Home / Slider / सीएए हिंसा की न्यायिक जांच पर 25 मार्च को सुनवाई करेगा इलाहाबाद हाईकोर्ट

सीएए हिंसा की न्यायिक जांच पर 25 मार्च को सुनवाई करेगा इलाहाबाद हाईकोर्ट

दस अप्रैल को पोस्टर मामले की सुनवाई

अध्यादेश पर जवाब तलब

वरिष्ठ पत्रकार जे.पी. सिंह की कलम से


नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में प्रदेश में हिंसा मामलों की न्यायिक जांच की याचिकाओं पर हाई कोर्ट 25 मार्च को अंतिम सुनवाई करेगा। कोर्ट ने सभी याचिकाओं को एक साथ सूचीबद्ध करने का आदेश दिया है। एक अन्य मामले में यूपी में विरोध प्रदर्शनों के दौरान सरकारी व निजी संपत्ति को होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए लाया गया योगी सरकार का अध्यादेश को संविधान विरोधी बताकर इसे रद्द किये जाने की मांग को लेकर दाखिल याचिकाओं पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यूपी सरकार से जवाब तलब कर लिया है। हाईकोर्ट ने योगी सरकार को जवाब दाखिल करने के लिए सिर्फ एक हफ़्ते की मोहलत दी है।
इसके अलावा लखनऊ हिंसा में सार्वजानिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वालों के पोस्टर हटाने के मामले में योगी सरकार को इलाहाबाद हाईकोर्ट से फौरी तौर पर राहत मिल गई है। चीफ जस्टिस गोविंद माथुर और राकेश सिन्हा की पीठ ने सरकार को 10 अप्रैल तक की मोहलत दी है। सरकार को यह राहत सोमवार को दाखिल की गई अर्जी पर मिली. इसमें अनुपालन रिपोर्ट पेश करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में लंबित अपील का हवाला देकर अतिरिक्त समय मांगा गया था।
नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में उत्तर प्रदेश के कई शहरों में हुई हिंसा की न्यायिक जांच की मांग में दाखिल याचिकाओं पर इलाहाबाद हाईकोर्ट अब 25 मार्च को अंतिम सुनवाई करेगा। हाईकोर्ट ने सभी याचिकाओं को एक साथ सूचीबद्ध करने का आदेश दिया है। चीफ जस्टिस गोविंद माथुर और जस्टिस समित गोपाल की खंडपीठ ने सीएए हिंसा को लेकर दाखिल याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए यह आदेश दिया है।
दरअसल सीएए को लेकर प्रदेश के कई शहरों में हुई हिंसा पर हाईकोर्ट ने प्रदेश सरकार से 16 मार्च तक विस्तृत रिपोर्ट मांगी थी। कोर्ट ने विस्तृत रिपोर्ट में सीएए को लेकर यूपी के अगल-अलग शहरों में मारे गए लोगों की जानकारी मांगी थी। इसके साथ ही मृत लोगों की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट की जानकारी भी मांगी थी। राज्य सरकार से यह भी पूछा गया था कि पुलिस की बर्बरता के खिलाफ आम लोगों की ओर से कितनी शिकायतें की गईं थी और कितने पुलिसकर्मियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर राज्य सरकार ने कार्रवाई की है।
इस आदेश के अनुपालन में राज्य सरकार ने 16 मार्च को इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपनी विस्तृत रिपोर्ट दाखिल कर दी थी। इस रिपोर्ट में सरकार ने यह माना है कि पिछले साल उन्नीस और बीस दिसम्बर को हुई हिंसा की वारदातों में 23 लोग मारे गए थे, जबकि सैकड़ों लोग ज़ख़्मी हुए थे। घायलों में 87 की हालत बेहद गंभीर थी। सरकार ने यह भी माना है कि विरोध प्रदर्शनों के दौरान पुलिस पर बर्बर कार्रवाई का आरोप लगाते हुए तमाम लोगों ने अपनी शिकायतें भेजी हैं।
हालांकि, अभी सिर्फ नौ मामलों में ही केस दर्ज हुआ है और बाकी मामलों में लोकल लेवल पर गठित की गई एसआईटी की जांच रिपोर्ट के आधार पर आगे की कार्रवाई की जाएगी। यूपी सरकार ने हिंसा पर 600 पन्नों से ज़्यादा की रिपोर्ट हाईकोर्ट में दाखिल की थी। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ अकेले 19 और 20 दिसम्बर की हिंसा में सबसे ज़्यादा 7 मौतें फिरोजाबाद में हुई हैं। इसके अलावा मेरठ में 5, कानपुर नगर में 3, मुज़फ्फरनगर- बिजनौर और संभल में 2-2 और रामपुर और वाराणसी में एक- एक की मौत की बात कही गई है।
लोगों की शिकायत पर पुलिस के खिलाफ 9 एफआईआर दर्ज की गई है। इनमें कानपुर नगर में पांच और बिजनौर और मेरठ में दो-दो मामले दर्ज हैं। इसके अलावा कई जगहों पर मिली शिकायत की अभी जांच की जा रही है। रिपोर्ट के मुताबिक़ हिंसा में जिन 23 लोगों की मौत हुई है, इनमें से 13 मुकदमों में अज्ञात के खिलाफ केस दर्ज है। हाईकोर्ट सभी याचिकाओं को सूचीबद्ध करने के साथ ही 25 मार्च को अंतिम सुनवाई करेगा।
यूपी में विरोध प्रदर्शनों के दौरान सरकारी व निजी संपत्ति को होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए लाया गया योगी सरकार का अध्यादेश मामले की सुनवाई चीफ जस्टिस गोविन्द माथुर और जस्टिस समित गोपाल की डिवीजन बेंच में हुई। अदालत इस मामले में सत्ताइस मार्च को फ़िर से सुनवाई करेगी। हाईकोर्ट के फैसले के मुताबिक़ यूपी सरकार को पचीस मार्च तक अपना जवाब दाखिल करना होगा, जबकि याचिकाकर्ता उसके अगले दो दिनों में अपना पक्ष रखेंगे।
गौरतलब है कि हाईकोर्ट के वकील शशांक श्री त्रिपाठी, महा प्रसाद और लखनऊ की सामाजिक कार्यकर्ता असमा इज़्ज़त ने योगी सरकार के अध्यादेश को संविधान की मूल भावना के खिलाफ बताते हुए इसके ख़िलाफ़ हाईकोर्ट में पीआईएल दाखिल की गई है। पीआईएल में अध्यादेश को रद्द किये जाने और अंतिम निर्णय आने तक इसके अमल पर रोक लगाए जाने की मांग की गई थी। इन अर्जियों में कहा गया था कि यूपी सरकार का यह अध्यादेश संविधान की मूल भावनाओं के खिलाफ है। यूपी सरकार को इस तरह के अध्यादेश लाने का कोई संवैधानिक अधिकार ही नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 323 बी के अधिकारों के तहत जिन आठ बिंदुओं पर अध्यादेश लाया जा सकता है, उनमे यह विषय शामिल नहीं है। इसके अलावा क्रिमिनल मामलों पर अध्यादेश लाने का नियम ही नहीं है। सरकार ने क्रिमिनल मामले पर आर्डिनेंस बनाया, लेकिन गुमराह करने के लिए इसे सिविल नेचर का बताया है।
यूपी सरकार ने लखनऊ में हिंसा के आरोपियों के पोस्टर लगवाए थे। इस पोस्टर पर हाईकोर्ट ने सुओ मोटो लेते हुए सुनवाई की थी और सरकार को इसे हटाने का आदेश दिया था। यूपी सरकार ने हाईकोर्ट के आदेश का पालन करने के बजाय फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी थी। उच्चतम न्यायालय से सरकार को कोई फौरी राहत नहीं मिली और मामला लार्जर बेंच को रेफर हो गया। सरकार पोस्टर हटाने से बचने के लिए उत्तर प्रदेश लोक तथा निजी संपत्ति क्षति वसूली अधिनियम -2020 ले आई। इस अध्यादेश को राज्यपाल की भी मंजूरी मिल चुकी है।

Check Also

Brahmachari Girish Ji was awarded “MP Pratishtha Ratna”

Brahmachari Girish Ji was awarded “Madhya Pradesh Pratishtha Ratna” award by Madhya Pradesh Press Club ...