आचार्य अमिताभ जी महाराज
श्री कृष्ण तथा उनकी मूलभूत शक्ति भगवती श्री राधा के संबंध को लेकर ऐसी अभिव्यक्ति नितांत पीड़ादायक : आचार्य अमिताभ
श्री कृष्ण तत्व कतिपय भ्रांतियां एवं उनका निराकरण
- shree Krishna Tatva- certain confusions and its scriptural clarifications
श्री कृष्ण के व्यक्तित्व, कृतित्व तथा समाज में उनके गंभीर योगदान को लेकर बहुत कुछ कहा और सुना जाता है, जो बहुत श्रेष्ठ भी है किंतु एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो अनुचित रूप से आचरण गत असंतुलन को भी, श्री कृष्ण के रास महोत्सव तथा उनकी परा शक्ति भगवती श्री राधा के साथ उनके संबंधों के आधार पर, न्यायोचित ठहराने का असंतुलित एवं विकृत प्रयास करता है। यह दृष्टिकोण अत्यंत धिक्कार के योग्य है, त्याज्य एवं अस्वीकार्य है।
सामान्य तौर पर मानविकी का छात्र क्वांटम फिजिक्स के बारे में अपनी राय देने के लिए अक्षम होता है या यूं कहें कि उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर होता है। जबकि सनातन धर्म में बिना किसी प्रकार के ज्ञान के या उपयुक्त शिक्षा के कोई भी व्यक्ति शास्त्र पर, ईश्वर पर, शास्त्रीय ग्रंथों पर अनधिकृत टिप्पणी करने के लिए स्वतंत्र है तथा ऐसा कोई अनुशासन नहीं है कि उसको ऐसा करने से रोका जा सके। हम सभी विभिन्न चैनलों पर धार्मिक विषयों पर आधारित सोप ओपेरा देखते रहते हैं। हम सभी कूड़ा देखने के तथा उसे ग्रहण करने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं।
मैं धारावाहिकों में रास लीलाओं में वयस्क पात्रों को जब श्री राधा कृष्ण का की भूमिका का निर्वहन करते देखता हूं तो आत्मा रोने लगती है, चित् दुखी हो जाता है किंतु क्या कर सकते हैं ? भारतीय संदर्भ में अपनी परंपराओं के गौरव को स्थापित करने या उसको यथावत बनाए रखने का भाव लुप्त होता जा रहा है। कोई इसका विरोध नहीं करता। मैं आगामी पंक्तियों में यह सिद्ध करूंगा कि वास्तव में रास के समय ठाकुर जी का आयु वर्ग क्या था? तब आप सभी मेरे कथन के तार्किक आधार को समझ पाएंगे।
मैं सूत्र रूप में एक बात कहूंगा कि किसी भी अन्य धार्मिक विश्वास या पंथ के आधारभूत व्यक्तित्व पर भ्रांति से युक्त तथा अतार्किक एवं विकृत धारावाहिक बनाने का किसी को साहस नहीं होता। किंतु सनातन धर्म में यह सभी को स्वतंत्रता प्राप्त है।
एक शिक्षित हिंदू अधिक शिक्षित और धर्मनिरपेक्ष तभी माना जाता है, जब वह अपने शास्त्रों को हीन दृष्टि से देखें तथा अपने इष्ट को, देवताओं को यथासंभव निंदनीय दृष्टिकोण से वर्णित करें। ऐसा करके उसे अपने शिक्षित होने का तथा आधुनिक होने का विशेष गर्व अनुभव होता है।
कतिपय संदर्भ में लिव इन रिलेशनशिप ( live in relationship) को विधि मान्य ठहराने के लिए भी श्री राधा कृष्ण के साथ का उद्धरण दिया जा चुका है, यद्यपि भारी विरोध के बाद उसको व्यवस्था की कार्यवाही से निकाल दिया गया।
इसके पीछे तर्क यह था कि श्री राधा कृष्ण भी विवाह रहित संबंध में सहधर्मी थे, अतः इस संबंध में दोष क्या है? ऐसा संबंध किसी विवाद के घेरे में नहीं आता रहा है अतः अनुमन्य है।
मेरे तथा बहुसंख्यक सनातन धर्मावलंबियों के परम आराध्य भगवान श्री कृष्ण तथा उनकी मूलभूत शक्ति भगवती श्री राधा के संबंध को लेकर ऐसी अभिव्यक्ति नितांत पीड़ादायक होती है। हिंदुओं का एक अबौद्धिक, अश्रद्धालु वर्ग इस प्रकार की चर्चा को येन-केन-प्रकारेण जीवित रखने का प्रयास करता है। अतः यह आवश्यक हो गया कि श्रीमद् भागवत तथा अन्यान्य ग्रंथों के सूत्रों के मंथन से इस भ्रांति का निराकरण एवं निवारण किया जाए।
श्री कृष्ण को ईश्वर के पूर्ण अवतार के रूप में स्वीकार किया गया है। उनका जीवन, चरित्र, गतिविधियां आदि विशुद्ध आस्था का विषय होने के कारण तर्क तथा भौतिक मूल्यांकन, वर्तमान यांत्रिक पद्धति एवं परंपरा से परे है।
अत्यंत कोमल अवस्था में गोवर्धन पर्वत को 7 दिनों तक कनिष्ठा उंगली पर धारण करना, भयंकर दैत्य कंस के मल्लो, कुवलियापीड़ हाथी तथा स्वयं प्रत्यक्ष संघर्ष में तत्कालीन समर्थ एवं शक्तिशाली शासक कंस का सामना करने जैसी घटनाएं कार्य करना किसी बालक के लिए संभव नहीं था। किंतु श्री कृष्ण में ईश्वर तत्व की अवधारणा का दर्शन करके हम इन समस्त घटनाक्रमों को उनके व्यक्तित्व के साथ संबंध करके स्वीकार करते हैं।
समुद्र में द्वारिका का पुनर्निर्माण तथा संपूर्ण प्रजा का वहां पुनर्वास उनकी अतींद्रिय सामर्थ्य का ही परिणाम था। भगवान की रासलीला तथा श्री राधा कृष्ण संबंध पर अज्ञानियों के द्वारा नाना प्रकार के प्रवाद फैलाए गए हैं।
“स एकोहम बहुस्याम “ की संकल्पना के अनुसार श्री ठाकुर जी ने विहार करने की इच्छा उत्पन्न होने पर स्वयं को ही सहस्त्रों तथा लाखों रूप में प्रकट किया।
श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध में रास पंचाध्याय के प्रथम श्लोक में प्रथमतः “भगवान् अपि “ का उल्लेख यह स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है कि यह मानुषी नहीं अपितु ईश्वरीय लीला है। गहन परीक्षण से स्पष्ट होता है कि लाखों गोपियों के साथ भगवान श्री कृष्ण की लीला किसी सहज मनुष्य की विहार लीला हो ही नहीं सकती। जैविकीय रूप से भी किसी पुरुष का इस प्रकार विहार करना संभव नहीं है। श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध में रास पंचाध्याय के अंतिम श्लोक
के अनुसार जो धीर पुरुष श्री कृष्ण की इस दिव्य लीला का निरंतर- निरंतर श्रवण एवं वर्णन करेगा वह शीघ्र ही भगवान श्री कृष्ण की परा भक्ति को, सर्वश्रेष्ठ प्रेम स्वरूपा भक्ति को प्राप्त हो जाएगा तथा हृदय के विकार रूप लौकिक काम से सर्वथा मुक्त हो जाएगा।
महामुनि शुकदेव जिस लीला से काम के समाप्त होने का वर्णन कर रहे हैं। उसी में काम दर्शन करने का कोई आधार प्राप्त नहीं होता।
इसके अतिरिक्त 11 वर्ष की अवस्था में ब्रज क्षेत्र का त्याग कर चुके श्री कृष्ण की रासलीला के समय वय 8 से 10 वर्ष के मध्य थी।
इस आयु वर्ग के किसी बालक से इस प्रकार की क्रीड़ा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। प्रकारांतर से यह ईश्वरीय लीला के रूप में ही ग्राह्य है तथा उसे उसी रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त 11 वर्ष की अवस्था में ब्रज त्याग कर मथुरा चले गए। श्री कृष्ण श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध के अनुसार जीवन के उत्तरार्ध में कुरुक्षेत्र में सूर्यग्रहण के अवसर पर दीर्घकाल के उपरांत नंद- यशोदा से तथा गोपियों से, गोपों से भेंट करते हैं। यहां पर भी श्री राधा का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता। यदि कोई व्यक्ति श्री राधाकृष्ण संबद्धता पर अपनी विकृति का आरोपण कर अपने त्याज्य आचरण को न्यायोचित ठहराने का प्रयास करें व समाज या शासन उस पर अपनी सहमति दें तो बहुत भयंकर स्थिति उत्पन्न हो सकती है क्योंकि इस आधार पर तो श्रीमद् वाल्मीकि रामायण के उद्धरण की भी चर्चा की जा सकती है। इसके अनुसार लोकापवाद के कारण श्रीराम ने भगवती सीता को अग्नि परीक्षा का निर्देश दिया था। अब यदि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी के चरित्र की परीक्षा हेतु इस उद्धरण के आधार पर आचरण की अनुमति मांगे तो क्या समाज उसकी स्वीकृति प्रदान करेगा?
तात्पर्य यह है कि प्रत्येक घटना का एक विशेष संदर्भ होता है तथा उस संदर्भ से पृथक कर उस घटना विशेष का मूल्यांकन संभव नहीं होता। अतः विशुद्ध आस्था का विषय होने के कारण श्री कृष्ण स्वरूप, चरित्र, लीला के क्षेत्र में नकारात्मक हस्तक्षेप करने से बचने की आवश्यकता है।
विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण, पद्म पुराण, ब्रह्म वैवर्त पुराण में श्री कृष्ण राधा विषयक संदर्भ प्राप्त होते हैं। मत्स्य पुराण में गौड़ीय वैष्णव के अनुसार श्री राधा संकेत प्राप्त होता है। अथर्ववेदीय राधिका तापनीय उपनिषद में भी श्री राधा कृष्ण का अलौकिक संबंध परिलक्षित होता है।
किंतु श्री कृष्ण राधा या सांगोपांग श्री कृष्ण लीला का जैसा मधुर और सांगोपांग वर्णन “श्रीमद्भागवत में दशम स्कंध “ में प्राप्त होता है वैसा अन्यत्र प्राप्त नहीं होता ना परिलक्षित होता है।
अतः में श्रीमद्भागवत के आधार पर वह तथ्य प्रदान करूंगा जो यह स्पष्ट कर देंगे कि श्रीकृष्ण की लीलाओं का काल तथा उनकी गतिविधियों से श्री राधा कृष्ण की संबद्धता इस प्रकार से कहीं भी सिद्ध नहीं होती है जिसको किसी अन्य प्रकार के असंतुलन या असंयम के साथ संबद्ध किया जा सकें।
अपनी तथ्यात्मक प्रस्तुति की पुष्टि हेतु मैंने श्रीमद् भागवत मूल ,श्रीमद्भागवत पर गौड़ीय वैष्णव गोस्वामीओं की टीका जैसे श्री सनातन गोस्वामी बृहद तोषीणि ,जीव गोस्वामी की वैष्णव तोषीणि तथा श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती पाद की सारार्थ दर्शनी का आश्रय ग्रहण किया है। विशेष रूप से श्री कृष्ण की लीला काल विभाजन व निर्धारण में विश्वनाथ चक्रवर्ती पाद की सारार्थ दर्शनी का विशेष महत्व है।
श्री शुकदेव ने कहा परीक्षित एक बार भगवान के करवट बदलने का अभिषेक उत्सव मनाया जा रहा था। उस दिन उनका जन्म नक्षत्र भी था। घर में बहुत-सी स्त्रियों की भीड़ लगी थी। गाना बजाना हो रहा था। ब्राम्हण लोग मंत्र पढ़कर नंद नंदन श्री कृष्ण का अभिषेक कर रहे थे।
टिप्पणी —– श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती पाद की सारार्थ दर्शनी टीका के अनुसार शुकदेव जी ने क्रमानुसार बाल लीला कहनी प्रारंभ की lश्री कृष्ण जन्म को नक्षत्र के अनुसार 3 माह का समय है।
श्री कृष्ण जन्म को नक्षत्र के अनुसार 3 माह का समय हो चुका था उन्होंने करवट भी बदली तथा जन्म नक्षत्र रोहिणी का योग भी था अतः अभिषेक उत्सव संपन्न हो रहा था।
एक छकड़े के नीचे शयन कर रहे श्री कृष्ण के चरण अभी लाल लाल कोपल के समान बड़े ही कोमल व नन्हें-नन्हें थे। परंतु वह नन्हा सा पांव लगते ही विशाल छकड़ा उलट गया। उस चेहरे पर दूध दही आदि अनेक रसों से युक्त पदार्थों से भरी मटकिया व अन्य बर्तन रखे थे, वे सब के सब फूट गए और छकड़े के पहिए व धूरे अस्त व्यस्त हो गए। उसका जुआ फट गया।
टिप्पणी——-
यह शकट भंजन एवं शकटासुर उद्धार की कथा का संकेत है। जिसका पर्याप्त दार्शनिक विस्तार संभव होने पर भी यहां आवश्यक एवं प्रासंगिक नहीं है।
शुकदेवजी ने कहा परीक्षित ! एक दिन की बात है जब श्रीकृष्ण। वर्ष के हो गए थे सहसा श्री कृष्ण चट्टान के समान भारी बन गए अर्थात भगवती यशोदा उनका भार सहन करने की स्थिति में नहीं थी।
टिप्पणी——-
श्री सनातन, श्री जीव गोस्वामी तथा श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती पाद के अनुसार यह तृणावर्त उद्धार की पृष्ठभूमि थी।
एकत्र होकर रो रही स्त्रियों ने देखा कि वह विकराल दैत्य आकाश से एक चट्टान पर गिर पड़ा तथा उसका एक-एक अंग चकनाचूर हो गया, ठीक वैसे ही जैसे श्री शंकर के बाणों से आहत होकर त्रिपुरासुर गिरकर चूर चूर हो गया था।
भगवान श्री कृष्ण उसके वक्ष स्थल पर लटक रहे थे।यह देख विस्मित गोपियों ने श्रीकृष्ण को गोद में लेकर उन्हें माता को प्रदान किया। बालक मृत्यु के मुख से सकुशल लौट आया। राक्षस द्वारा आकाश में ले जाए जाने पर भी वह बच गया। इस प्रकार बालक श्रीकृष्ण को प्राप्त कर यशोदा आदि गोपियों तथा नंद राज आदि गोपों को अत्यंत आनंद की अनुभूति हुई।
भगवान ने जो अपने ग्वाल बालों को मृत्यु के मुख से बचाया था तथा अघासुर को मोक्ष प्रदान किया था। वह लीला भगवान ने अपनी कुमार अवस्था में अर्थात पांचवें वर्ष में की थी, परंतु ग्वाल वालों ने इसे पौगंड अवस्था अर्थात छठवें वर्ष में देखा। उन्होंने अत्यंत आश्चर्य चकित होकर ब्रज में इसका वर्णन किया था।
श्री शुकदेव जी ने कहा परीक्षित ! तुमने मुझसे पूछा था कि भगवान के पांचवें वर्ष की लीला ग्वाल बालों ने छठे वर्ष में कैसे कही उसका सारा रहस्य मैंने तुम्हें बतला दिया।
श्री शुकदेव देव जी कहते हैं कि परीक्षित, ” अब श्री बलराम व श्रीकृष्ण ने पौगंड अवस्था में अर्थात छठे वर्ष में प्रवेश किया। अब उन्हें गाय चराने की स्वीकृति प्राप्त हो गई। वे अपने सखा ग्वाल बालों के साथ गायों को चराते हुए वृंदावन में जाते। उनके चरण चिन्हों से वृंदावन की भूमि और पवित्र होने लगी।”
टिप्पणी—–
श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती पाद के अनुसार वह तिथि थी कार्तिक मास की शुक्ल अष्टमी जो गोपाष्टमी नाम से प्रसिद्ध है।
श्रीमद्भागवत के 24 वें अध्याय में श्री कृष्ण द्वारा ब्रज गोपों को इंद्र के निमित्त यज्ञ करने की प्रक्रिया को देखकर अनेक प्रश्न अपनी उत्सुकता को शांत करने के लिए पूछे गए 1 से 7 श्लोक पर्यंत।
टिप्पणी——
इसकी व्याख्या में श्री सनातन जीव गोस्वामी तथा श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती पादने श्री कृष्ण लीला क्रम एवं उनकी वय पर विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि भाद्र मास में श्रीकृष्ण आविर्भाव के 7 वर्ष पूर्ण हो गए। आठवें वर्ष शरद ऋतु आश्विन मास में वन विहार एवं वेणु गीत वर्णित हुआ है। शरद ऋतु के कार्तिक मास में गोवर्धन धारण तथा वरुण लोक गमन लीला संपन्न हुई।
हेमंत में मार्गशीर्ष में चीरहरण लीला संपन्न हुई। ग्रीष्म आने पर याज्ञिक पत्नियों से अन्न की भिक्षा प्राप्त हुई। पुनः नवे वर्ष में प्रवेश करने के उपरांत शरद की आश्विन पूर्णिमा को रास का आरंभ हुआ।
“यह तथ्य पुनः पुनः रेखांकित किए जाने की बहुत आवश्यकता है कि श्रीकृष्ण के नवम वर्ष में प्रवेश करने के उपरांत शरद की आश्विन पूर्णिमा को रास का आरंभ हुआ।’
श्री कृष्ण के इस आयु वर्ग के उल्लेख मात्र से समस्त विवाद स्वयं में ही समाप्त हो जाते हैं और यह स्पष्ट करते हैं कि ऐसी किसी भी प्रकार की मूर्खता को रंच मात्र भी स्थान प्रदान नहीं किया जा सकता जो उनके तथा श्री भगवती राधा के मध्य के संबंध के विषय में नाना प्रकार के विवादों को फैलाने का काम करते हैं।
जैसे गजराज कोई कमल उखाड़ कर उसे ऊपर उठा ले वा धारण करें वैसे ही इस नन्हे से 7 वर्ष के बालक ने एक ही हाथ से गिरिराज गोवर्धन को उखाड़ लिया व खेल-खेल में 7 दिनों तक उठाए रखा।
भला कहां तो यह 7 वर्ष का नन्हा सा बालक व कहां इतने बड़े गिरिराज को 7 दिनों तक उठाए रखना l हे ब्रजराज इसी से तुम्हारे पुत्र के संबंध में हमें बड़ी शंका हो रही है l ऐसा ग्वाल बालों ने नंद राज जी से कहा l
श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित ! देवर्षि नारद की प्रार्थना सुनकर इधर तो भगवान श्री कृष्ण ने मथुरा जाने का संकल्प लिया और उधर महामति अक्रूर जी भी वह रात्रि मथुरा पुरी में व्यतीत कर प्रातः काल होते ही रथ पर सवार हुए वह नंदराय के गोकुल की ओर चल पड़े।
टिप्पणी—–
बृहद तोषीणि , वैष्णव तोषीणि व विशेष रूप से है सारार्थ दर्शनी टीका के अनुसार कंस ने फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन केसी दैत्य व अक्रूर जी को ब्रज जाने का आदेश दिया। एकादशी के दिन अक्रूर निर्जल रहते हुए रात्रि जागरण करते थे तथा पारण किए बिना ही वह मथुरा से चल पड़े उसी दिन प्रातः केसी दैत्य का तथा अपराह्न में व्योमासुर का वध संपन्न हुआ। सांध्य में अक्रूर गोकुल पहुंचे।
एक विशेष तथ्य जिस पर ध्यान दिए जाने की महती आवश्यकता है:
फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी को भगवान ने ब्रज क्षेत्र का परित्याग कर मथुरा गमन किया उस दिन श्रीकृष्ण 10 वर्ष 7 माह के थे।
यह श्लोक राजा कंस की व्यायामशाला , रंगशाला का संकेत करता है। जब श्री कृष्ण ने कहा कि किंतु चाणूर! हम लोग अभी बालक हैं, अतः हम अपने समान बल वाले बालकों के साथ ही कुश्ती का खेल करेंगे। कुश्ती समान बल वालों के साथ ही होनी चाहिए जिससे देखने वाले सभासदों को अन्याय का समर्थक होने का पाप न लगे।
मुनि शुकदेव जी कहते हैं कि हे परीक्षित इस दंगल को देखने हेतु बहुत सी महिलाएं भी आई थी। उन्होंने जब बड़े-बड़े पहलवानों के साथ छोटे-छोटे बल हीन बालकों को लड़ाया जाना देखा तो वे अलग-अलग टोलियां बनाकर करुणावश परस्पर वार्ता करने लगी।
वे कहने लगी यहां राजा कंस के सभासद बड़ा अन्याय व अधर्म कर रहे हैं। कितने खेद का विषय है कि राजा के सामने ही यह बलवान पहलवानों व निर्बल बालकों के युद्ध का अनुमोदन कर रहे हैं।
टिप्पणी —–
इन्हीं प्रसंगों के संदर्भ में मुख्यतः सारार्थ दर्शनी के अनुसार कंस का वध फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ठाकुर जी के द्वारा किया गया।
विशेष——
इन समस्त श्लोक का संदर्भ यह स्पष्ट करना है कि श्रीकृष्ण की बाल्यावस्था ही ब्रज क्षेत्र में व्यतीत हुई थी तथा उसी काल में अर्थात आयु के 11वे चल रहे वर्ष में उन्होंने ब्रज का त्याग कर दिया था।
उन की बाल्य अवस्था में Companianship and Live in Relationship का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि एक बालक से ऐसे संबंधों की आशा करना संभव नहीं है।
किंतु, उसी के साथ श्री कृष्ण लाखों लाखों गोपियों के साथ रास संपन्न करते हैं। बाएं हाथ की उंगली पर 7 दिन गोवर्धन पर्वत उठाते हैं। अनेकानेक दैत्यों तथा स्वयं कंस का वध संपन्न करते हैं। ऐसे कृत्यों की आशा भी एक बालक या यूं कहें कि किसी मनुष्य से भी नहीं की जा सकती। अतः यहां पर श्री कृष्ण का ईश्वरत्व प्रकट होता है।
श्री कृष्ण कहते हैं कि हे उद्धव जी ! तुम ब्रज में जाओ। वहां मेरे पिता माता नंदराय जी तथा यशोदा मैया हैं। उन्हें आनंदित करो और गोपियां मेरे विरह की व्याधि से बहुत दुखी हो रही है। उन्हें मेरे संदेश सुना कर उस वेदना से मुक्त करो।
टिप्पणी—–
यदि श्री कृष्ण राधा की लिव-इन रिलेशनशिप में थे तो श्रीकृष्ण को ऐसी आवश्यकता क्यों पड़ गई कि उन्हें उद्धव जी को अपने संदेश के साथ ब्रज भेजना पड़ गया।
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित! इसी प्रकार भगवान श्री कृष्ण और बलराम जी द्वारिका में निवास कर रहे थे। एक बार सूर्य ग्रास सूर्य ग्रहण लगा जैसा कि प्रलय के समय लगा करता है।
वहां मत्स्य, उसीनर, कौशल, विदर्भ, कुरु, सृजय, कांबोज, कैकय, मद्र, कुंती, आनर्त, केरल व दूसरे अनेक देशों के अपने अपने पक्ष के तथा शत्रु पक्ष के सैकड़ों नरपति आए हुए थे। परीक्षित ! इसके अतिरिक्त यदुवंशियों के परम हितैषी बंधु श्री नंद आदि गोप तथा भगवान के दर्शन के लिए चिरकाल अर्थात बहुत लंबे समय से उत्कंठा से युक्त गोपियां भी वहां आई हुई थी। यदुवंशी लोग सबसे यथा योग्य मिले।
श्री शुकदेव कहते हैं परीक्षित व्रज गोपियों के जीवन सर्वस्व श्री कृष्ण ही थे। उनके दर्शन करते समय गोपियां नेत्र की पलके गिरने पर पलके बनाने वाले को कोसने लगती थी। उन्हीं प्रेम मूर्ति गोपियों को बहुत दिन बाद भगवान श्री कृष्ण का दर्शन प्राप्त हुआ। उनके मन में इस दर्शन लालसा के परिमाण का अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता।
उन्होंने नेत्रों के मार्ग से श्रीकृष्ण को अपने हृदय में धारण किया तथा तन्मय हो गई। परीक्षित ! कहां तक कहूं वह उस भाव को प्राप्त हो गई जो निरंतर अभ्यास करने वाले योगियों के लिए भी अत्यंत दुर्लभ होता है।
श्री कृष्ण ने कहा कि हे गोपियों ! हम लोग अपने स्वजन- संबंधियों का कार्य करने के लिए ब्रज से बाहर चले आए।
इस प्रकार तुम्हें छोड़ कर हम शत्रु विनाश करने के महत्वपूर्ण कार्य में उलझ गए। बहुत समय व्यतीत हो गया। क्या कभी तुम लोग हमारा स्मरण भी करती हो ?
टिप्पणी —–
महाभारत युद्ध या यह कहें कि युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के पूर्व यह सम्मेलन कुरुक्षेत्र में हुआ, जब श्री कृष्ण पुत्र पौत्र आदि से युक्त हो चुके थे। उनके वय का उत्तरार्ध था। यहां भी श्री राधा का स्पष्ट संकेत प्राप्त नहीं होता है।
अतः प्रत्येक प्रकार के विक्षेप का शमन कर शुद्ध बुद्धि से श्री ठाकुर जी तथा उनकी अचिंत्य शक्ति गौर तेज भगवती श्री राधा की कृपा की अभिलाषा होने की आवश्यकता है। इससे हमारे अपवित्र हृदय व मस्तिष्क शुद्ध हो जाएंगे।
शुभम भवतु कल्याणम!
आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज
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