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‘भक्ति करने का तात्पर्य पूर्ण समर्पण’: आचार्य अमिताभ

 आचार्य अमिताभ जी महाराज

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि तुम किसी भी प्रकार से मुझे भजना प्रारंभ करो। मैं तुमको किसी न किसी रूप में अवश्य प्राप्त हो जाऊंगा। बात भी सही है। पूर्ण शरणागति ही व्यक्ति को अरिष्ट एवं अनिष्ट से बचा सकती है। एकांत भाव से जब हम किसी के शरणागत होते हैं तो वह स्वयं को हमारे आत्यंतिक आत्मिक हितों के लिए समर्पित कर देता है। ईश्वर की का भी यही भाव है। आज हमको ईश्वर से सब कुछ चाहिए, सब कुछ मिल जाए, कोई ऐसा साधन -सामर्थ्य बचा न रह जाए जो हमको प्राप्त न हो।

“भक्ति का तात्पर्य”: 2

आचार्य अमिताभ जी महाराज कहते हैं कि जो जिस दृष्टि से आत्मा का अनुसंधानकर्ता है, उसे उसी रूप से परमात्मा की, परमात्मा तत्व की प्राप्ति होती है। जो ईश्वर को इस ब्रह्मांड से अभिन्न जानकर मूल स्वरूप के रूप में स्वीकार करके उसका भजन करता है और उसकी भक्ति करता है, वही ज्ञानी भक्त हैं क्योंकि उसको संसार में उसके प्रत्येक संदर्भ में ईश्वर दिखता है और ईश्वर में ही उसे संसार का दर्शन होता है। वह दोनों को अभेद भाव से स्वीकार करता है अर्थात वह प्रत्येक प्रकार के राग और द्वेष से मुक्त हो जाता है और सर्वत्र उसमें ईश्वर दृष्टि विद्यमान होती है।

श्रीमद्भागवत में भी एकादश स्कंध में नव योगेश्वरओं के उपदेश के माध्यम से भक्त तत्व का अत्यंत विशद वर्णन किया गया है जिसका पूर्ण विस्तार तो यहां पर संभव नहीं है किंतु यह कह सकते हैं कि जो किसी भी प्रकार का भेद नहीं करते और सर्वत्र ईश्वर दर्शन करते हैं, पंच भूतों को पंच महाभूतों के साथ ही एकात्म भाव से स्वीकार करते हैं और सर्वत्र जिनकी शुभ दृष्टि होती है वही सबसे श्रेष्ठ भक्त कहे जाते हैं।

जो ईश्वर से प्रेम करता है, उसकी भक्ति करता है, उसके भक्तों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध रखता है, जो संसार में कष्टों से युक्त हैं, दुखी हैं, उन पर दया करता है तथा जो ईश्वर के विरोधी हैं उनकी उपेक्षा करता है, अर्थात उनके साथ किसी प्रकार का कोई भाव संबंध नहीं रखता है, वह श्रीमद्भागवत की दृष्टि में दो नंबर का भक्त होता है।

वह भक्त जो केवल भगवत विग्रह को या मूर्ति को एवं मातृ उसकी पूजा को उसकी अर्चना को ही पकड़ कर के बैठ जाता है और अपने पूजा के गर्भ गृह से बाहर किसी भी मानवीय संदर्भ का दर्शन नहीं करता तथा ईश्वर की बनाई हुई इस सृष्टि में उसका किसी के प्रति कोई भी कोमल भाव नहीं होता, वह प्राकृत अर्थात प्रारंभिक स्तर के भक्तों के रूप में स्वीकार किया गया है।

पूर्ण शरणागति ही व्यक्ति को अरिष्ट एवं अनिष्ट से बचा सकती है। एकांत भाव से जब हम किसी के शरणागत होते हैं तो वह स्वयं को हमारे आत्यंतिक आत्मिक हितों के लिए समर्पित कर देता है। ईश्वर की का भी यही भाव है। आज हमको ईश्वर से सब कुछ चाहिए, सब कुछ मिल जाए, कोई ऐसा साधन -सामर्थ्य बचा न रह जाए जो हमको प्राप्त न हो।

अर्थात जब तक इस ईश्वरीय सृष्टि में प्रत्येक प्राणी के प्रति सद्भाव को रखते हुए जिन की आवश्यकता है, उस आवश्यकता को अपनी सामर्थ्य के अनुपात में पूर्ण करने का संकल्प यदि नहीं है, तब भक्ति की आत्यंतिक परिभाषा को किसी व्यक्ति पर लागू नहीं किया जा सकता।

भक्तों के विभिन्न स्वरूपों के इस अत्यंत संक्षिप्त विवरण के उपरांत ही भक्ति के सूत्रों उसके विस्तार एवं विभिन्न विभागों की चर्चा करने का औचित्य सहज रूप से सिद्ध हो सकता है।

श्रीमद्भागवत में भक्ति के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए 9 चरणों का विवरण दिया गया है जो इस प्रकार है श्रवण,  कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, पूजन, वंदन, दास्य, सखा भाव एवं आत्म निवेदन।

ईश्वर की भक्ति करने के संदर्भ में इस नवधा भक्ति को तीन भागों में विभक्त किया गया है। भगवान के नाम की सेवा श्रवण, कीर्तन और स्मरण के माध्यम से की जाती है। भगवान के रूप की सेवा पाद सेवन, पूजन और वंदन के द्वारा की जाती है। भगवान की भाव द्वारा की जाने वाली सेवा दास्य, सखा भाव एवं आत्म निवेदन से की जाती है।

श्रीमद् भागवत के अनुसार बताई गई इस नवधा भक्ति के विस्तार का पूर्ण वर्णन यहां कर पाना संभव नहीं है क्योंकि इसके आत्यंतिक रूप से अनेक-अनेक भेद हो जाते हैं।

कतिपय आचार्यों ने तो सात्विक ,राजसी एवं तामसिक भेद के आधार पर भक्ति के 81 प्रकारों की उद्भावना की है l इस बात की पुष्टि पद्म पुराण के पाताल खंड से भी होती है कि नवधा भक्ति के इन स्वरूपों में प्रवेश करके आत्म नियंत्रण के नियम के अनुसार पूजन पद्धति को स्वीकार करने पर अंतस चेतना में व्याप्त तत्व का समर्पण अनिवार्य होता है। इसके अनुसार अहिंसा, इंद्रिय संयम, दया, क्षमा, मनोनिग्रह, ध्यान एवं सत्य यह सात पुष्प है, जिनको ईश्वर के चरणों में अर्पित करने से ईश्वर प्रसन्न हो जाते हैं जितने कि वह प्राकृत पुष्पों से नहीं होते क्योंकि उन्हें बाह्य उपकरणों की अपेक्षा आंतरिक भाव से युक्त भक्ति अधिक प्रिय है। भक्तों के अतिरिक्त इन विशेष पुष्पों से भगवान की पूजा करने का अन्य किसी में सामर्थ्य ही नहीं है।

रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने भी नवधा भक्ति के क्रम को इस प्रकार से उल्लेखित किया है। सत्संग, भगवत कथा में अनुराग, मान रहित होकर गुरु सेवा करना, कपट छोड़कर भगवान के गुणों का गायन करना, दृढ़ विश्वास से राम नाम जप करना, इंद्रिय दमन-शील और वैराग्य आदि सद्गुणों के द्वारा आचरण करना, जगत को ईश्वर से युक्त और जो संत जन है उनको ईश्वर से भी अधिक पूजनीय स्वीकार करना। क्योंकि हमको ईश्वरीय कृपा उन के माध्यम से ही प्राप्त होती है, छल का परित्याग कर सरल और सहज आचरण करना, ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखते हुए हर्ष और विषाद से मुक्त रहना। इस वर्णन से भी पूर्वकालिक संदर्भों की पुष्टि ही होती है।

यहां पर देवर्षि नारद के द्वारा बताए गए भक्ति के 11 भेदों का उल्लेख करना भी आवश्यक है। गुण महात्म्य के प्रति आसक्ति, रूपासक्ति, पूजा के प्रति आसक्ति, स्मरण के प्रति आसक्ति, दास भाव के प्रति आसक्ति, सत्य भाव के प्रति आसक्ति, कांता भाव के प्रति आसक्ति, वात्सल्य भाव के प्रति आसक्ति, आत्मा निवेदन की आसक्ति, तन्मय भाव युक्त आसक्ति और परम विरह भाव से युक्त आसक्ति। यह नारद भक्ति सूत्र में उल्लेखित हैं।

अलग-अलग सिद्धांत के अनुसार पांच मुख्य रसों को भक्ति प्रधान माना गया है। वेदांत से प्रभावित भक्त शांत, सखा भाव, तुलसीदास जी महाराज ने दास भाव, पुष्टिमार्गीय वैष्णव आचार्यों ने वात्सल्य एवं श्री चैतन्य महाप्रभु ने माधुर्य रस को प्रधान माना है। कतिपय आचार्य शरणागति को प्रधान मानते हैं।

बात भी सही है। पूर्ण शरणागति ही व्यक्ति को अरिष्ट एवं अनिष्ट से बचा सकती है। एकांत भाव से जब हम किसी के शरणागत होते हैं तो वह स्वयं को हमारे आत्यंतिक आत्मिक हितों के लिए समर्पित कर देता है। ईश्वर की का भी यही भाव है। आज हमको ईश्वर से सब कुछ चाहिए, सब कुछ मिल जाए, कोई ऐसा साधन -सामर्थ्य बचा न रह जाए जो हमको प्राप्त न हो।

ईश्वर तड़पता है कि कोई हमें भी तो चाहने वाला हो, किंतु हम को ईश्वर से सब कुछ चाहिए, ईश्वर को चाहना हमारे भाव में स्थित ही नहीं होता है।

ईश्वर को भाव रूप में स्वीकार करने का एक महत्वपूर्ण अंग है श्रद्धा। यदि हम श्रद्धा से युक्त नहीं है तो हम ईश्वर में अपने भावों को स्थापित नहीं कर पाएंगे। अतः गुरु की कृपा से प्राप्त आशीर्वाद से हमें अपने साधनों के द्वारा अपन चित् में श्रद्धा को उत्पन्न करने की आवश्यकता है। वह श्रद्धा इस लौकिक जीवन में डोल रही हमारी आत्मा को एक अच्छे नाविक के समान संभाल कर ईश्वर की दिशा में उन्मुख कर सकती है इसमें कोई संदेह नहीं।

भक्ति भाव से युक्त हो कर अपनी दोनों भुजाओं को आकाश की तरफ उठाकर जो व्यक्ति उच्च स्वर में संकीर्तन करता है, ठाकुर जी का नाम लेता है तो ऐसा कौन सा कष्ट है जिसका निवारण कर देने की ठाकुर जी में सामर्थ्य नहीं है! बात सिर्फ इतनी सी है कि विश्वास करके तो देखो परिणाम अवश्य दिखाई देगा! संशय नष्ट कर देता है, संशय से मुक्त होकर के ईश्वर की दिशा में उन्मुख हो जाने से ही भक्ति के बीज का प्रादुर्भाव होता है और अंततोगत्वा लौकिक संदर्भों की अपेक्षा करते-करते वह स्वयं ही हमसे छूट जाते हैं और हमारे मन में हमारे हृदय में व्याप्त ईश्वर हमको अनुभूति के रूप में प्राप्त हो जाता है।

भक्तों एवं भक्ति के विविध संदर्भों का विस्तार तो अनंत है किंतु आज मात्र इतना ही।

शुभम भवतु कल्याणम!

आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज

941 530 85 09
E.Mail [email protected]

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