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“नशा धूम्रपान का:1” : हरिकांत त्रिपाठी IAS

हमारे बचपन में मजदूरों की मजदूरी नकद व जिन्स के साथ एक बंडल बीड़ी जोड़कर तय की जाने लगी थी । काम के बीच में बीड़ी पीकर सुस्ताने के लिए मजदूरों को टोका नहीं जा सकता था गोया जब मन हो तब बीड़ी पीना उनका जन्म-सिद्ध अधिकार हो । उस समय पहलवान छाप बीड़ी जबलपुर म०प्र० से आती थी जो बड़ी लोकप्रिय थी । हास्य कवि प्रदीप चौबे ने अपनी कविता ” अहिंसा ” मे पहलवान छाप बीड़ी या बीड़ी छाप पहलवान कह इसकी गरिमा बढ़ाई । पहलवान छाप बीड़ी के मूंछों वाले पहलवान का व्यक्तित्व इतना आकर्षक था कि लगता था वैसा पहलवान बनने के लिए पहलवान छाप बीड़ी पीना बहुत ज़रूरी है ।

फिर क्या हुआ, आगे पढ़ें …..!

संस्मरण:

 ‘कबिरा खड़ा बाज़ार में’-20 :

लेखक: हरिकान्त त्रिपाठी सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी हैं

  ‘धूम्रपान ‘ 

* 50 ग्राम गाँजे जिसे हिप्पी कल्चर में मारियुआना के नाम से लोकप्रियता मिली को लेकर मुम्बई क्या पूरे भारत में कुहराम मचा है । मीडिया सारे दिन बताते नहीं थक रही है कि बॉलीवुड गंजेडी निकल गई है जो भारत की नई पीढ़ी के लिए बेहद ख़तरे की बात है । पूरी एन सी बी की टीम मुम्बई में डेरा डाल दी है ताकि बॉलीवुड के गंजेडियों को सींखचों के पीछे भेजा जा सके । मैंने तीन साल पहले 5 किश्तों की “ धूम्रपान “सीरीज़ लिखी थी, उसकी पहली किस्त आपके संज्ञानार्थ नीचे प्रस्तुत है –

* बड़ा विचित्र देश है अपना ! यहाँ कल्चर को बड़ा संजो के रखा जाता है । यूँ तो गांजा के धूम्रपान के लिए लगभग २७२७ साल पहले चीन में प्रयुक्त होने का प्रमाण मिलता है पर भारत में भी अथर्ववेद में गांजा पीने का उल्लेख है । अपने औषधीय गुणों के कारण गांजा को सबसे पुराना धूम्रपान होने का गौरव हासिल है । मिस्र में ममी के साथ भी गांजा दफनाया हुआ पाया गया है । गांजा के नशे से मूड हल्का व खुशनुमा हो जाता है । गंजेड़ी चिलम पर कश मारने के पहले आराध्य परम गंजेड़ी भगवान शिव जी के नाम पर भांति भांति के हुंकारे भरते हैं । साधु सन्यासी तो गांजे के दम पर ही जाड़ा गरमी बरसात तीनों झेल जाते है । भगवान शिव को तो नशे का देवता ही माना जाता है और गांजा भांग धतूरा उन्हें प्रसन्न करने के लिए चढ़ाया जाता है । गांजे की पत्तियों को पीस कर गोली अथवा ठंडाई में डालकर भांग के रूप में सेवन बहुत व्यापक है और होली में भांग सेवन की तो धूम ही मच जाती है ।

सत्रहवीं शताब्दी में भारत में तम्बाकू के आगमन ने धूम्रपान में एक नया आयाम जोड़ दिया जिससे गंजेड़ियों की संख्या में कमी आयी । गांजे की विक्री बिना लायसेंस के वर्जित होना भी इसका एक कारण बना । तेंदू के पत्ते में तम्बाकू को लपेट कर बनाई गयी बीड़ी निम्न मध्यम वर्ग के न केवल पुरुषों अपितु महिलाओं में भी बहुत लोकप्रिय हो गयी । हमारे बचपन में मजदूरों की मजदूरी नकद व जिन्स के साथ एक बंडल बीड़ी जोड़कर तय की जाने लगी थी । काम के बीच में बीड़ी पीकर सुस्ताने के लिए मजदूरों को टोका नहीं जा सकता था गोया जब मन हो तब बीड़ी पीना उनका जन्म-सिद्ध अधिकार हो । उस समय पहलवान छाप बीड़ी जबलपुर म०प्र० से आती थी जो बड़ी लोकप्रिय थी । हास्य कवि प्रदीप चौबे ने अपनी कविता ” अहिंसा ” मे पहलवान छाप बीड़ी या बीड़ी छाप पहलवान कह इसकी गरिमा बढ़ाई । पहलवान छाप बीड़ी के मूंछों वाले पहलवान का व्यक्तित्व इतना आकर्षक था कि लगता था वैसा पहलवान बनने के लिए पहलवान छाप बीड़ी पीना बहुत ज़रूरी है ।

१४-१५ की उम्र तक पहुँचते पहुँचते काफी लड़के बीड़ी पीना शुरू कर देते थे । मुझे एक घटना याद आती है यह तबकी है जब हम भदौली जू० हाई स्कूल में कक्षा ८ के छात्र थे । मेरे फेसबुक मित्र Vidya Vinod Pathak भी उन दिनों मेरे सहपाठी होते थे । विद्या विनोद उन दिनों बहुत सीधे साधे शर्मीले हुआ करते थे अब पुलिस में डिप्टी एस पी हैं तो बदल ही गये होंगे क्योंकि नौकरियां भी व्यक्तित्व में बड़ा परिवर्तन लाती हैं । कुछ तेजतर्रार लड़के स्कूल भवन के पीछे बीड़ी पीने जाया करते थे । एक बार चन्द्रसेन सिंह के नेतृत्व में बीड़ी पी रहे लड़कों ने मजाक मजाक मे सरपत के भुये ( मूंज के सूखे फूल ) में आग लगा दिया । भुआ आग बहुत तेज पकड़ता है । देखते देखते आग भुये से सरपत के थानों और फिर स्कूल के खपरैल के भवन तक पहुँच गयी । लोगों ने बड़े मुश्किल से आग पर काबू किया । चन्द्रसेन सिंह के पिताजी भदौली के प्रधान व प्रभावशाली व्यक्ति थे लिहाजा डांट फटकार से ही मामला दह बह हो गया ।

वर्ष १९९८ मे १५ से ६९ साल की आयुवर्ग के लगभग ७ करोड़ ७९ लाख लोग धूम्रपान के आदी थे , वर्ष २०१५ तक इनकी संख्या ३६% बढ़कर १० करोड़ ८० लाख हो गयी । यद्यपि इनकी कुल संख्या में १७ वर्षोँ में २ करोड़ ९० लाख की बढ़ोत्तरी ज़रूर हुई पर सकल आबादी में धूम्रपानियों की हिस्सेदारी २७% से घटकर केवल २४% रह गयी । मुझे इसका मुख्य कारण धूम्रपान से होने वाली हानियों के प्रचार प्रसार से उत्पन्न जागरूकता लगती है । इधर कुछ समय से पब्लिक प्लेसेज पर धूम्रपान निषिद्ध होने के कारण खुलेआम धुआँ फेंकते लोगों के दर्शन दुर्लभ हो रहे हैं फलतः Passive Smoking में कमी परिलक्षित हो रही है ।

एक और बड़े मार्के की बात दिखाई दे रही है कि आमदनी बढ़ने के साथ धूम्रपान के लिए लोग बीड़ी को छोड़कर सिगरेट का पल्लू थाम रहे हैं । वर्ष २०१५ में केवल बीड़ी पीनेवाले जहाँ ४ करोड़ फूंकू थे वहीं केवल सिगरेट फूंकुओं की संख्या ४ करोड़ ८० लाख हो गयी , इसके अतिरिक्त २ करोड़ अवसरवादी फूंकू थे जो कभी बीड़ी तो कभी सिगरेट फूंकते थे । लैंगिक समानता और आधुनिकता के दौर में भी फूंकुओं में महिलाओं की हिस्सेदारी मात्र १०% ही रही है ।

वर्ष २०१० में कुल कालकवलित होने वाले कुल लगभग १ करोड़ लोगों में से लगभग १०% मात्र धूम्रपान के शिकार बने । मरने वालों की यह संख्या केवल तम्बाकू फूंकुओं की है , तम्बाकू खाने वाले और कैंसर कमाकर मरने वालों की संख्या इससे अलग है ।

क्या अपना ही पैसा खर्च कर अपने लिए मौत और परिवार के लिए ग़म कमाना परम मूर्खता नहीं है ?
क्रमशः

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