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‘बाटला हाउस’ ने हिलाकर रख दिया दिल-दिमाग को

मुंबई.

 

वर्ष 2008 में यूपीए सरकार के समय काफी समय से सुर्खियों में रहा, बाटला हाउस एनकाउंटर केस’ के बारे में सभी जानते है। दिल्ली के एल-18 बटला हाउस में हुए एनकाउंटर पर आधारित है जॉन अब्राहम की फिल्म ‘बाटला हाउस’।

सितंबर 19, 2008 को दिल्ली के जामिया नगर इलाके में इंडियन मुजाहिदीन के संदिग्ध आतंकवादियों के खिलाफ मुठभेड़ हुई थी, जिसमें दो संदिग्ध आतंकवादी आतिफ अमीन और मोहम्मद साजिद मारे गए। जबकि दो अन्य भागने में कामयाब हो गए। वहीं, एक और आरोपी ज़ीशान को गिरफ्तार कर लिया गया। इस मुठभेड़ का नेतृत्व कर रहे एनकाउंटर विशेषज्ञ और दिल्ली पुलिस निरीक्षक मोहन चंद शर्मा इस घटना में मारे गए। इस एनकाउंटर के बाद देश भर में मानवाधिकार संगठनों का आक्रोश, राजनीतिक उठा पटक और आरोप- प्रत्यारोपों का माहौल बन गया और मीडिया में भी मामला लंबे समय तक गर्म रहा।

13 सितंबर 2008 को दिल्ली में हुई सिलसिलेवार बम धमाकों की जांच के लिए डीसीपी संजीव कुमार यादव अपनी टीम के साथ बाटला हाउस एल-18 पहुंचते हैं। वहां के संदिग्ध आतंकियों के साथ हुए मुठभेड़ में एक अफसर घायल हो जाता है, जबकि अफसर केके(रवि किशन) की मौत हो जाती है। यह मुठभेड़ तो कुछ वक्त में खत्म हो जाता है। लेकिन इसका प्रभाव दिल्ली पुलिस और खासकर संजीव कुमार यादव को लंबे समय तक शक के दायरे में लाकर खड़ा कर लेता है। उस दिन बाटला हाउस में पुलिस ने आतंकियों कोna मारा था? या विश्वविद्यालय में पढ़ने वालों मासूम बच्चों को सिर्फ मज़हब की आड़ में नकली एनकाउंटर में खत्म कर वाहवाही लूटनी चाही थी?

मीडिया से लेकर सत्ताधारी की विरोधी राजनीतिक पार्टियां इसे फेक एनकाउंटर का नाम देती है। दिल्ली पुलिस मुर्दाबाद के नारे लगते हैं, लोग पुतले जलाते हैं। इस पूरे मामले में संजीव कुमार यादव को न सिर्फ बाहरी उठा पटक से गुज़रना पड़ता है, बल्कि पोस्ट ट्रॉमैटिक डिसॉर्डर से भी जूझना पड़ता है। इस पूरे सफर में संजीव कुमार का साथ देती हैं उनकी पत्नी नंदिता कुमार (मृणाल पांडे)। फिल्म में उनका किरदार छोटा है। कई शौर्य पुरस्कारों से सम्मानित डीसीपी संजय कुमार यादव खुद को और अपनी टीम को बेकसूर साबित कर पाते हैं या नहीं? ये मूवी देखने के बाद ही जान पाएंगे।

जॉन अब्राहम, डीसीपी संजीव कुमार यादव के किरदार में बेहद संयमित और मजबूत दिखे हैं। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में जब वह कानून के सामने कटघरे में खड़े होते हैं तो गुस्सा और विवशता दोनों ही जॉन के चेहरे पर झलकती है। उनका एक संवाद भी है, जब वह वकील से कहते हैं- आपका और मेरा सच एक कैसे हो सकता है? आपने कभी सीने पर गोली खाई है? फिल्म के दूसरे सीन में संजीव कुमार यादव कहते है ‘एक टैरेरिस्ट को मारने के लिए सरकार जो रकम देती है, उससे ज्यादा तो एक ट्रैफिक पुलिस एक हफ्ते में कमा सकता है। ‘जॉन द्वारा तुफैल बने आलोक पांडे को कुरान की आयत को समझाने वाले कुछ सीन बेहतरीन हैं।

मृणाल ठाकुर ने जॉन की पत्नी का छोटा सा रोल निभाया है। बाकी सह कलाकार मनीष चौधरी, रविकिशन, वकील बने राजेश शर्मा और प्रमोद पाठक ने अच्छा काम किया है। आतंकी आदिल अमीन के किरदार में क्रांति प्रकाश झा ने भी ध्यान खींचा है। वहीं, नोरा फतेही को निर्देशक ने सिर्फ एक गाने भर के लिए ना रखकर एक अहम किरदार दिया है, इस फिल्म में नोरा फतेही का सांग और डांस ‘साकी साकी’ लोगो की जुबान पर है।

फिल्म में एक संस्पेंस कायम रखा गया है। इसका श्रेय रितेश शाह की स्क्रीनप्ले को जाता है। निखिल ने फिल्म में दिग्विजय सिंह, अरविंद केजरीवाल, अमर सिंह और एल के अडवानी जैसे नेताओं के रियल फुटेज का इस्तेमाल किया है। सौमिक मुखर्जी की सिनेमटोग्राफी बेहतरीन बन पड़ी है।

 

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