एक ओंकार सतिनाम, करता पुरखु निरभऊ…
गुरु नानक देव की 550वीं जयंती
वरिष्ठ पत्रकार दिनेश कुमार गर्ग
बडे़ धूमधाम से गुरु नानक देव का 550 वां प्रकाशपर्व मनाया जा रहा है । गुरु बाबा नानक देव सिख धर्म के आदि गुरू हैं जिनके ज्ञान और अध्यात्म का प्रस्फुटन पंडितों की देवभाषा के बजाय 550 वर्ष पूर्व की लोकल पंजाबी और कुछ-कुछ हिन्दी में हुआ।
बाबा नानकदेव ने अपने तईं किसी पंथ या धर्म का प्रवर्तन नहीं किया , बल्कि अपने आचरण, व्यवहार और पंजाबी भाषा में प्रवचन से उस पंजाबी भारतीय समाज में एक आश्वासन, एक नया भरोसा स्थापित किया था जो बाबर के आक्रमण से सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक रूप से उथल-पुथल का शिकार हो रहा था।
लोदियों, राजपूतों और स्थानीय जमींदारों और स्थापित इंडियनाइज्ड मुस्लिम ब्यूरोक्रेसी का पतन हो रहा था, नये तुर्क-मुस्लिम राजे, नवाब, जमीन्दार और ब्यूरोक्रेट्स का समाज में प्रादुर्भाव होने से भारी असमंजस, अनिश्चितता के माहौल में आर्थिक पतन, कारोबार की मंदी, दुर्भिक्ष का सामना कर रहे भारतीय समाज में हिन्दुओं की महादुर्गति थी। नये मुस्लिम स्वामियों से पुराने , लोदी समर्थक मुस्लिमों के धार्मिक भाईचारे ने लोदी की मुस्लिम प्रजा को बाबर की बर्बरता से उन्हे बचा लिया पर हिन्दू तो पराजित और काफिर थे। सो लूट-पाट , धार्मिक टैक्स और प्रताड़ना, कारोबार का छिनना , वाणिज्य का भंग होना , कृषि-दुर्भिक्ष की पीडा़ हिन्दुओं की नियत बने और इन सब का बाबा नानक देव ने जीवंत चित्रण किया ।
नानकदेव 22 सितंबर 1539 तक समाज में सक्रिय रहे । पूरे भारत में हिन्दू विश्वास के अनुसार धार्मिक स्थलों का भ्रमण किया , मक्का-मदीना तक गये । इराक में बताया जाता है कि उनकी कुटी आज भी संरक्षित है।
बाबा नानकदेव के प्रवचन-भ्रमण से पंजाब में अगले 200 वर्षों में उभरने वाले सिख धर्म के बीज पड़ गये । करतारपुर ( अब पाकिस्तान ) में उन्होने देहान्तरण किया ।
उनके बाद उनकी गद्दी चली , मुगल शासकों के हाथ अत्याचारों और लोमहर्षक आत्मबलिदानों की परंपरा 10 वें गुरू गोविन्द सिंह तक चली। गुरू गोविन्द के बच्चों के साथ सरहिन्द के मुगल गवर्नर ने जो भीषण अत्याचर किया , उन्हे जीवित दीवाल में चुनवा दिया। उस घटना ने पस्त हाल पंजाबी किसानों, दलितों को गुरू गोविन्द सिंह की सिखी में एक दुर्धर्ष मार्शल कौम में बदल दिया ।
अत्याचारी मुगल औरंगजेब के पतन के बाद सिखों का एक खालसा राज भी महाराजा रणजीत सिंह के हाथों स्थापित हुआ। पर उल्लेखनीय है कि मुगलों के अत्याचार से प्रतिकार में उत्पन्न खालसा राज मुसलमानों के लिए अभय और आनन्द, सुरक्षा व समृद्धि देने वाला बना । जो भय और दुर्दशा हिन्दुओं की मुस्लिम राज में हुई उसके उलट खालसा राज मुसलमानों के लिए शांति और प्रगति वाला साबित हुआ।
धूर्त अंग्रेज दिल्ली तक पहुंच चुके थे जिसकी ताकत के आगे राजा रणजीत सिंह के बाद वाला खालसा राज कमजोरी का शिकार हो रहा था और धीरे-धीरे अंग्रेजों की धूर्तता का शिकार होता गया ।
सिख एक सैनिक शक्ति के रूप में कितने उपयोगी होंगें यह अंग्रेजों को रणजीत सिंह के समय में ही पता चल चुका था , सो उन्होंने सिख इण्टेलिजेन्सिया का प्रयोग सबसे पहले सिखों की अलग पहचान को प्रोत्साहित करने और हिन्दू धर्म से अलग करने में किया । ऐसा करके वे सिखों को वृहत्तर समाज से बांट सके और सदा के लिए अपने पक्ष में कर सके।
भोले-भाले सरदार अंग्रेजों के झांसे में आते गये और उन्होंने आपने को अलग धर्म, पहचान और राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित तो कर लिया पर यह शायद सिख परंपरा की सबसे बडा़ मैकालियन भटकाव साबित हुइ है। मैकाले ने जिस शिक्षा पद्धति की स्थापना इंडियन एजूकेशन ऐक्ट के माध्यम से किया था उसका मूल उद्देश्य था मौलिक भारतीय चेतना रहित मानव संसाधन निर्मित करना ।उसका असर अंग्रेजों के समय तो था ही आज भी है ।इसी को मैकालियन भटकाव कहा गया है ।
बाबा नानक की चेतना वेदान्तवादी थी, धार्मिक व शास्त्रीय रूढि़यों से परे, एक सरल आध्यमिक-सांसारिक जीवन । मानव-मानव में भेद रहित। ” एक नूर ते सब जग जाया, कौन भले कौन मंदे ” यह नानक जी का घोष वाक्य है । उनके समय में और आज भी मुसलमान और हिन्दू दोनों उनसे भिन्न राय रखते हैं । मुस्लिम मानते हैं कि कलमा पढा़ व्यक्ति मोमिन है बाकी काफिर , सताये जाने लायक और कलमा न पढ़ने पर कत्ल कर दिये जाने लायक। हिन्दू भी सवर्ण और दलित भेद युक्त हैं ।
बहरहाल, नानक देव की सरलता और पवित्रता सिख समुदाय में क्या बची है , यह सवाल आज उनके 550 वें प्रकाशवर्ष में जरूर उठ रहा है ।
सरलता और पवित्रता दो ऐसे साधारण शब्द हैं जो कहने में आसान परंतु व्यक्तित्व और अस्तित्व के रूप में परिवर्तित करने में नानक बुद्ध महावीर जैसा रूपान्तरण आवश्यक हो जाता है। दर असल यही दो सूत्र हैं जो सिखों को दसों गुरुवों कीआध्यात्मिक शक्ति से आबद्ध करते हैं ।
सिखी कर्मकाण्ड का धर्म नहीं है। वह सरलता और पवित्रता का मार्ग है जिसमें दशम गुरु द्वारा निर्धारित कर्तव्य और जरूरत पड़ने पर सर्वस्व त्याग का भाव अवगुम्फित है। क्या आज सिख वैसे हैं ?
क्या भिंडरावाले बनने की ललक रखनेवाले, भेडि़यों के चाकर के रूप में भारत के खिलाफ कपटपूर्ण और दुश्मनी भरे कार्यों में शामिल होने सिख नानकदेव की पवित्रता से कट नहीं चुके हैं ? पंजाब में नशे का व्यापार करनेवाले, नशे का उपभोग करनेवाले सिख गुरु नानकदेव के शिष्य होने लायक हैं ? गाय और ब्राह्मण की रक्षा के लिये युद्ध करने वाले सिखों की संताने क्या आज वैसा करने को तैयार है ?ये सवाल हैं जो सिखों के 100 वर्षों के इतिहास को देखते हुए आज हमें मथते हैं ।
मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि आज सिखों को गुरु नानकदेव की बहुत आवश्यकता है। सिखों का केवल वह बाह्य स्वरूप बचा भर है जो गुरू गोविन्द सिंह देव ने उन्हें प्रयोजन विशेष से दिया । उनकी आध्यात्मिक चेतना का प्रवाह उनके दिलों तक ले जाने वाला सूत्र टूट चुका है , तभी उनके नौजवान पंथ के दुश्मनों के हाथों खिलौने की तरह प्रयुक्त होने को तैयार मिलने लगे हैं। सिख युवक को रोशनी की जगह अंधेरा ही दिखता है , जिसका चित्रण फिल्म ” उड़ता पंजाब ” में किया गया है।
सीधा, सरल और गुरुभक्त पंजाबी आज देखिये तो पंजाब, दिल्ली, ब्रिटेन, कनाडा, आस्ट्रेलिया सब जगह केवल बाह्याडंबरी सिख ही है, वे मूल्य उनके अन्तर्मन में अप्रकाशित या मंद से दिखते हैं जिन्होंने पंजाबी जाट, किसान और दलित को सिख के रूप में एक सम्माननीय वैश्विक पहचान दी थी । उनके सामने संकट सकारात्मकता का है । गुरू नानकदेव की शिक्षाओं से प्राणवन्त और गोविन्द सिंह देव के प्रयास से बकरी से सिंह बने इन लोगों के समक्ष धर्म की रक्षा या समाज की रक्षा का उद्देश्य नहीं बचा और अब यह विशाल शक्ति किस उद्देश्य के लिए काम करे, कोई बताने वाला होना चाहिये ।
पर सिखों की कठिनाई यह है कि उनके बौद्धिक और सामाजिक लीडर अत्यंत दुर्बल सामाजिक, राजनीतिक व धार्मिक चेतना के लोग हैं, नानक देव की तरह का वेदान्ती, उनके बाद के नौ गुरुओं की तरह चरित्रवान महापुरुष अब नहीं पैदा हो रहे हैं । हिन्दुओं से रोटी और बेटी से जुडे़ सिख अलग पहचान के चक्कर में हिन्दू विरोध तक जाते हैं, इसलिए उनके समाज के सामने संकट और गहरा हो रहा है।