एटा । कम ही लोग जानते हैं कि होलिका हिरण्यकशिपु के साथ हिरण्याक्ष की भी बहिन थी। वही हिरण्याक्ष, जिसका वध भगवान विष्णु ने वराहस्वरूप धारण कर उ.प्र. के कासगंज जिले के सोरों सूकरक्षेत्र में किया था।
पौराणिक संकेतों व अनुश्रुतियों के अनुसार होलिका का जन्म हिरण्याक्ष के सोरों पर राज्य करने के समय सोरों में ही हुआ था। वराह अवतरण के समय इनसे सोरों व आसपास का भूभाग भगवान वराह के नेतृत्व में देवताओं द्वारा छीन लिए जाने के बाद हिरण्याक्ष का भाई हिरण्यकशिपु प्रदेश के हरदोई (तात्कालिक नाम हरिद्रोही) नगर को अपनी राजधानी बना वहां से अपना राज्य करने लगा।
‘कन्नौज का इतिहास’ के लेखक इतिहासकार आनन्द स्वरूप मिश्र के अनुसार हरदोई के प्रहलाद चौरा घाट व उसके पुत्र विरोचन के नाम पर बसा गांव विरेचमऊ तथा हरदोई गजेटियर के उल्लेख कि इसे राजा हरनाकुश ने बसाया- से इसकी पुष्टि होती है। हालांकि कुछ अन्य अनुश्रुतियों में नरसिंह अवतार व हिरण्यकशिपु का वधस्थल झांसी के समीप का ही एक खेड़ा भी माना जाता है। वहीं कुछ लोग इस कथा को स्यालकोट के समीप का होना भी मानते हैं। किन्तु हिरण्याक्ष के सोरों पर शासन के विषय में सभी एकमत हैं।
आनन्द स्वरूप मिश्र के विपरीत कासगंज निवासी इतिहासकार अमित तिवारी के होलिका का जन्म ही नहीं होलिका का अग्निदाह भी सोरों नगर में हुआ मानते हैं। इनके अनुसार विष्णुपुराण व् पद्मपुराण के अनुसार आज से लाखों वर्ष पूर्व सतयुग काल में मैया होलिका का जन्म सोरों जी में ही हुआ था। पौराणिक व अनुश्रुति कथाओं के अनुसार महर्षि कश्यप व उनकी दूसरी पत्नी दिति की तीन संतान हुईं। इनमें दो पुत्र- हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष व एक पुत्री होलिका का सन्दर्भ मिलता है। होलिका को व्रह्मा जी से अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था तथा होलिका प्रतिदिन अग्निस्नान करती थी।
कुछ समय बाद जब भगवान वराह ने होलिका के भाई हिरण्याक्ष का वध कर दिया तो होलिका का दूसरा भाई और सोरों जी का राजा हिरण्यकशिपु भगवान विष्णु का सबसे बड़ा शत्रु बन गया। हिरण्यकशिपु ने अपने राज्य में भगवान विष्णु की आराधना ही प्रतिबंधित कर दी।
वर्षों पश्चात् हिरण्यकशिपु का अपना पुत्र प्रहलाद ही भगवान विष्णु का अखंड भक्त हो गया। यह जानकार हिरण्यकशिपु बेहद क्रोधित हो उठा और उसने अपनी बहन होलिका को आदेश दिया कि वह प्रहलाद को लेकर अग्नि में बैठ जाय। हिरण्यकशिपु के आदेशानुसार होलिका विवश हो अपने भतीजे प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठ गयी। भक्त प्रहलाद की विष्णु भक्ति के समक्ष होलिका को व्रह्मा जी द्वारा दिया गया वरदान काम न आया। होलिका जल गयी और प्रह्लाद सुरक्षित बच गया।
विवाह के दिन ही हुआ था होलिका का अग्निदाह
अमित तिवारी के अनुसार अगर हम पौराणिक कथाओं पर जरा ठीक से गौर करें तो यह अर्थ निकलकर आएगा कि अग्नि की उपासक होलिका खलनायिका नहीं थी। बल्कि उसके भाई हिरण्यकश्य ने उसे विवश किया था कि वो विष्णु भक्त प्रह्लाद को लेकर प्रचंड अग्नि समूह में बैठ जाये अन्यथा उसी दिवस अर्थात फाल्गुन की पूर्णिमा को होने वाले उसके प्रेम विवाह को वह नहीं होने देगा।
राजस्थान के लोकदेव इलोजी से होना था प्रेमविवाह
अमित पौराणिक कथा किवदंतियों का संदर्भ देते हुए बताते हैं कि फाल्गुन की पूर्णिमा को सोरों जी में होलिका की बारात आना प्रस्तावित था। इस दिन होलिका का प्रेमविवाह राजस्थान के लोकदेवता कामदेव के स्वरुप राजा इलोजी नासितक से होना था। होलिका के भाई हिरण्यकशिपु को इस विवाह पर आपत्ति थी। इधर वह अपने विष्णुभक्त पुत्र प्रह्लाद से अत्यधिक खिन्न था।
बारात आने से ठीक पहले हिरण्यकशिपु ने होलिका से कहा कि वो प्रहलाद को लेकर अग्निकुण्ड में बैठ जाये अन्यथा वह उसका विवाह संम्पन्न नहीं होने देगा। होलिका अपने भतीजे प्रहलाद से अत्यधिक स्नेह व राजस्थान के लोकदेवता इलोजी से अत्यधिक प्रेम करती थी। होलिका दोनों में से किसी को खोना नहीं चाहती थी। इसलिए होलिका ने स्वयं के ही जीवन को समाप्त करने का निर्णय लिया और अग्निकुण्ड में बैठकर प्रहलाद को अपना अग्निरोधी कवच प्रदान कर दिया। इस कारण अग्नि की उपासक होलिका तो जल गयी, प्रहलाद सुरक्षित बच गया।
होलिका की स्मृति में आजन्म कुंआरे रहे इलोजी
उसी दौरान होलिका के प्रेमी इलोजी ने अपनी बारात के साथ सोरों जी में प्रवेश किया। इलोजी ने देखा कि उनकी प्रेयसी होलिका विवाह के अग्निकुण्ड में जलकर भस्म हो चुकी है। अग्निकुण्ड में अपनी प्रेयसी होलिका की राख देखकर प्रेमी इलोजी चीत्कार उठे। इलोजी ने अपने शरीर के वस्त्रों को फाड़ डाला और अग्नि में जल चुकी होलिका की अवशेष भस्म को दोनों हाथों से अपने शरीर पर पोतने लगे।
होलिका और इलोजी की प्रेमकहानी का यह एक दुखद अंत था। वातावरण में स्तब्धता शून्यता छा चुकी थी। होलिका के वियोग में मानसिक रूप से विचलित होते जा रहे निढाल इलोजी को लेकर उनकी बारात बापस राजस्थान लौट गयी। कहा जाता है कि होलिका के वियोग में इलोजी आजीवन अविवाहित रहे तथा होलिका के शरीर की अवशेष भस्म को आजीवन वह अपने शरीर पर लपेटे रहे।
किवदंती इलोजी की मृत्यु न मानते हुए उन्हें आज भी जीवित मानती हैं। प्रतिवर्ष फाल्गुन पूर्णिमा को होलिका दहन के समय राजस्थान के कुछ भूभाग में इलोजी की बारात निकलती है तथा बांझ स्त्रियां संतान प्राप्ति के लिए देवता इलोजी की पूजा करतीं हैं।