आचार्य अमिताभ जी महाराज
दो शब्द भारतीय अस्मिता एवं विशेषकर श्रीमद् वाल्मीकि रामायण पर
रामायण का ऐसा विशद स्वरूप है कि उसमें विद्वान कवियों की, लेखकों की अपनी-अपनी भाव से युक्त व्यंजनाओं का अद्भुत भाव प्रवाह देखने को मिलता है।
भाषाओं का प्रश्न है तो तिब्बत, भूटान, मलय, जावा हिकायत श्रीराम, पातानी, हिंद चीन, श्याम, ब्रह्मदेश कहां कहां की बात करें, रामकथा का विशद और अद्भुत स्वरूप देखने को मिलता है
किंतु यहां पर मैं रामकथा के मूल स्त्रोत श्रीमद् वाल्मीकि रामायण की चर्चा करूंगा जिसको मूल आधार के रूप में स्वीकार किया गया है।
किंतु दुर्भाग्य से अभी भी उसके मूल लेखक को लेकर के कुछ विवाद हैं। मैं किसी भी स्थिति में उस विवाद को स्पर्श नहीं करना चाहता हूं, मैं मात्र शास्त्रीय आधार पर अपनी बात कहूंगा।
जनसामान्य की धारणा यह है कि रामायण के रचयिता वाल्मीकि पहले डकैत और हिंसक व्यक्ति थे तथा सप्तर्षियों की कृपा से मरा-मरा जपते जपते तत्व युक्त महापुरुष हो गए। लोक स्तुति में यही बात स्वीकार की जाती है। स्वयं गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में किन्ही महर्षि वाल्मीकि के बारे में लिखा है:
उल्टा नाम जपत जग जाना
बाल्मीकि भए ब्रह्म समाना।।
अध्यात्म रामायण में भी किसी महर्षि वाल्मीकि की चर्चा हुई है जिन्हें वाल्मीकि रामायण के रचयिता के रूप में माना गया है।
किंतु विशेष बात यह है कि जब हम तुलसीकृत रामायण का अध्ययन करते हैं तब एक विशेष और अद्भुत बात सामने आती है। श्रद्धेय तुलसीदास जी ने मानस के बालकांड में एक सोरठा लिखा है जिस पर विचार आवश्यक है, वह इस प्रकार है:
बंदऊं मुनि पदकंज रामायण जेही निरमयऊ
सखर सुकोमल मंजु दोषरहित दूषण सहित
अर्थात में रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि के चरण कमलों की वंदना करता हूं। रामायण महाकाव्य सखर अर्थात रूखा तथा अत्यंत कोमल है एवं इसके साथ ही साथ दोषों से रहित है तथा दूषण यानी दोष से युक्त है।
अब यह तो बड़ी आश्चर्य से युक्त बात है कि कोई काव्य रूखा हो, उसके साथ कोमल भी हो, दोष भी हो और दोषों से रहित भी हो।
वास्तव में सोरठा में जो विरोधाभास दिखाई देता है उसका तात्पर्य यही है कि रामायण ग्रंथ खर की कथा से तथा कोमल कांत पदक्रम से युक्त है। इसी प्रकार रामायण दूषण की कथा से युक्त तथा काव्य में दिखाई पड़ सकते वाले संभावित दोषों से रहित है। स्पष्ट है इसीलिए गोस्वामी जी को तुलसी शशि कहा गया। उनकी सामर्थ्य का परिवर्धन तथा उसकी स्वीकृति ही तो है। वास्तव में इस विवाद को शांत करने के लिए ही गोस्वामी जी महाराज ने उपर्युक्त सोरठे को लिखा।
उस काल में वाल्मीकि कृत दो रामायण थी, एक ‘आनंद रामायण‘ तथा दूसरी ‘श्री रामायण‘ जिनके लेखकों के नाम तो महर्षि वाल्मीकि ही है, किंतु रामचरितमानस के आधार के रूप में श्री गोस्वामी जी ने उस रामायण को स्वीकार किया जिसमें खर एवं एवं दूषण की कथा है। जबकि आनंद रामायण में खर और दूषण की चर्चा प्राप्त नहीं होती, उसके प्रणेता भी वाल्मीकि रामायण काल से भिन्न है। आनंद रामायण में मात्र 14500 श्लोक है, जबकि वाल्मीकि रामायण में 24256 श्लोक हैं।
इस बात यह है कि आनंद रामायण के लेखक महर्षि वाल्मीकि अपने बारे में स्वयं वर्णन करते हैं। बताते हैं कि उनका जन्म स्वपच वंश में हुआ था और वह हिंसा के माध्यम से परिवार का पालन करते थे। कालक्रम से एक दिन वन में जाते हुए सप्त ऋषियों का वह सब कुछ छीन लेते हैं। सप्त ऋषियों की कृपा से ही जब वह अपने परिवार के प्रति मोह से मुक्त हो जाते हैं, तब वह अपने आत्म कल्याण का मार्ग पूछते हैं।
उन्होंने कहा तुम राम राम का जप करो, किंतु वह तो सिंह मरा, हिरण मरा आदि कहने के अभ्यासी थे। अतः प्रयास करने पर भी राम-राम नहीं कह पा रहे थे तो सप्तर्षियों ने कहा कि निरंतर निरंतर मरा मरा का जाप करोगी तभी वह राम-राम हो जाएगा और तुम्हारा कल्याण होगा।
इस प्रकार वह महर्षि वाल्मीकि हो गए और आनंद रामायण जैसे ग्रंथ का लेखन संपन्न किया।
जबकि श्री रामायण का वर्णन करने वाले महर्षि वाल्मीकि तो प्रचेता अर्थात वरुण के दशम पुत्र हैं। वह सत्य भाषी हैं। भगवान श्री राम के दरबार में जब माता जानकी की शुद्धता को प्रमाणित करने का प्रसंग आता है तब वह भगवती के विषय में श्री राम के दरबार में उच्च स्वर में यह घोषणा करते हैं कि रघुनंदन मैं प्रचेता का दसवां पुत्र हूं। मुझे यह स्मरण नहीं आता कि मैंने कभी कोई असत्य भाषण किया हो। यह लव और कुश तुम्हारे पुत्र हैं। मैंने 1000 वर्षों तक तपस्या साधना की है। यदि जानकी में किसी भी प्रकार का कोई दोष, पाप हो तो मुझे अपनी तपस्याओं का फल प्राप्त न हो। इससे स्पष्ट हो जाता है कि वाल्मीकि रामायण या श्री रामायण के प्रणेता महर्षि वाल्मीकि जन्मता अत्यंत पवित्र हैं। उनमें किसी प्रकार का कोई दोष या पाप नहीं था। बाकी सबकी अपनी-अपनी वृद्धि एवं मति है और वह अपना निर्णय स्वयं करने के लिए स्वतंत्र हैं।
आज मात्र इतना अंश, भविष्य में वाल्मीकि में निहित कतिपय सूत्रों की ठाकुर जी की कृपा से व्याख्या करने का प्रयास करूंगा जिनसे अधिकांश भारतीय अनभिज्ञ हैं। क्योंकि वाल्मीकि रामायण का इतना प्रचार प्रसार प्रतीत नहीं होता है।
शुभम भवतु कल्याणम!!!
आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज
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