कभी बचपन में सुना था कि महामारी जैसी कोई बला होती है. दादी-नानी से किस्से सुने थे कि कैसे प्लेग जैसी बीमारी पूरे के पूरे गांव को गिरफ्त में ले लिया था. हजारों लोग तड़प-तड़पकर मर गए थे. सुना तो 1918 में आए प्लेग के बारे में भी था जब मुंबई, पुणे बुरी तरह इस महामारी के घेरे में आ गया था. ब्रिटिश गवर्नमेंट ने संक्रमित लोगों को घरों से उठा-उठाकर किसी सूनसान जगह में रखा था. उस वक्त ब्रिटश गवर्नमेंट का भारी विरोध भी हुआ था. लेकिन हम भी कभी किसी महामारी के चपेट में आएंगे यह सपने में भी नहीं सोचा था. किसी अदृश्य वायरस का खौफ ऐसा होगा कि हमें घरों में कैद हो जाना पड़ेगा.
जनाब एक महीना तो छोड़िए, एक दिन की कैद क्या कभी हम जैसे आजाद ख्याल लोगों को रास आ सकती है! बस जब 21 दिन के लॉकडाउन की घोषणा हुई तो मन कचोटकर रह गया. भला इतने दिन घर में कैसे गुजरेंगे? इस ख्याल से दम घुटने लगा. 2-4 दिन तो रह-रहकर मन बेचैन हो जाता. लेकिन फिर मेरे मनौवैज्ञानिक (मनोविज्ञान की छात्रा भी रह चुकी हूं.) ने मुझे धिक्कारा, बस परीक्षा पास करने के बाद स्ट्रेस मैनेजमेंट गया चूल्हे में!
फिर, मेरे वर्तमान पद (डिप्टी राजिस्ट्रार-Deputy Registrar) ने भी मानों आकर मुझे चिढ़ाया, क्या खाक संभालोगो प्रशासन असली टेस्ट तो आपदाओं और विपदाओं के वक्त ही होता है. तो तुम न मनोविज्ञान का छात्रा कहलाने के लायक हो और न प्रशासनिक पद की हकदार! मानों नींद से किसी ने चिकोटी काटकर जगा दिया हो. मैंने खुद से कहा, नहीं यह वक्त स्ट्रेस, डिप्रेशन का नहीं है. मुझे अपनी फैकल्टी और उन स्टूडेंट्स की हिम्मत बंधानी है जो अपने घर नहीं जा पाए. घरों से दूर यह बच्चे हमारी जिम्मेदारी हैं. इन्हें न केवल खाना-पानी, आवास, हाइजीन, कोर्स मैटेरियल उपलब्ध कराना है बल्कि उन्हें मानसिक और भावनात्मक सपोर्ट भी देना है.
बस क्या था मैं जुट गई अपने काम में, और यकीन मानिए आज तकरीबन 25 दिन बाद होने के हैं लॉकडाउन रहते हुए लेकिन मुझे एक पल भी न अवसाद हुआ और न तनाव. मैं दिन रात बस स्टूडेंट्स की जरूरतें पूरी करने और उन्हें धिलासा देने में लगी रहती हूं. फोन, ई-मेल, सोशल मीडिया हर जरिया जो मुझे स्टूडेंट्स के साथ जोड़ता है मैं भरपूर इस्तेमाल करती हूं.
जूम एप और गूगल क्लास जैसे सॉफ्टवेयर जो कभी आज तक हमारी यूनिवर्सिटी में इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं पड़ी थी, उन्हें न केवल खुद सीखा बल्कि दूसरी फैकल्टी को भी सिखाया. ऑन लाइन क्लासेज, ऑन लाइन कोर्स मैटेरियल तैयार करने के नए-नए तरीकों को खोजन में मैं और मेरी पूरी टीम दिनरात लगी रहती है. सोशल डिस्टेंसिंग बरकरार रखते हुए हमने वीडियो कॉल्स, फोन कॉल्स, स्काइप का भरपूर इस्तेमाल किया.
शायद सामान्य दिनों में हम कभी इतनी टेक्नोलॉजी इस्तेमाल नहीं करते. पर, लॉकडाउन ने हमें यह भी सिखाया जहां चाह-वहां राह होती है. यूनिवर्सिटी में ठहरे हुए बच्चों के साथ ही घरों में पहुंच चुके बच्चों के साथ भी हम लगातार जुड़े हैं. उनकी परीक्षाओं की तैयारी, उनकी काउंसलिंग, उनके साथ टेक्नोलॉजी के बारे में जानकारी साझा करना, यानी लगातार हम उनसे दूर रहकर भी बेहद करीब हैं.
इन दिनों महसूस किया कि जो बच्चे कॉलेज नहीं आ सकते उनके घर तक कॉलेज पहुंचाने का एक विकल्प इस लॉकडाउन ने दिया है. भविष्य में हम इस योजना की तरफ बढ़ने का विचार भी कर सकते हैं. हमारी यूनिवर्सिटी रेसिडेंसियल है. यहां हॉस्टल, क्लासेज के साथ ही आयुर्वेद और कई भारतीय प्राचीन पद्धतियों, जैसे यज्ञ, जप, मंत्र, योग का इस्तेमाल चिकित्सा के रूप में भी होता.
आयुष मंत्रालय ने प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के कुछ आयुर्वेदिक उपाय सुझाए तो जड़ी-बूटियों के पेड़-पौधों से भरे शांतिकुंज ने हमें मदद की. हमने उन सारी जड़ी-बूटियों को बच्चों और फैकल्टी को मुहैया करवाया. बताते चलें कि देव संस्कृति विश्वविद्यालय, शांतिकुंज का ही हिस्सा है.
साथ ही बुकफेयर से लाई गई किताबें भी अलमारी से निकल एक-एककर मेरी टेबल पर आने लगीं. दो किताबें खत्म करने के बाद तीसरी किताब पढ़नी शुरू कर दी है. यूट्यूवब में लगातार उन वीडियोज को खंगाल रही हूं जो मुझे और मेरी फैकल्टी को लेक्चर बनाने में मददगार हों.
सच बताऊं तो जिंदगी रोज नए प्रयोग करने की प्रेरणा दे रही है. कभी कुछ नए तरह के लेक्चर के वीडियो बनाने की तो कभी प्वाइंटर्स के जरिए बच्चों को मोटिवेट करने की. कभी ग्राफिक्स के जरिए सवालों के जवाब तैयार करने की तो कभी किताबों से आगे मौजूदा समय में संबंधित विषयों पर हो रहे रिसर्च के आधार जवाब तैयार करने की.
1959 के एक भाषण में , जॉन ए. कैनेडी (John F. Kennedy)ने कहा था, क्राइसिस दो कैरेक्टर को दर्शाता है, पहला, खतरा और दूसरा मौका, (the word ‘crisis’ is composed of two characters—one represents danger and one represents opportunity. वाकई कैनेडी की यह बात कोरना संकट के समय बिल्कुल सही साबित हो रही है. जहां हम जीने के नए-नए तरीके इजाद कर रहे हैं. जिंदगी रोज सिखा रही है कि हम संसाधनों से जितना घिरे थे दरअसल, उतनी जरूरत हमें नहीं थी. मिनिमेलिज्मय यानी कम संसाधनों के साथ जीने का सलीका यह संकट हमें सिखा रहा है…..
डॉ. स्मिता वशिष्ट देव संस्कृति विश्वविद्यालय में डिप्टी रजिस्ट्रार हैं.