गुजरात में प्रमोशन परीक्षा में फेल हो गये सभी 119 जज। क्या सीजेएम तक को धारा 156(3) सीआरपीसी के प्रावधानों का ज्ञान नहीं?
विधि विशेषज्ञ जे.पी.सिंह की कलम से
अधीनस्थ न्यायपालिका में क्या अधिकांश न्यायिक अधिकारी स्तरहीन हैं? यह सवाल गुजरात में हाल ही में 40 जिला न्यायाधीशों के लिए हुई परीक्षा के शून्य परिणाम से उत्पन्न हुआ है। उसमें हिस्सा लेने वाले 119 कार्यरत जजों और 1,372 वकीलों में से कोई भी यह परीक्षा पास नहीं कर सका। गुजरात हाईकोर्ट ने सोमवार को जजों की भर्ती के लिए हुई लिखित परीक्षा के परिणाम का ऐलान किया और परिणाम ‘शून्य’ बताया।
गुजरात हाईकोर्ट के पोर्टल पर लगी इस लिस्ट के अनुसार फेल होने वाले इन 119 जजों में से 51 जज गुजरात में किसी न किसी कोर्ट में जज हैं। जून 2019 की स्थिति के अनुसार ये इन अदालतों में या तो प्रिंसिपल जज या चीफ जुडिशल मैजिस्ट्रेट के पद पर तैनात थे। नियमानुसार हाई कोर्ट ने जिला जजों की खाली पड़ी 65 प्रतिशत सीटें पर सीनियर सिविल जजों का प्रमोशन कर दिया था। बाकी के बचे पदों में से 25 प्रतिशत पर वकीलों का और शेष 10 प्रतिशत पर अडिशनल डिस्ट्रिक्ट जजों का चयन होना था।
इस तरह कुल 40 खाली पदों में 26 को प्रैक्टिस कर रहे वकीलों से भरा जाना था। डिस्ट्रिक्ट जज के 14 पद थे जिनके लिए 119 न्यायिक अधिकारी मैदान में थे। मार्च में आवेदन आमंत्रित किये गये थे और जून में 1,372 अधिवक्ताओं ने एलिमिनेशन टेस्ट में हिस्सा लिया था। एक ऑनलाइन परीक्षा में 50 प्रतिशत अंक हासिल करने के बाद उच्च न्यायालय ने 494 आवेदकों को लिखित परीक्षा में बैठने के लिए मंजूरी दे दी थी।
परीक्षा 4 अगस्त को आयोजित की गयी थी और न्यायिक अधिकारियों के लिए उपलब्ध 10 प्रतिशत कोटा में प्रमोशन के लिए फीडर कैडर से 119 जजों ने हिस्सा लिया था। उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल एचडी सुथार ने कहा कि 494 वकील में से एक भी उम्मीदवार लिखित परीक्षा में न्यूनतम अंक नहीं ला सका।
बिहार भी पीछे नहीं
गुजरात ही नहीं, बिहार भी इसमें पीछे नहीं है। मुज़फ़्फ़रपुर में सीजेएम सूर्यकांत तिवारी की अदालत ने एक वकील सुधीर कुमार ओझा के प्रार्थना पत्र पर धारा 156(3) सीआरपीसी के तहत मॉब लिंचिंग को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखने वाले इतिहासकार रामचंद्र गुहा, फ़िल्मकार मणिरत्नम, अनुराग कश्यप, श्याम बेनेगल, अभिनेत्री अपर्णा सेन, गायिका शुभा मुद्गल जैसे 49 लोगों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर के तहत मुकदमा लिख कर विवेचना करने का आदेश पुलिस को दिया था।इस शिकायत में कानून के अनुसार देशद्रोह का मामला न बनते देख पुलिस अधिकारियों ने इस एफ़आईआर को रद्द करके वकील सुधीर कुमार ओझा के खिलाफ झूठा मुकदमा लिखने के आरोप में मामला दर्ज़ कर कार्रवाई करने का आदेश दिया है। लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि क्या सीजेएम सूर्यकांत तिवारी को धारा 156(3) सीआरपीसी के प्रावधानों का ज्ञान है कि नहीं?
गौरतलब है कि अगर किसी संज्ञेय मामले में पुलिस सीधे एफआईआर दर्ज नहीं करती तो शिकायती सीआरपीसी की धारा-156 (3) के तहत अदालत में अर्जी दाखिल करता है और अदालत पेश किए गए सबूतों के आधार पर फैसला लेती है। ऐसे मामले में पुलिस के सामने दी गयी शिकायत की कॉपी याचिका के साथ लगायी जाती है और अदालत के सामने तमाम सबूत पेश किये जाते हैं। इस मामले में पेश किये गये सबूतों और बयान से जब अदालत संतुष्ट हो जाये तो वह पुलिस को निर्देश देती है कि इस मामले में केस दर्ज कर छानबीन करे।
इसी तरह जब मामला असंज्ञेय अपराध का होता है तो अदालत में सीआरपीसी की धारा-200 के तहत कंप्लेंट केस दाखिल किया जाता है। कानूनी प्रावधानों के तहत शिकायती को अदालत के सामने तमाम सबूत पेश करने होते हैं। उन दस्तावेजों को देखने के साथ-साथ अदालत में प्री समनिंग साक्ष्य होता है। यानी प्रतिवादी को समन जारी करने से पहले का साक्ष्य रेकॉर्ड किया जाता है।
दरअसल किसी अदालत में अगर कोई किसी के ख़िलाफ़ 156(3) में ऍफ़आईआर दर्ज़ करने के लिए प्रार्थनापत्र दाखिल करता है तो कोर्ट उस पर सुनवाई करती है और सम्बन्धित थाने से रिपोर्ट भी मांगती है। अगर शिकायत में दम लगता है तभी कोर्ट ऍफ़आईआर दर्ज़ करके जांच का आदेश देता है। लेकिन यदि शिकायतकर्ता के पास पक्ष में सबूत नहीं होते तो उसका प्रार्थना पत्र ख़ारिज कर दिया जाता है। 156(3) में प्रार्थनापत्र में यह लिखना पड़ता है कि सम्बन्धित पुलिस थाने में शिकायत दी गयी लेकिन पुलिस ने ऍफ़आईआर दर्ज़ नहीं की।
अदालत में इस पूरी प्रक्रिया में तीन महीने से छह महीने तक लगते हैं। लेकिन 49 प्रख्यात लोगों के ख़िलाफ़ जिस तरह एफआईआर लिखने का आदेश जल्दीबाजी में दिया गया उससे यह शोध का विषय है की क्या 156(3) में प्रार्थनापत्र देने के क़ानूनी प्रावधान का पालन किया गया? यदि प्रार्थनापत्र के साथ साक्ष्य देने की बात है तो पत्रावली पर क्या साक्ष्य देखकर सीजेएम सूर्यकांत तिवारी ने पुलिस को एफआईआर लिखकर जाँच करने का आदेश दिया।
क्या सीजेएम सूर्यकांत तिवारी को देशद्रोह कानून के प्रावधानों का सम्यक ज्ञान है? क्या सीजेएम सूर्यकांत तिवारी केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य, 1962 सुप्रीम कोर्ट 2 एससीआर 769 में उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गयी उस व्यवस्था का ज्ञान है कि केवल सरकार या उसकी नीतियों की आलोचना करने के लिए देशद्रोह के आरोप नहीं लगाए जा सकते? क्या सीजेएम सूर्यकांत तिवारी को इस बात का ज्ञान है कि उच्चतम न्यायालय के जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस यूयू ललित की पीठ ने 5 सितम्बर 2016 को साफ-साफ कहा था कि सरकार की आलोचना करने पर किसी के खिलाफ राजद्रोह या मानहानि के मामले नहीं थोपे जा सकते। पीठ ने कहा था कि यदि कोई सरकार की आलोचना करने के लिए बयान दे रहा है तो वह राजद्रोह या मानहानि के कानून के तहत अपराध नहीं करता।
इसके बावजूद जुलाई महीने में भारत के 49 सेलिब्रिटीज द्वारा देश में बढ़ रही भीड़ हिंसा यानी लिंचिंग के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे गये पत्र को लेकर इनके खिलाफ सीजेएम सूर्यकांत तिवारी के आदेश पर बिहार के मुजफ्फरपुर में देशद्रोह के आरोप में एफआईआर दर्ज हुई थी।
राजस्थान हाइकोर्ट ने इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण व्यवस्था दी है। हाइकोर्ट ने कहा है कि संबंधित मजिस्ट्रेट आपराधिक परिवाद को पुलिस थाने में मुकदमा दर्ज करने का आदेश देने से पहले प्रथम द्रष्ट्या मामले की जांच करे। यदि जरूरत हो तो वह मामले के सत्यापन के लिए परिवादी से शपथ पत्र भी ले। हाइकोर्ट ने कहा है कि संज्ञेय अपराध होने पर ही मामले को 156 3 के तहत ही थाने में भेजा जाये।