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“श्रीमद्भागवत कथा: दत्तात्रेय उपाख्यान-द्वितीय पुष्प “

8400000 योनियों में से भटकते हुए जब व्यक्ति का पुण्य प्रभावी होता है, तब उसको यह मनुष्य शरीर प्राप्त होता है। 

“श्रीमद्भागवत कथा” “दत्तात्रेय उपाख्यान “

द्वितीय पुष्प

आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज

ईश्वर को प्राप्त करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम अपने आप को एक मनुष्य के रूप में, एक व्यक्ति के रूप में स्थापित करने की प्रक्रिया का प्रयास अवश्य करें ।

जब ईश्वर की कृपा हो, तभी इस संसार सागर से इस जटिलता को पार करके बाहर निकला जा सकता है। 

“अपनी दीनता का परित्याग करके अपने पुरुषार्थ में विश्वास करते हुए सीधे खड़े होकर के अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ो और दीनता को अपने पैरों के नीचे अपने संकल्प की ताक़त के नीचे कुचल दो।” 

श्रीमद्भागवत का बल इस बात पर बहुत अधिक है कि जिस ब्रह्मांड में, जिस समाज में, जिस देश में हम निवास करते हैं, उसके वातावरण में जो भी तत्व व्याप्त है, जो व्यवहार व्याप्त है, जो दृष्टिकोण व्याप्त हैं, यदि हम उनको गहराई के साथ परीक्षण करके अपने व्यक्तित्व का सकारात्मक रूप से अंग बनाने का प्रयास करेंगे तो हम ईश्वर को प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ पाएंगे। क्योंकि ईश्वर को प्राप्त करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम अपने आप को एक मनुष्य के रूप में, एक व्यक्ति के रूप में स्थापित करने की प्रक्रिया का प्रयास अवश्य करें । हमारे शास्त्रों में कहा गया है,

” बड़े भाग मानुष तन पावा”

8400000 योनियों में से भटकते हुए जब व्यक्ति का पुण्य प्रभावी होता है, तब उसको यह मनुष्य शरीर प्राप्त होता है। किंतु इतने समय के उपरांत प्राप्त होने वाला यह दुर्लभ मनुष्य शरीर भी क्षणभंगुर होता है। कब समाप्त हो जाए, मिट्टी के कच्चे घड़े के समान इसके बारे में कोई भी कोई निश्चित कहने की स्थिति में नहीं होता। ऐसी स्थिति में मनुष्य की बुद्धि विवेक यदि उसके साथ हो और यह तभी संभव है जब उसके ऊपर ईश्वर की कृपा हो। तब वह इस संसार सागर से इस जटिलता को पार करके बाहर निकल सकता है।


भगवान श्री कृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अपने आपको दीन बनाने की, अधीन मानने की आवश्यकता नहीं है। जो तुम्हारे पास है, वह न जाने कितने हैं कि उनके पास नहीं है। अतः अपनी दीनता का परित्याग करके अपने पुरुषार्थ में विश्वास करते हुए सीधे खड़े होकर के अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ो और दीनता को अपने पैरों के नीचे अपने संकल्प की ताक़त के नीचे कुचल दो।

तो कहते हैं कि श्री कृष्ण का अवतरण या अवतार यदुवंश में संपन्न हुआ जिसमें कि महाराज यदु एक बहुत धार्मिक और सामर्थ्य महान शासक होने के साथ अत्यंत धर्मनिष्ठ भी थे। ऐसे महाराज यदु ने एक बार भ्रमण करते हुए सहयाद्रि के क्षेत्र में देखा कि एक अति सामान्य वेशभूषा वाला ब्राम्हण निर्भय होकर के विचरण कर रहा है।

यदु ने विचार किया कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर कोई न कोई भय विद्यमान होता है। पुरुषार्थी होता है तो उसके पुरुषार्थ की चमक उसके चेहरे पर होती है, किंतु इनको तो किसी प्रकार का कोई भय प्रतीत होता नहीं है! काम कुछ नहीं कर रहे हैं, फिर भी चेहरे पर चमक अत्यंत सफल व्यक्ति के जैसी है! उन्हें आश्चर्य हुआ!!

क्योंकि वेदांत कहता है कि जिसके पास अपने अतिरिक्त दूसरा कुछ भी है, उसको भय होता ही होता है। किंतु जिसके पास अपने अतिरिक्त कुछ नहीं है, अर्थात जो ब्रह्म के साथ एक हो गया है, एकात्म भाव से युक्त हो गया है, उसको किसी से भयभीत होने की क्या आवश्यकता है?

अतः यदु ने विचार किया कि वह अवश्य कोई तत्वज्ञ है, कोई ब्रह्मवेता है। अतः वह उनके समीप गए, उनका परिचय पूछा और यह कहा, “हे ब्राम्हण देवता, आप किसी प्रकार का कोई कर्म करते हुए तो दिखाई नहीं देते हैं। किंतु आपको अत्यंत निपुण बुद्धि कहां से प्राप्त हुई? ऐसी कौन सी बुद्धि है कि आप परम विद्वान होने पर भी एक सहज बालक के समान इस संसार में भ्रमण कर रहे हैं? आपके भीतर ऐसी कोई वृत्ति दिखाई नहीं पड़ती जो कि यश- ऐश्वर्य तथा अन्य संपत्ति के संदर्भों की वजह से किसी प्रकार के कार्य को संपादित कर रही हो! तुम्हारे पास कोई भूख भी नहीं है, पत्नी पुत्र आदि भी नहीं है, जिनके साथ आनंद को बांटना संभव हो।

तुम्हारे मुख पर यह तुम्हारे आंतरिक आनंद की लहरें जिस प्रकार से परिलक्षित हो रही हैं, इसके पीछे क्या कारण है? तुम कोई काम भी नहीं करते हो जबकि सामर्थ्यवान प्रतीत होते हो, तो मुझे अपने इस आचरण और अपने इस व्यक्तित्व के गुप्त रहस्य के विषय में कुछ बताओ। “

अब वह असामान्य ब्राह्मण जो समाज में बैठने के लायक भी नहीं है, जो फटा कपड़ा पहने हुए हैं, मेला जनेऊ पहने हुए हैं, कुल मिलाकर के जो समाज में प्रदर्शन योग्य नहीं है, वह कहता है:

“हे राजन्, मेरे तो बहुत सारे गुरु हैं। उन्होंने अपनी परंपरा बताई है कि नारायण के पुत्र एवं शिष्य ब्रह्मा हुए, ब्रह्मा के पुत्र व शिष्य अत्रि हुए तथा अत्रि जी और अनुसूया के पुत्र हुए दत्तात्रेय। संप्रदाय की व्यवस्था के अनुसार दत्तात्रेय जो है, वह अत्रि जी के शिष्य माने जाते हैं।

“एक बड़ीअद्भुत बात दत्तात्रेय जी ने कही है कि मेरे गुरुओं ने मुझे कोई बुद्धि प्रदान नहीं की है। मैंने अपनी बुद्धि से यह गुरु बनाए हैं और मैंने उनसे सीखा है कि जीवन में क्या श्रेयस्कर है? क्या उचित है और क्या अनुचित है?

यह बात इस बात का स्पष्ट संकेत प्रदान करती है कि हम जिससे जो भी सीखें भले उसको यह पता न हो किंतु हमें उसके प्रति अपनी कृतज्ञता का ज्ञापन करते रहना चाहिए। और अपनी अपूर्णता को उस व्यक्ति विशेष के द्वारा प्रदत्त ज्ञान से या मेधा से हमने पूर्ण किया है, इस बात को कभी भूलना नहीं चाहिए। यह सब ऐसे गुरु हैं जो दत्तात्रेय जी के साथ समक्ष रहते हैं और उनका अनुभव सदैव प्राप्त होता रहता है।
बात सिर्फ इस अनुभूति को समझ कर के ग्रहण करने की है। दिखाई तो हमको भी जीवन में बहुत कुछ देता है। हमारे चारों तरफ बहुत कुछ ऐसा घूम रहा है जिससे हम कुछ सीख सकते हैं। किंतु हम अपने दुराग्रह में, अपने आग्रह में और अपने विग्रह में इस प्रकार से फंसे हुए हैं कि उस पर कभी हमारे पास ध्यान देने का समय नहीं होता है। और न ही हम ध्यान देने की वृत्ति से उनके विषय में कोई ज्ञान प्राप्त करना नहीं चाहते हैं।

वह संक्षेप में उन गुरुओं का नाम लेते हैं जो हमारे समक्ष भी उपस्थित हैं, किंतु हम ध्यान नहीं देते। वह पृथ्वी, वायु, आकाश, जल,  अग्नि ,चंद्रमा ,सूर्य ,कबूतर, अजगर, समुद्र , पतिंगा , मधुमक्खी, हाथी ,मधुवा,हिरण, मछली, पिंगला वेश्या,कुरर पक्षी , नन्हा सा बालक, कुंवारी कन्या, बाण बनाने वाला लोहार, सर्प, मकड़ी और वह कीड़ा जो भ्रमर के डर से अपने आप को परिवर्तित कर लेता है, सबका नाम लेते हैं।

अवधूत दत्तात्रेय महाराज यदु से कहते हैं देखो इस ज्ञान के पश्चात प्राप्त समत्व की स्थिति के कारण ही मुझे पत्थर का बिछौना कष्ट नहीं देता और मखमली बिछौना आनंद नहीं देता, अपमान मुझे उद्वेलित नहीं करता, सम्मान और प्रतिष्ठा मुझे मतवाला नहीं करती।

अवधूत दत्तात्रेय कहते हैं देखो महाराज यदु, अब मैं तुम्हें आनंद के साथ सहज भाव से इन समस्त गुरुओं से प्राप्त शिक्षा सूत्रों का विस्तारपूर्वक उपदेश करूंगा। धैर्य के साथ बैठो और इस तत्वज्ञान को सहज रूप से प्राप्त करके अपने जीवन को उसके अनुकूल बनाने का प्रयास करोगे तो जीवन धन्य हो जाएगा।

अस्तु

शुभम भवतु कल्याणम

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परम पूज्य संत आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज

एक परिचय

परम पूज्य संत आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज राधा कृष्ण भक्ति धारा परंपरा के एक प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं।
श्रीमद्भागवत के सुप्रतिष्ठ वक्ता होने के नाते उन्होंने श्रीमद्भागवत के सूत्रों के सहज समसामयिक और व्यवहारिक व्याख्यान के माध्यम से भारत वर्ष के विभिन्न भागों में बहुसंख्यक लोगों की अनेकानेक समस्याओं का सहज ही समाधान करते हुए उनको मानसिक शांति एवं ईश्वरीय चेतना की अनुभूति करने का अवसर प्रदान किया है
आध्यात्मिक चिंतक एवं विचारक होने के साथ-साथ प्राच्य ज्योतिर्विद्या के अनुसंधान परक एवं अन्वेषणत्मक संदर्भ में आपकी विशेष गति है।
पूर्व कालखंड में महाराजश्री द्वारा समसामयिक राजनीतिक संदर्भों पर की गई सटीक भविष्यवाणियों ने ज्योतिर्विद्या के क्षेत्र में नवीन मानक स्थापित किए हैं। किंतु कालांतर में अपने धार्मिक परिवेश का सम्मान करते हुए तथा सर्व मानव समभाव की भावना को स्वीकार करते हुए महाराजश्री ने सार्वजनिक रूप से इस प्रकार के निष्कर्षों को उद्घाटित करने से परहेज किया है।
सामाजिक सेवा कार्यों में भी आपकी दशकों से बहुत गति है गंगा क्षेत्र में लगाए जाने वाले आपके शिविरों में माह पर्यंत निशुल्क चिकित्सा, भोजन आदि की व्यवस्था की जाती रही है।
उस क्षेत्र विशेष में दवाई वाले बाबा के रूप में भी आप प्रतिष्ठ हैं ।
अपने पिता की स्मृति में स्थापित डॉक्टर देवी प्रसाद गौड़ प्राच्य विद्या अनुसंधान संस्थान तथा श्री कृष्ण मानव संचेतना सेवा फाउंडेशन ट्रस्ट के माध्यम से आप अनेकानेक प्रकल्पओं में संलग्न है
जन सुलभता के लिए आपके द्वारा एक पंचांग का भी प्रकाशन किया जाता है “वत्स तिथि एवं पर्व निर्णय पत्र” जिस का 23 वां संस्करण प्रकाशित होने की प्रक्रिया में है, यह निशुल्क वितरण में सब को प्रदान किया जाता है।

मानव सेवा माधव सेवा आपके जीवन का मूल उद्देश्य है।

 

 

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