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पुस्तक समीक्षा- दृष्टि में दोष नहीं बस लेंस पर कुछ धूल है

 

पुस्तक समीक्षा- दृष्टि में दोष नहीं बस लेंस पर कुछ धूल है
पुस्तक- उजाड़ में आवाज़ के परिंदे
लेखक- रेवती रमण

अनाम विश्वजीत

रेवती रमण हिन्दी के समर्थ और अलग दृष्टि वाले आलोचक हैं। उनकी आलोचना हमेशा ही पाठ पर आधारित होती है और उसी परिप्रेक्ष्य में वह रचना की देश,काल और परिस्थिति के अनुसार उसके महत्व का आकलन करते हैं।आज जब आलोचना का पर्याय प्रशस्ति गायन बनने की आतुरता और निजता के नेपथ्य में डूबने की आपाधापी में दिख रहा हो, ऐसे दृष्टिविहीन समय में आलोचना को रचना व पाठ आधारित रखना एक महत्वपूर्ण काम है।रेवती रमण के आलोचनात्मक आलेख में रचनागत चिन्तन ही सर्वोपरि दिखता है और रचनाकार गौण हो जाता है। इसे आलोचना की अच्छी परम्परा कहा जा सकता है जिसके निर्वहन में आलोचक रेवती रमण ईमानदार,सजग और समर्थ हैं पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि उनकी आलोचना दृष्टि में दोष नहीं है। उनके प्रति ऐसी धारणा बनाना स्वयं उन्हीं की आलोचना दृष्टि का क़त्ल कर देना है।

 

उनका समीक्षा संग्रह ‘उजाड़ में आवाज़ के परिन्दे’  ‘अभिधा प्रकाशन’ से प्रकाशित हुआ है।तीस आलेखों और 271 पृष्ठों में फैली इस क़िताब में रेवती रमण की भाषा और रचना के प्रति ईमानदार दृष्टिकोण और पाठ आधारित तर्क देखते ही बनते हैं।यह क़िताब प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह की कविताओं की समीक्षा से शुरू होकर इंदु जैन,महेंद्र नेह जैसे अल्पचर्चित कवियों से गुजरती हुई हिमाचल के कविता-प्रदेश तक जाती है और इन सबके वैविध्य को समेटते हुए एक समानान्तर आलोचकीय कैनवास रचती है और जब आप क़िताब पढ़कर ख़त्म करते हैं तब आप निराश नहीं होते बल्कि आलोचना का एक नया शिल्प, एक नई दृष्टि और तार्किक अभिव्यक्ति की अपार सम्पदा लेकर लौटते हैं। कहा जाता है कि हाथ कंगन को आरसी क्या! आइए इस क़िताब और रेवती रमण की आलोचना-काया में प्रवेश करें और कुछ प्रमाण देखें।

आलोकधन्वा के कविता संग्रह ‘दुनिया रोज बनती है’ की समीक्षा करते हुए आलोचक रेवती रमण लिखते हैं : ‘मैं महसूस करता हूँ कि ‘जनता का आदमी’ के बारे में उपर्युक्त मान्यताएँ सर्वथा निराधार नहीं हैं।वह एक समर्थ कविता अवश्य है, ‘पटकथा’ या ‘अँधेरे में’ से भले बेहतर न हो।’ (पृष्ठ 137) आलोचक की यह टिप्पणी बहुत ही महत्वपूर्ण है और इसमें उनका कविता पर पूर्ण विश्वास झलकता है।आलोचक को यह पता है कि आलोकधन्वा की यह कविता हिंदी की एक अमूल्य निधि है।लेकिन वह कवि या कविता से आक्रान्त नहीं है बल्कि यह भी बखूबी जानता है कि यह कविता धूमिल की ‘पटकथा’ और मुक्तिबोध की ‘अँधेरे में’ से आगे की कविता नहीं है।यही आलोकधन्वा की सीमा भी है और सम्भावना भी,जिसका आलोचक को बखूबी अनुभव है।उनका मत है कि ‘आलोकधन्वा किसी स्वतःस्फूर्त काव्य-संसार के रचयिता नहीं हैं।उन्हें प्रायः जनसंघर्षों की नित्य नवीन होती ऊष्मा ने ही एक आवेश प्रचुर कवि के रूप में अर्जित किया था।'(पृष्ठ 137) आलोचक की यह टिप्पणी भी बेहद ईमानदार और गहरी है जिसे  आलोकधन्वा की कविताओं ने बख़ूबी साबित किया है।आलोक ऐसे कवियों में हैं जो कविता थोक की भाव से नहीं लिखते बल्कि तभी रचते हैं जब कविता स्वयं को रचने के लिए प्रेरित करती है और प्रसंगवश रिल्के को याद किया जाना चाहिए कि ‘यदि लिखे बिना मरने न लगो,तब तक न लिखो।’

इसी प्रकार आलोचक, कवि दिनेश कुशवाह के कविता संग्रह ‘इसी काया में मोक्ष’ की समीक्षा करते हुए आज की कविता के सामने प्रस्तुत ‘सामाजिक सरोकार की कठिनाइयों’ को इंगित करते हुए लिखते हैं कि ‘हम जिस समाज में रहते हैं, वह सम्बन्धों-सरोकारों की आधार-संरचना है।एक कवि के लिए उसे जान-समझ लेना ही काफी नहीं है।उसके भीतर धँसना, उसका विश्वास अर्जित करना आज के कवि की एक बड़ी चुनौती है।'(पृष्ठ 233)  यह है आलोचक का समाज और कविता के प्रति दृष्टिकोण।यह कितना भयावह सच है कि आज का कवि समाज से कितना बाहर है और कितनी सामाजिक कविताएँ लिख रहा है जो कि सिर्फ खयाली पुलाव ही साबित होती हैं।आलोचक शायद यह मानते हैं कि कविता का जीवन और समाज के साथ एक गहरा रिश्ता है और उसमें धँसे बग़ैर निश्चित ही एक अच्छी यथार्थपरक या बड़ी कविता नहीं लिखी जा सकती।क्या हम याद कर सकते हैं कि ‘अँधेरे में’ के रचयिता मुक्तिबोध ने इन पंक्तियों को लिखने के पहले ख़ुद को जीवन और समाज में कितना गहरा धँसाया होगा।’अँधेरे में’ की पंक्तियाँ हैं :

“ओ मेरे आदर्शवादी मन,

ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,

अब तक क्या किया?

जीवन क्या जिया!!

उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,

भूतों की शादी में क़नात-से तन गये,

किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,

दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना,

अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,

असंग बुद्धि व अकेले में सहना,

ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,

अब तक क्या किया,

जीवन क्या जिया!!

बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गये,

करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये,

बन गये पत्थर,

बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,

अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम…”।

मेरा मानना है कि मुक्तिबोध ने और कविताएँ न लिखीं होतीं और केवल ‘अँधेरे में’ लिख दिया होता,तब भी वे हिंदी के इतने ही बड़े कवि होते जितने बड़े आज हैं।
इससे यह भी पता चलता है कि कविता लिखने के लिए समाज और जीवन की गहराइयों में धँसे बग़ैर कोई दूसरा उपाय नहीं है।

आलोचक रेवती रमण हालाँकि नामवर सिंह की कविताओं की समीक्षा करते हुए अपने दायित्व का ईमानदार निर्वहन नहीं कर पाते और ऐसा लगता है जैसे नामवर सिंह की प्रसिद्धि और व्यक्तित्व से वे स्वयं आक्रान्त हो उठे हों और रचना छोड़कर रचनाकार की करबद्ध-प्रार्थना में लीन हो गए हों।जरा प्रमाण देखिए : ‘यह हिंदी जाति की एक विलक्षण प्रतिभा है।'(पृष्ठ 09) इसी प्रकार वे लिखते हैं ‘कभी जब याद आ जाते’ उनकी एक ऐसी कविता है जो महादेवी के ‘जो तुम आ जाते एक बार’ प्रगीत की स्मृति ताज़ा कर जाती है।'(पृष्ठ 13) अर्थात नामवर जी पर महादेवी का प्रभाव लक्षित नहीं होता, केवल स्मृति ताज़ी होती है।जरा आगे देखिए : ‘नामवर जी का सुकवि होना उनकी कविता-सम्बन्धी आलोचनाओं में उपयोगी सिद्ध हुआ है।'(पृष्ठ 19) यहाँ पूछा जा सकता है कि नामवर जी को ‘सुकवि’ और आलोकधन्वा आदि को ‘कवि’ लिखने के पीछे क्या कारण है? क्या आलोकधन्वा,राजेश जोशी,अरुण कमल जैसे कवि ‘सुकवि’ नहीं हैं? जबकि नामवर जी बिना किसी स्वतंत्र कविता संग्रह के ‘सुकवि’ हो जाते हैं? यह आलेख क़िताब का पहला ही आलेख है।क्या वास्तव में नामवर सिंह की कविताएँ एक पुनर्पाठ की माँग करतीं हैं या आलोचक की यह निजी दृष्टि मात्र है? इस अभीष्ट सवाल का ज़वाब ज़रूर ही खोजा जाना चाहिए।इसके बाद कवि केदारनाथ सिंह और कवि विजेंद्र पर लिखते हुए भी आलोचक की क़लम क्यों काँपती है,समझ से बाहर है।जबकि वे अन्य कवियों पर बहुत ही यथार्थपरक,पाठ-आधारित और तार्किक लिख पाते हैं।कवि केदारनाथ सिंह पर लिखी हुई समीक्षा से एक प्रमाण देखिए : ‘यह केदारनाथ सिंह नामक पुरबिहा कवि की वापसी जैसी है, अपनी स्वाभाविक जमीन पर खड़ा होने की कोशिश।तब भी हमें भूलना नहीं चाहिए कि केदार एक गम्भीर अध्येता हैं।रिल्के,एजरा पाउंड, रेनेशा और दर्जन भर यूरोप के कवियों पर की टिप्पणी में उनकी आलोचना-दृष्टि विश्व-दृष्टि से होड़ लेती है।'(पृष्ठ 29-30) कहना चाहिए कि निश्चित ही ये पंक्तियां ‘सृष्टि पर पहरा’ की समीक्षा न होकर केदारनाथ सिंह का स्तुति गायन है।इन पंक्तियों को पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे चाय पीते हुए कोई केदारनाथ सिंह की तारीफ़ कर रहा हो।यह आलोचना तो बिलकुल नहीं है और न ही रेवती रमण जैसे समर्थ आलोचक से ऐसी अपेक्षा की जा सकती है।इसी प्रकार विजेंद्र पर जरा इनकी टिप्पणी देखिए : ‘उनकी कविताएँ कसौटियों को बौना कर देती हैं।सच्ची सृजनशीलता अनुकरण-अनुसरण से सम्भव नहीं है।कवि को जोख़िम उठाना पड़ता है, अपना सर्वस्व दाँव पर लगाना पड़ता है।यह केवल ज़िद या व्यक्ति-विवेक की बात नहीं है।बात है आत्म-प्रत्यय की,कर्म की नैतिकता और शिक्षा में विश्वास की।निराला जानते थे कि क्या,कैसा और क्यों लिख रहे हैं? विजेंद्र को भी ज्ञात है, बल्कि सबसे अधिक उन्हें ही ज्ञात है कि वे जैसा लिख रहे हैं वह वैसा क्यों लिख रहे हैं?'(पृष्ठ 32) सवाल उठता है कि जब कवि को सबसे अधिक पता है तो आलोचक की क्या ज़रूरत!क्या कवि सजग है या आत्ममुग्ध? क्योंकि ऐसा जानना या तो आत्ममुग्ध बनाता है या आत्म के प्रति अत्यंत कठोर! साथ ही यह भी पूछा जाना चाहिए कि अपने ज्ञात भर में लिखने के बावजूद वे कौन से कारण रहे कि विजेंद्र जैसे महाकवि हिंदी परिदृश्य के बाहर फेंक दिए गए।विजेंद्र की ही पंक्तियां लेकर कहें तो यह कहना चाहिए कि ‘जैसे उठता है लावा/चट्टान को फोड़कर/आदमी खड़ा होना चाहता है।’ जैसी पँक्तियों के कवि ने,जिनकी पहचान एक प्रखर मार्क्सवादी कवि की है,यह क्यों लिखा कि ‘आती याद सागर में खुली जादुई खिड़कियाँ/अंदर बैठी/प्रतीक्षा में वियोगग्रस्त प्रेमिकाएँ।’ इसमें ‘सागर में खुली जादुई खिड़कियों’ में कौन सी विचारधारा और यथार्थ बयानी है पूछा जाना चाहिए,जो कि आलोचक ने नहीं पूछा है और न ही कवि विजेंद्र के हिन्दी परिदृश्य के बाहर हो जाने के कारणों की खोज की है।
हालाँकि कुँवर नारायण पर लिखे आलेख से आलोचक थोड़ा सा सहज,सजग और जिम्मेवार होता जाता है जिसकी उपलब्धि है क़िताब में शामिल आलोकधन्वा पर लिखा उनका अप्रतिम आलेख।राजेश जोशी,ज्ञानेन्द्रपति,अरुण कमल,विजय कुमार जैसे कवियों की कविताओं से गुजरते हुए आलोचक ज्यादा सहज और सजग दिखाई देते हैं।इसी क्रम में इंदु जैन,अमृता भारती, महेंद्र नेह इत्यादि अल्पचर्चित कवि भी आलोचक की दृष्टि में आते हैं और उनका भी सटीक और ईमानदार मूल्यांकन होता है। क़िताब का आख़िरी आलेख ‘हिमाचल के कवियों’ पर आधारित है।आलोचक के संज्ञान में यह जरूर है कि ‘हिमाचल का कवि अन्य हिंदी प्रदेशों से अलग नहीं है।'(पृष्ठ 271) ये ईमानदार,व्यापक और दायित्वपूर्ण अभिव्यक्तियाँ आलोचक की क़लम में चार चाँद लगाती हैं तो वही कुछ ऐसी बातें भी लिखीं गईं हैं जिनका आलोचना से कोई सरोकार नहीं है।
अपनी तमाम कमियों और दोषों के बावजूद यह कहना चाहिए कि यह क़िताब बहुत ही पठनीय और संग्रहणीय पुस्तक है।इसमें आलोचक जैसे-जैसे रचनाकारों के व्यक्तित्व से भयमुक्त और दूर होता गया है, आलेखों में रचना व पाठ पर बल बढ़ता गया है और आलेख एक पर एक पठनीय,रोचक और तार्किक बनते गए हैं।प्रमाण स्वरूप यह बानगी देखिए।कहाँ तो आलोचक नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह और विजेंद्र जैसे रचनाकारों की समीक्षा करते हुए लड़खड़ा रहा था और कहाँ महेंद्र नेह जैसे अचर्चित कवि पर लिखते हुए स्पष्ट कहता है कि ‘ज़ाहिर है,महेंद्र नेह ग़ालिब नहीं हैं, लेकिन उनका अंदाज़ेबयां अपना है तो यह बड़ी बात है।'(पृष्ठ 258) इसी प्रकार,अरुण कमल पर इनकी टिप्पणी कितनी सार्थक है जरा देखिए : ‘अरुण कमल हमें उस दुनिया में बार-बार ले जाते हैं जिसे हम छोड़कर चले आए हैं।उसकी यादें हमारे भीतर हैं, पर वे राख की मोटी परतों के भीतर एक चिनगी जैसी हैं।उन्हें हवा देकर कवि हमें डांवाडोल कर देता है।वह रक्त-सम्बन्धों तक सीमित नहीं है।उसमें सम्बन्धों के व्यापक सरोकार हैं।'(पृष्ठ 171) निःसन्देह अरुण कमल की कविताएँ इस टिप्पणी का अतिरेक नहीं करतीं बल्कि इस टिप्पणी को और विश्वसनीय बनाती हैं और इससे आलोचना की दुनिया में रेवती रमण का कद बढ़ता ही है, घटता नहीं है।
कुल मिलाकर कहा जाए तो एक बात नोट की जानी चाहिए कि पुस्तक समीक्षा करते हुए रचना का पाठ ही आधार और सबसे महत्वपूर्ण तत्व होता है और इस क्रम में आलोचक का यह दायित्व बनता है कि वह केवल रचना के गुणों पर ही बात न करे बल्कि दोषों पर भी ध्यान दे।क्योंकि अक़्सर यह होता है और इस क़िताब में भी ऐसा हुआ है कि आलोचक ने गुणों पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया है और दोषों पर कई बार तो लिखना ही भूल गया है।इंदु जैन पर लिखा आलेख भी इस बात का प्रमाण है कि आलोचक को गुण अधिक दिखायी देते हैं और दोषों पर वह लिखना नहीं चाहता।इससे बचने की जरूरत है।किसी कृति का मूल्यांकन उसके समग्र रूप में ही होनी चाहिए जिसमें समान रूप सेगुण और दोष दोनों शामिल हों।तभी आलोचक के कर्तव्य का पूर्ण पालन भी होता है और रचना का महत्व भी स्थायी होता है।जब तक आप टी. एस. इलियट के ‘निर्व्यक्तिकरण के सिद्धान्त’ को आलोचना में भी आत्मसात नहीं करते ,शायद आलोचना का दायित्व पूर्ण नहीं होता।

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