“मैंने लिफाफा खोला तो समाचार के साथ 5 रू का एक नोट भी था। मैंने उससे पूछा, ‘यह क्या है ?’ घबराते-घबराते उसने कहा, ‘इसके बिना कोई समाचार नहीं छापता।’ मैंने कहा, ‘इसे रखो और कल देखना, समाचार जरूर छपेगा।’ लड़का नोट लेकर चुपचाप चला गया।“
के. एम. अग्रवाल
सालों से मन में यह बात आती थी कि कभी आत्मकथा लिखूँ। फिर सोचा कि आत्मकथा तो बड़े-बड़े लेखक, साहित्यकार, राजनेता, फिल्मकार, अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी, वैज्ञानिक, बड़े-बड़े युद्ध जीतने वाले सेनापति आदि लिखते हैं और वह अपने आप में अच्छी-खासी मोटी किताब होती है। मैं तो एक साधारण, लेकिन समाज और देश के प्रति एक सजग नागरिक हूँ। मैंने ऐसा कुछ देश को नहीं दिया, जिसे लोग याद करें। पत्रकारिता का भी मेरा जीवन महज 24 वर्षों का रहा। हाँ, इस 24 वर्ष में जीवन के कुछ अनुभव तथा मान-सम्मान के साथ जीने तथा सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस विकसित हुआ। लेकिन कभी लिखना शुरू नहीं हो सका।
एक बार पत्रकारिता के जीवन के इलाहाबाद के अनुज साथी स्नेह मधुर से बात हो रही थी। बात-बात में जीवन में उतार-चढ़ाव की बहुत सी बातें हो गयीं। मधुर जी कहने लगे कि पुस्तक के रूप में नहीं, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में पत्रकारिता के अनुभव को जैसा बता रहे हैं, लिख डालिये। उसका भी महत्व होगा। बात कुछ ठीक लगी और फिर आज लिखने बैठ ही गया।
गतांक से आगे…
‘डंडा-गोली चलाये बगैर’
एक बार इलाहाबाद के तेलियरगंज स्थित इंजीनियरिंग कॉलेज के हास्टल में रहने वाले कुछ अफ्रीकन छात्र दिन में चौक बाजार की ओर आये हुए थे। जानसेनगंज चौराहे के निकट उनकी मुलाकात हास्टल के कुछ भारतीय छात्रों से हुई। उनके बीच कुछ ऐसी बातें हो गयीं कि देखते-देखते अफ्रीकी छात्रों ने अपनी कमर में बंधी जंजीर खोलकर उसी से भारतीय छात्रों की पिटाई कर दी। दो-तीन छात्र काफी घायल हो गये। इसके बाद अफ्रीकी छात्र देखते-देखते वहाँ से खिसक लिए।
दिन में हमें सिर्फ इस घटना की जानकारी थी, जिसका समाचार शाम को बना दिया गया। रात लगभग आठ बजे मैं अपने कमरे में बैठा समाचार लिख रहा था। इसी बीच मैंने कहीं फोन मिलाया। इत्तेफाक देखिए, फोन उस व्यक्ति से न लगकर, पुलिस अधीक्षक (नगर) त्रिवेदी जी से इंटरकनेक्ट हो गया। मुझे उनकी बातें सुनाई देने लगीं। वह कर्नलगंज थाने को निर्देश दे रहे थे, ‘ठीक नौ बजे एक ट्रक पी.ए.सी. जवानों को लेकर इंजीनियरिंग कालेज के हास्टल के पीछे बाहरी तरफ पहुँच जाँय। रात में ही हास्टल खाली कराना है।’
मेरे लिए तो यह गर्मागर्म समाचार था। रात नौ बजे तक मैंने भी अपना काम समाप्त कर लिया और प्रेस में अंदर डेस्क पर जाकर बोल दिया कि इंजीनियरिंग कालेज का हास्टल रात में ही पुलिस खाली करवायेगी। कुछ भी हो सकता है। वहीं जा रहा हूँ।
फिर पत्रिका के एक यंग रिपोर्टर से कहा, ‘आओ चलो, कहीं घूम आते हैं।’ उसने पूछा, ‘ कहाँ चलेंगे ?’ मैंने कहा, “चलो न!’ और उसे अपने स्कूटर पर बैठा कर रात लगभग साढ़े नौ बजे हास्टल के पीछे पहुँच गया। एक सँकरा सा रास्ता था, जिससे होकर हास्टल तक जाना था। रास्ते के मुहाने पर ही पुलिस अधीक्षक (नगर) त्रिवेदी जी स्वयं मोर्चा संभाले खड़े थे। मुझे देखते ही वह चौंक गये। बोले, ‘अरे, आप ?’ उन्हें आश्चर्य इस बात का हुआ कि हास्टल रात में खाली कराने की गुप्त बात लीक कैसे हो गयी? बहरहाल, उन्होंने मुझसे यह नहीं पूछा कि मुझे कैसे पता चल गया। मैं हास्टल से कुछ दूरी पर खड़ा हो गया।
उसी समय पुलिस ने लाउडस्पीकर से चेतावनी देना शुरू कर दिया कि तुरंत आधे घंटे में सभी छात्र हास्टल खाली कर दें, अन्यथा, फोर्स लगाकर हास्टल खाली कराना पड़ेगा।
पुलिस की दो-तीन बार की घोषणा के बाद छात्र पीठ पर अपना भारी-भारी बैग लादे हुए हास्टल से बाहर आने लगे। कुछ से मैंने पूछा कि कहाँ जा रहे हैं ? पता चला कि सभी प्रयाग स्टेशन जा रहे हैं। लगभग एक घंटे में पुलिस के किसी भी प्रकार के बल का प्रयोग किये बगैर हास्टल खाली हो गया।मैं तो सोचता था कि पुलिस को कहीं लाठी चलाने की नौबत न आ जाये, लेकिन सब शांति से निपट गया। पुलिस को भी चैन मिला। फिर मैं तुरंत वहीं प्रोफेसर कालोनी में गया और वहीँ एक प्रोफेसर के घर से उनके टेलीफोन का इस्तेमाल कर प्रेस में समाचार लिखवा दिया।
पाँच रुपये वाला समाचार
एक बार दारागंज का 14-15 साल का एक लड़का ‘राष्ट्रीय दारागंज मुहल्ला सुधार समिति’ का कोई समाचार लेकर आया, जो लिफाफे में रखा था। उसके सामने ही मैंने लिफाफा खोला तो समाचार के साथ 5 रू का एक नोट भी था। मैंने उससे पूछा, ‘यह क्या है ?’ घबराते-घबराते उसने कहा, ‘इसके बिना कोई समाचार नहीं छापता।’ मैंने कहा, ‘इसे रखो और कल देखना, समाचार जरूर छपेगा।’ लड़का नोट लेकर चुपचाप चला गया।
अपना काम समाप्त करके मैं प्रेस में अंदर गया, जहाँ कम्पोजिंग का काम चल रहा था। इंचार्ज रामदास जी को कहानी बतायी और कहा, ‘ देखियेगा, यह छोटा सा समाचार जरूर से छप जाय, नहीं तो वह लड़का क्या सोचेगा?’
सुबह समाचार अखबार में था। मैंने सोचा, लड़के को अब विश्वास हो गया होगा कि अमृत प्रभात में समाचार छपने के लिए पैसा नहीं लगता है।तीन सौ रुपए का समाचार
एक बार लोक निर्माण विभाग में इंजीनियरों के बीच कोई बात लेकर बड़ा कांड हो गया था। मौके पर पहुँच कर मैंने घटना की जानकारी कर ली थी और समाचार लिखकर प्रेस में भेज भी दिया था।
शाम को लोक निर्माण विभाग के कोई सहायक अभियंता महोदय आये और घटना की जानकारी देनै लगे। मैंने कहा कि मुझे सारी जानकारी है और समाचार भेज भी चुका हूँ। फिर वह बोले, ‘समाचार पहले पेज पर छप जाये तो अच्छा रहता।’ फिर मैंने उन्हें समझाया, समाचार जा चुका है। वह किस पेज पर छपेगा, यह हमारा काम नहीं है। अब आप जाइये।
इंजीनियर महोदय, कमरे से बाहर निकलकर दरवाजे पर खड़े होकर मुझे बाहर आने का बार-बार अनुरोध करने लगे। मैं बाहर उनके पास गया। संभवतः, उनके हाथ में सौ-सौ के तीन नोट थे, जिसे उन्होंने मुझे पकड़ाना चाहा। फिर तो मैं उखड़ सा पड़ा और जोर से डांटते हुए कहा, ‘आप यह क्या कर रहे हैं ? निकल जाइये और आगे से यहाँ आइयेगा नहीं।’ बेचारा इंजीनियर चुपचाप चला गया।तीन पैसा
मैं जब लखनऊ के स्वतंत्र भारत को छोड़कर इलाहाबाद आया तो स्वतंत्र भारत में वेतन 300/-था। यहाँ आने पर 600/- मिलने लगा। कुछ वर्षों के बाद मेरे वेतन का जो हिसाब बनता था, उसमें 3 पैसे भी रहता था, लेकिन वेतन बाबू वह 3 पैसे नहीं देता था। कहने पर बहाना कर देता, ‘फुटकर 3 पैसे कहाँ से लाऊँ?’
मेरे लिए यह सिद्धांत की बात थी। मैंने महाप्रबंधक शिशिर मिश्रा जी को लिखित देकर 3 पैसे की बात बताई।मिश्रा जी जी मुस्कराये। मैंने कहा, ‘ सर, यह सिद्धांत की बात है।’ और फिर अगले महीने से बाबू मेरे लिए 3 पैसे रखे रहता था।
महादेवी जी की गिलहरी
मैंने सात या आठ की हिन्दी की किताब में महादेवी वर्मा की कहानी ‘ गिलहरी ‘ पढ़ी हुई थी। इसमें लिखा था कि कैसे एक गिलहरी बरामदे से लगने वाले उनके कमरे के रोशनदान से होकर अंदर आती है और इधर-उधर घूमफिर कर फिर उसी रोशनदान से बाहर चली जाती है।
मैं जब इलाहाबाद आया तो मन में था कि कभी वह रोशनदान देखूँ, कि सचमुच में वह है या नहीं। पहली बार जब जब उनके घर पर गया तो पाया कि बरामदे से लगे उनके कमरे में एक रोशनदान था। सामने एक चित्र सा खिंच गया कि कैसे गिलहरी आती-जाती होगी।
क्रमशः 29