संध्या पाठक
प्रकृति के दोहन का परिणाम है “कोरोना“
“वैश्विक त्रासदी का भारतीय दर्शन”
भारतीय ऋषियों ने अरण्यक संस्कृति की महिमा गाई है। मनुष्य को जीवन देने वाले पंचमहाभूतों का योगदान सर्वोपरि है। जब भी कोई मांगलिक अनुष्ठान होता है तो पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु की शांति की प्रार्थना की जाती है। महर्षि पतंजलि ने भी इसी क्रम में योग शास्त्र का प्रतिपादन किया। मनुष्य का शरीर तो रोग का मंदिर कहा गया है। शरीर के भीतर रक्त, मज्जा, अस्थि और रस रसायन जितने पदार्थ हैं, सब में असंख्य जीवाणु और रोगाणु विद्यमान हैं। ईश्वर ने शरीर में एक प्रतिरक्षा तंत्र स्थापित किया है। जिस प्रकार देश की रक्षा के लिए सेना एवं समाज की रक्षा के लिए आरक्षी तैनात होते हैं और वे सारे तंत्र चुस्त रहते हैं, चहुंओर तो शांति रहती है। उसी प्रकार यदि मनुष्य समुचित आहार, विहार तथा योग को जीवन में आत्मसात करें तो घातक से घातक बीमारियों से शरीर अपने आप लड़ लेता है।
मनुष्य को पेड़ पौधे, नदी, तालाब, सूरज-चांद, धरती आकाश ,जंगली जीव-जंतु आदि पूरी प्रकृति को अपने परिवार का सदस्य समझना चाहिए। यही ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का संदेश भी है। भौतिकता के दौर में सबसे बड़ा आघात जंगलों पर हो रहा है, हमें अपने अंदर वृक्ष लगाने का भाव पैदा करना चाहिए। पर्यावरणविद पीपल, बरगद, आम, बेल आदि को पृथ्वी का संरक्षक कहते हैं। ये पेड़ विषाणुओं को सबसे ज्यादा अपनी ओर खींच कर मनुष्य को प्राणवायु देते हैं। रावण से युद्ध के दौरान लक्ष्मण के शरीर में कार्बन से आई मूर्छा को दूर करने के लिए हनुमान जी संजीवनी बूटी लाए थे। इसका अर्थ है कि हमें जीवन देने वाले पेड़ों के संपर्क में रहना चाहिए ।
प्रकृति से लड़ना छोड़ो
मृत्यु निश्चित है यह सूचना देकर नहीं आती। लेकिन महामारियां मृत्यु के जयघोष के साथ आक्रमण करती हैं। मृत्यु का भय, भयानक सामाजिक रूप लेता है। संप्रति मानवता ऐसे ही मृत्यु भय से कांप रही है। दुनिया के तमाम देशों के साथ भारत भी महामारी से संघर्षरत है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्यकारी निदेशक माइकल रयान ने कहा है कि “भारत के पास कोरोना से लड़ने की क्षमता है। इसके पास चेचक और पोलियो को समाप्त करने का अनुभव है।” उन्होंने विश्वास जताया है कि “भारत अपनी तैयारियों से कोरोना के तीसरे चरण से बचने में कामयाब होगा, भारत पूरी दुनिया के लिए मार्गदर्शी हो सकता है”।
जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने ‘व्हाट इंडिया कैन टीच अस’ में कहा था,” हम हर चीज के अभ्यस्त हो कर आश्चर्य करना छोड़ देते हैं। अचानक आए भूकंप के समान हमारे संरक्षकओं को किस बात ने चौंकाया होगा, उनकी स्थाई धारणाओं को किसने ध्वस्त किया होगा, इससे स्पष्ट होता है कि आपदाएं स्थापित धारणाएं तोड़ती हैं।”
कोरोना के अंत के बाद का विश्व सोच ,विचार ,आचार, व्यवहार और आहार आदि की आदतों में भिन्न होगा। विज्ञान को अपनी सीमा का पता चल गया है ।प्रकृति की अनंत शक्ति का परिचय मिल गया है । स्वयं को महाशक्ति मानने वाले देश आत्मसमर्पण कर रहे हैं। विश्व इतिहास में अपने ढंग की यह पहली आपदा है। सामान्यतः इतिहास के विवरण में ईशा पूर्व और ईशा के बाद का विभाजन है। अमेरिका पर 9/11 हमले के बाद वैश्विक सामाजिक व्यवहार में आधारभूत बदलाव हुए थे। अब इतिहास के काल विभाजन की रेखा कोरोना से पहले और कोरोना के बाद की हो सकती है। आर्थिक उदारीकरण के प्रभाव में दुनिया को भूमंडलीय गांव माना गया था, खासकर व्यापार में राष्ट्र राज्य की सीमाएं शिथिल हो रही थी, लेकिन कोरोना आपदा से ये सीमाएं सील हैं ,विमान सेवाएं बंद है । सामाजिक व्यवहार बदल गए हैं, वार्ता करने में फासले की दूरी विशेषज्ञ बता रहे हैं, निकट वार्ता का सामाजिक व्यवहार बदल गया है, सब की आंतरिक मानसिक बदलाव की गति तेज रफ्तार है ।
भारत के धर्म, दर्शन और लोक व्यवहार में अनुकूलन की शक्ति है ।आपदाओं में आश्चर्यजनक एकता और सामान्य जीवन में अनेकता यहां की प्रकृति है ।प्रधानमंत्री ने जनता कर्फ्यू की अपील की, देश ने अपील स्वीकार की। उन्होंने 21 दिन के लॉकडाउन की अपील की, पुनः 23 दिन का विस्तार दिया, हाथ जोड़े, सबने माना ,लेकिन अपवाद भी रहे और है भी। ऐसी महामारी में अपवाद की ताकत अनुशासित करोड़ों देशभक्तों की ताकत से ज्यादा बड़ी और खतरनाक भी होती है ।विकल्प हीन महामारी में घर में ही रहना उचित है । मनुष्य घर संवारने के लिए श्रम करते हैं। घर आश्रय है सब घर में रहे ।अपने लिए अपनों के लिए राष्ट्र के लिए, घर में रहते हुए कम से कम, एक और परिवार के पोषण से यह संघर्ष आसान होगा।
आज सारी दुनिया में सोशल डिस्टेंसिंग की चर्चा है, इसका अर्थ समाज में अलगाव नहीं है। जीवन की सभी गतिविधियां सामाजिक है। मन की निकटता को वैदिक ग्रंथों में श्रेष्ठ बताया गया है ।समाज की दीर्घजीविता के लिए प्रत्येक सदस्य का परस्पर दूर रहना जरूरी है। नमस्कार में मन की निकटता की अभिव्यक्ति है। ऋग्वेद में नमस्कार को देवता कहा गया है, नमस्कार में ऊर्जा का विकार या संक्रमण दूसरे को नहीं होता। हम सब प्रकृति के अंग हैं प्रकृति अराजक नहीं है ।पृथ्वी और सभी ग्रह सुसंगत नियमों में गतिशील है ।अग्नि प्रवाह ऊर्ध्वगामी है, जल प्रवाह ऊंचे से नीचे प्रवाहित है। भारतीय चिंतन में मनुष्य देह अन्नमय कोष है । अन्न, फल आदि प्रकृति की देन है। कुत्ते, बिल्ली, चमगादड़ सांप आदि जीव खाद्य पदार्थ नहीं है,वे प्रकृति का ही सृजन है। लेकिन चीन में लोग इसे खाद्य पदार्थ के रूप में लेते है। दुनिया ग्लोबल विलेज है तो चीन जैसे देशों की जीवन शैली का खामियाजा हम सभी को भुगतना पड़ेगा।
फॉरेन वायरस (जो घरेलू और जंगली जानवरों से इंसानों में आए ) के कारण हर साल दुनिया भर में 2 अरब लोग बीमार पड़ते हैं जिनमें से दो करोड़ लोग मारे जाते हैं। यह वायरस इंसानों को एचआईवी से लेकर ईबोला और अब कोरोना तक से मार रहे हैं। वजह सिर्फ एक है इंसानों का जानवरों की प्राकृतिक जीवन शैली में हस्तक्षेप।
अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के शोधकर्ताओं ने 1940 को आधार वर्ष मानते हुए किए शोध में बताया कि कुत्ते, बिल्लियां, भेड़ों जैसे घरेलू जानवरों के साथ ही बंदरों, चूहों ने भी इंसानों को काफी क्षति पहुंचाई है ।जंगली जानवर इंसानों से दूर थे लेकिन इंसान ने कभी विकास कभी जानवरों के व्यापार और कभी उन्हें बचाने के नाम पर उनके व खुद के बीच भी मौजूद दूरी को खत्म कर दिया। प्लेग और कोरोना जैसी महामारी ने तो दुनिया का अस्तित्व ही खतरे में डाल दिया।
1940 के बाद इंसानों में 142 वायरस आ चुके हैं कई के तोड़ हमने खोज निकाले, लेकिन अब भी कई बहुत जानलेवा है चाहे वह कोरोना हो या एचआईवी । चूहे, बंदर और चमगादड़ इंसानों में फैलने वाले 75 फ़ीसदी वायरस के लिए जिम्मेदार हैं।
प्रभाव
कोरोना वायरस से फैली महामारी को दुनिया के पर्यावरण विशेषज्ञ प्रकृति के उस संदेश की तरह देख रहे हैं जो इंसानों को उनके कृत्यों के प्रति आगाह कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण प्रमुख डगर एंडरसन का मानना है कि प्राकृतिक संसार पर मानवता कई तरह के दबाव डाल रही है, जिसका नतीजा विध्वंस के रूप में सामने आ रहा है।
दुनिया के प्रमुख वैज्ञानिकों ने कोविड 19 महामारी के रूप में इसे धरती की स्पष्ट चेतावनी बताया है ।वनों और वन्यजीवों के बीच तेजी से बढ़ती दखलंदाजी अगर सीमित नहीं हुई तो मनुष्य में कोरोना से भी घातक महामारी के लिए विश्व मानवता को तैयार रहना होगा।
भारत आज भी एक कृषि प्रधान देश है इस समय देश दुनिया में शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जो कोरोना से प्रभावित ना हो। तो खेती किसानी भला कैसे अछूती रहेगी। इससे मुकाबले के लिए देशव्यापी लॉकडॉउन का ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर असर भी पड़ने लगा है। चिकन से कोरोना वायरस फैलने की झूठी अफवाहों से उपभोक्ता मांस, मछली, चिकन, अंडे आदि से परहेज कर रहे हैं। जिससे इनके दाम गिर गए हैं मांग घटने से पोल्ट्री फीड के रूप में इस्तेमाल होने वाली मक्का और सोयाबीन के दाम भी गिर गए हैं । रवी की कुछ फसलें सरसों, चना, मटर, प्याज, आलू आदि की कटाई और निकासी का वक्त है। साथ ही मुख्य फसल गेहूं की कटाई भी प्रारंभ होनी है।
दुग्ध उत्पादन से और पशुपालन से कृषि की एक तिहाई आय होती है। आपूर्तिचेन टूटने, मिठाई की दुकानें, होटल आदि बंद होने, शादी समारोह स्थगित होने से दूध व अन्य खाद्य सामग्री की मांग कम हुई है। डेयरियों और दूधियों ने किसानों से दूध की खरीद घटा दी है, इससे दूध व अन्य फसलों के दाम गिर गए हैं। दूध संग्रह -प्रसंस्करण, उत्पादन और वितरण में लगे डेरी व संबंधित उद्योगों को सुचारु रुप से चलाना होगा। भारत में असंगठित क्षेत्रों में 80% से ज्यादा लोग काम करते हैं। काम बंद होने के कारण यह लोग शहरों से अपने गांव की ओर पलायन कर रहे हैं। जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर दबाव और बढ़ेगा।
समाधान
ऐसी आपदा के वक्त देश में खाद्यान्न की भरपूर उपलब्धता एक बड़ी राहत की बात है। सरकार के पास 7.75 करोड़ टन खाद्यान्न मौजूद है। जिसमें गेहूं ,चावल और 22.5 लाख टन दालों का भंडार उपलब्ध है ।एक महीने बाद गेहूं की 10 करोड़ टन फसल और आ जाएगी। रवि की दालें, चना, मटर और मसूर की आवक भी जारी है। दूध और चीनी की भी कोई कमी नहीं है ।इस आपदा में कृषि, खाद्य भंडारण व वितरण व्यवस्था निर्बाध रूप से चलती रहे तो देश इस गंभीर संकट से उबर सकता है।
दुनिया को रास्ता दिखाता भारत
कोरोना वायरस ने मनुष्य के सामने उसके भविष्य को लेकर कई प्रश्न उपस्थित कर दिए हैं, जिन पर मानव समाज को गहनता से विचार करना चाहिए। आज मनुष्य के इस अहंकार को गहरा धक्का लगा है कि उसने प्रकृति के रहस्यों को समझने और उस पर नियंत्रण करने की क्षमता प्राप्त कर ली है। कोरोना ने मनुष्य के ज्ञान और समझ की अपूर्णता और सीमाओं को सामने ला दिया है।
ज्ञान, बुद्धि और विवेक मनुष्य को पीढ़ियों की सतत और असीमित साधना के द्वारा ही प्राप्त होते हैं। इसकी ऐसी कोई सीमा नहीं जहां पहुंचकर कहा जा सकता है कि वही सीमांत है ।जब तक मानव सभ्यता पृथ्वी पर विद्यमान है उसका विकास जारी रहेगा। नियमतह प्रकृति के रहस्यों को समझने के प्रयास भी जारी रहेंगे ।हालांकि प्राचीन काल में भारत के ऋषि और साधकों ने इन प्रयासों को नियमबद्घ किया था, कि हर नए ज्ञान और कौशल का उपयोग केवल जनहित में हो । प्रकृति के प्रति आदर भाव और सम्मान रखते हुए ही मनुष्य उसके संसाधनों का उपयोग करें इसी दर्शन को महात्मा गांधी ने कुछ इस तरह कहा था कि “भारत अपने मूल रूप में कर्मभूमि है भोग भूमि नहीं” उनका यह भी मानना था कि भारत में आत्म शुद्धि के लिए स्वेच्छापूर्वक जैसा प्रयत्न किया गया। इसका दुनिया में कोई दूसरा उदाहरण ही नहीं मिलता ।इसी चिंतन के कारण पूरे विश्व में ज्ञान और अध्यात्म के क्षेत्र में भारत की श्रेष्ठता को स्वीकार किया ।
भारत में अपरिग्रह को मनुष्य और प्रकृति के बीच की संवेदनशील कड़ी बनाए रखने का आधार बनाया गया था। गांधी जी ने अपरिग्रह को समझा ,सराहा ,अपनाया और दूसरों को समझाने का भी प्रयास किया ।अनेक कारणों से कालांतर में भारत में इस आत्म शुद्धि की स्वीकार्यता और व्यावहारिकता में कमी आती गई ।अपनी संस्कृति को छोड़कर भारत पश्चिम की भोगवादी संस्कृति की नकल करने में संलग्न हो गया और प्रकृति का सम्मान करना भूल गया । कोरोना संकट ने भारत के सामने यह स्पष्ट कर दिया है कि विश्व को अपरिग्रह का अर्थ और मंतव्य समझाना मुख्यतः उसका भौतिक ,आध्यात्मिक और नैतिक उत्तरदायित्व है ।हर प्रकार की विविधता को स्वीकार करने का उदाहरण विश्व के सामने प्रस्तुत करने वाला और प्रकृति के लगभग हर अंग में देवत्व देखने वाला भारत उसके वैश्विक संरक्षण में आगे रहने का दायित्व कैसे भूल सकता है। यह वैश्विक समझ और चिंता लगातार बढ़ रही है कि अनियंत्रित भौतिकवाद और चिंताजनक ढंग से मानव मूल्यों का क्षरण और आध्यात्मिकता के प्रति बढ़ता विरक्ति भाव मानव मात्र को विनाश की ओर ले जा रहे हैं। भारत का जनमानस परसेवा को सबसे बड़ा पुण्य मानता है।
अर्नाल्ड टायनबी जैसे अनेक मनीषी बहुत पहले यह कह चुके थे कि “वैश्विक विनाश से बचने का रास्ता केवल भारत का रास्ता है”।
कोरोना के बाद विश्व व्यवस्था में भी बहुत कुछ बदलाव होगा। दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात हिंसा और युद्ध की विभीषिका से मनुष्य को निजात दिलाने की आवश्यकता तेजी से उभरी थी। महात्मा गांधी पहले दक्षिण अफ्रीका और भारत में अहिंसा के महत्व और उसकी व्यवहारिकता को स्थापित कर विश्व का ध्यान आकर्षित कर चुके थे।
संघर्ष और युद्ध से बचने के लिए, अंतरराष्ट्रीय
सहयोग की आवश्यकता पूर्ति के लिए संयुक्त राष्ट्र, उसकी सुरक्षा परिषद, यूनेस्को जैसी अनेक संस्थाएं बनी। इसकी उपलब्धियों की लंबी सूची है। मगर शांति और सौहार्द्र के लिए इन संस्थाओं का प्रभाव सीमित ही रह गया। इनकी संरचना भी बदलते समय के साथ नहीं बदल सकी है । इन संस्थाओं में आज भी उपनिवेशवाद की उपस्थिति महसूस की जाती रही है ।वहीं दुनिया में हथियारों की होड़ भी लगातार जारी है ।अब सबसे बड़ी चुनौती इसके लिए आगे की रणनीति बनाने की होगी। इसका एक खाका महात्मा गांधी ने 6 मई 1926 को यंग इंडिया में लिखे एक लेख में खींचा था, उन्होंने कहा था कि यदि हमें प्रगति करनी है, हमें अपने पुरखों की धरोहर को बढ़ाना है तो नए अविष्कार और खोज अवश्य करें मगर आध्यात्मिक पक्ष को कदापि न भूलें।
संध्या पाठक, शोध छात्रा, काशी विद्यापीठ वाराणसी