“जुलूस में कुछ बच्चे हाथी पर चढ़ गये। शेष बच्चे ‘भारत माता की जय’, गणतंत्र दिवस अमर रहे’ आदि नारे लगाते हुए हँसते-मुस्कुराते जुलूस में चल रहे थे। हमलोग चौक घंटाघर से नखासकोना की ओर बढ़ना चाहे तो पुलिस अधीक्षक ने अनुरोध करके रोक दिया। बोले, ‘उधर मत जाइये, अभी तनाव है।’ और बच्चों का गणतंत्र दिवस का जुलूस चौक घंटाघर से जानसेनगंज चौराहे तक चक्कर लगाता रहा। वह भी एक यादगार क्षण था।“
के. एम. अग्रवाल
सालों से मन में यह बात आती थी कि कभी आत्मकथा लिखूँ। फिर सोचा कि आत्मकथा तो बड़े-बड़े लेखक, साहित्यकार, राजनेता, फिल्मकार, अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी, वैज्ञानिक, बड़े-बड़े युद्ध जीतने वाले सेनापति आदि लिखते हैं और वह अपने आप में अच्छी-खासी मोटी किताब होती है। मैं तो एक साधारण, लेकिन समाज और देश के प्रति एक सजग नागरिक हूँ। मैंने ऐसा कुछ देश को नहीं दिया, जिसे लोग याद करें। पत्रकारिता का भी मेरा जीवन महज 24 वर्षों का रहा। हाँ, इस 24 वर्ष में जीवन के कुछ अनुभव तथा मान-सम्मान के साथ जीने तथा सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस विकसित हुआ। लेकिन कभी लिखना शुरू नहीं हो सका।
एक बार पत्रकारिता के जीवन के इलाहाबाद के अनुज साथी स्नेह मधुर से बात हो रही थी। बात-बात में जीवन में उतार-चढ़ाव की बहुत सी बातें हो गयीं। मधुर जी कहने लगे कि पुस्तक के रूप में नहीं, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में पत्रकारिता के अनुभव को जैसा बता रहे हैं, लिख डालिये। उसका भी महत्व होगा। बात कुछ ठीक लगी और फिर आज लिखने बैठ ही गया।
गतांक से आगे…
‘दंगा और झंडारोहण’
1986 के जनवरी माह में इलाहाबाद के नखासकोना की पत्थर गली में नल से पानी लेने के प्रश्न पर दो व्यक्तियों के बीच झगड़ा हो गया। इत्तेफाक से, इनमें से एक हिन्दू और दूसरा मुसलमान था। देखते-देखते दोनों ओर से और कई लोग झगड़े में सम्मिलित हो गये। इस साधारण से झगड़े ने दंगे का रूप धारण कर लिया। दोनों ओर से लाठी-डंडा चलने के साथ छूरेबाजी और छतों से पथराव होने लगा। फलस्वरूप, प्रशासन को दो-तीन थाना क्षेत्रों में कर्फ्यू लगाना पड़ा। उन दिनों विभूति नारायण राय पुलिस अधीक्षक (नगर) हुआ करते थे, जो बाद में दंगा नियंत्रित करने के माहिर माने जाने लगे। गनीमत यह थी कि इस दंगे में किसी की मौत नहीं हुई।
इस दंगे का एक अजीब सा दृश्य मुझे याद आ रहा है। चारों ओर तनाव था और कर्फ्यू लगा हुआ था। इसी बीच सुबह नखासकोना क्षेत्र में एक मौलाना सड़क से गुजरने लगे तो एक सिपाही (हिन्दू) ने आगे बढ़कर उसे एक डंडा लगा दिया। इस सिपाही के साथ एक मुस्लिम सिपाही भी ड्यूटी पर था, जिसे शायद यह बुरा लगा। इत्तेफाक देखिये, थोड़ी देर बाद ही एक तिलकधारी व्यक्ति सड़क पर निकल आया तो इस मुस्लिम सिपाही ने लपककर उसे एक डंडा लगा दिया।
दंगा शांत हो चुका था, लेकिन तनाव अब भी बना हुआ था। इसी बीच गणतंत्र दिवस, 26 जनवरी आने वाला था। मेरे मन में आया कि चौक घंटाघर, जहाँ वर्षों से राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराया जा सका है, क्यों न उस पर झंडा फहराया जाय और आपस में भाई-चारा कायम करने के उद्देश्य से बच्चों का एक जुलूस निकाला जाय।
बहरहाल, प्रशासन से चौक घंटाघर पर झंडारोहण और बच्चों का जुलूस निकालने की अनुमति मिल गयी। चौक क्षेत्र के छोटे बच्चों के दो स्कूलों से संपर्क किया तो उनके लगभग डेढ़ सौ बच्चे आ गये। एक किसी परिचित ने जुलूस में एक हाथी की भी व्यवस्था करवा दी।
घंटाघर के नीचे के हिस्से में लकड़ी का एक छोटा सा दरवाजा था, जिसका ताला वर्षों से नहीं खुला था। पास के ही एक ताला बनाने वाले से कहकर ताले को खुलवाया गया और अंदर बनी सीढ़ियों से एक व्यक्ति को ऊपर चढ़ाकर सबसे ऊपर राष्ट्रीय ध्वज लगवाया गया।
जुलूस में कुछ बच्चे हाथी पर चढ़ गये। शेष बच्चे ‘भारत माता की जय’, गणतंत्र दिवस अमर रहे’ आदि नारे लगाते हुए हँसते-मुस्कुराते जुलूस में चल रहे थे। हमलोग चौक घंटाघर से नखासकोना की ओर बढ़ना चाहे तो पुलिस अधीक्षक ने अनुरोध करके रोक दिया। बोले, ‘उधर मत जाइये, अभी तनाव है।’
और बच्चों का गणतंत्र दिवस का जुलूस चौक घंटाघर से जानसेनगंज चौराहे तक चक्कर लगाता रहा।
वह भी एक यादगार क्षण था।
डा. तेहलियानी
इलाहाबाद मेडिकल कालेज में एक सर्जन डा. तेहलियानी थे, जिनके बारे में कहा जाता था कि उनकी अँगुलियों में जादू है। वह बहुत अच्छे, सफल सर्जन थे। एक बार कोई केस, जिसमें उन्होंने अपने घर पर ही आपरेशन किया था और केस बिगड़ गया था। ऐसा उनके एक प्रतिद्वंदी डॉक्टर ने बताया था, पूरे विश्वास के साथ। इसकी चर्चा भी होने लगी थी, तो मैंने एक समाचार बना दिया कि डॉ. तेहलियानी नियम विरुद्ध घर पर प्रैक्टिस करते हैं और आपरेशन भी करते हैं।
डॉ. तेहलियानी इस मामले को प्रेस कौंसिल में ले गये। अपनी बात रखने के लिए हमारे संपादक सत्यनारायण जायसवाल जी एक बार तो दिल्ली गये लेकिन फिर दोबारा तारीख पड़ने पर व्यस्तता के कारण दिल्ली नहीं जा सके, जिस कारण ‘निर्णय‘ डा. तेहलियानी के पक्ष में हो गया। और तब अमृत प्रभात को खेद व्यक्त करना पड़ा था।
इस घटना के बाद कुछ साल तक डा. तेहलियानी से बातचीत नहीं होती थी। एकबार गर्मी के दिनों में प्रयाग संगीत समिति के खुले रंगमंच पर रूस के बैले डांस की टीम आयी हुई थी और कार्यक्रम चल रहा था। एकाएक मैं और डा. तेहलियानी आमने-सामने आ गये। डॉ. तेहलियानी लपक कर बोले, ‘आओ अग्रवाल ‘ और मुझे गले से लगा लिया। सारी शिकायतें दूर हो गयीं। डॉ. तेहलियानी ने किसी तरह की कोई शिकवा-शिकायत नहीं की। निश्चित रूप से वह एक महान सर्जन थे और इसीलिए उनके समय के अन्य चिकित्सिक उनसे ईर्ष्या रखते थे।
क्रमशः 28