क़ोरोना काल कई अर्थों मे देश की स्वास्थ्य सेवाओं के लिये चुनौती जैसा रहा । पहले चक्र मे ही स्पष्ट हो गया कि पिछले सत्तर वर्षों मे हमने चिकित्सा के क्षेत्र मे ज़रूरी निवेश नही किया है और हमारी सुविधाएँ किसी बड़ी महामारी के दौरान बड़ी संख्या मे मरीज़ों की देखभाल करने मे समर्थ नही हैं । दूसरा दौर उन उपकरणों के अभावों की शिनाख्त का था जो किसी संक्रामक रोग से लड़ने के लिये ज़रूरी हैं । इसे राज्य की शुरुआती सफलता कहेंगे कि कुछ हफ़्तों मे ही अस्पतालों मे बेड, वेंटीलेटर या डाक्टरों के लिये पीपीई जैसी ज़रूरी सामग्री जुटा ली गयीं। पर उस ख़ौफ़ का क्या करेंगे जिस के चलते मरीज़ डाक्टर को देखते ही भाग खड़े होते हैं । पचास या साठ के दशकों मे कुंभ जैसे बड़े मेलों में ख़ौफ़नाक सी दिखने वाली हैज़े की सूइयों को देख कर काँपते भागते ग्रामीणों के चित्र देख कर हँसने वाले शहरी ख़ुद भी क़ोरोना अस्पतालों को देख कर क्यों भाग रहे हैं इसे समझने के लिये सिर्फ़ चंद उदाहरण काफ़ी हैं ।
“आम जन अभी भी याचक !!!”
विभूति नारायण राय, IPS
लेखक उत्तर प्रदेश में पुलिस महानिदेशक रहे हैं और महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति भी रह चुके हैं
पिछले तीन शताब्दियों में राज्य बहुत शक्तिशाली हुआ है । इस शक्ति ने जहाँ उसे नागरिकों की ज़िंदगी मे दख़ल देने के असीमित अधिकार दे दिये हैं, वहीं उसकी हद मे रहने वाले निवासियों की अपेक्षाएँ भी इस सीमा तक बढ़ गई हैं कि सुरक्षा, परिवहन, शिक्षा या स्वास्थ्य जैसे हर मसले पर वे राज्य के सकारात्मक हस्तक्षेप की उम्मीद करने लगे हैं। यह राज्य के प्रभावी दख़ल का ही नतीजा है कि कोविड़ 19 की महामारी पूर्व की प्लेग, हैज़ा या सौ साल पहले फैली स्पैनिश फ़्लू जैसी बीमारियों जैसा तांडव नही कर सकी । पुराने अनुभवों के अनुसार दशकों मे तैयार होने वाले टीका भी एक वर्ष से कम मे तैयार हो गया ।
भारत मे भी पिछले कुछ वर्षों मे राज्य शक्तिशाली तो हुआ और नागरिकों की अपेक्षाएँ भी बढ़ीं, पर दोनो के बीच के द्वंद्व से कई बार बड़ी दिलचस्प स्थितियाँ पैदा हो रहीं हैं ।
पिछले एक हफ़्ते के दौरान कई सौ यात्री लंदन से भारत आये और उम्मीद के अनुसार उनमे से कुछ क़ोरोना पाज़िटिव भी निकले । हवाई अड्डों पर उनकी टेस्टिंग और संक्रमित मरीज़ों को अस्पतालों तक ले जाने के लिये एम्बुलेंस की व्यवस्था थी । पर अमृतसर, दिल्ली या बैंगलोर हवाई अड्डों पर जो कुछ हुआ वह भयावह हद तक मनोरंजक था । दुनिया के किसी भी सभ्य समाज मे एक मरीज़ की सब से स्वाभाविक प्रतिक्रिया होगी कि जैसे ही उसे पता चले कि वह बीमार है, वह डाक्टर से संपर्क करना चाहे ।
यहाँ तो हुआ कुछ ऐसा कि बहुत से मरीज़ों को जब ख़ुद के क़ोरोना पाज़िटिव होने का पता चला, वे सामने खड़े डाक्टरों से मुँह चुरा कर भाग खड़े हुए । यह अविश्वसनीय व्यवहार जनजातीय इलाक़ों के भोले भाले निवासियों का नही बल्कि विलायत पलट महानगरों में रहने वालों का था, पर ध्यान से देखें तो काफ़ी हद तक स्वाभाविक भी था ।
क़ोरोना काल कई अर्थों मे देश की स्वास्थ्य सेवाओं के लिये चुनौती जैसा रहा । पहले चक्र मे ही स्पष्ट हो गया कि पिछले सत्तर वर्षों मे हमने चिकित्सा के क्षेत्र मे ज़रूरी निवेश नही किया है और हमारी सुविधाएँ किसी बड़ी महामारी के दौरान बड़ी संख्या मे मरीज़ों की देखभाल करने मे समर्थ नही हैं । दूसरा दौर उन उपकरणों के अभावों की शिनाख्त का था जो किसी संक्रामक रोग से लड़ने के लिये ज़रूरी हैं । इसे राज्य की शुरुआती सफलता कहेंगे कि कुछ हफ़्तों मे ही अस्पतालों मे बेड, वेंटीलेटर या डाक्टरों के लिये पीपीई जैसी ज़रूरी सामग्री जुटा ली गयीं। पर उस ख़ौफ़ का क्या करेंगे जिस के चलते मरीज़ डाक्टर को देखते ही भाग खड़े होते हैं । पचास या साठ के दशकों मे कुंभ जैसे बड़े मेलों में ख़ौफ़नाक सी दिखने वाली हैज़े की सूइयों को देख कर काँपते भागते ग्रामीणों के चित्र देख कर हँसने वाले शहरी ख़ुद भी क़ोरोना अस्पतालों को देख कर क्यों भाग रहे हैं, इसे समझने के लिये सिर्फ़ चंद उदाहरण काफ़ी हैं ।
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ मे सबसे प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थान मे राज्य के मंत्री और क्रिकेट के राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी चेतन चौहान को जब अस्पताल कर्मियों के व्यवहार का सीधा अनुभव हुआ तो वे वहाँ से भाग खड़े हुए और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र मे एक निजी अस्पताल में भर्ती हुए। दुर्भाग्य से वे बचे वहाँ भी नहीं, पर जिन कारणों से सरकारी अस्पताल से भागे थे उनसे तो उन्हे छुट्टी मिली ही होगी । इन कारणों को समझना हो तो पूर्व आईएएस अधिकारी और जाने माने मानवाधिकार कार्यकर्ता हर्ष मंदेर के अनुभवों को पढ़ना उचित होगा । वे कोरोना मरीज़ के रूप मे राजधानी के एक राष्ट्रीय महत्व के संस्थान मे भर्ती हुए ।
उनके दिल दहलाने वाले अनुभव सोशल मीडिया पर गश्त कर रहें हैं और बक़ौल उनके ये आधी से भी कम तकलीफ़ों का बयान करते हैं । उनके मुताबिक़ इस संस्थान के लिये मरीज भेड़ बकरी से अधिक कुछ नही है । उन्हे वार्ड नामी जेलों में भर्ती कर संस्थान के कर्मचारी ग़ायब हो जाते हैं । होटलों के बंद होने से बेरोज़गार हुये बैरों को वार्डों में सेवा के लिये भर्ती कर लिया गया है जो बिना किसी प्रशिक्षण , पापी पेट के लिये अपनी जान हथेली पर रख कर , मरीज़ों की जान से खिलवाड़ कर रहे हैं । लग भग हर दूसरे दिन किसी न किसी चैनल पर क़ोरोना ज्ञान बाँटते इस संस्थान के निदेशक से पूँछा जाना चाहिये कि वे मोटे मोटे वेतन पाने वाले अपने डाक्टरों और नर्सों को मरीज़ देखने के लिये क्यों नही मज़बूर कर सकते?
अग़र महगें सुरक्षा उपकरणों से लैस इनकी जान ख़तरे में है तो प्राइवेट अस्पतालों के कर्मी कैसे मरीज़ों को देखते हैं या अप्रशिक्षित ग़रीब होटेल बेयरों के जान की क्या कोई क़ीमत नही है ? यह भी पूँछा जा सकता है कि मरीज़ों के वार्डों में सफ़ाई क्यों नही होती या जनता की गाढ़ी कमाई से ख़रीदे वेंटीलेटर काम क्यों नही करते ? पर इन सवालों को पूँछ सकने में सक्षम प्रभुवर्ग तो ख़ुद क़ोरोना ग्रस्त होते ही निजी अस्पतालों की शरण को लपकता है ।
भारतीय नागरिकों की राज्य से अपेक्षाएँ और राज्य की संस्थाओं से हासिल होने वाली निराशा दिन प्रतिदिन इस लिये भी बढ़ रही हैं कि लोकतंत्र ने उनकी उम्मीदें बढ़ा दी हैं पर उसी रफ़्तार से संस्थाओं का प्रदर्शन नही सुधरा है ।
आप किसी भी दफ़्तर मे जायँ, आम जन अभी भी याचक है । पुलिस साधारण नागरिक के साथ दुर्व्यवहार करती है और आदतन मुक़दमे नही लिखती, सरकारी विद्यालयों मे शिक्षक अपवाद स्वरुप ही पढ़ाते हैं या दफ़्तरों मे कर्मचरियों को देर से आकर भी काम न करते और गप्प लड़ाते देख कर किसी को आश्चर्य नही होता । आम आदमी की मुसीबतें इस लिये भी बढ़ जाती है कि भारतीय निजी क्षेत्र सिर्फ़ मुनाफ़े के लिये काम करता है और अधिक धन कमाने के लिये कुछ भी कर सकता है । निजी अस्पताल या शिक्षण संस्थान उसकी पहुँच के बाहर हैं ।
यह एक साभ्यतिक़ समस्या है । हमें, जो ख़ुद को जगदगुरु घोषित कर अपनी पीठ थपथपाते रहते हैं , इस पर गम्भीरता से विचार करना होगा कि मनुष्य हमारी चिंता के केंद्र में कब आयेगा ? अगले कुछ वर्षों मे हम विश्व की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था होंगे पर तब भी मानव विकास के सूचकांक पर दुनिया के निचले पायदान पर बहुत पीछे दिखते शायद सबसे पिछड़े मुल्कों के बग़ल में खड़े होंगे । 21वीं शताब्दी की तीसरी दहाई कुछ ही दिनो मे शुरू होने जा रही है तो क्या हमें प्रयास नही करना चाहिये कि जनता की बढ़ती अपेक्षाओं के अनुकूल सरकारी संस्थाओं का आचरण भी एक सभ्य समाज के अनुकूल हो ? निस्सन्देह यह हमारे इतिहास की एक लंबी और मुश्किल यात्रा होगी।