मोहम्मद ज़ाहिद अख़्तर
लखनऊ।
राममन्दिर-बाबरी मस्जिद का सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 9 नवम्बर को दिये गये ऐतिहासिक फ़ैसले के विरूद्ध ऑल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने पुनर्विचार याचिका दायर करने का मन बना लिया है।
रविवार को ऑल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल बोर्ड की अहम मीटिंग राजधानी लखनऊ स्थित मुमताज़ पीजी काॅलेज में आयोजित की गई। बैठक में बोर्ड के लगभग 45 सदस्यों ने हिस्सा लिया। बैठक नदवातुल उलेमा के बानी तथा सदर जनाब राबे हसनी मदनी की अध्यक्षता में यह बैठक की गई।
बोर्ड की मीटिंग में चारों महिला सदस्य डॉ आसमा ज़ेहरा, निग़हत परवीन ख़ान, ममदुहा माजिद, आमना रिज़वाना भी शामिल हुईं। इसके अलावा मौलाना वली रहमानी, जलालुद्दीन उमरी, मौलाना अतीक़ बस्तवी, मौलाना ख़ालिद रशीद फ़रंगी महली, बैरिस्टर असदुद्दीन ओवैसी, मौलाना अरशद मदनी (जमीयत उलेमा ए हिंद), ज़फरयाब जिलानी, क़ासिम रसूल इलियासी, मौलाना महफ़ूज़ उमरेन, फज़लुररहीम मुजद्दीदी, मोहम्मद रशीद (सांसद मुस्लिम लीग केरला), यासीन अली उस्मानी, सआदत उल्लाह हुसैनी (जमात ए इस्लामी हिंद), आरिफ मसूद (विधायक भोपाल) समेत 45 सदस्य उपस्थित रहे। इसके पूर्व बैठक में जमियत उलेमा ए हिन्द के महासचिव मौलाना महमूद मदनी बैठक के बीच में ही चले गये।
बोर्ड केे सचिव जफरयाब जीलानी ने प्रेस वार्ता को सम्बोधित करते हुए बताया कि बैठक में सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले पर सदस्यों द्वारा विचार के उपरान्त यह निर्णय लिया गया है कि हम अगले 30 दिनों के भीतर बाबरी मस्जिद मामले को लेकर सर्वाच्च न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दायर करेंगे। उन्होंने यह भी बताया कि पुनर्विचार याचिका दायर करना हमारा संवैधानिक अधिकार है और इसके बाद जो भी फ़ैसला आयेगा हमें हर हाल में मंज़ूर होगा।
यह पूछे जाने पर कि जब मुस्लिम पक्षकारों ने यह पहले ही कह दिया था कि वो सर्वोच्च न्यायालय का जो भी फ़ैसला आयेगा उसे स्वीकार करेंगे तो फ़िर यह पुनर्विचार याचिका क्यों? इस पर जीलानी ने बताया कि चूंकि सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले में ऐसे कई बिन्दु हैं जिनमें स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने सहमति जतायी है। बावजूद इसके जो निर्णय दिया गया वो मुसलमानों के पक्ष में नहीं था। यही कारण है कि बोर्ड ने आज यह फ़ैसला लिया है कि वो इस मामले को लेकर पुनर्विचार याचिका दायर करेगी।
ज़फ़रयाब जीलानी ने बताया कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जो 5 एकड़ ज़मीन देने की बात कही गई है वो हमें मंज़ूर नहीं है, क्योंकि केस बाबरी मस्जिद का था और हमने कहीं भी किसी भी प्रकार से ज़मीन की मांग की ही नहीं थी।
क्या हैं इसके शरई पहलू?
प्रेस वार्ता के दौरान मौलाना महफ़ूज़ ने मामले के शरई पहलूओं का ज़िक्र करते हुए बताया कि 16 दिसम्बर 1949 में बाबरी मस्जिद में आखिरी नमाज़ पढ़ी गई थी जिसे स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है।
मौलाना महफूज ने कहा कि मस्जिद के बदले में कोई भी चीज नहीं ली जा सकती है। शरीयत इस बात की इजाज़़त नहीं देता कि मस्जिद की जगह हम दूसरी जमीन लें। उन्होंने यह भी बताया कि न्यायालय ने यह भी माना है कि बाबरी मस्जिद को गिराया जाना असंवैधानिक था। कोर्ट ने माना है कि किसी मंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद का निर्माण नहीं किया गया है।
प्रेस वार्ता को सम्बोधित करते हुए बोर्ड के सह-संयोजक क़ासिम रसूल इलियासी ने बताया कि कोर्ट के फैसले में कई खामियों को देखते हुए ही हमने पुनर्विचार याचिका दायर करने का फैसला लिया है। उन्होंने कहा कि हम बाबरी मस्जिद के लिए न्यायालय गए थे, ना कि मस्जिद के बदले 5 एकड़ जमीन लेने के लिए।
इलियासी ने कहा कि कोर्ट ने साफ़ तौर पर यह भी माना है कि मस्जिद में मूर्ति जबरदस्ती रखी गई थी जो ग़लत था। जहां तक 5 एकड़ जमीन का सवाल है हम साफ़ तौर पर कहना चाहते हैं कि शरई नुक्ते नज़र से हम 5 एकड़ जमीन कबूल नहीं कर सकते, क्योंकि एक बार जहां मस्जिद बन जाती है वहां ता क़यामत तक मस्जिद ही रहती है। उसे स्थानन्तरित नहीं किया जा सकता है। इसलिए हम 5 एकड़ जमीन लेने से इनकार करते हैं, और जहां तक कोर्ट द्वारा 5 एकड़ ज़मीन सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिये जाने की बात है, तो हमें लगता है कि सुन्नी वक्फ बोर्ड भी हमारे पुनर्विचार याचिका से सहमत होगा क्योंकि वो भी षरई नियमों के खिलाफ नहीं जा सकता।
ज़फ़रयाब जिलानी ने बताया कि पुर्नविचार याचिका मौलाना महफूज रहमान, मोहम्मद उमर और मिसबाहुद्दीन तीन लोगों की तरफ़ से दायर किया जायेगा।
प्रेसवार्ता को सम्बोधित कर रहे ज़फ़रयाब जीलानी ने बताया कि ज़िला प्रशासन ने हमारी होने वाली बैठक को रोकने के लिए कल रात मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के अध्यक्ष जनबा राबे हसनी नदवी के पास जिले के तमाम अधिकारी गए थे। ज़िला प्रशासन ने नदवा कॉलेज में हम लोगों को बैठक करने से मना कर दिया जिसके बाद हमने मुमताज़ पीजी काॅलेज में इस बैठक का आयोजन किया।
उन्होंने यह भी बताया कि अयोध्या का ज़िला प्रशासन सुन्नी वक्फ़ बोर्ड के सदस्यों पर दबाव बना रहा है कि वे सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले के विरुद्ध किसी प्रकार का कोई वक्तव्य ने दे और अपनी सहमति जतायें।