“मौत का एक दिन मु’अय्यन है”
लेखक हरिकांत त्रिपाठी सेवा निवृत्त आईएएस अधिकारी हैं
चारों ओर मौत से बचने की भगदड़ मची है । कई अच्छे पढ़े लिखे ज़िम्मेदार पदों पर रहे लोग, जो अपने को आस्तिक बताते नहीं थकते हैं, वे भी शहर से गाँवों को पलायन कर गये । ग़रीब मज़दूरों की क्या बात करें , एक तो पढ़े लिखे नहीं ऊपर से कोई च्वावइश नहीं सिवाय इसके कि भूख से मरें या कोरोना से । भगदड़ बँटवारे की तस्वीरों की याद ताज़ा कर दे रही है । दिल्ली की सड़कों पर गठरी मोटरी जवान बूढ़े बच्चे स्त्री पुरुष सब भाग रहे हैं दहशत में । दहशत कोरोना की भी है और भूख की भी। कोई अपनी बीमार बीवी को कन्धे पर बैठाये भाग रहा है तो कोई बच्चे को उठाये भाग रहा है । एक सज्जन स्कूटी पर ही मुम्बई से सोनभद्र तक दिन रात भागते चले आये ।
जब कोरोना तीसरे चरण में प्रवेश कर जायेगा तो कोई कहीं भी सुरक्षित नहीं रह पायेगा । एक पुरानी कहानी याद आ रही है । एक चिड़िया ने एक दिन सपना देखा कि साक्षात यमराज भैंसे पर सवार उसके सामने आकर खड़े हो गए हैं और चिड़िया को देख कर ज़ोर-ज़ोर से बेतहाशा हँसे जा रहे हैं । यह देख कर चिड़िया को बहुत घबराहट हुई और उसकी नींद टूट गई ।
चिड़िया की दोस्ती पक्षिराज गरुड़ से थी । वो तुरन्त भागती गिरती पड़ती गरुड़ महराज के सामने पहुँच गई । थर-थर काँपते हुए उन्हें अपने सपने को कह सुनाया और गुहार लगाई कि महराज मेरे प्राणों की रक्षा करो । गरुड़ महराज ने बहुत देर तक सोचा और बोले कि बहुत दूर पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी पर एक बढ़िया विशाल वटवृक्ष है । वहाँ तक तो किसी हालत में भी यमराज का भैंसा नहीं चढ़ पायेगा । उसी वटवृक्ष पर मैं तुम्हें छोड़ देता हूँ, वहाँ खाने-पीने का भी सुभीता रहेगा और तुम सुरक्षित भी रहोगे । गरुड़ महराज ने चिड़िया को अपने पंजों में दबाया और लम्बी उड़ान के बाद ले जाकर चोटी के वटवृक्ष पर बैठा दिया । लम्बी यात्रा कर आई चिड़िया ने अभी दम भी न लिया होगा कि वहाँ पहले से मौजूद भूखी बिल्ली ने उसका टेंटुआ दबोच लिया और दावत उड़ा ली ।
आप निर्भय होकर जहाँ भी हों, वहीं रहकर सुरक्षा सावधानियों का पालन करें । जीवन को यथासम्भव सामान्य बनाये रखें । आपके लिए मिर्ज़ा ग़ालिब की मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए ख़ूबसूरत ग़ज़ल पेशे ख़िदमत है:-
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती।।
मौत का एक दिन मु’अय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती।।
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती।।
जानता हूँ सवाब-ए-ता’अत-ओ-ज़हद
पर तबीयत इधर नहीं आती।।
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती।।
क्यों न चीख़ूँ कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती।।
दाग़-ए-दिल नज़र नहीं आता
बू-ए-चारागर नहीं आती।।
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती।।
मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती।।
काबा किस मुँह से जाओगे ‘ग़ालिब’
शर्म तुमको मगर नहीं आती।।