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Corona War: लॉकडाउन मैं और आस-पास: 58

आचार्य अमिताभ जी महाराज

कोरोना महामारी के परिप्रेक्ष्य में कतिपय समाजशास्त्रीय सूत्रों की चर्चा

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैली हुई इस कोरोना महामारी के अनपेक्षित एवं भीषण विस्तार की प्रक्रिया के मध्य संपूर्ण विश्व के सामाजिक जीवन, धार्मिक जीवन, वैयक्तिक जीवन में बहुत सारे गंभीर परिवर्तन परिलक्षित होने प्रारंभ हो गए हैं। यह सभी परिणाम एकपक्षीय नहीं हैं। इनमें बहुत सारे अंतर्विरोध भी हैं। इनसे कुछ शुभ सूत्र और भविष्य के जीवन को व्यवस्थित करने के निर्देश भी प्राप्त होते हैं। उसके साथ-साथ वर्तमान की कुरूपता भी उभरकर सामने आती है। परिवारों के मध्य एक भ्रम पूर्ण आशा से युक्त भाव की निरंतरता बनी रहती थी कि यदि परिवार के सभी सदस्य एक साथ रहें तो कितने आनंद का विषय है। किसी के पास किसी के लिए समय नहीं है।  केवल डाइनिंग टेबल पर मुलाकात होती है, थोड़ी बहुत बात होती है, बाकी तो मोबाइल ही एकमात्र आश्रय है।

किंतु जब लॉक डाउन प्रारंभ हुआ तो मेरा यह व्यक्तिगत अनुभव है, मुझसे बहुत सी पारिवारिक महिलाओं ने भी अपने अनुभव साझा किए बहुत दुख के साथ कि इस लॉक डाउन की निरंतरता में उनकी अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता नितांत आहत हो गई है और वह एक ऐसे श्रमिक के रूप में परिणत हो गई हैं जिसके लिए न्यूनतम वेतन या किसी प्रकार की कार्य के घंटों की न्यूनतम परिधि का निर्धारण संभव नहीं है, क्योंकि हमने अपने परिवारों की संरचना ऐसी बनाई हुई है। परंपरा से जिसमें घर की स्त्री ही सर्वतोभावेन प्रत्येक प्रकार का कार्य करने वाले श्रमिक के रूप में सुप्रतिष्ठित है, वह पति , पुत्र- पुत्री , सास- ससुर से लेकर के बाकी जो भी आने जाने वाले हैं, सब की सेवा शुश्रूषा तथा सब के दायित्व और सबकी भोजन संबंधित प्रत्येक मांग को पूरा करने के लिए कृत संकल्पित और प्रतिबद्ध होनी चाहिए ऐसी मान्यता है। यद्यपि अब मेट्रोपोलिटन शहरों में थोड़ा परिवर्तन हुआ है, भारतीय संदर्भ में और पुरुष भी स्त्रियों के कार्य में सहयोग करते हैं, किंतु विशेष तौर पर उन्हीं घरों में जहां पर स्त्रियां भी कामकाजी हैं और भरपूर वेतन लेकर के घर आती हैं। अन्यथा संपूर्ण भारत की संरचना में स्त्री का संबंध अविभाज्य रूप से रसोई के साथ ही है और वह फुल टाइम केयरटेकर के रूप में ही अपने आप को पाती है बिना अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को प्रतिष्ठित किए हुए।

यह जो हम लोग मीडिया में बड़े बड़े परिवारों की महिलाओं के साक्षात्कार देखते हैं कि उन्होंने लॉक डाउन के टाइम में अपनी जो व्यक्तिगत अभिरुचिया हैं, उनके विकास में स्वयं को समावेशित कर दिया- संलग्न कर दिया और बड़े अच्छे-अच्छे कार्य संपादित हुए, पुस्तकें पढ़ी, कुछ पेंटिंग बनाई, कुछ समाज सेवा की,’ यह सब बड़े-बड़े घरों की बातें हैं। सामान्य मध्यवर्गीय परिवारों में वह महिलाएं जो किसी न किसी अभिरुचि से युक्त भी है और इसके साथ-साथ जिनका अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व भी है, वह भी बहुत बड़े पैमाने पर तो नहीं कह सकते लेकिन तब भी काफी सीमा तक उनकी वह अभिरुचियां एवं स्वतंत्र व्यक्तित्व आहत हुआ है और उनको समझौता करना पड़ा है।

तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार कुछ मध्यवर्गीय महिलाएं हैं जिन्होंने अपने व्यक्तित्व एवं अभिरुचियों को न केवल यथावत बनाए रखा है, अपितु उसका विकास भी किया है, किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उनकी उपलब्धियों के पीछे उनके परिवार का निस्वार्थ अनुमोदन एवं निरंतरता में प्राप्त होने वाला सहयोग भी एक महत्वपूर्ण कारक है।

परिवार में थोड़ी देर के लिए दिखाई देने वाला पिता नाम का प्राणी जो बच्चों के लिए नाना प्रकार की सामग्री लाते हुए अत्यंत आकर्षक प्रतीत होता था, वह उसकी निरंतर उपस्थिति के परिणामस्वरूप अब इतना आकर्षक प्रतीत नहीं होता क्योंकि प्रत्येक कार्य में वह अपने अनुभव का आरोपण करना चाहता है और बच्चों का कहना है कि उनके पास पर्याप्त ज्ञान है अपना निर्णय करने के लिए। तो उन्हें एक ऐसा पिता चाहिए जो उनकी समस्त अपेक्षाओं की पूर्ति करें, आवश्यकताओं की पूर्ति करें और एक एटीएम की तरह स्वयं को प्रयुक्त होने की अनुमति प्रदान करें, किंतु उनके जीवन में हस्तक्षेप ना करें। इसीलिए कहते हैं कि अति परिचय अवज्ञा उत्पन्न करता है। जो-जो कार्य कर रहा है,  उसमें संलग्न रहते हुए थोड़ी थोड़ी देर के लिए भेंट हो तो प्रेम की निरंतरता बनी रहती है और यह भ्रम भी बना रहता है कि अगर हम लोग और अधिक साथ रहते तो बहुत आनंद आता और इसी भ्रम के साथ जीवन व्यतीत हो जाए तो समझो कि बहुत अच्छी बात है।
पुरुष की निर्विवाद रूप से प्राधिकार आरोपित करने की मान्यता और अभ्यास भारतीय उपमहाद्वीप की ही बपौती नहीं है, यह संपूर्ण विश्व में पुरुषों के अनिवार्य दुर्गुण के रूप में स्पष्ट है।
संयुक्त राष्ट्र के एक सांख्यिकी शोध से प्राप्त आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि शिक्षा प्राप्त करने की निरंतरता, शैक्षणिक योग्यता के विकास एवं आत्मनिर्भर होने की दिशा में जैसे-जैसे महिलाओं के कदम अग्रसर होते गए, उसी अनुपात में विवाह विच्छेद की संख्या भी बढ़ती चली गई।  इसके पीछे कारण स्त्रियों की उद्दंडता या स्वतंत्र स्वैच्छिक जीवन की चाहत ही नहीं है अपितु आर्थिक स्वतंत्रता के कारण जीवन की दिशा का निर्धारण करने के लिए अधिक विकल्पों का उपलब्ध होना भी है। अब वह प्रलय काल तक अपने पारिवारिक जीवन के सुधार की प्रतीक्षा नहीं करती। यदि उसमें सुधार की संभावना नहीं है तो वह उसका परित्याग कर देने को ही श्रेयस्कर समझती हैं।  यद्यपि इसी अध्ययन का एक अंश यह भी कहता है के धन के प्रवाह ने आपसी समझ के गुण को भी बहुत बुरी तरह दुष्प्रभावित किया है और छोटी-छोटी बातों पर भी लोग समझदारी से निर्णय करने के बजाए विध्वंसात्मक मार्गो का ही चयन करने लगे हैं। लेकिन यह तो एक सहज मानवीय दुर्बलता है। विकास का कुछ मूल्य तो अदा करना ही पड़ेगा किंतु इतना होने पर भी जहां सौमनस्य स्थापित करने का पारस्परिक संकल्प है, एक दूसरे को उसकी त्रुटियों के साथ एवं गुणों के साथ स्वीकार करने का भाव है, वहां पर अभी भी पारिवारिक मूल्य न केवल बने हुए हैं अपितु औरों के लिए उदाहरण के रूप में प्रस्तुत भी किए जा सकते हैं।

इस महामारी में भय के कारण बलात बाधित हो गई समस्त व्यापारिक और औद्योगिक निर्माण संबंधी गतिविधियां एवं व्यक्तियों के वैयक्तिक वाहन और सार्वजनिक वाहनों के स्थिर हो जाने का शुभ परिणाम प्राप्त हुआ है कि जैसे प्रकृति ने इस महामारी को एक उपकरण के रूप में प्रयोग किया है अपने आपको पुनः जाग्रत करने के लिए और नवीकृत करने के लिए। जल शुद्ध हो गया है, आकाश शुद्ध हो गया है वातावरण में प्रदूषण न्यून हो गया है।

यह सदैव ऐसा ही रहेगा, इस भ्रम में मत रहिए। किंतु इसने एक संदेश प्रदान किया है कि यदि हम अपनी आवश्यकताओं और विकास के प्रति अंधी प्रतिबद्धताओं को किनारे कर के प्रकृति का सम्मान करते हुए आगे बढ़ना चाहें तो उसके लिए भी नवीन मार्गों का अनुसंधान किया जा सकता है। क्योंकि इस छोटे से वायरस ने यह सिद्ध कर दिया है कि मनुष्य इस धरती का मालिक नहीं है वह मात्र अतिथि है जिसका यहां पर कोई अधिकार नहीं है।

औद्योगिकीकरण और विकास की जो प्रतिबद्धता है उसकी बहुत बड़ी कीमत चुकाई है हमने। हमारा निवास का क्षेत्र, हमारे उद्योगों के स्थापित होने का क्षेत्र व अन्य गतिविधियों वनों के क्षेत्र का अतिक्रमण करता हुआ उन स्थानों तक पहुंच गया है जहां पर इस धरती का सशक्त कुरूप सत्य भी विद्यमान है। इस बात को समझ लीजिए कि जो तात्कालिक अध्ययन है, वह यह सब सिद्ध कर रहे हैं कि अन्य उन क्षेत्रों में मनुष्य का अधिक अतिक्रमण वहां के पशुओं के साथ, पक्षियों के साथ उसका अधिक संपर्क और उसकी जो भोजन आदि संबंधी नितांत असंतुलित वृत्तियां हैं, उनके प्रभाव से सभी वायरस भयंकर महामारी के रूप में मनुष्यों को कष्ट पहुंचा रहे हैं जिनका कोई निदान कर पाना अभी तक संभव नहीं हुआ है। यह सब पशुओं के माध्यम से या यूं कहें कि पशुओं के मनुष्यों के साथ असंतुलित संपर्क के माध्यम से ही मानव जाति पर अभिशाप की तरह प्रसारित हो गए।

आप जिनको खाएंगे, वह आपको भी खाएंगे, यह मान कर चलिए। यह जो कर्मफल का सिद्धांत है वह प्रकृति के क्षेत्र में भी उतना ही चरितार्थ होता है जितना कि व्यक्तिगत जीवन में। शास्त्र का सूत्र कहता है कि हम जीवित रहने के अधिकारी हैं किंतु अन्यों के जीवन का हनन करके नहीं अर्थात जब हम औरों को ब्रीदिंग स्पेस देते हैं तो ईश्वर हमें भी ब्रीदिंग स्पेस देता है। इस प्रकार से जीवन चलता रहता है। जैव विविधता का नाश मनुष्य जाति का विनाश कर सकता है। इसको समझने की बड़ी आवश्यकता है।

आजकल हम एक अलग तरह की समस्या से जूझ रहे हैं।  भारतवर्ष के कई राज्यों में करोड़ों टिड्डियों ने आक्रमण कर दिया है। यह आक्रमण शब्द बड़ा आकर्षक है और सारे संसाधनों के बाद भी टिड्डियों को भगा पाना संभव नहीं हो रहा है। ढोल नगाड़े बजा-बजा करके वही जो पारंपरिक पद्धतियां हैं, उनका अनुपालन करने का निर्देश दिया जा रहा है।

यह सब संकेत मनुष्यों को चेतावनी देने के लिए है कि हम जितना अधिक प्रकृति के अंतर क्षेत्र में घुसते चले जाएंगे, उतना ही प्रकृति हमको इस चुनौती को देने के अपराध स्वरूप दंडित करती चली जाएगी।

मैं मनुष्य की जिजीविषा में विश्वास करता हूं। उसने बड़े-बड़े संकटों पर विजय प्राप्त की है, इसमें कोई दो राय नहीं है। किंतु एकमात्र सिद्धांत है कि प्रकृति जो हमें समस्त संसाधन प्रदान करती है, उसके प्रति यदि हमारे मन में सहिष्णुता, सद्भाव और दया नहीं रहेगी तो वह हमको उसी पद्धति के अनुसार नष्ट कर देगी जिस प्रकार से व्यक्ति यदि उस डाल को काटे कुल्हाड़ी से जिस पर वह स्वयं बैठा है तो स्वयं के नष्ट होने के अतिरिक्त दूसरा कोई विकल्प नहीं होता।

इस भारी संकट के समय में हमने मानवीयता के नए-नए प्रतिमान स्थापित होते भी देखे हैं। व्यक्ति के भीतर का दया का झरना उसी प्रकार से फूट कर निकला है जिस प्रकार से शिला खंडों को चीर करके जल की धारा प्रवाहित होती है। आज मनुष्य ने पुनः यह सीखा है कि हम अपने धन के ट्रस्टी- न्यासी हैं तथा आवश्यकता के समय उसका समाज की सेवा में विनियोग कर देना ही एकमात्र धर्म है। यद्यपि ऐसे उदाहरण बहुसंख्य नहीं होते, हो भी नहीं सकते किंतु जो उदाहरण हैं वह मानवीयता की अलख को जगाए रखने के लिए पर्याप्त है, यदि कोई उनसे सीखना चाहे, प्रेरणा लेना चाहे तो।

हमारी 135 करोड़ जनसंख्या वाले इस महान राष्ट्र में बहुत बड़े स्तर पर तकरीबन सरकारी हिसाब-किताब को किनारे कर दें तो 50 करोड़ के लगभग जो कामगार हैं विभिन्न क्षेत्रों में, जिनके कंधों पर संपूर्ण राष्ट्र की विकास गाथा का रथ संचालित होता है, किंतु जो नींव के पत्थर के समान सब कुछ करते हुए भी समाज में अपनी स्वीकार्यता एवं सम्मान स्थापित नहीं कर पाए। आज उनका मूल्य सभी को समझ में आ रहा है।

अभी कल की ही घटना है, तेलंगाना की एक रीयल्टी फर्म ने अपने निर्माण कार्यों की पूर्ति करने के लिए बिहार की राजधानी पटना से हवाई जहाज में बहुत सारे श्रमिकों को अपने यहां बुलाया। प्लेन के माध्यम से एक श्रमिक के लिए हवाई यात्रा एक अद्भुत घटना है, जीवन में कभी भी न भूलने वाली अविस्मरणीय घटना। जिस राष्ट्र में आज भी आकाश में उड़ते हुए हवाई जहाज को देखते हुए लोग मैदानों में दौड़ते हुए चले जाते हैं कि देखो जहाज आया देखो जहाज आया, वहां पर उनके लिए इस की यात्रा अपने आप में ही अत्यंत सुखद अनुभव है और अविस्मरणीय भी।

समाज का कोई भी पक्ष उपेक्षित नहीं हो सकता तथा इस भाव को, इस महामारी के प्रभाव के रूप में ही सही, यदि हम स्वीकार करते हैं तो भारत राष्ट्र राज्य के आगामी उन्नयन के पथ में यह सकारात्मकता और सब के प्रति स्वीकार्यता निश्चित तौर पर महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करेगी, ऐसा मेरा विश्वास है।

बहुत से नकारात्मक संदर्भ ही हैं किंतु उन पर चर्चा करके वातावरण को विषाद संयुक्त करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जीवन में कुछ प्राप्त करने के लिए सकारात्मकता अत्यंत अनिवार्य एवं अपरिहार्य है। अतः पात्र यदि आधा भरा हुआ है तो उस पर ही ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए बजाय इस पर चर्चा करने के लिए कि वह आधा क्यों खाली है ? इससे जिजीविषा बनी रहती है संघर्ष करने की सामर्थ्य आती है और हम कुछ सकारात्मक कर पाते हैं

शुभम भवतु कल्याणम

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