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‘मेरा जीवन’: के.एम. अग्रवाल: 21

“…मेरे लिए तो सब कुछ बड़ा अजीब सा था। जीप की तेज रोशनी में हिरन और खरगोश की चमकती आँखें रह-रह कर दिखाई दे जातीं। चौबे जी ने साधकर निशाना मारा। एक हिरन को गोली जरूर लगी, लेकिन वह निकल भागा। खोजने पर भी वह झाड़ियों में नहीं मिला। 

के. एम. अग्रवाल

सालों से मन में यह बात आती थी कि कभी आत्मकथा लिखूँ। फिर सोचा कि आत्मकथा तो बड़े-बड़े लेखक, साहित्यकार, राजनेता, फिल्मकार, अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी, वैज्ञानिक, बड़े-बड़े युद्ध जीतने वाले सेनापति आदि लिखते हैं और वह अपने आप में अच्छी-खासी मोटी किताब होती है। मैं तो एक साधारण, लेकिन समाज और देश के प्रति एक सजग नागरिक हूँ। मैंने ऐसा कुछ देश को नहीं दिया, जिसे लोग याद करें। पत्रकारिता का भी मेरा जीवन महज 24 वर्षों का रहा। हाँ, इस 24 वर्ष में जीवन के कुछ अनुभव तथा मान-सम्मान के साथ जीने तथा सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस विकसित हुआ। लेकिन कभी लिखना शुरू नहीं हो सका।

एक बार पत्रकारिता के जीवन के इलाहाबाद के अनुज साथी स्नेह मधुर से बात हो रही थी। बात-बात में जीवन में उतार-चढ़ाव की बहुत सी बातें हो गयीं। मधुर जी कहने लगे कि पुस्तक के रूप में नहीं, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में पत्रकारिता के अनुभव को जैसा बता रहे हैं, लिख डालिये। उसका भी महत्व होगा। बात कुछ ठीक लगी और फिर आज लिखने बैठ ही गया।

गतांक से आगे…

‘जंगल में शिकार’

संभवतः 1984 के आस-पास की बात है। एक दिन मैं लोहियावादी जुझारू एडवोकेट विनय सिन्हा के साथ राबर्ट्सगंज उनके मित्र ब्लाक प्रमुख राम दुलारे चौबे से मिलने और क्षेत्र में घूमने के उद्देश्य से निकल पड़ा। शाम को हम दोनों चौबे जी के घर पहुँच गये। बात-बात में कार्यक्रम बन गया कि रात में शिकार करने चलते हैं। मैंने मन में सोचा, चलो आज पहली बार देखूँगा कि रात में जंगल में शिकार कैसे किया जाता है ?


रात में 10 बजे तक हल्का खाना खाकर हम दोनों चौबे जी की शिकारी जीप से तरिया जंगल की ओर निकल लिए। जीप में चौबे जी के साथ तीन और लोग तीन राइफलों के साथ थे। रात लगभग 12 बजे हम लोग जंगल में बनवासी पंचायत के नेता भीखा सिंह गौड़ के घर पहुँच गये। जंगल में वनवासियों के कोई पक्के मकान तो होते नहीं, आस-पास खपरैल के ही तीन-चार मकान दिखायी दिये। लोगों ने गायें पाल रखी थी।
नमस्कार और हाल-चाल के बाद गौड़ जी ने बताया कि अभी कम से कम एक घंटे बाद आप-लोग जंगल में भीतर जाइये, तभी जानवर मिल सकेंगे। इसी बीच में जाली गौड़ (जाली दादा) ने सभी को फूल के बड़े-बड़े कटोरों में गरम-गरम दूध पीने को दिया। बहुत ही स्वादिष्ट दूध था। एक घंटा बीता तो हम लोग घने जंगल में जीप के साथ घुस गये।


मेरे लिए तो सब कुछ बड़ा अजीब सा था। जीप की तेज रोशनी में हिरन और खरगोश की चमकती आँखें रह-रह कर दिखाई दे जातीं। चौबे जी ने साधकर निशाना मारा। एक हिरन को गोली जरूर लगी, लेकिन वह निकल भागा। खोजने पर भी वह झाड़ियों में नहीं मिला।

जीप घने जंगल में एक्सपर्ट ड्राइवर के सहारे इधर-उधर चलती रही। एक बार फिर मौका मिला। इस बार चौबे जी का निशाना सही बैठा था और बड़ा सा एक हिरन गिर पड़ा। दो-तीन लोग दौड़कर गये, उसे उठाया और जीप में डाल दिया। पता चला कि जंगल में घायल होने के बाद भी जानवर को उठाने में विशेष सतर्कता बरती जाती है। वर्ना, लेने के देने पड़ जाये।

इसके बाद हमलोग जंगल से बाहर हो लिए। शिकार का उद्देश्य पूरा हो चुका था। मेरे लिए तो रात में घना जंगल और उस पर से शिकार, रोमांचकारी अनुभव था।
सुबह अंधेरा छटते-छटते हम लोग घर वापस आ गये।
दूसरे दिन दोपहर में खाना बना तो हिरन का मांस भी पका। सभी लोग पंगत में बैठे थे।

सिन्हा जी को जब मांस परोसा जाने लगा तो उन्होंने मना कर दिया। पूछने पर उन्होंने बताया कि गोली लगने के बाद मुझे हिरन की बेबस, कातर आँखें दिखाई दे रही हैं। मैैं उसका मांस नहीं खा सकता..।

खैर, मैं तो मांसाहारी था ही नहीं।

जुझारू सिन्हा

विनय सिन्हा जी देखने में दुबले-पतले छोटे कद के इंसान हैं। देखने में वह आपको जरा भी प्रभावित करते नजर नहीं आयेंगे। लेकिन जब एक-दोबार उनके साथ बैठकी हो जायेगी या उनके कामों की जानकारी हो जायेगी, तब लगेगा, यह व्यक्ति कितना जुझारू और संघर्षशील है।
एक बार ओबरा डैम के पास एक वनवासी युवती के साथ एक सवर्ण व्यक्ति ने बलात्कार कर दिया। उसके पति को जानकारी हुई तो वह बलात्कारी के घर पहुँच गया और बोला,  आपको मेरी पत्नी इतनी ही पसंद है तो उसे अपने घर में ही रख लीजिए।”

पुलिस द्वारा न्याय न मिलने पर ये लोग इलाहाबाद आकर विनय सिन्हा से मिले। विनय सिन्हा ने स्थानीय प्रेस कर्मियों से मिलवाया। युवती ने प्रेस में अपना बयान दिया। बाद में मिर्जापुर के पुलिस अधीक्षक ने बलात्कारी के विरुद्ध मुकदमा कायम कराया। समय तो लगा, लेकिन हाईकोर्ट तक लड़ाई के बाद बलात्कारी को 10 वर्ष की सजा हुई।

दोस्ती में भी हस्तक्षेप

उन दिनों इलाहाबाद से दूसरा हिन्दी अखबार भारत प्रकाशित हो रहा था। इसके चीफ रिपोर्टर राजेन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव थे। उनसे एक-दोबार मुलाकात होने के बाद निकटता बढ़ी और मैंने महसूस किया कि ये अच्छे, साफ-सुथरे और सुलझे हुए व्यक्ति हैं। फिर तो हमारे और उनके परिवार का भी मिलना-जुलना शुरू हो गया।

एक बार की बात है, जब तमाल कांति घोष पत्रिका ग्रुप के महाप्रबंधक हो चुके थे। उन्होंने एक दिन मुझसे कहा कि आप हमारे विरोधी अखबार ‘भारत’ के चीफ रिपोर्टर राजेंद्र श्रीवास्तव से दोस्ती रखते हैं, जो अच्छी बात नहीं है। वह प्रायः आपसे महत्वपूर्ण समाचार पा जाते होंगे। मैंने कहा, ” आप ऐसा क्यों नहीं सोचते कि मैं उनसे महत्वपूर्ण समाचार ले लेता हूंगा।” तमाल बाबू चुप हो गये।
बाद में मैं सोचने लगा कि कान फूंकने और तेल-पानी करने वाले हमारे ही एक-दो साथी किस सीमा तक गिर सकते हैं ?

एनकाउंटर से बच गया!

एक बार दोपहर में मीरापुर घर जाते समय कल्याणी देवी क्षेत्र में पुलिस की एक जीप दिखाई दी, जिसमें पीछे की ओर एक व्यक्ति को कसकर बाँध रखा गया था और दो कांस्टेबल भी उसके पास सतर्क बैठे हुए थे। एक दारोगा आगे बैठा था। पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगा कि पुलिस इस व्यक्ति को एनकाउंटर करने ले जा रही है।
मैंने तुरंत वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को फोन किया और अपने मन की बात बताई। उनकी बातों से लगा कि सचमुच कुछ ऐसी ही योजना थी। फिर उन्होंने कहा,     “नहीं, नहीं अग्रवाल जी ऐसी कोई बात नहीं है। आप निश्चिंत रहें।”
बाद में शाम तक मुझे ऐसे संकेत मिले कि बात एनकाउंटर की ही थी, जो मेरे शक पैदा कर देने के बाद कार्यरूप में परिणित नहीं हो सका।
इसके बाद उसका क्या हुआ, मुझे पता नहीं।

क्रमशः 21

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