” वायु यह सिखाती है कि हमको अपने जीवन में प्रशंसा से मोहित होकर के असंतुलित नहीं होना चाहिए और उसी के साथ-साथ किसी प्रकार की निंदा से प्रभावित होकर के भी अपने मूल स्वभाव का परित्याग नहीं करना चाहिए। “
आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज
जिस प्रकार से कमल पत्र पर पड़ी हुई जल की बूंद उसके साथ संबद्ध न होकर बह जाती हैं, उसी प्रकार से बाह्य आचरण के प्रति बहुत अधिक प्रभावित होकर अपने मूल व्यक्तित्व को नष्ट कर देना उचित बात नहीं है। देखने में यह बात प्रवचन जैसी लगती है। किंतु वास्तव में यह जीवन का प्रबंधन है। यदि हम प्रत्येक व्यक्ति की क्रिया पर प्रतिक्रिया प्रदान करने लगेंगे तो हमको अपने कार्य करने का समय ही कहां शेष बचेगा?
प्रकृति से संबद्धता की निरंतरता
प्रकृति के साथ तादात्म्य तथा प्रकृति में जो हमारे चारों तरफ व्यतीत हो रहा है, उसके प्रति सतत जागरूकता, यह अत्यंत आवश्यक है। अपने जीवन को सुचारु रूप से गतिशील बनाए रखने के लिए तथा सकारात्मक रूप से जीवन जीने के लिए जैसा कि मैंने कहा कि जल मधुरता प्रदान करता है, तृप्ति प्रदान करता है, किंतु बात यहीं पर खत्म नहीं होती है।
हमारे जीवन में वायु का भी बहुत अधिक महत्व है। समस्त शारीरिक गतिविधियां वायु से संबद्ध हैं। एक क्षण के लिए यदि वायु का या श्वास का अवरोध उत्पन्न हो जाए तो प्राण जाने का संकट उत्पन्न हो जाता है।
बहुत विस्तार में न जाकर के जरा विचार करिए कि वायु का हमारे जीवन में और हमारे व्यवहार को संतुलित करने में क्या उपयोग है? इसको ऐसे समझे जब आप गाड़ी में बैठ कर के या किसी वाहन में बैठकर के किसी नाले के समीप से गुजरते हैं तो आपको दुर्गंध की अनुभूति होती है। किंतु जब उस स्थान को छोड़कर कि आप आगे बढ़ने लगते हैं तो क्रमशः दुर्गंध समाप्त हो जाती है और भविष्य में आप के मार्ग में आने वाले किसी सुंदर बगीचे के समीप से गुजरते समय आपको वहां की अद्भुत सुगंधआनंदित कर देती है।किंतु बात वही है, जब आप उस स्थान का परित्याग कर देते हैं तब आपसे वह सुगंध भी छूट जाती है।
तो वायु का यह एक विशेष गुण है जो हमारे चरित्र में होना चाहिए। हम प्रशंसा सुनकर के, सम्मान का आनंद प्राप्त करके भी पागल न हो जाएं। वह प्रशंसा और वह सम्मान हमारे व्यक्तित्व को ढक न ले, इस बात का ध्यान रखने की बहुत आवश्यकता है।
इसी के साथ-साथ जहां तक दुर्गंध का प्रश्न है, अर्थात यदि किसी व्यक्ति के प्रति हमारे मन में कोई द्रोह उत्पन्न होता है, किसी प्रकार की भावना उत्पन्न होती है तो हम उस से मुक्त होने का प्रयास करें। क्योंकि अभी तो यह एक प्रतिक्रिया भर है उसकी तरफ से।
कभी उस व्यक्ति ने आपके साथ किसी प्रकार का कोई अभद्र आचरण किया हो तो उसकी प्रतिक्रिया में आपके भीतर क्रोध उत्पन्न होता है।
वायु यह सिखाती है कि हमको अपने जीवन में प्रशंसा से मोहित होकर के असंतुलित नहीं होना चाहिए और उसी के साथ साथ किसी प्रकार की निंदा से प्रभावित होकर के भी अपने मूल स्वभाव का परित्याग नहीं करना चाहिए।
अर्थात वायु वातावरण के प्रभाव को सदैव अपने साथ रखने पर विश्वास नहीं करती इसी प्रकार जो संत हैं, वह प्रशंसा से प्रभावित होकर प्रसन्न नहीं होते तथा निंदा से दुष्प्रभावित होकर के दुखी नहीं होते। जिस प्रकार से कमल पत्र पर पड़ी हुई जल की बूंद उसके साथ संबंध न होकर बह जाती है उसी प्रकार से बाह्य आचरण के प्रति बहुत अधिक प्रभावित होकर अपने मूल व्यक्तित्व को नष्ट कर देना उचित बात नहीं है। देखने में यह बात प्रवचन जैसी लगती है किंतु वास्तव में यह जीवन का प्रबंधन है यदि हम प्रत्येक व्यक्ति की क्रिया पर प्रतिक्रिया प्रदान करने लगेंगे तो हमको अपने कार्य करने का समय ही कहां शेष बचेगा?
प्रशंसा दीमक होती है जो व्यक्तित्व को चाट जाती है उसी प्रकार से जैसे कि आपके ड्राइंग रूम में रखा हुआ फर्नीचर देखने में सुंदर होता है किंतु दीमक के प्रभाव से अंदर से खोखला हो जाता है और हाथ लगते ही नष्ट हो जाता है उसी प्रकार से प्रशंसा से घिरा हुआ जीवन अपनी मूल आत्मा का नाश कर चुका होता है तथा भिन्न कष्टों की स्थिति में उन चुनौतियों का सामना करने के लायक नहीं रह जाता और आत्म विध्वंस को प्राप्त होता है।
अब हम तेज की चर्चा करें तेज अर्थात प्रकाश, प्रकाश अर्थात ऊर्जा वह सामर्थ्य जो हमारे भीतर उत्साह उत्पन्न करती है और जीवंतता उत्पन्न करती है तथा सकारात्मकता उत्पन्न करती है जो सुषुप्त है, जो निष्क्रिय है, वह भी सूर्य के प्रकाश में जीवंत हो करके क्रियाशील हो जाते हैं।
सूर्य, श्रीमद भगवत गीता के अनुसार वासुदेव कृष्ण के प्रथम शिष्य हैं। वह उपदेश प्रदान नहीं करते। अपितु अपने सतत कर्मशील होने का प्रदर्शन करके औरों को भी कर्मठ होने कर्मशील होने, सकारात्मक और जीवंत होने का उपदेश प्रदान करते हैं।
प्रातःकाल किसी बगीचे में जा करके देखें। सूर्य की प्रथम रश्मि के पुष्प पर पड़ते ही, वह किस प्रकार से खिल जाता है, प्रसन्न हो जाता है। गतिशील होना ही अग्नि का परिचायक है।
एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय यह है कि व्यक्ति को अपने जीवन में किए हुए कर्मों के प्रभाव से आत्मिक रूप से मुक्त होते हुए आगे बढ़ना चाहिए। एक त्रुटि यदि हो जाती है तो पुनः उस त्रुटि की पुनरावृत्ति करने की अपेक्षा उसके प्रति पश्चाताप का प्रदर्शन करते हुए अपने व्यक्तित्व को उसकी कालिख से उबरते हुए पुनः गतिशील होने से ही जीवन की उपादेयता सिद्ध होती है क्योंकि अग्नि की ज्वाला में सब कुछ भस्म हो जाता है।
उसी प्रकार से, दृढ़ संकल्प से प्रकाशित हुए व्यक्ति में समस्त ग्लानि उसी प्रकार से नष्ट हो जाती है जिस प्रकार से कोहरे से घिरा हुआ आकाश सूर्य के प्रस्फुटित होने पर स्वमेव स्वच्छ हो जाता है।
आकाश के विस्तार से भी हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। इसको आप अवकाश भी कह सकते हैं। शरीर में रक्त धमनियों में प्रवाहित हो रहा है। यदि उसमें अवकाश न हो तो वह रक्त संचरण दुष्प्रभावित हो सकता है और आज अवकाश न होने के कारण अर्थात दूसरों को अपनी बात कहने और सुंदर रीति से जीवन यापन करने में अन्य लोगों के द्वारा बाधा उत्पन्न करने से उत्पन्न हुए क्लेश के कारण ही हम नाना प्रकार की व्याधियों का संचरण देख रहे हैं। हम अपने अतिरिक्त किसी और को कोई मौका देना ही नहीं चाहते हैं। जो हो, वह सब हमारे लिए ही हो। इतना बड़ा आकाश है, संपूर्ण सृष्टि को अपने भीतर समेटे हुए है, उससे हम रंच मात्र भी कुछ सीखना नहीं चाहते हैं।
हम भगवान शिव की चर्चा करें उनको दिगंबर कहा गया है। अर्थात दिशाएं और अंबर ही जिनका वस्त्र हैं। अर्थात जिनके पास छिपाने के लिए कुछ भी नहीं है। जो निष्कपट हैं ,पारदर्शी हैं तथा सब को सब कुछ प्रदान कर देना चाहते हैं बिना किसी प्रकार की शर्त के। और हम अन्य लोगों की अपेक्षाओं को भी स्थान प्रदान करें, उनके भी भीतर व्याप्त आत्म चैतन्य को हम सम्मान की दृष्टि से देखें तब जाकर के आकाश की संकल्पना हमारे जीवन में प्रभावी हो सकती है।
यह चर्चा जो चल रही है प्रकृति के साथ संबद्धता स्थापित करने के लिए ,यह बहुत दीर्घकाल तक चलने वाली प्रक्रिया है। बहुत से ऐसे संदर्भ हैं तथा हमारे जीवन में बहुत से लोग ऐसे हैं जिनसे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। श्रीमद्भागवत कहती है कि यदि हम यह सीख पाए तो श्रीमद्भागवत रूपी ईश्वरी भवन में, उस क्षेत्र में प्रवेश करने की पात्रता प्राप्त कर सकते हैं।
शुभम भवतु कल्याणम
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परम पूज्य संत आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज
एक परिचय
परम पूज्य संत आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज राधा कृष्ण भक्ति धारा परंपरा के एक प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं।
श्रीमद्भागवत के सुप्रतिष्ठ वक्ता होने के नाते उन्होंने श्रीमद्भागवत के सूत्रों के सहज समसामयिक और व्यवहारिक व्याख्यान के माध्यम से भारत वर्ष के विभिन्न भागों में बहुसंख्यक लोगों की अनेकानेक समस्याओं का सहज ही समाधान करते हुए उनको मानसिक शांति एवं ईश्वरीय चेतना की अनुभूति करने का अवसर प्रदान किया है
आध्यात्मिक चिंतक एवं विचारक होने के साथ-साथ प्राच्य ज्योतिर्विद्या के अनुसंधान परक एवं अन्वेषणत्मक संदर्भ में आपकी विशेष गति है।
पूर्व कालखंड में महाराजश्री द्वारा समसामयिक राजनीतिक संदर्भों पर की गई सटीक भविष्यवाणियों ने ज्योतिर्विद्या के क्षेत्र में नवीन मानक स्थापित किए हैं। किंतु कालांतर में अपने धार्मिक परिवेश का सम्मान करते हुए तथा सर्व मानव समभाव की भावना को स्वीकार करते हुए महाराजश्री ने सार्वजनिक रूप से इस प्रकार के निष्कर्षों को उद्घाटित करने से परहेज किया है।
सामाजिक सेवा कार्यों में भी आपकी दशकों से बहुत गति है गंगा क्षेत्र में लगाए जाने वाले आपके शिविरों में माह पर्यंत निशुल्क चिकित्सा, भोजन आदि की व्यवस्था की जाती रही है।
उस क्षेत्र विशेष में दवाई वाले बाबा के रूप में भी आप प्रतिष्ठ हैं ।
अपने पिता की स्मृति में स्थापित डॉक्टर देवी प्रसाद गौड़ प्राच्य विद्या अनुसंधान संस्थान तथा श्री कृष्ण मानव संचेतना सेवा फाउंडेशन ट्रस्ट के माध्यम से आप अनेकानेक प्रकल्पओं में संलग्न है
जन सुलभता के लिए आपके द्वारा एक पंचांग का भी प्रकाशन किया जाता है “वत्स तिथि एवं पर्व निर्णय पत्र” जिस का 23 वां संस्करण प्रकाशित होने की प्रक्रिया में है, यह निशुल्क वितरण में सब को प्रदान किया जाता है
मानव सेवा माधव सेवा आपके जीवन का मूल उद्देश्य है।