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“श्रीमद्भागवत कथा: दत्तात्रेय उपाख्यान-सप्तम पुष्प: 7”

“अजगर से यह सीखा कि मीठा मिले, कड़वा मिले, ज्यादा मिले, थोड़ा मिले, अच्छा मिले, थोड़ा खराब मिले, ईश्वर की इच्छा से या जो तुम्हारे सामने आ जाए, उसमें संतोष करो। जीवन में अपनी इंद्रियों की तृप्ति के लिए साधन एकत्र करने के पीछे व्याकुल यदि हो गए तो ईश्वर भजन नहीं कर पाओगे।”

आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज

अवधूत भगवान दत्तात्रेय एवं भगवान श्री कृष्ण के पूर्वज महाराज यदु के मध्य का यह अत्यंत विद्वता पूर्ण गंभीर संवाद जिसे अवधूत गीता के नाम से अभिहित किया जाता है, हम उसी की निरंतरता से संबद्ध हैैं। भगवान दत्तात्रेय द्वारा वर्णित 10 गुरुओं के वृतांत एवं मानव जीवन में उनकी प्रासंगिकता एवं उपादेयता का वर्णन एवं विचार करने के उपरांत अब हम अन्य गुरुओं के विषय में चर्चा करते हैं। मैं यहां पर एक बात पूर्णता स्पष्ट कर देना चाहता हूं क्योंकि श्रीमद्भागवत परमहंस संहिता है एवं कल्पवृक्ष भी है, अतः उससे प्रत्येक प्राणी अपनी रुचि के अनुसार पदार्थ प्राप्त कर सकता है किंतु उसका मूल मोह से और राग से मुक्त हो जाना ही है। अतः अन्य गुरुओं के विषय में अवधूत भगवान दत्तात्रेय के द्वारा किए गए वर्णन से उन गुरु के गुणों को गृहस्थ भ्रमर के समान ग्रहण कर सकते हैं। किंतु उसका अधिकांश मुमुक्षु जनों के लिए है तथा उनके लिए है जो सांसारिक प्रपंच से दूर हटते हुए ईश्वर की प्राप्ति की दिशा में या मोक्ष की प्राप्ति की दिशा में बढ़ना चाहते हैं किंतु संसार की बेड़ियों में जकड़े रहने के कारण तथा उन बेड़ियों से मुक्त होने के उपायों को न जानने के कारण बंधे हुए हैं। उन्हें इन गुरुओं की शिक्षाओं से बहुत कुछ बोध एवं मार्ग प्राप्त हो सकता है किंतु फिर भी पुनः मैं यह स्पष्ट कर दूं कि यह समस्त गुरुओं का वृतांत मानव मात्र के लिए उपयोगी है, यदि वह अपनी वृत्ति के अनुसार उसमें से तत्व को ग्रहण करने की सामर्थ्य रखता है।

अब भगवान दत्तात्रेय अजगर से प्राप्त उपयोगी संदर्भों की चर्चा महाराज यदु से करते हैं। इसका तात्पर्य है कि अजगर वृत्ति से जीवन यापन करना। यह मुमुक्षु जनों के लिए तथा विराग की दिशा में उन्मुख लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण संदर्भ है।

एक छोटा सा संदर्भ है। एक अरबपति सेठ के स्थान पर एक बाबा जी पहुंचे तो सेठ ने उनका सम्मान किया और यह कहा कि महाराज आप तो बड़े विरक्त हो, बड़े ही निस्पृह हो, आप तो सम्मान के पात्र हो। किंतु बाबा जी ने तुरंत अपना दंड किनारे रखा और भूमि पर साष्टांग दंडवत प्रणाम करते हुए सेठ जी से कहा, “हम तो निस्पृह नाम के हैं, वास्तव में तो योगी-संन्यासी आप ही हो।”

सेठ चक्कर में पड़ गया कि इसका क्या मतलब हुआ ? बोले, “मतलब यह हुआ कि ईश्वर के नाम की अमूल्य निधि का परित्याग करके, भगवान के स्वरूप का चिंतन करने के अवसरों का परित्याग करके तुम लोग इस संदर्भ में फंसे हुए हो तो तुम हमसे बड़े संन्यासी हुए, न कि हम!”

अजगर से यह सीखा कि मीठा मिले, कड़वा मिले, ज्यादा मिले, थोड़ा मिले, अच्छा मिले, थोड़ा खराब मिले, ईश्वर की इच्छा से या जो तुम्हारे सामने आ जाए, उसमें संतोष करो। जीवन में अपनी इंद्रियों की तृप्ति के लिए साधन एकत्र करने के पीछे व्याकुल यदि हो गए तो ईश्वर भजन नहीं कर पाओगे।
क्योंकि हम अपनी अपेक्षाओं की वृद्धि के कारण दुखी होते हैं, संसाधनों की कमी के कारण नहीं। जल तो पीने के लिए प्राप्त हो जाता है किंतु हमको बिसलरी की बोतल चाहिए और वह नहीं मिली इसलिए हम दुखी हैं। कार तो है हमारे पास जिसमें हम अपने गंतव्य तक जाते हैं लेकिन जो दूसरे व्यक्ति के पास बड़ी वाली गाड़ी है सेडान या एसयूवी वह हमारे पास नहीं है, यह हमारे दुख का कारण है। हम जिस घर में रहते हैं उसमें सहज रूप से निवास कर पा रहे हैं, परिवार भी उसने प्रसन्न है लेकिन हम बहुत दुखी हैं क्योंकि जो सामने की पट्टी में कोठी बनी है, वह बहुत बड़ी है और इतना बड़ा घर हम नहीं बना सकते अतः यह हमारे दुख का मूल कारण है।

तो समस्या हमारे द्वारा चयनित की गई प्राथमिकताओं के असंतुलन की है, न कि संसाधनों या वस्तुओं की। वह तो ठाकुर जी की कृपा से, प्रारब्ध से, पुरुषार्थ से कुछ न कुछ प्राप्त हो ही जाता है।

इसके उपरांत भगवान दत्तात्रेय ने भ्रमर अर्थात भंवरे के गुरु के रूप में स्वरूप की चर्चा की। उन्होंने कहा कि भ्रमर बिना किसी प्रकार की लाग लपेट के, बिना किसी प्रकार के आकर्षण के, जहां से भी संभव होता है, वहां से सार ग्रहण करता है, रसग्रहण करता है। एक ही पुष्प का रस या एक ही कमल का रस भ्रमर नहीं पीता है, क्योंकि थोड़ा-थोड़ा प्राप्त करने से जिससे आप प्राप्त कर रहे हैं उसको कष्ट नहीं होता, उस पर बोझ नहीं होता और आपका कोई विशेष आग्रह और दुराग्रह भी स्पष्ट नहीं होता। इसको मधुकरी वृत्ति भी कहते हैं।

यदि मैं इसको विशेष वर्गों में संकेंद्रित करने का प्रयास करूं तो कह सकता हूं यह गुण छात्रों में होना बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है। इसके अतिरिक्त जो ज्ञान का अर्जन करना चाहते हैं उनके लिए भी यह तत्व या यह विशेषता स्वीकार करना बहुत लाभप्रद हो सकता है। बिना किसी दुराग्रह के, बिना किसी मान अपमान के व्यक्ति को जहां से भी कुछ उपयोगी सार प्राप्त हो सकता है, वहां से उसको ग्रहण कर लेना चाहिए। इससे ज्ञान की वृद्धि होती है, जीवन के प्रति समावेशी दृष्टिकोण बनता है और सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता में भी वृद्धि होती है। कुल मिलाकर के आप अपने मोक्ष के पथ पर अग्रसर होने के लिए और यदि छात्र हैं तो अपनी शिक्षा के क्षेत्र में उन्नयन प्राप्त करने के लिए अपेक्षित योग्यता को प्राप्त कर लेते हैं। आपको ग्रहणशील होना चाहिए तभी कार्य सिद्ध होगा।

पात्र को या व्यक्ति विशेष को इस पर ध्यान नहीं रखना चाहिए कि जिससे हम कुछ सार तत्व ग्रहण करना चाहते हैं वह कौन है, कैसा है, सुंदर है, कुरूप है, किस पृष्ठभूमि का है कितना सामर्थ्य है! अभी तो हमें इस पर ध्यान संकेंद्रित करना चाहिए कि क्या उसके पास ऐसा कोई गुण है जिसको प्राप्त करके, ग्रहण करके, हम अपने जीवन को अधिक उपयोगी बना सकते हैं तथा न केवल उपयोगी बना सकते हैं अपितु उसको अन्यों के जीवन को भी परिवर्तित करने में प्रयोग कर सकते हैं।

भगवान दत्तात्रेय अब यह बताते हैं कि उन्होंने मधुमक्खी से क्या सीखा ? वह कहते हैं कि संन्यासी को विशेष तौर पर भिक्षा के अन्न का संग्रह नहीं करना चाहिए अर्थात प्रातः काल की भिक्षा का सायंकाल के लिए एवं रात्रि काल की भिक्षा का आगामी दिवस के लिए संग्रह नहीं करना चाहिए। महाराज यदु के प्रश्न करने पर उन्होंने उत्तर दिया कि इससे व्यर्थ का उद्वेग उत्पन्न होता है। वस्तु चाहे महत्वपूर्ण हो या महत्वहीन, उसका संरक्षण व्यक्ति के चित् को ईश्वर चिंतन से दूर हटा देता है और उन्होंने कहा कि आप देखो मधुमक्खी शहद का मधु का संचय करती है। उसकी दो गति है या तो वह उस मधु में ही लिपट कर के मर जाती है या उस मधु का धुआं जलाकर के मधुमक्खी को भगाकर के लोग संग्रह कर लेते हैं!

तो कुल मिलाकर के मधुमक्खी के भाग्य में तो मधु का आनंद प्राप्त करना लिखा नहीं होता। वह मात्र उसकी पहरेदार ही होती है। अतः अपनी सीमा में रहते हुए गृहस्थ को तथा असीमित रूप से कठोरता पूर्वक संन्यासी को या विरक्त को संचय से बचना चाहिए।

क्योंकि यदि शास्त्र वचन का सम्मान करें तो संन्यासी के पास थाली के रूप में मात्र उसका हाथ का पात्र होना चाहिए और जल पात्र के स्थान पर उसके पास मात्र उसका अपना उदर होना चाहिए अर्थात उसके पास कुछ भी नहीं होना चाहिए। इसीलिए संन्यास को कलयुग में अत्यंत दुष्कर कहा गया है। वानप्रस्थ निभ जाए, यही बहुत बड़ी बात है।

गृहस्थ को भी विचार करना चाहिए कि उसके द्वारा अत्यधिक पुरुषार्थ का प्रदर्शन करते हुए जो कुछ अर्जित किया जा रहा है, चाहे साधन के रूप में, चाहे भोग के रूप में, वास्तव में वह स्वयं उसका भोग कर रहा है या वह सामग्री उसका उपभोग कर रही है और उसकी उपस्थिति में यह समस्त साधन कष्ट का, विवाद का और तृष्णा का कारण तो नहीं बन रहे हैं? अतः संचय युक्तियुक्त रीति से इतना होना चाहिए कि आप उसका उपयोग कर सकें और उस साधन के स्वामित्व के कारण आप पर किसी प्रकार का कोई कष्ट न आवे।

भगवान दत्तात्रेय ने संकेत रूप में हाथी को भी गुरु के रूप में स्वीकार किया तथा कहा कि मैंने जंगल में हाथी को बंधन में पड़ते देखा है। शिकारी बड़े-बड़े गड्ढे बनाकर उसके ऊपर काष्ठ की हथिनी रख देते हैं जो दूर से हाथी जैसी प्रतीत होती है और हाथी उसका आलिंगन करने के लिए दौड़ता हुआ आता है और गड्ढे में समा जाता है। मनुष्य अपने जीवन में यही कर रहा है। उसकी आलिंगन प्रियता उसके नाश के पथ को प्रशस्त करती है, यदि वह शास्त्र अनुकूल नहीं हुई तो।

भगवान दत्तात्रेय कहते हैं कि जो संन्यासी हैं उन्हें तो काठ की स्त्री का भी स्पर्श नहीं करना चाहिए, अन्यथा वह अपने पथ से विचलित हो सकते हैं। कई बार जीवन में अपने मन की दृढ़ता का परीक्षण करने की कोई आवश्यकता नहीं होती, करना भी नहीं चाहिए। क्योंकि एक बहुत बड़े पात्र में भरा हुआ शुद्ध दुग्ध नींबू की दो-चार बूंदों के प्रभाव से ही फट जाता है। उसी प्रकार से अनुशासन रहित मन कब अपने पथ से विचलित हो जाए और पाप के पंक में गिर कर के व्यक्ति कलंकित हो जाए कोई नहीं जानता।

भगवान वेदव्यास के एक शिष्य थे महामुनी जैमिनी। उनको अपने ज्ञान का और अपने वैराग्य का थोड़ा अहंकार उत्पन्न हो गया। महर्षि वेदव्यास के साथ वार्तालाप के मध्य महर्षि ने कहा कि काम दुर्जय होता है। यह सुनकर के जैमिनी मुनि ने कहा कि हे महर्षि! हे गुरुदेव! काम में क्या रखा है ? उसको तो मैं जीत चुका हूं।

जो महापुरुष होते हैं वह दृष्टांत से समझाते हैं, अपने मुख से कुछ नहीं कहते। रात्रि काल में जल वृष्टि हो रही थी। जैमिनी मुनि अपने आश्रम में ध्यान मग्न थे कि अकस्मात द्वार पर किसी ने खटखटाया। उन्होंने द्वार खोला। देखा एक रूपसी स्त्री जल से भीगी हुई द्वार पर डरी- सहमी सी खड़ी हुई है और आश्रय की प्रार्थना कर रही है। मुनि ने तुरंत अपने ज्ञान और अपने संन्यासी होने के अनुशासन का स्मरण करते हुए कहा कि यह तो आश्रम है, यहां पर किसी स्त्री की उपस्थिति संभव नहीं है, अतः तुम यहां से चली जाओ।

स्त्री ने हाथ जोड़कर कहा शरण में आए हुए की रक्षा करना भी तो धर्म होता है। मैं अपने परिजनों से भटक गई हूं। रात्रि काल में मेरे साथ कुछ हो सकता है। आप मुझे रात्रि विश्राम के लिए स्थान और आज्ञा प्रदान करें अन्यथा मेरा जीवन नष्ट हो जाएगा। मुनि ने कहा, ठीक है आ जाओ और वह सामने तुम्हारी कुटिया है। उसका द्वार बंद कर लो तथा यदि रात्रि काल में मैं भी खटखटा दूं तब भी द्वार मत खोलना। अब देखो मन में खुद का लग गया खुटका या संशय! रात्रि के ध्यान में मंत्र के स्थान पर एक स्त्री का चित्र आ रहा था!

इसीलिए मैं बार-बार कहता हूं कि गेरुआ वस्त्र धारण करना संन्यासी होने का लक्षण नहीं है, अपितु मन का गेरुआ होना बहुत आवश्यक है। मन गेरुआ न हुआ तो बाहर डिजाइनर अपीयरेंस ही रहेगी मात्र। आखिर मुनि का मन नहीं माना और वह उठे और जा करके उन्होंने उस द्वार को खटखटाया, द्वार खोलो !

अरे आपने ही तो मना किया था, मैं द्वार नहीं खोलूंगी।

लेकिन मुनि के चित् पर काम का ऐसा प्रभाव उत्पन्न हुआ
कि काम ने मुनि के समस्त अनुशासन को नष्ट करते हुए उनको उस कुटिया की छत पर चढ़ा दिया और जैसे ही उसकी खपरैल हटाकर के मुनि अंदर कूदे तो वहां पर महामुनि ब्यास बैठ करके ध्यान कर रहे थे। सारा अहंकार एक क्षण में दूर हो गया।

इसीलिए मैं सबसे बार-बार कहता हूं कि आप सब से भी जो इसको पढ़ेंगे उनसे भी कहता हूं कि देखो काम पर विजय प्राप्त करना अत्यंत दुष्कर है। क्यों? क्योंकि काम साक्षात वासुदेव का पुत्र है। आप एक साधारण नेता के लड़के पर तो काबू पा नहीं सकते, ईश्वर के पुत्र पर कैसे काबू पाएंगे ? आपको तो उसके सामने शरणागत होना पड़ेगा कि भैया हम तुम से हार गए, तुम जीत गए, हम तो तुम्हारे पिता के सेवक हैं, उनके चमचे हैं, हमें छोड़ दो। फिर काम गंभीरता से आपको देखेगा और बोलेगा, ” हां भाई यह तो पिताजी का शिष्य हैं, उनका चाकर है, अतः हमारे किसी काम का नहीं है। इसको छोड़ कर के आगे बढ़ जाओ।” इसलिए काम से मुक्त होना चाहते हो तो प्रणाम करके आगे बढ़ जाओ। काम से संघर्ष करोगे तो चौराहे पर नीलाम हो जाओगे, सदा इस तथ्य का ध्यान रखना।

अवधूत गीता के विस्तृत विवेचन के इस चरण में आज मात्र इतना ही!

शुभम भवतु कल्याणम!!!

एक परिचय

परम पूज्य संत आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज राधा कृष्ण भक्ति धारा परंपरा के एक प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं।
श्रीमद्भागवत के सुप्रतिष्ठ वक्ता होने के नाते उन्होंने श्रीमद्भागवत के सूत्रों के सहज समसामयिक और व्यवहारिक व्याख्यान के माध्यम से भारत वर्ष के विभिन्न भागों में बहुसंख्यक लोगों की अनेकानेक समस्याओं का सहज ही समाधान करते हुए उनको मानसिक शांति एवं ईश्वरीय चेतना की अनुभूति करने का अवसर प्रदान किया है।
आध्यात्मिक चिंतक एवं विचारक होने के साथ-साथ प्राच्य ज्योतिर्विद्या के अनुसंधान परक एवं अन्वेषणत्मक संदर्भ में आपकी विशेष गति है।
पूर्व कालखंड में महाराजश्री द्वारा समसामयिक राजनीतिक संदर्भों पर की गई सटीक भविष्यवाणियों ने ज्योतिर्विद्या के क्षेत्र में नवीन मानक स्थापित किए हैं। किंतु कालांतर में अपने धार्मिक परिवेश का सम्मान करते हुए तथा सर्व मानव समभाव की भावना को स्वीकार करते हुए महाराजश्री ने सार्वजनिक रूप से इस प्रकार के निष्कर्षों को उद्घाटित करने से परहेज किया है।
सामाजिक सेवा कार्यों में भी आपकी दशकों से बहुत गति है गंगा क्षेत्र में लगाए जाने वाले आपके शिविरों में माह पर्यंत निशुल्क चिकित्सा, भोजन आदि की व्यवस्था की जाती रही है।
उस क्षेत्र विशेष में दवाई वाले बाबा के रूप में भी आप प्रतिष्ठ हैं ।
अपने पिता की स्मृति में स्थापित डॉक्टर देवी प्रसाद गौड़ प्राच्य विद्या अनुसंधान संस्थान तथा श्री कृष्ण मानव संचेतना सेवा फाउंडेशन ट्रस्ट के माध्यम से आप अनेकानेक प्रकल्पओं में संलग्न है
जन सुलभता के लिए आपके द्वारा एक पंचांग का भी प्रकाशन किया जाता है “वत्स तिथि एवं पर्व निर्णय पत्र” जिस का 23 वां संस्करण प्रकाशित होने की प्रक्रिया में है, यह निशुल्क वितरण में सब को प्रदान किया जाता है।

मानव सेवा माधव सेवा आपके जीवन का मूल उद्देश्य है।


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“श्रीमद्भागवत कथा: दत्तात्रेय उपाख्यान-प्रथम पुष्प “

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