अनाम विश्वजीत
‘पाखी’ हिन्दी जगत की एक सम्मानित पत्रिका है।इसके सद्य-प्रकाशित अंक जनवरी 2020 में एक आलेख छपा है : ‘वैश्विक चेतना से लबरेज़’।पृष्ठ 112 से 115 तक फैला हुआ यह आलेख हिंदी के यशस्वी कवि अरुण कमल पर केन्द्रित है और इसके लेखक हैं आरा से ‘देशज’ पत्रिका के सम्पादक अरुण शीतांश।इस आलेख को पढ़कर ऐसा लगता है कि जैसे ‘आलोचना’ का ‘गम्भीरता’ और ‘दृष्टिकोण’ से कोई लेना-देना ही न हो बल्कि आलोचना में किसी ने मज़ाक कर दिया हो,ऐसी अनुभूति होती है।इस आलेख को पढ़ते हुए हर जागरूक और सहृदय पाठक व साहित्य का अन्वेषक ‘विद्यार्थी’ शर्मिंदा ही होगा।इस आलेख से अच्छी हिन्दी तो आठवीं कक्षा का बच्चा लिखता है।मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि यह ‘आलेख’ प्रकाशित कर ‘पाखी’ ने अपने सम्मान पर ‘बट्टा’ लगा लिया है।आप शायद कहेंगे कि मैं ऐसे ही बड़ी-बड़ी हाँक रहा हूँ लेकिन ऐसा नहीं है।मेरे पास अपने पक्ष में तर्क भी हैं और प्रमाण भी।आइए हम इस आलेख से ही कुछ प्रमाण देखें और इस बात पर शर्मिंदा हों कि अरुण कमल जैसे कवि पर किसी ने इस भद्द तरीके से आलोचना लिखी है जो मेरी समझ से तो ‘आलोचना’ है ही नहीं वरन् एक बहुत ही दुःखद स्वप्न है और मैं प्रार्थना करता हूँ कि इस दुःस्वप्न को हम जल्दी से जल्दी भूल जाएँ तो अच्छा!हालाँकि एक जागरूक पाठक होने के नाते मैं अपने आप को लिखने-कहने से रोक नहीं पाया हूँ।यह मेरा साहित्यिक दायित्व भी बनता है।
अरुण शीतांश लिखते हैं : ‘कविता के लिए अरुण कमल जी बने हैं।अंग्रेजी साहित्य के भले ही प्रोफेसर हैं लेकिन उनका दिल और दिमाग दोनों संवेदना के तार से गुत्थमगुत्थ है।’ (पृष्ठ 112)
यहाँ सवाल उठना लाज़िमी है कि ‘अरुण कमल जी’ की आलोचना लिखी जा रही है या उन्हें कोई पुरस्कार दिया जा रहा है? भाव और शब्द तो आलोचना की जगह ‘चाटुकारिता वाले’ लगते हैं और तिस पर यह कि अंग्रेजी का प्रोफेसर क्या संवेदित नहीं होता, जो अरुण कमल के संवेदनशील होने से कोई नया चमत्कार हो गया है।?
जरा और बानगी देखिए।
‘भारतीय इतिहास में हम तमाम तरह की समस्याएँ देखे हैं।आज 21 वीं सदी के बाद एक ऐसे परिवेश में रह रहे हैं,जहाँ थोड़ा भय बढ़ गया है।’ (पृष्ठ 112) आलोचक की बुद्धि पर हँसा जाए या रोया जाए, फ़िलहाल मैं भी फ़ैसला नहीं कर पा रहा।मैं तो इस बात को लेकर स्तब्ध हूँ कि 21 वीं सदी बीत गई और मुझे पता भी नहीं चला।क्योंकि अरुण शीतांश लिखते हैं : ’21वीं सदी के बाद…….।’ कोई इतना भी घटिया कैसे लिख सकता है!इस तरह की असावधानी की हम कल्पना भी नहीं कर सकते।लेकिन बहुत दुःख के साथ लिख रहा हूँ कि अभी तो यह शुरुआत ही है।आगे-आगे देखते जाइए होता है क्या? अरुण शीतांश आगे लिखते हैं : ‘अरुण कमल जी ने एक कविता लिखी,तो उनकी संवेदना बहुत दूर तक जाती है।एक विशेष बात है।’ (पृष्ठ 113) क्या यहाँ मैं पूछ सकता हूँ कि इस बात का क्या मतलब है? यह आलोचना है या बेहूदगी? एक तो ‘अरुण कमल जी’ छूट नहीं रहे और तिस पर यह कि उनकी संवेदना बहुत दूर तक जाती है।क्या संवेदना का दूर तक जाना हिन्दी कविता में पहली बार घटित हो रही कोई घटना है? फिर यदि संवेदना की गहराई की तारीफ़ ही करनी है तो यह भाषा कैसी है? आप तारीफ़ कर रहे हैं या भाषा में रो रहे हैं।भाषा का इतना दीन लेखक मैं हिन्दी में पहली बार देख रहा हूँ। मुझे तो पढ़कर हँसी आ रही है।क्या आप भी हँस रहे हैं तो हँसने के और भी प्रसंग हैं।पढ़ते जाइए,हँसते जाइए।मैं दावा करता हूँ कि आपने आज से पहले ऐसी ‘अद्भुत आलोचना’ नहीं पढ़ी होगी।अब जरा यह देखिए : ‘अरुण कमल एक अच्छे कवि के साथ साथ एक अच्छे इन्सान भी हैं।उनका शहर से लगाव होना वाज़िब है।अरुण जी पटना शहर में रहते हैं।’ (पृष्ठ 113 ) इन पंक्तियों से मुझे पहली बार पता चला कि पटना एक शहर है और अरुण कमल पटना में रहते हैं।क्या आपने भी ये सब पहली बार जाना है? यहाँ आकर मैं ये भूल गया हूँ कि मैं अरुण कमल पर ‘आलोचना’ पढ़ रहा हूँ या उनकी ‘जीवनी’।मैंने आज तक ऐसी आलोचना नहीं पढ़ी थी।ख़ैर!अरुण शीतांश आगे लिखते हैं : ‘वहाँ इन्होंने अपनी पढ़ाई-लिखाई की है,जब अरुण कमल जी हवाई जहाज से उतरते हैं और खचाखच रौशनी में अपने शहर को देखते हैं तो उसमें से एक न एक बत्ती उनके घर की भी दिखाई दे रही होगी।’ आश्चर्य है कि पूरा हिन्दी जगत पहली बार इसी आलेख से इस बात को जान पाया है कि अरुण कमल हवाई जहाज पर चढ़ते भी हैं और उतरते भी हैं।औरों का तो नहीं जानता,लेकिन मैंने पहली बार यह बात जानी है।फ़िलहाल तो इस बात पर स्तब्ध हूँ कि अरुण कमल के ‘हवाईयात्रा’ का उनके लेखन से इतना भी गहरा क्या सम्बन्ध है? इस सन्दर्भ में भरत प्रसाद कहते हैं : ‘जब आप बिना अध्ययन और अभ्यास के आलोचना के क्षेत्र में उतरते हैं तब आपकी यही दुर्गति होती है।इससे पता चलता है किआप बिना किसी तैयारी के ‘लट्ठ’ भांज रहे हैं।’ बातचीत के क्रम में भरत प्रसाद बताते हैं कि अरुण शीतांश की एक आलोचना पुस्तक भी शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली है।मैं तो इस एक आलेख को पढ़कर ही अपना सिर धुन रहा हूँ।इस तरह की एक पूरी क़िताब पढ़ने के लिए तो कतई तैयार नहीं हूँ।
अरुण शीतांश आगे लिखते हैं : ‘भारत में खासकर बिहार में तीन तरह के मौसम सालों भर रहते हैं।ठंडा गर्मी और बरसात।’ (पृष्ठ 114) मैंने पहली बार इसी आलेख से जाना है कि साल में तीन ही मौसम होते हैं और उनमें भी एक मौसम है जिसका नाम है : ‘ठंडा’।मैं एक बार फिर से आठवीं कक्षा का भूगोल पढ़ना चाहता हूँ ताकि मौसम के बारे में अपनी जानकारी दुरुस्त कर सकूँ और आप सबसे भी अनुरोध करता हूँ कि अपनी जानकारी दुरुस्त कर लीजिए।कहीं ऐसा न हो कि अरुण शीतांश के ‘दिव्य ज्ञान’ में हम अपना ज्ञान भी गंवा बैठें।
अग्रज कवि व समीक्षक अनिल अनालहतु कहते हैं : ‘यह प्रतिक्रिया पाखी तक जानी चाहिए ताकि आगे से वे इस तरह ग़ैर-जिम्मेदराना आलेख न प्रकाशित करें।’ कवि संजय शांडिल्य तो बकायदे लिखते हैं कि ‘मैं पाखी को अपनी कुछ कविताएँ भेजने वाला था लेकिन जब पाखी का यही स्तर रह गया है तो मैं अपनी कविताएँ वहाँ नहीं भेजूँगा।’
अब जरा अरुण शीतांश के ‘बाढ़’ सम्बन्धी ज्ञान पर नजर डालिए।वे लिखते हैं : ‘बाढ़ विभीषिका एक आपदा की तरह हमारे सामने आ जाती है।हर साल।और कई घरों को तबाह कर जाती है।लोग छप्पर के ऊपर जाकर बैठ जाते हैं और छप्पर ही नहीं उनके घर जो भूस-पलानी से बने होते हैं।वह सब पानी में बह जाता है।’ ( पृष्ठ 114) मैं पूछना चाहता हूँ कि इससे बेहतरीन बाढ़ का बिम्ब और बाढ़ की व्याख्या आपने कहीं और पढ़ी हो तो ज़रूर बताइएगा।साथ ही यह भी कि ‘भूस-पलानी’ से बना घर होता कैसा है? शीतांश जी आगे लिखते हैं : ‘कोसी नदी विकराल रूप में आ धमकती है।खासकर उस इलाके को (ऊ बिहार) को तबाह करने।उसको लेकर के अरुण कमल ने कविता लिखी है।जिसका शीर्षक है : अंतिम युद्ध।
इस कविता में इन्होंने बहुत ही मार्मिक ढंग से अपनी बातें रखीं हैं।सरलतापूर्वक और सहजतापूर्वक रखीं हैं।’ (पृष्ठ 114) आप ध्यान दें तो यह पाएँगे कि अरुण शीतांश को ठीक से शायद यह भी पता नहीं है कि ‘सरलतापूर्वक’ और ‘सहजतापूर्वक’ एक साथ लिखने का क्या मतलब है? मैं गुज़ारिश करना चाहता हूँ कि उनको एक ‘हिन्दी-हिन्दी शब्दकोश’ ज़रूर ख़रीद लेना चाहिए ताकि शब्द प्रयोग तो ठीक से करने आ जाए।यदि उन्हें लिखना है तो……..?
एक बानगी और देखिए।वे बाढ़ के संदर्भ में ही आगे लिखते हैं : ‘राज्य का कोतवाल हेलीकॉप्टर से भ्रमण करता है।’ मैं नहीं समझ पा रहा कि किस राज्य में ‘राज्य का कोतवाल’ होता है।यदि आप जानते हों तो अवश्य ही बता दीजिए।इस आलेख को पढ़ते हुए मैं सिर दीवार पर पटक रहा हूँ।ऐसी ‘आलोचना’ पढ़ने से बेहतर है ‘कुछ न पढ़ना।’ लेकिन उस लेखक को शर्म आनी चाहिए जिसने यह लिखा है और ‘पाखी’ जैसी सम्मानित पत्रिका को तो अवश्य ही इस आलेख को प्रकाशित करने के लिए शर्मिंदा होना चाहिए।क्या एक राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका का यही हश्र होना लिखा है? क्या ‘पाखी’ का कोई ‘माई-बाप’ नहीं है जो ऐसे घटिया आलेख और वह भी टाइप की इतनी ‘घटिया अशुद्धियों’ के साथ प्रकाशित होती है।अग्रज कवि-कथाकार राकेश रंजन इस बात पर ध्यान दिलाते हैं कि ‘इस आलेख में न तो वाक्य शुद्ध हैं और न ही एक वाक्य का दूसरे वाक्य से कोई संगति बनती है और ऐसा हर पैराग्राफ़ में हुआ है।साथ ही लिंग दोषों की भी एक तरह से भरमार सी है।’
वैसे तो यह पूरा का पूरा आलेख अपने लिखे जाने के ढंग से और फिर अपने छापे जाने के ढंग तक ‘कचरा’ है।फिर भी यह ज्यादा बेहतर था कि इसे लिखा न जाता,छापा न जाता।हमें यह उम्मीद रखनी चाहिए कि ‘पाखी’ अपने आगामी अंकों में इसके लिए शर्मिंदा होगी और आगे से और अधिक ज़िम्मेवार।कम से कम इतना तो अवश्य होना चाहिए कि अपनी भद्द न पिटे।यह जरूर कहूँगा कि इस आलेख ने ‘समकालीन हिन्दी आलोचना में विदूषक-परम्परा’ को जन्म दे दिया है।जैसे गाँव में दशहरे के समय खेले जाने वाले नाटकों में एक विदूषक होता है जो दर्शकों का मनोरंजन करता है, इस आलेख ने भी पाठकों का खूब मनोरंजन किया होगा।लेकिन यह हिन्दी साहित्य जगत के लिए एक दुःस्वप्न ही है।हम इसे जितनी जल्दी भूल जाएँ, अच्छा होगा और साथ ही, हमें यह संकल्प भी लेना होगा कि यह ‘विदूषक-परम्परा’ आगे न बढ़ने पाए बल्कि ‘अरुण शीतांश’ के इस आलेख के साथ ही उस पर पूर्णविराम लगे अन्यथा यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि हम इस तरह के लेखकों को प्रोत्साहित और प्रकाशित करके ‘हिन्दी साहित्य’ में मदारियों को जगह देने की ओर ही अग्रसर हैं।इससे फ़ायदा क्या होगा,यह तो शोध का विषय होना चाहिए लेकिन इतना तय है कि हमें इसके दूरगामी और भयंकर परिणाम भुगतने होंगे।