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फिल्म समीक्षा: कुरूप कराह का शोकगीत है “छपाक”

अनाम विश्वजीत

हिन्दी सिनेमा देह की गिरफ़्त से बाहर निकलने में कभी सफ़ल नहीं रहा। हालाँकि यह इतना आसान है भी नहीं, जितना हम अक़्सर समझ लेते हैं। पर एक सच यह भी है कि इस मिथक को तोड़ने की कोशिश भी समय-समय पर होती रही है।ऐसे ही फिल्मकारों की सूची में मेघना गुलज़ार एक नाम हैं जिन्होंने सिनेमा को देह-प्रदर्शन से अलग राजी,तलवार जैसी फ़िल्में दी हैं और अब उनके द्वारा लिखित और निर्देशित फ़िल्म ‘छपाक‘ हम सबके सामने है।हालाँकि लेखन में उनके साथ अतिका चौहान भी शामिल हैं।दीपिका पादुकोण द्वारा अभिनीत और निर्मित यह फ़िल्म ‘एसिड अटैक’ के एक ऐसे मुद्दे पर है जिसको शायद आज भी बहुत गम्भीरता से नहीं लिया जाता है।पहली बार इस फ़िल्म ने ‘एसिड अटैक’ को गहराई से प्रस्तुत किया है।

यह बता दें कि ये फ़िल्म लक्ष्मी नाम की एक ऐसी लड़की की सत्यकथा पर आधारित है जिसके ऊपर शादी प्रस्ताव ठुकराने के कारण चौंतीस साल के नईम खान के द्वारा एसिड अटैक किया गया था जबकि उस समय लक्ष्मी की उम्र पन्द्रह साल थी।

इस फ़िल्म में लक्ष्मी का नाम ‘मालती‘ है जिसका चरित्र दीपिका पादुकोण ने निभाया है।असल जिंदगी में लक्ष्मी की लड़ाई को सम्बल प्रदान करने वाले और फिर बाद में उसकी कुरूपता के बावज़ूद उसके ख़्वाबों को पुनः ज़िन्दा करने वाले आलोक दीक्षित का क़िरदार बख़ूबी विक्रान्त मैसी ने निभाया है जबकि नईम खानके क़िरदार में हैं रोहित सुलेखानी जिसका नाम बदलकर बशीर खान कर दिया गया है और आलोक दीक्षित का नाम अमोल द्विवेदी

फ़िल्म को मेघना गुलज़ार ने निर्देशित किया है और कहा जा सकता है कि निर्देशन विषय के अनुरूप बहुत बढ़िया है और दीपिका पादुकोण का अभिनय तो बहुत ही शानदार और नेचुरल।कहीं से भी दीपिका में बनावटीपन जैसा कुछ नहीं दिखाई देता। हर दर्द,हर बेचैनी,हर ख़ुशी,हर लड़ाई जैसे लक्ष्मी की न होकर दीपिका की ही हो,ऐसा लगता है।कहा जा सकता है कि लक्ष्मी के क़िरदार को जीवंत कर देने और एसिड अटैक की भयावहता को पूरी शिद्दत से महसूस करवा देने में दीपिका के साथ – साथ पूरी टीम ने भी बहुत मेहनत की है।

फ़िल्म की शुरुआत होती है मालती के द्वारा अपने लिए रोजी-रोटी की तलाश से।इस क्रम में उसकी मुलाक़ात एक पत्रकार से होती है जिसका नाम अलका है।एक ऐसी लड़की जिसकी जीती-जागती दुनिया लूट चुकी हो,जिसकी मख़मली हँसी पर किसी ने ग्रहण लगा दिया हो,जिसकी सुन्दरता को किसी ने पल भर में कुरूपता में तब्दील कर दिया हो,जिसके ख़्वाबों को पल भर में किसी ने चकनाचूर कर दिया हो,एक ऐसी लड़की जिसको हमारे पुरुषवादी समाज ने उसकी असली औक़ात दिखा दी हो,वह लड़की कई सर्जरियों से गुज़रकर और कुछ संवेदनशील लोगों का सहारा पाकर अपने पूरे हौंसलें के साथ लड़ने के लिए उठ खड़ी होती है।जो हमारे पुरुष होने के दम्भ से ऊँचे उठे माथे पर चोट करती है और हमें आईना दिखाती है।

पूरी फ़िल्म इसी कथानक के इर्द-गिर्द घूमती है जिसमें संविधान की धारा 326 हमारे सामने निकलकर आती है जो यह साबित करती है कि पुरुषवादी वर्चस्व वाले इस समाज के लिए क़ानून भी कितना लचीला है!

एक जगह संवाद आता है कि ‘एक पूरी ज़िंदगी तबाह कर देने की सज़ा अधिकतम मात्र सात साल है।’ यह संवाद हमारे देश की क़ानून-व्यवस्था की परतें भी उघाड़ देता है।

यह संवाद यह सोचने के लिए मज़बूर होते हैं कि क्या सचमुच एक लड़की को ज़िन्दगी भर तिल-तिलकर मरने के लिए छोड़ देने वाले अपराध की सज़ा मात्र सात सालहो?

फ़िल्म में मालती एसिड बैन की लड़ाई लड़ती है जिसे अमोल द्विवेदी का भरपूर सहयोग मिलता है।अमोल द्विवेदी एक एनजीओ चलाते हैं जो एसिड अटैक की पीड़ित लड़कियों के लिए काम करती है।असल में इस चरित्र के माध्यम से हम पहली बार असल हीरो आलोक दीक्षित के बारे में भी जान पाते हैं जो लम्बे समय से ऐसी एनजीओ चला रहे हैं और फ़िलहाल दिल्ली में रहते हैं और जिन्होंने एसिड पीड़ित लक्ष्मी के साथ विवाह करके समाज के सामने एक नायाब उदाहरण भी प्रस्तुत किया है।हालाँकि हमें यह भी याद रखना चाहिए कि लक्ष्मी एक जुझारू क़िस्म की और कुछ हटकर लड़की है जिसे इस फ़िल्म में भी दीपिका ने बख़ूबी जिया है।यह फ़िल्म एक लम्बे और मेहनत से भरे शोध का परिणाम है इससे कतई इनकार नहीं किया जा सकता।यह फ़िल्म हमें बताती है कि सन 2017 में देश भर में कुल 252 एसिड अटैक की घटनाएँ हुई थीं।यहाँ ये सवाल लाज़िम है कि क्या हमारा समाज 52 एसिड अटैकों के बारे में भी ठीक से जानता है? ज़वाब है : नहीं।


यह फ़िल्म समाज के उस हिस्से को झकझोरती और जागरूक करती है जो एसिड अटैक से अनभिज्ञ है या इसके बारे में बहुत कम जानता है।

इस फ़िल्म को देखा जाना चाहिये। जब तेज़ी से समाज विघटित हो रहा है और अपराध उतनी ही तेजी से बढ़ रहे हैं, यह एक ज़रूरी फ़िल्म है जो कम से कम हमें एसिड अटैक के अपराध के प्रति सजग और संवेदनशील बनाती है।आज के समय में जब महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा से लेकर बलात्कार तक के जघन्य अपराधों में तेज़ी आयी है। हमारा देश महिलाओं के लिए एक असुरक्षित देश बनता जा रहा है और पुरुषवादी वर्चस्व और यौन कुंठाओं में बढ़ोतरी हो रही है, यह फ़िल्म तमाम गिरहें खोलती हुई हमें मुक्त बनाती है और सभ्य भाषा में कहूँ तो कहना चाहिए कि थोड़ा – सा और आदमी बनाती है कि हम आदमियत को ठीक से महसूस कर पाएँ। यह फ़िल्म हमें पुनः ‘इन्सान’ बनने की प्रक्रिया की ओर ले जाती है।

इस फ़िल्म के अन्त में एक लड़की पर उसकी शादी के दिन ‘एसिड अटैक’ होता है और फ़िल्म ख़त्म हो जाती है।यह अंत ये दर्शाने की कोशिश है कि एसिड अटैक रुका नहीं है।यह अभी भी जारी है।हमें इसके रोकथाम के लिए हर सम्भव प्रयास करना है क्योंकि यह तो निश्चित है कि हर मालती यानि लक्ष्मी को अमोल द्विवेदी यानि आलोक दीक्षित नहीं मिला करते और हर लक्ष्मी एसिड बैन की लड़ाई नहीं लड़ पाती बल्कि कई-कई लक्ष्मियाँ तो एसिड अटैक के बाद स्वयं अपने ख़्वाबों के साथ बैन हो चुकी हैं जिनका हम और आप ठीक से नाम भी नहीं जानते।

इस फ़िल्म के अन्त के साथ एक बात यह भी जोड़ देना ठीक होगा कि एसिड अटैक की हालिया घटना इसी साल तेरह वर्ष की लखनऊ की रहने वाली बच्ची गुनगुन के साथ हुई है और वह भी 11 जनवरी 2020 को जबकि “छपाक” रिलीज़ ही हुई है 10 जनवरी 2020 को। यानी कि फिल्म की रिलीज के एक दिन बाद!

यह घटना हमारे लिए एक सबक है और यह सवाल कि आख़िर हमने यह कौन सा समाज रचा है जो एसिड अटैक पर बनी एक बेहतरीन और जागरूक करती फ़िल्म के रिलीज़ होने के अगले ही दिन फ़िर ऐसी ही हैवानियत भरी घटना को अंज़ाम देता है?

यह फिल्म को देखते हुए हम एसिड अटैक की भयावहता को ठीक से समझ और महसूस कर पाते हैं। यह फ़िल्म एसिड अटैक के भेद खोलती है,इसकी कुरूपता,विद्रूपता,भयावहता से आपका परिचय कराती है। लीक से हटकर बनी इस फ़िल्म का स्वागत होना चाहिए।

 

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