“…इलाहाबाद में मैं अक्टूबर, 1978 से मार्च, 1989 तक अमृत प्रभात में रहा और इस बीच वहाँ के छोटे-बड़े कई अखबारों तथा पत्र-पत्रिकाओं के साथ कुछ चर्चित पत्रकारों को भी निकट से देखने का मौका मिला। वैसे तो इलाहाबाद की पत्रकारिता पर लिखना, स्वयं में एक बड़ा शोध कार्य होगा, जो यहाँ संभव नहीं है। लेकिन अपने छोटे से 11 वर्ष के कार्यकाल के दौरान अपनी यादों को लिखना समीचीन लगता है।“
के. एम. अग्रवाल
सालों से मन में यह बात आती थी कि कभी आत्मकथा लिखूँ। फिर सोचा कि आत्मकथा तो बड़े-बड़े लेखक, साहित्यकार, राजनेता, फिल्मकार, अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी, वैज्ञानिक, बड़े-बड़े युद्ध जीतने वाले सेनापति आदि लिखते हैं और वह अपने आप में अच्छी-खासी मोटी किताब होती है। मैं तो एक साधारण, लेकिन समाज और देश के प्रति एक सजग नागरिक हूँ। मैंने ऐसा कुछ देश को नहीं दिया, जिसे लोग याद करें। पत्रकारिता का भी मेरा जीवन महज 24 वर्षों का रहा। हाँ, इस 24 वर्ष में जीवन के कुछ अनुभव तथा मान-सम्मान के साथ जीने तथा सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस विकसित हुआ। लेकिन कभी लिखना शुरू नहीं हो सका।
एक बार पत्रकारिता के जीवन के इलाहाबाद के अनुज साथी स्नेह मधुर से बात हो रही थी। बात-बात में जीवन में उतार-चढ़ाव की बहुत सी बातें हो गयीं। मधुर जी कहने लगे कि पुस्तक के रूप में नहीं, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में पत्रकारिता के अनुभव को जैसा बता रहे हैं, लिख डालिये। उसका भी महत्व होगा। बात कुछ ठीक लगी और फिर आज लिखने बैठ ही गया।
गतांक से आगे…
‘क्या भूलें क्या याद करें ? ‘
इलाहाबाद में मैं अक्टूबर, 1978 से मार्च, 1989 तक अमृत प्रभात में रहा और इस बीच वहाँ के छोटे-बड़े कई अखबारों तथा पत्र-पत्रिकाओं के साथ कुछ चर्चित पत्रकारों को भी निकट से देखने का मौका मिला। वैसे तो इलाहाबाद की पत्रकारिता पर लिखना, स्वयं में एक बड़ा शोध कार्य होगा, जो यहाँ संभव नहीं है। लेकिन अपने छोटे से 11 वर्ष के कार्यकाल के दौरान अपनी यादों को लिखना समीचीन लगता है।
डा.राम नरेश त्रिपाठी
इलाहाबाद आने के बाद बहुत जल्दी ही मेरी मुलाकात डा.राम नरेश त्रिपाठी से होने लगी थी। प्रायः समय-समय पर देशदूत, दैनिक जागरण और नव भारत टाइम्स के रिपोर्टर के रूप में प्रेस वार्ताओं में वह मिल जाते। कभी-कभी वह पत्रिका प्रेस में भी अपने मित्र एस.के.दुबे से मिलने चले आते। औसत कद, गोरा रंग, मुस्कुराता चेहरा और पंडित जी के परिधान धोती-कुर्ता में हमेशा रहना, यह उनकी पहचान थी। कभी-कभी पैंट-शर्ट में भी देखे जाते।
त्रिपाठी जी 1989 तक तीनों अखबारों की यात्रा पूरी कर 1990 में साप्ताहिक दिनमान और धर्मयुग से जुड़ गये। पत्रकारिता के साथ संस्कृत और ज्योतिष विद्या के विद्वान होने के कारण पुरोहिती में भी इनकी विशेष पैठ थी। इनके जजमानों में शहर के कई प्रमुख लोग हुआ करते थे। 60-65 की आयु पार करते-करते त्रिपाठी जी का झुकाव पूर्ण रूप से ज्योतिष तथा संबंधित विषयों की ओर हो गया। उन्होंने दो-तीन पुस्तकें भी लिखीं, जो काफी महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। राजनीति के पुरोधा हेमवतीनंदन बहुगुणा पर लिखी इनकी पुस्तक भी काफी चर्चित है।
एक बार तीन-चार महीने के कनाडा प्रवास के दौरान, उन्होंने दो अन्य विद्वानों के साथ मिलकर ‘ हिन्दू धर्म में प्रकृति के प्रति अवधारणा और पर्यावरण संकट ‘ विषय पर महत्वपूर्ण शोध पत्र लिखा, जिसे एक सम्मेलन में पढ़ा भी गया। 2016 आते-आते त्रिपाठी जी फ्लोरिडा स्थित हिन्दू यूनिवर्सिटी आफ अमेरिका के मानद प्रोफेसर नियुक्त हो गये। इनके गाइडेंस में दिल्ली की बीना शर्मा को इसी विश्वविद्यालय से ‘सनातन धर्म और श्री विद्या’ विषय पर हाल ही में पीएच.डी. उपाधि मिली है।
और अब तो डा.त्रिपाठी, कन्हैया लाल मणिक लाल मुंशी द्वारा 1938 में बम्बई में स्थापित ‘भारतीय विद्या भवन‘ के इलाहाबाद केन्द्र के 1907 से निदेशक हैं। एक अच्छी बात यह है कि सब कुछ करते हुए आज भी वह एक पत्रकार हैं।
अरुण अग्रवाल
इलाहाबाद में एक ऐसे व्यापारी अरुण अग्रवाल थे, जो अपने व्यापार के साथ-साथ चालीसों साल से बहुत उत्साह से अपनी साप्ताहिक पत्रिका ‘ अन्तर्राष्ट्रीय श्रोता समाचार ‘ के माध्यम से न सिर्फ भारत के आकाशवाणी (रेडियो) और दूरदर्शन से जुड़े रहे, बल्कि दूसरे कई देशों की रेडियो संबंधी गतिविधियों की खबर लेते रहे।
लम्बे लेकिन काफी मोटे, मृदु स्वभाव के अरुण अग्रवाल, पत्रिका निकालने के साथ इलाहाबाद की सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़े रहे। घर को ही आफिस बना रखा था, जहाँ प्रायः कोई न कोई गोष्ठी भी आयोजित करते रहते थे। वह इलाहाबाद से बाहर भी कई अखबारों और सांस्कृतिक क्षेत्र के लोगों के सम्पर्क में रहते थे। कुछ साल तक तो वह इलाहाबाद स्थित उत्तर मध्य सांस्कृतिक क्षेत्र के सलाहकार भी रहे।
उनके श्रोता समाचार के संपादन का मुख्य कार्य इलाहाबाद के ही नाट्य विधा के सजग समालोचक और नाट्यकर्मी अजामिल व्यास देखते थे, जो एक कुशल फोटोग्रफर भी थे।
अरुण जितना चौक स्थित कपड़े की अपनी ‘शीशे की छत वाली दुकान’ से जुड़े थे, उतना ही अखबार से और उतना ही फूल-पौधों (प्रकृति)से जुड़े थे। इसीलिए, उन्हें अवसर मिला तो प्रयाग संगीत समिति के निकट ही ‘नेहा नर्सरी’ भी शुरू कर दी। इस नर्सरी पर भी नगर के संस्कृतिकर्मी जुटते रहते थे।
मेरी भी जब मुलाकात अरुण अग्रवाल से हुई तो उनके चुम्बकीय व्यक्तित्व ने मुझे भी अपना बना लिया।
अखबारों का सिलसिला
1978 के दिसम्बर से अमृत प्रभात का प्रकाशन शुरू होने के आप-पास ही दैनिक जागरण और देशदूत के बीच समझौता हो जाने के बाद, देशदूत का प्रकाशन बंद हो गया और वहीं से दैनिक जागरण छपना शुरू हो गया। लेकिन शुरू से ही दैनिक जागरण अपना पैर इलाहाबाद में जमा नहीं सका। छह महीने बाद ही यह स्थिति हो गयी कि इससे स्थानीय समाचार के दो पृष्ठ यहाँ छपते थे और बाकी के पृष्ठ बनारस से आते थे। उन दिनों डा.राम नरेश त्रिपाठी रिपोर्टर के रूप में थे, जबकि हरिशंकर द्विवेदी वहाँ की व्यवस्था देखने के साथ-साथ रिपोर्टिंग भी करते थे। द्विवेदी जी की मूँछ कुछ ऐसी खास थी, जिसकी चर्चा पत्रकार जरूर करते थे।
अन्य अखबार
हिन्दी अखबारों में दूसरे नम्बर पर ‘भारत‘ अखबार था, जिसके प्रबंध संपादक डा.मुकुंद देव शर्मा की अपनी खास पहचान थी। वह धाकड़ व्यक्तित्व के धनी थे और किसी से दबना नहीं जानते थे। राजेंद्र श्रीवास्तव उनके चीफ रिपोर्टर हुआ करते थे।
1980 में भारत अखबार के बंद होने के बाद 5-6 वर्ष तक वहाँ तना-तनी चलती रही और फिर 1986 में उसी लीडर प्रेस परिसर से ‘ आज ‘ अखबार निकलने लगा। लेकिन यह भी दैनिक जागरण से अपनी वर्षों पुरानी लड़ाई में ही उलझा रहा।
इलाहाबाद की अखबारी दुनिया में संतोष तिवारी का नाम नहीं भुलाया जा सकता। वह सीधे-सीधे पत्रकार तो नहीं थे, लेकिन स्वयं को ‘ पत्रकारों का बाप ‘ कहते थे। वह यह भी कहते थे, ‘मैं एक ऐसा हाथी हूँ, जिसे हर कोई अपने दरवाजे पर नहीं बाँध सकता है।’
इसमें कोई शक नहीं तिवारी जी अखबार की दुनिया के बहुत बड़े खिलाड़ी थे। समय-समय पर भारत, आज, अमृत प्रभात, एन.आई.पी. और कुछ दूसरों अखबारों के प्रबंधतंत्र पर उनका कब्जा होता रहा। उनकी एक खास विशेषता थी, अच्छे के लिए अच्छे और बुरे के लिए बुरे थे। उन्हें कोई छेड़े नहीं तो वह किसी को छेड़ते नहीं थे।
मित्र प्रकाशन
इलाहाबाद के मित्र प्रकाशन की दो पत्रिकाओं माया और मनोरमा की अपने समय में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के बीच एक अलग पहचान थी। मनोरमा जहाँ शुद्ध रूप से महिलाओं पर केन्द्रित पत्रिका थी, माया की पहचान राजनीतिक, आपराधिक और सामाजिक घटनाओं पर केन्द्रित थी। कहा जाता है कि कोई कितना भी ऊँचा चढ़ता जाय, एक समय आता है, उसकी यात्रा नीचे की ओर शुरू हो जाती है और फिर एक दिन यात्रा समाप्त भी हो जाती है। यही हाल मित्र प्रकाशन का रहा।
माधव कांत मिश्र
इसी बीच इलाहाबाद की ही देन एक माधव कांत मिश्र भी हुआ करते थे, जो शुरू-शुरू में देशदूत और दैनिक जागरण से एक पत्रकार के रूप में जुड़े रहे, लेकिन उनका स्वभाव और व्यक्तित्व कुछ ऐसा था कि वह कभी एक जगह नहीं ठहर सकते थे। अपनी बुद्धि और व्यक्तित्व के बल पर वह सूर्या, आर्यावर्त और स्वतंत्र भारत के भी संपादक बने। बाद में उन्होंने आस्था और एक दूसरा चैनल भी शुरू किया। उनकी यात्रा अखबारों तक ही नहीं रुकी। एक दिन वह ‘महामंडलेश्वर‘ भी घोषित कर दिये गये।
राबर्ट्सगंज के डा.जिंदल
‘ न्यायाधीश ‘ नाम से अपना दैनिक अखबार निकालते थे, जो बाद में इलाहाबाद से भी छपने लगा। यह अखबार भी सिर्फ नाम गिनाने के लिए ही था।
इसी बीच इलाहाबाद के स्थापित कथाकार मारकण्डेय सिंह और नीलकांत के भाई महेंद्र सिंह कर्नलगंज से ‘देश भूमि‘ नाम से दैनिक अखबार निकालते रहे, लेकिन यह भी बस नाम गिनाने के लिए ही था।
उन्हीं दिनों इलाहाबाद में एक टी.के.भार्गव हुआ करते थे, जो लम्बे समय से टी के टाइम्स नाम से साप्ताहिक निकालते थे। तमाम विषम परिस्थितियों और आरोपों से जूझते हुए वह आगे बढ़ते रहे।
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क्रमशः 26