता था। लेकिन जायसवाल जी अपनी मस्ती से ही कार चलाते थे।

1986 में जायसवाल जी ने अमृत प्रभात के संपादक पद से अवकाश ग्रहण कर लिया। प्रेस से उनकी बिदाई भी बहुत साधारण ढंग से हुई। इसका कारण यह भी था कि किसी को एक दिन पहले तक पता नहीं चलने पाया कि कल जायसवाल जी अवकाश ग्रहण कर रहे हैं। जब वह अपना काम समाप्त कर दोपहर बाद अपने कमरे से जाने लगे तो प्रबंधतंत्र के कुछ अधिकारी उन्हें मुख्य भवन के बाहर नीम के पेड़ तक छोड़ने आये। उनमें प्रबंध निदेशक तुहिन कांति घोष, पत्रिका संपादक एस.के.बोस और के.बी.माथुर साहब भी शामिल थे। तमाल बाबू उस दिन मौजूद रहते हुए भी मौके से हट गये थे। तभी संपादकीय विभाग के उस समय मौजूद लोगों और प्रेस कर्मचारियों को पता चला तो सभी भागते हुए वहाँ आ गये। सभी की आँखें नम थीं। और जायसवाल जी ने एकबार मुड़कर सभी लोगों को एक नजर देखा और अपनी गाड़ी में बैठकर खुद ड्राइव करते हुए चले गये। …लगा, कोई मसीहा प्रेस से चला गया।

(वर्ष में  1997 में  अपने 75वें जन्म दिवस पर जायसवाल जी अपने पुत्र रवीन्द्र के साथ जो उस समय लखनऊ में दैनिक ‘ हिन्दुस्तान ‘ के ब्यूरो प्रमुख थे )

जायसवाल जी की इस प्रकार चुपचाप विदाई दोनों अखबारों के संपादकीय और प्रेस कर्मियों को अच्छा नहीं लगा। इसलिए तीन-चार दिन बाद प्रेस के फोरमैन रामदास मौर्य तथा कुछ और लोगों ने मिलकर जायसवाल जी को प्रेस में बुलाया और गेस्टहाउस के हाल में भावनात्मक रूप से नम आँखों से उन्हें माले पहनाये। जायसवाल जी ने सभी के अच्छे व्यवहार और सहयोग के प्रति आभार व्यक्त किया।

और फिर एक दिन पता चला कि आठ साल बाद ही 2003 में यह मसीहा दुनिया से भी चला गया।

क्रमशः

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