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DM अरुण आर्या से जब हुआ मेरा टकराव: के एम अग्रवाल

के.एम. अग्रवाल

सालों से मन में यह बात आती थी कि कभी आत्मकथा लिखूँ। फिर सोचा कि आत्मकथा तो बड़े-बड़े लेखक, साहित्यकार, राजनेता, फिल्मकार, अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी, वैज्ञानिक, बड़े-बड़े युद्ध जीतने वाले सेनापति आदि लिखते हैं और वह अपने आप में अच्छी-खासी मोटी किताब होती है। मैं तो एक साधारण, लेकिन समाज और देश के प्रति एक सजग नागरिक हूँ। मैंने ऐसा कुछ देश को नहीं दिया, जिसे लोग याद करें। पत्रकारिता का भी मेरा जीवन महज 24 वर्षों का रहा। हाँ, इस 24 वर्ष में जीवन के कुछ अनुभव तथा मान-सम्मान के साथ जीने तथा सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस विकसित हुआ। लेकिन कभी लिखना शुरू नहीं हो सका।

एक बार पत्रकारिता के जीवन के इलाहाबाद के अनुज साथी स्नेह मधुर से बात हो रही थी। बात-बात में जीवन में उतार-चढ़ाव की बहुत सी बातें हो गयीं। मधुर जी कहने लगे कि पुस्तक के रूप में नहीं, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में पत्रकारिता के अनुभव को जैसा बता रहे हैं, लिख डालिये। उसका भी महत्व होगा। बात कुछ ठीक लगी और फिर आज लिखने बैठ ही गया।

गतांक से आगे…

‘मेरा जीवन’: के.एम. अग्रवाल: 75: 

नीड़ का निर्माण फिर: 4

जिलाधिकारी से टकराव

नवंबर, 1994 में अरुण आर्या नये जिलाधिकारी के रूप में यहां आ चुके थे। दिसंबर का महीना था। जबरदस्त ठंड पड़ रही थी। किसानों को अपने खेतों के लिए यूरिया खाद की जरूरत थी और यूरिया जिले से नदारद थी। किसान उस भीषण ठंड में आधी रात से ही सरकारी खाद की दुकान के बाहर कम्बल आदि लेकर सड़क किनारे ही पड़ जाते थे। नींद भला कहां आती ? चिंता रहती सुबह खाद पाने की। प्राय: इसके बाद भी किसानों को एक बोरी खाद नहीं मिल पाती थी।
एक दिन मैं कोतवाली के सामने ही अपनी दुकान पर बाहर ही कुर्सियां डालकर तीन चार लोगों के साथ धूप में बैठा था। पता चला कि पास ही ब्लाक कार्यालय पर नये जिलाधिकारी अरुण आर्या जन प्रतिनिधियों के साथ विकास संबंधी बैठक कर रहे हैं। मन में आया कि वहीं चलकर किसानों की खाद की समस्या उनसे कही जाय। मैंने पास में बैठे
भाजपा जिलाध्यक्ष रवीन्द्र त्रिपाठी, इंटर कालेज के टीचर छोटेलाल गुप्त और पी.जी.कालेज के प्रवक्ता डा.घनश्याम पाण्डेय से कहा,
चलिए ब्लाक पर चलकर जिलाधिकारी से मिलते हैं।’ कोई भी हमारे साथ इस काम के लिए जाने को तैयार नहीं हुआ। मेरे भीतर एक लहर सी उठी और मैं अकेले ही चल दिया।

मीटिंग वाले कमरे के बाहर पहुंचकर मैंने नारा लगाया, ‘किसानों को खाद चाहिए। यह कैसी विकास बैठक है?’ तब तक डा. घनश्याम पाण्डेय भी मेरे पास ही पहुंच गये। हमारे नारों से बैठक में विघ्न पहुंचा तो जिलाधिकारी अरुण आर्या तथा अन्य जन प्रतिनिधि भी बाहर बरामदे में निकल आयेे। फिर तो दोनों ओर से खूब गर्मा गर्म बहस हुई।

एक बार तो लगा कि पास में ही खड़े कोतवाल, इशारा पाने की ताकत में हैं और फिर वह हम दोनों को जीप में लाद दें। लेकिन तभी परगनाधिकारी सदर ने कहा,
चिउरहा गोदाम में खाद है, सभी को मिल जायेगा।’ तब तक वहां काफी किसान भी इकट्ठा हो चुके थे। फिर हम दोनों किसानों को लेकर खाद गोदाम पर पहुंचे। गोदाम का मैनेजर भागने लगा तो उसे जबरदस्ती पकड़ना पड़ा।

गोदाम खुलवाया गया। रजिस्टर पर 300 बोरी यूरिया खाद मौजूद होना दिखाया गया था, लेकिन मौके पर 200 बोरी खाद ही थी। मोटे पर चार पांच सौ किसानों को देखकर मैनेजर के साथ पांव फूलने लगे। कहा, ऐसे में कैसे खाद बंट पायेगी ?हम दोनों ने किसानों की लाइन लगवाई। उन्हें एक एक बोरी की पर्ची दी गयी। दो सौ लोगों को ही पर्ची मिल पायी। दुबले पतले एक बूढ़े किसान को जब एक बोरी खाद की पर्ची दी गरी, तो उसने हाथ ऊपर उठाकर भगवान को धन्यवाद दिया। देखकर अजीब सा लगा। सोचने लगा, किसानों की क्या दुर्गति है। एक बोरी खाद के लिए भगवान को धन्यवाद !

यह घटना यहीं नहीं खत्म होती है। जिलाधिकारी आर्या से जोरदार बहस हो जाना उन्हें अच्छा नहीं लगा था। दूसरे दिन जिलाधिकारी का एक चपरासी, जो हम लोगों से परिचित था, घर पर आया और बोला,’ डी.एम. साहब याद कर रहे हैं।’
बहरहाल, हम दोनों जिलाधिकारी के सिंचाई कालोनी स्थित कार्यालय पर पहुंचे। शुरू में उन्होंने बांदा के एक डकैत की घटना बताकर संभवतः हम दोनों को दवाब मैं लेने की कोशिश की। तभी डा.पांडेय ने कहा, ‘हम लोग क्या आपको डकैत लगते हैं ?‘ आर्या जी झेंप से गये। बोले, ‘नहीं, नहीं ऐसी बात नहीं।’ फिर बातचीत सामान्यतः ढंग से होने लगी। हम लोगों ने चाय पी और फिर घर आ गये।

अब तक जिलाधिकारी आर्या ने जान लिया था कि हम जन समस्याओं को लेकर ही लड़ने वाले लोग हैं। फिर तो उनसे दोस्ती ही हो गई। विकास संबंधी हर कार्य में हम लोगों को जरूर याद करते थे।

गायत्री कांड
संभवतः सन् 2000 के आसपास की बात है। महराजगंज से लगभग 15 किमी दूर मोरवन गांव की एक लड़की गायत्री की शादी 14-15 साल की ही उम्र में ही शिकारपुर के पास के एक गांव में हो गयी। उसका पति दो भाई थे। बड़ा भाई और भाभी नहीं चाहते थे कि उसके भी बाल बच्चे हों, क्योंकि तब खेत बंट जायेंगे। उन सभी ने योजना बनाकर यहां के सरकारी अस्पताल में गायत्री को गौने पर आने के तीसरे दिन ही नसबंदी करवा दी। उसी दिन इस घटना की जानकारी गांव वालों को हो गयी। गायत्री के मायके भी यह जानकारी पहुंची तो उसके भाई आदि तुरंत उसके ससुराल पहुंचे और बड़े भाई और भाभी की जमकर पिटाई की।

हम लोगों को जब इसकी जानकारी हुई तो गांधी सिंह आदि के साथ मिलकर एक दो बैठकें करके अखबारों में समाचार दिया गया और प्रशासन के स्तर पर दवाब बनाते हुए, इस कांड के लिए जिम्मेदारों के विरुद्ध कार्रवाई तथा गायत्री की नस को फिर से जोड़वाने की मांग की गयी। हमें सफलता मिली। इस मामले में डाक्टर सहित अस्पताल के 16 व्यक्ति (स्टाफ) लम्बे समय तक निलम्बित रहे।

नस जुड़वाने के लिए गायत्री को लखनऊ जाना था, लेकिन उसके गांव की ही कुछ औरतों ने उसे डरवा दिया कि, ‘पता नहीं इस बार लखनऊ जाकर तुम बचोगी या नहीं।‘ फलस्वरूप, लखनऊ जाने के लिए तैयार जीप में किसी प्रकार बैठाये जाने के बाद भी वह जीप से कूद पड़ी और लखनऊ नहीं गयी।

इस मामले में हाईकोर्ट तक से यह आदेश हो गया कि शासन गायत्री के नाम से डाकघर में तीन लाख रूपये जमा कराये। लेकिन तब तक गायत्री का पति समझा बुझाकर उसे अपने घर ले जा चुका था। गायत्री को उसके पति के साथ जाने में गांव के कुछ दलालों ने भी भूमिका निभाई।
जब गायत्री ने स्वयं ही सब कुछ अपना भाग्य मानकर समझौता कर लिया तो इसमें अब हम लोग क्या कर सकते थे ?

कुछ वर्षों बाद गायत्री का पति एक दूसरी औरत को भी अपनी पत्नी बनाकर घर ले आया और गायत्री किसी तरह अपनी जिंदगी काटने लगी।

के एम अग्रवाल:

 +919453098922

क्रमशः 76

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