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मध्य प्रदेश को जंगल राज बनने से रोकिये: रंजन श्रीवास्तव / भोपाल

(अमृत कलश: 5)

रंजन श्रीवास्तव/ भोपाल

आपकी बात: 5

“हे सरकार ! प्रदेश को जंगल राज बनने से रोकिये…!”

कुछ दिनों पहले इंदौर में जो घटना घटित हुई वह सत्ताजनित रोग का एक ज्वलंत उदहारण है। बहुत सी ऐसी घटनाएं पहले भी घटित हुई होंगी। उन घटनाओं में और इस घटना में अंतर सिर्फ इतना ही है कि पहले की घटनाओं में पीड़ित पक्ष या तो आम जनता रही होगी या व्यापारी या अन्य कोई और I पर इस घटना में पीड़ित सत्ता पक्ष के पार्षद हैं अतः सरकार और संगठन के लिए इस घटना को नज़रअंदाज करना मुश्किल था। अगर सत्ता पक्ष की जगह विपक्ष का कोई पार्षद या अन्य नेता होता तो शायद आरोप प्रत्यारोप के बीच में यह मामला गुम हो चुका होता और अड़ीबाजी का यह खेल बखूबी चल रहा होता। जिस तरह से 50 से ज्यादा लोग एक पार्षद के कथित शह पर दूसरे पार्षद के घर में दिनदहाड़े घुसते हैं, पार्षद के परिवार को अपमानित करते हैं जिनमें उनकी बूढी माँ भी हैं, पार्षद के नाबालिग बेटे को नंगा करके उसको घायल करते हैं यह याद दिलाता है उस बिहार की जहाँ से अक्सर जंगलराज के किस्से किसी जमाने में सुने जाते थे। इंदौर जो मध्य प्रदेश की आर्थिक राजधानी है वहां इस तरह की घटना बताती है कि सत्ता का मद नेताओं के एक वर्ग पर कितना हावी है।

ऐसा लगता है कुछ नेता अपनी प्राइवेट आर्मी चला रहे हैं। अगर किसी ने उनकी शान में गुस्ताखी की तो उसकी खैर नहीं। ना सिर्फ उसे टेलीफोन पर खुलेआम धमकाया जायेगा कि उसे प्राइवेट आर्मी का सामना रोज करना पड़ेगा बल्कि इस धमकी को असलियत में करके भी दिखाया जाता है।

यह अकल्पनीय है इंदौर जैसे शहर में जिसपर सरकार की निगाह हमेशा बनी रहती है और संघ का एक गढ़ होने के नाते सत्ता पक्ष के लोग इस बात को महसूस करते हैं कि उनका कोई भी गलत कदम उनके कैरियर को चोट पहुंचा सकता है I वहां इस तरह की गुंडागर्दी और आतंक को अंजाम देने की कोई हिम्मत करेगा यह सुनकर अजीब लगता है । पर घटना तो घटित हुआ है और पूरा घटनाक्रम यह बताता है कि एक व्यक्ति कई अपराधों में आरोपी होने के बाद भी कैसे सत्ता पक्ष में अपनी जड़ें मजबूत करता है बल्कि अपने सरनेम को भी बदल कर नगर निगम और जिला के प्रशासन पर अपनी हनक बनाये रख सकता है। यह सोचना कि उक्त नेता के बैकग्राउंड और क्रियाकलापों के बारे में संगठन या सरकार को पता नहीं था, अकल्पनीय है।

यह सत्ताजनित रोग ही है कि कोई नेता एक आदिवासी के ऊपर पेशाब करने की हिम्मत करता है या कोई नेता अपने पार्टी के ही कार्यकर्ता का चुनाव में टिकट दिलाने के नाम पर शारीरिक शोषण करता है या कोई मगरमच्छ पालकर उसपर करोड़ों खर्च करता है। वस्तुतः लगभग 20 वर्षों से भाजपा सत्ता में हैं। इस दौरान भाजपा ने ना सिर्फ सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत की बल्कि विपक्ष को भी कमजोर करने में कामयाब हुआ है। लोक लुभावन योजनाओं के जरिये पार्टी ने अपना जनाधार भी भरपूर बढ़ाया है।

अतः यह कहा जा सकता है कि भाजपा ने वह सब कुछ किया है जो एक पार्टी के विस्तार और मजबूती के लिए जरूरी होता है पर जो नहीं किया है वह है पार्टी में ऐसे लोगों का प्रवेश रोकना जो आपराधिक चरित्र के हैं और वो सत्ता में आते ही हैं सिर्फ और सिर्फ पैसा बनाने के लिए और अपना साम्राज्य मजबूत करने के लिए। सदस्यता के लिए जो स्क्रीनिंग समिति बनती है वह सिर्फ रबर स्टाम्प का काम करती है और यही हाल अनुशासन समिति का भी है।

प्रदेश कार्यसमिति की बैठक भी सिर्फ खानापूर्ति होती है जिसमे कोई भी ऐसा सत्र नहीं होता जिसमें कार्यकर्ता अपने मन की बात दल के पदाधिकारियों के सामने कह पाए या इस बात पर खुलकर चर्चा हो कि सरकार या संगठन पंडित दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुख़र्जी जैसे नेताओं के दर्शन को कहाँ तक चरितार्थ कर पाया है। राजनीतिक प्रस्ताव सिर्फ सरकार की प्रशंसा के लिए होता है। इस बात पर चर्चा कि पार्टी में कोई गलत व्यक्ति प्रवेश ना पा पाए या जो ऐसे लोग पार्टी में अंदर आ गए हैं उनको बाहर का रास्ता कैसे दिखाया जाए, शायद ही पिछले दो दशकों में पार्टी फोरम पर हुआ हो।

जब विपक्ष कमजोर हो और चुनाव किसी न किसी के चेहरे पर जीता जाना हो तो फिर किसको चिंता कि पार्टी के अंदर हो क्या रहा है? चिंता की बात यह भी है कि जो संघ अपने स्वयंसेवक को पार्टी का महासचिव (संगठन) बनाकर पार्टी में भेजता है कि वह सत्ताजनित बुराइयों पर लगाम लगाएगा और गलत लोगों को पार्टी में आने से रोकेगा या जो गलती कर रहे हैं उनको चेतावनी देने का काम करेगा? वह भी, लगता है इस बात को मान बैठा है कि सत्ताजनित बुराइयां अब अवश्यम्भावी हैं और उनका निदान करना या तो संभव नहीं है या ऐसा करने से पार्टी फिर से सरकार नहीं बना पायेगी।

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