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“ब्राह्मणों को जातीय गोलबंदी से परहेज़ करना होगा”: रतिभान त्रिपाठी

रतिभान त्रिपाठी

भारतीय राजनीति में यह स्थापित है कि देश की सत्ता और दिशा दर्शन का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। मौजूदा कालखंड में उत्तर प्रदेश की राजनीतिक दिशा बदलती दिखाई पड़ रही है। पिछले दो लोकसभा चुनावों और फिर विधानसभा चुनाव में जिस विकासवाद की झंडाबरदारी की गई, वह नेपथ्य में जाता लग रहा है और यहां विदेशी पैटर्न पर प्रतीकात्मक राजनीति की दिशा अख्तियार की जा रही है। राजनीति ने इसके लिए ब्राह्मण समाज को बतौर हथियार इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है या यूं कहें कि ब्राह्मण समाज स्वयं राजनीतिक चालबाजों का हथियार बनने को आतुर दिख रहा है।
इस खेल में तीन तरह के लोग शामिल लग रहे हैं। पहले नंबर पर कुछ नवधनाढ्य ब्राह्मणों की संतानें शामिल हैं जो अपने लिए राजनीति में स्थान हासिल करने की जुगत में हैं तो दूसरे ऐसे संगठनों के लोग हैं जो ब्राह्मण समाज की नौका पर बैठकर खुद को पार लगाना चाहते हैं। तीसरी कतार सरकारी नौकरी वाले कुछ अफसरों-कर्मचारियों की है जो अपने लिए महत्वपूर्ण पद और कद हासिल न कर पाने की दशा में चोरी छिपे आंदोलन को हवा दे रहे हैं। नतीजा यह कि बात राम बनाम परशुराम तक आ पहुंची है। यहीं से प्रतीकात्मक राजनीति के सूत्र पकड़ में आ रहे हैं।
ब्राह्मण न्याय के पक्ष में रहा है, ब्राह्मण न्याय करता रहा है, ब्राह्मण सदैव राष्ट्रवादी और पर समाज का प्रदर्शक रहा है। यह बात एक विचार के रूप में हमारे आप्त ग्रंथों में है, जिन पर समूचा भारतीय समाज गर्व और विश्वास करता है। और चाहे भारतीय राजतंत्र रहा हो या मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था, दोनों में इसके अनगिनत प्रमाण हैं। ऐसे में ब्राह्मणों में जातिवादी स्वार्थ की बात कहां से आई। वह कौन लोग हैं जो ब्राह्मण जैसे राष्ट्रवादी और उदार समाज को “राम बनाम परशुराम” के संकुचित विचार में बांधने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं। जबकि यह सर्वविदित तथ्य है कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और भगवान परशुराम, दोनों अवतार हैं और एक दूसरे के पूरक व एक दूसरे के प्रति आदर भाव रखने वाले हैं।
लेकिन जहां राजनीति घुस जाए वहां स्वार्थ और संघर्ष अवश्यंभावी होता है। इस पूरे प्रकरण में यही हो रहा है। वरना विशुद्ध जातिवादी राजनीति करने वाले बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी जैसे दल इस मामले में कूदकर हवा नहीं देते। पहले कांग्रेस और अब भारतीय जनता पार्टी, जिसे बहुसंख्यक ब्राह्मण समाज वोट देता रहा है, वह कुछ बोलें, इससे पहले सपा और बसपा कुछ वैसी ही कहावत चरितार्थ करती दिखाई पड़ रही हैं कि “राजा को पता नहीं, बंजारे वन बांट लिये।” समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने कहा कि वह भगवान परशुराम की 108 फुट ऊंची प्रतिमा लगवाएंगे तो बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती कहां पीछे रहने वालीं। उन्होंने कह दिया कि वह इससे भी ऊंची प्रतिमा लगवाएंगी। मामला इतने पर ही नहीं रुक रहा। समाजवादी पार्टी ने तो पोस्टरबाजी शुरू कर दी है। पोस्टरों में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ब्राह्मणों के आगे फरसा ताने दिखा दिया गया। इस मामले में सरकार की भी त्यौरियां चढ़ गई हैं। अनुमान यही लगाया जा रहा है कि समाजवादी पार्टी इस मामले को गरमाएगी और भाजपा नाराज ब्राह्मणों को मनाने निकल पड़ेगी।
इस काम के लिए प्रदेश सरकार के 9 ब्राह्मण मंत्रियों को खास जिम्मेदारी सौंपी गई है। भाजपा ने विरोधियों के अभियान की हवा निकालने का जिम्मा अपने 30 ब्राह्मण विधायकों को भी दिया है लेकिन यह सच है इन विधायकों में से अनेक ऐसे हैं जो अपनी ही सरकार से खिसियाए बैठे हैं। उन्हें तो सरकार विरोधी अभियान में मजा ही आ रहा है। यह अलग बात है कि वह खुलकर विरोध नहीं कर पा रहे हैं। ब्राह्मणों को मोहरा बनाने में कुछ विधायकों की भूमिका से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है क्योंकि मंत्री पद न मिलने और अपना काम काज न होने को लेकर वह जब तब, अलग अलग अवसरों पर आरएसएस के जिम्मेदार लोगों तक अपनी बात पहुंचाते रहे हैं।
भाजपा और सरकार से ब्राह्मणों की कथित नाराजगी की बुनियाद पहले ही पड़ चुकी थी। वह तो कानपुर के कुख्यात विकास दुबे पुलिस मुठभेड़ में मारा क्या गया, नाराजगी को उफान का मौका मिल गया। जबकि यह बात ब्राह्मण समाज बखूबी जानता है कि रावण ब्राह्मण ही था, वह ज्ञानी और पराक्रमी भी था लेकिन क्या ब्राह्मण उसे पूज्य या आदर्श मान सकते हैं। तो फिर विकास दुबे या ऐसे ही कुख्यात लोग ब्राह्मण समाज के लिए आदर्श कैसे हो सकते हैं। इन बातों को अलग अलग तरीके से समझने की जरूरत है।
पिछले कुछ महीनों में उत्तर प्रदेश में कुछ घटनाएं हुईं। प्रदेश भर में अलग अलग स्थानों पर अलग अलग कारणों से पचास से अधिक ब्राह्मणों की जान चली गई। किसी भी समाज, वर्ग और सरकार के लिए यह चिंता का विषय है और होना भी चाहिए। लेकिन इन घटनाओं को लेकर इस चेता वर्ग को अगर यह लग रहा हो कि उसका अस्तित्व खतरे में आ गया है, तो यह उसकी ऐतिहासिक भूल होगी। वह भी तब जबकि तीन सर्वशक्तिमान उसके स्वजातीय अफसर प्रदेश सरकार में शीर्ष पर हों। वास्तव में जब जब ऐसी घटनाएं किसी वर्ग के साथ होती हैं या होती रही हैं तो वह भी उफान में आता रहा है। उसी कड़ी में ब्राह्मण समाज भी आक्रोशित लग रहा है। यह बात सरकार और सत्ताधारी संगठन शिद्दत से महसूस कर रहे हैं। सरकार कह नहीं सकती क्योंकि वह किसी जाति या समूह के लिए नहीं, समग्र राज्य और उसके निवासियों के लिए काम करती है लेकिन संगठन में बैठे लोग स्वीकार कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेई ने तो कहा भी कि ब्राह्मणों के आक्रोश पर पार्टी में अंदरखाने चिंता है। संगठन इस पर विचार विमर्श कर रहा है। इसे गंभीरता से लिया जा रहा है। कोई भी सरकार या संगठन जानबूझकर किसी वर्ग को नाराज नहीं करना चाहता और वह भी भारतीय जनता पार्टी तो बिल्कुल नहीं, जिसे पता है कि उसे ब्राह्मणों का सर्वाधिक समर्थन हासिल है। सेंटर फॉर दि स्टडी ऑफ डेवेलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) की एक रिपोर्ट कहती है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में देश भर में ब्राह्मणों के 82 प्रतिशत वोट भाजपा को गए हैं जबकि कांग्रेस के खाते में यह वोट शेयर महज 6 प्रतिशत ही रहा है। जाति और वर्ग के माहौल में 12 से 14 प्रतिशत आबादी वाली ब्राह्मण जाति को नाराज करने का जोखिम इस दौर में कम से कम भाजपा तो नहीं उठा सकती है।
इस बीच ब्राह्मणों के उपजे आक्रोश का फायदा सभी राजनीतिक पार्टियों ने उठाने की जुगत शुरू कर दी है। बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने सरकार के प्रति कुछ मीठे अंदाज में कहा कि सरकार को यह देखना चाहिए कि ब्राह्मण समाज खुद को अपमानित व असुरक्षित न महसूस करे। तो कांग्रेस के उत्तर प्रदेश के नेता जितिन प्रसाद, जो ब्राह्मण चेतना परिषद के बैनर तले हर जिले में ब्राह्मणों को एकजुट करने का अभियान चलाए हुए हैं, यह कहने से नहीं चूके कि भाजपा के राज में ब्राह्मणों की हत्या की जा रही है। कांग्रेस के ही नेता और कल्कि पीठाधीश्वर आचार्य प्रमोद कृष्णन ने तो यहां तक कह दिया कि क्या ब्राह्मण होना अभिशाप है और प्रदेश सरकार को ब्राह्मणों का श्राप लगेगा। तो समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव भी इस मसले पर राजनीतिक तंज कसने से नहीं चूके। इन सबसे अलग और अधिक उछाल सपा मुखिया अखिलेश यादव ने ही लिया जो परशुराम की मूर्ति बनाने की बात कहने के साथ साथ पोस्टरबाजी शुरू करा दी।
दरअसल ब्राह्मण आक्रोश और इससे जुड़े सवालों का दूरगामी राजनीतिक असर कितना होगा, यह कहना फिलहाल मुश्किल है लेकिन ऐसे मसलों पर पूर्व के अनुभव यही बताते हैं कि यह गम और गुस्से का वक्ती
मुजाहिरा मात्र है। चुनाव में “फिर ढाक के वही तीन पात” वाली कहावत चरितार्थ होती आई है। वरना 2007 में सोशल इंजीनियरिंग के बहाने ब्राह्मणों को जोड़कर पहली बार बहुमत की सरकार बनाने वाली मायावती सरकार में बनी ही रहतीं। दरअसल ब्राह्मण जिन सकारात्मक और राष्ट्रवादी स्वभाव वाले मुद्दों पर वोट करता है, वह फिलहाल बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के पास नहीं, बल्कि भारतीय जनता पार्टी के पास हैं। किसी जमाने में ऐसे ही मुद्दे कांग्रेस के पास हुआ करते थे।
चंदन, शिखा, जनेऊ, संध्योपासना, गाय, गंगा, गायत्री जैसे अलंकरण ब्राह्मणों के प्रतीक हैं या हो सकते हैं। अपनी पीढ़ियों को कुमार्गी होने से बचाने के लिए समाज में इनका उपयोग किया जाना चाहिए और वह कर सकते हैं लेकिन राजनीति अपने लिए ऐसे प्रतीकों को हमेशा आवश्यक और अनिवार्य नहीं मानती है। वह इन प्रतीकों का यथासमय अपनी सुविधा से उपयोग करती है। काशी मथुरा और अयोध्या के आंदोलन सबने देखा ही है जिसमें भगवाधारी संतों-महंतों और इनके अलंकरणों-प्रतीकों का उपयोग अलग-अलग पार्टियों और सरकारों ने कैसे कैसे किया था। “ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा” जैसा प्रचंड नारा मायावती की सरकार बनने से पहले सुना जा चुका है। इसलिए ब्राह्मणों को यह विचार करना होगा कि उनका हित वोट बैंक बनने में है या पहले की तरह बुद्धिमानी से मार्गदर्शक बने रहने में।
राजनीतिक ताकत हासिल करना कहीं से गलत नहीं है। लेकिन समाज में कुछ अन्य जातिवादी ताकतों की तरह विखंडनवाद स्थापित करके या संकुचित मानसिकता से नहीं, जिसका संकेत ब्राह्मण समाज स्वयं कुछ अक्सर करता रहा है। ब्राह्मण जातिवाद नहीं करता, यह बात वह स्वयं कहता और प्रमाणित करता रहा है। तो क्या वह भी उन्हीं जातिवादी ताकतों की भेड़चाल में शामिल होना चाहता है, जिसका आरोप वह दूसरों पर लगाता रहा है। जातीय गोलबंदी करके या वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल होकर करता वह दूसरी जातियों की तरह अपना गर्व और गौरव स्वयं गंवाना पसंद करेगा, सदियों से जिसके लिए समाज में वह सर्वश्रेष्ठ माना जाता रहा है। इसलिए राजनीति पर बात करते समय ब्राह्मणों, ब्राह्मण संगठनों और ब्राह्मण नेताओं को बहुत सोच समझकर बोलना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि राजनीतिक स्वार्थ की डोरी से बने जाल में वह खुद ही फंस जाएं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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