होली के शोख रंगों पर कोरोना की स्याह छीटें और मुस्कुराता हुआ समय उदास हो गया
चीन की चीख जनवरी से ही सुनाई देने लगी थी और फरवरी के मध्य तक आते-आते इटली की आर्तवेदना भी हम तक आने लगी थी। पूरी दुनिया के साथ हम भी उस दर्द को महसूस तो कर रहे थे पर कोरोना के सामने खुद को बेबस पा रहे थे।
मार्च की शुरुआत के साथ ही भारत भी करीब से इस बीमारी को महसूस कर रहा था। भारत में इसकी धमक केरल के बाद मुम्बई में सबसे ज्यादा दिख रही थी। निजी तौर पर इस बीमारी का आभासी प्रभाव मुझे पांच मार्च को मुम्बई से दिल्ली जाते समय एयरपोर्ट पर देखने को मिला। लगभग अस्सी प्रतिशत चेहरे मास्क के भीतर छुपे हुए थे। मनुष्य का इस तरह मास्क के भीतर खो जाना बस ऐसे लग रहा था जैसे अब तक अपनी पहचान के लिये संघर्ष कर रहा मनुष्य अचानक ही राग, द्वेष, लाभ, हानि के बंधनों से मुक्त होकर निर्विकार हो गया हो। हमेशा वाचाल दिखते से लोग आज पहली बार तटस्थ दिख रहे थे और इसी तटस्थता के मध्य निजी तौर मैं कोरोना के संक्रमण और डर का प्रभाव उस मनुष्य जाति पर देख पा रहा था, जो कम से कम अब से पहले प्रकृति और उसके तमाम आयमों को स्वयं से छुद्र मानकर हेय दृष्टि से देख रही थी। बस ऐसे लगा रहा था जैसे प्रकृति ने अपनी एक हल्की सी हुंकार मात्र से जैविक सभ्यता के स्वायंभु सिरमौर मनुष्य को घुटने टेकने को विवश कर दिया हो।
इस तटस्थता के मध्य जहां देर तक मनुष्य मात्र को अचानक चेहरा विहीन देखना अजीब लगा रहा था वहीं थोड़ी ही देर में अपना चेहरा खुरदरा और दरकता हुआ सा महसूस होने लगा। दरअसल हम अब भी उस शांति प्रदाता कवच की शरण में नहीं गये थे जहां निर्वेद्य भाव से हम अस्तित्व विहीन मनुष्य हो पाते। थोड़ी ही देर में मुझे और सहचर मित्र आशीष गुप्ता को पहचान हीन मनुष्य न हो पाने की घुटन महसूस होने लगी थी। कोरोना के भय से ज्यादा आज पहली बार अल्पसंख्यक (मास्क बाहुल्य बनाम बिना मास्क का ) होने का भय नसों में रेंग रहा था। तमाम अच्छे और बुरे ख्याल बुलबुले की तरह उठकर मन की सतह पर आ रहे थे और तभी आस-पास लगी टीवी स्क्रीन पर इटली की हृदय विदारक तस्वीरें तैरने लगी।
एंकर बता रहा था या फिर बताने से ज्यादा कुछ इस तरह डरा रहा था कि अब पृथ्वी पर मनुष्य ज्यादा दिन का मेहमान नहीं है और अंततः यह तय किया गया कि बिना मास्क के हम यात्रा नहीं करेंगे और आनन-फानन में गूगल की शरण में जाकर हमने कोरोना के बारे में कुछ जानकारी और जरूरी एहतियात का अध्ययन किया। अब डर भी कुछ कम हो गया था।
खुशकिस्मती से एयरपोर्ट पर ही सेनेटाइजर और मास्क मिल गया और आखिर कार अपने होश दुरुस्त होने के बाद पृथ्वी पर आए सबसे बड़े जैविक संकट में इन कुछ हथियारों से लैस होकर हम अपनी यात्रा पर निकल पड़े। कुछ घंटे के बाद हम दिल्ली पंहुचे तब यहाँ मुम्बई जैसी तटस्थता नहीं थी, लोग सामन्य समय की तरह ही अपनी गतिविधियों में इब्तदा थे। हाँ, लोग कोरोना महामारी को लेकर चिंतित नहीं थे, पर चर्चा खूब कर रहे थे। आर्थिक राजधानी मुम्बई में जहां उदासी और सन्नाटा दिख रहा था, वहीं राजनीतिक राजधानी दिल्ली में एहतियात और सावधानी के बजाय चरित्र के अनुरूप राजनीतिक बयानबाजी का महौल पुरअसर तौर पर भाजपा और कांग्रेस के बीच कबड्डी जैसा दिख रहा था। केंद्र में सत्ताधारी पार्टी भाजपा का पूरा फोकस मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिराने में केंद्रित था और प्रधानमंत्री कार्यालय की चिंता का सबब अमेरिकी राष्ट्रपति का भारत में होने दौरा था।
फिलहाल दिल्ली में अपनी कुछ जरूरी मीटिंग और मुलाकात खत्म कर अगले ही दिन हम लोग मुम्बई वापस आ गये। बस चार दिन बाद ही होली थी। पर इस बार होली को लेकर कोई खास उत्साह नहीं बन पा रहा था। होली मेरे लिये हमेशा ही एक सामाजिक त्योहार था। पिता जी गांव (प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश) में आज भी होली का त्योहार बहुत ही सामुदायिक तरीके से मनाते हैं, जिसमें आस-पास के गांव के लोग बड़ी मात्रा में एकत्र होते हैं और देर रात तक गुझिया, ठण्दई के साथ होली के पारम्परिक लोक गीत गाये जाते हैं। उसका मुझ पर भी काफी प्रभाव मुम्बई में रहते हुए भी बना हुआ है जिसकी वजह से होली के दिन तमाम मित्र मेरे घर पर एकत्रित होते हैं और होली को हम सब सामूहिक तौर पर पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। पर इस बार कोरोना की वजह से हम इस आयोजन के लिये तमाम इच्छा के बावजूद तैयार नहीं हो सके। विश्व स्वास्थ्य संगठन के हवाले से हमने खुद को सामाजिक गतिविधियों से लगभग दूर कर लिया था । होली के शोख रंग इस बार कोरोना के स्याह भय से कुचले जा चुके थे और एक उदास समय हमारी देहरी तक पसर आया था।
और हम घर की चहरदीवारी में कैद हो गये
होली के अगले दिन से मैने और मेरी पत्नी ने तय किया कि अब इस महामारी के खत्म होने तक घर के बाहर की अपनी सभी गतिविधियों को हमें बंद करना होगा। इस फैसले की सबसे बड़ी गाज बच्चों पर गिरी और सबसे पहले सोसाइटी के पार्क में नियमित रूप से चलने वाला उनका खेल बंद करा दिया गया। हमें उतनी दिक्कत नहीं हो रही थी किताब, सिनेमा और समाचार के साथ समय ठीक-ठाक कट रहा था, पर बच्चे इस बंद से ऊबने लगे थे। उनमें अजीब सा चिड़चिड़ापन घर कर रहा था, दोनों आपस में बेवजह और बेमकसद लड़ भी जाते थे। यह हमारे लिए गम्भीर मामला था। इस व्यवहारिक परिवर्तन को हम सामान्य नहीं मान सकते थे परिणाम स्वरूप तय किया गया कि इस अवसाद के समय को हमें रचनात्मक बनाना होगा।

इस फैसले के साथ ही उम्मीद की एक नई रौशनी हमें मिल गई थी। अब हमारी हर गतिविधि में हमारे बच्चे भी शरीक हो रहे थे। किचेन से लेकर क्राफ्ट तक नये – नये प्रयोग शुरू किये गये। मां बेटे ने फैमली ढाबा खोला और मैंने अपनी बिटिया के साथ मिलकर ब्यूटी पार्लर खोला। घर का मेकओवर भी नये तरीके से शुरू किया गया और क्राफ्ट, पेंटिंग, हैंड मेड पोस्टर, पेपर बैग बनाने जैसी ढेरों गतिविधियां शुरू हो गई थीं। अवसाद के साथ चल रहा यह उदास समय अब उदास नहीं लग रहा था, बल्कि बच्चों के साथ हम भी खुद को पुनर्नवा कर रहे थे।
20 मार्च को भारत के प्रधान मंत्री जी ने भी हमारे घर में बंद रहने के फैसले पर मुहर लगाते हुुए 22 मार्च को एक दिन का कर्फ्यू घोषित कर दिया। इस फैसले का हमने पूरे मन से स्वागत किया, पर इसके साथ प्रधान मंत्री जी द्वारा घोषित उनके दूसरे फैसले, सायं पांच बजे ताली, थाली और घंटी बजाने की पक्षधरता हमसे ना हो सकी। होती भी भला कैसे? हमारे जेहन में तो हमारे कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता तैर रही थे, “जब आप के पड़ोस में लाश पड़ी हो तो क्या आप गीत गा सकते हैं? यदि हां तो मुझे आप से कुछ नहीं कहना …….!”
अब इस अवसाद काल में भला हम ताली, थाली कैसे बजाते…! खैर हमारी सोसायटी से लेकर पूरे देश में बड़े उल्लास के साथ ताली, थाली, शंख, शीटी, और घंटे-घड़ियाल बज रहे थे। ऐसा लग रहा था कि मानो हमने कोरोना को परास्त कर दिया हो या फिर उसके स्वागत में लोट-पोट हो रहे हों। खैर राजा जी की जो मर्जी वही देश की नियति। अभी कान में वाद्य वृंद की यह ध्वनियां गूंज ही रही थी कि हमारे बुद्धू बक्से में राजा जी जिरह बख्तर पहनकर फिर अवतरित हुए और मुस्कुराते हुए दुखः के साथ कहा कि 24 मार्च की रात से पूरे देश में सम्पूर्ण लॉक डाउन रहेगा, जो जहां है वह वहीं रहेगा ……..!
अब क्या था! घड़ी तो चल रही थी, पर समय करवट लेना भूल गया था। लॉक डाउन की इस अप्रत्याशित घोषणा के बाद लोग घरों से निकल कर इस तरह दुकानों की ओर भागे जैसे घर में भूकम्प के झटके आ रहे हों। जो दुकानें ग्राहक का इंतजार करते हुुए अक्सर मायूस दिखा करती थी, आज वह भी अट्टहास सी करती दिख रही थी। उनके सामने भी लम्बी भीड़ लग गई थी। लोग घरों में खाने का सामान बहुतायत में भर लेना चाहते थे। मध्यवर्गीय परिवार अपने घर को सुरक्षित बंकर में तब्दील करने में लगे हुए थे और उन बंकरों में एक निर्मम भूख कुलांचे मार रही थी। यह भूख बहुत कुछ खा लेने को बेचैन थी, जैसे मनुष्य होने का सत्य सिर्फ और सिर्फ खाना, खाना और सिर्फ खाना हो। वहीं दूसरी ओर महानगरों में फंजाई की तरह उगा हुआ एक निम्न वर्ग था जो किसी भी कीमत पर भूख और खाने को अपने जीवन से खारिज करने का यत्न कर रहा था। ये वह लोग थे जो दिन भर कमाते थे तो रात का चूल्हा जलता था ….. अब उनकी कमाई बंद हो चुकी थी और चूल्हा चुप हो गया था ……! वहाँ कोरोना के भय की जगह भूख का भय पसरा हुआ था। कुछ एन जी ओ, ट्रस्ट, और निजी तौर पर भी तमाम लोग इनकी वेदना को महसूस कर रहे थे, उनके लिये खाने और राशन का प्रबंध कर रहे थे।
आपदा के भय और भ्रम में सरकारें जिस जिंदगी को बेनूर कर देना चाहती थीं, कुछ लोग उस जीवन में किसी भी तरह से रौशनी बनाये रखने का यत्न कर रहे थे।
लॉक डाउन की वजह से मनुष्य पर तमाम संकट भले ही आ गये थे पर प्रकृति इससे बड़े सुकून में आ गई थी। प्रदूषण का लेवल कम हो रहा था, रात में आसमान के तारे अब ज्यादा रोशनी के साथ दिखते थे, हवा में एक अल्हड़ सी ताजगी महसूस होने लगी थी। हमारे जिये और देखे हुए समय में यह हवा सम्भवतः सबसे स्वच्छ रही होगी, पर अफसोस कि इस शुद्ध हवा में हम मास्क लगा कर नाम मात्र के लिये निकल पाते थे, बाकी तो हम पूरी तरह से चहारदीवारों के अंदर कैद हो गये थे।
राजनीतिक दुरभिसंधि में कोरोना काल की कसमसाती हुई वेदनाऐं, मातमी राग और शोक गीत
मार्च का महीना बीत चुका था और अप्रैल का मध्यकाल आ चुका था। सत्ता और विपक्ष स्थिति को लेकर एक दूसरे पर सवाल खड़े कर रहे थे। अब घरों में बंद निम्न आय वर्ग खास तौर पर अन्य प्रदेश में आजीविका के लिये रह रहे लोग इस बंदी से घबराने लगे थे वह किसी भी सूरत-ए-हाल में अपने घर लौट जाना चाहता था। अब तक तो पुलिसिया रौब में वह किसी तरह अपनी सीलन भरी कोठरियों में दिन काट लिये थे, पर अप्रैल के मध्य काल आते–आते उनका हौसला भूख और वंचना के आगे दम तोड़ चुका था। इस श्रमजीवी समाज के सामने अब सिर्फ दो रास्ते थे: एक यह कि वह भीख मांग कर भोजन करे और दूसरा यह कि वह पुलिसिया रौब के सामने सीना तान कर खड़ा हो जाये और वंचित जिंदगी को दांव पर लगाकर अपनी पारम्परिक जिंदगी को जीत ले।
दिल्ली के प्रवासी मजदूरों ने इस मामले में पहल की और वह पैदल या सायकिल से ही अपने मूल घर की ओर निकल पड़े। सड़कों पर एक जन सैलाब उमड़ पड़ा। पांव में छाले और आंखो में एक नई जिंदगी की उम्मीद लिये लोग सड़कों पर चल रहे थे। कितने नौनिहाल भूख प्यास से बेसुध, रोते–बिलखते चले जा रहे थे। मेरे होशो-हवास में मेरे द्वारा देखा गया यह भारत का अब तक सबसे व्यथित करने वाला दृश्य था। सन 1947 में विभाजन के समय लोगों के पलायन का किस्सा हमने पढ़ा था, पर अब उससे भी भयावह दृश्य हम देख रहे थे। लोग 1000, 1500, 2000किलोमीटर की यात्रा पर पैदल चले जा रहे थे।
दिल्ली के बाद मुम्बई, गुजरात और अन्य प्रदेश के लोगों ने भी हिम्मत जुटाई और एक भयावह सफर के पथिक हो गये। कुछ किस्मत वालों को राह में मददगार मिले तो कुछ बदकिस्मत रास्ते में ही काल कवलित हो गये। सड़क और ट्रेन दुर्घटना में भी कई सौ लोग मारे गये। पूरे देश में शोक गीत सी रुदाली की सिसकियां सुनाई दे रही थीं। इतनी भयावह स्थिति पर विपक्ष की तेज चिल्लाहट के बाद आखिरकार प्रदेश सरकारों में थोड़ी मनुष्यता और चेतना का संचार हुआ और उन्होने केंद्र सरकार से अपने प्रवासी लोगों को वापस बुलाने के लिये ट्रेन की मांग की। केंद्र ने ज्यादा ना सही कुछ ट्रेनों को मंजूरी दी और लोगों को थोड़ी राहत महसूस हुई। बहुत से लोग लोगों ने दुगुना किराया देकर तो कुछ लोग फ्री में भी घर तक पंहुचाये गये। जाने कितने ही लोग जानवरों की तरह ट्रकों में लद कर घर पहुंचे।
मई के मध्यकाल से आवागमन में थोड़ी छूट दिखने लगी। लोगों ने राहत की सांस ली। जो जैसे भी भाग सकता था अपने –अपने घरों को वापस जा रहा था। मई के अंत से सरकार ने कई रूटों पर कोविड स्पेशल ट्रेनों के संचालन को हरी झण्डी दी। इन ट्रेनों के संचालन से मध्यवर्ग में भी अपनी पैत्रिक भूमि की ओर वापस लौटने की सुगबुगाहट शुरू हुई। मुम्बई और पूरे महाराष्ट्र में कोरोना का संक्रमण बढ़ता जा रहा था। उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में रह रहे मेरे परिवार के लोग भी मुम्बई में तेजी से बढ़ते संक्रमण को लेकर परेशान थे। दिन भर में कई –कई बार फोन कर कुशल क्षेम पूछते और किसी भी तरह से घर आ जाने के लिये कहते, दूसरी ओर हमें लगता कि हम जब तक घर में हैं, पूरी तरह से सुरक्षित हैं। अंततः यह देखते हुए कि इस महामारी के चलते अभी अगले कई महीनों तक सिनेमा इंडस्ट्री सुचारु रूप से शुरू नहीं होने वाली है और बच्चों के स्कूल भी अभी नहीं शुरू हो पायेंगे।
ऐसी स्थिति में मई के अंत तक हमने भी निर्णय लिया कि अब हमें भी घर वापस हो जाना चाहिये। अब हमारे सामने प्रश्नचिन्ह था कि किस माध्यम से यात्रा की जाये। पहली प्राथमिकता थी प्लेन से यात्रा की जाये, पर लगातार प्लेन के कैंसिल होते जाने की वजह से यह विचार जल्द ही खारिज हो गया। पत्नी और बच्चे कार से इतनी लम्बी यात्रा को तैयार नहीं थे, अंतिम विकल्प ट्रेन थी और सात जून की ट्रेन का टिकट पाने में हम कामयाब हो गये। 12 मार्च के बाद 7 जून को हम पहली बार अपनी सोसायटी से बाहर निकल रहे थे।
यह यात्रा अन्य दिनों की यात्रा जैसी नहीं थी, बल्कि यह किसी रणक्षेत्र में जाने जैसी थी। स्किन का हर हिस्सा पूरी मुस्तैदी और गम्भीर ताकीद के साथ ढका हुआ था। आंखो पर चश्मा, हाँथ में नॉन रियूजेबिल ग्लव्स, जेब में सैनेटाईजर और रास्ते भर के लिये तकरीबन पंद्रह लीटर पानी और पर्याप्त मात्रा में खाद्य सामग्री आदि, आदि…..। रात के 11:30 बजे लोकमान्य तिलक टर्मिनल से हमारी ट्रेन थी और कोविड के हिसाब से हमें 10:30 बजे तक स्टेशन पर पंहुच कर मेडिकल चेकअप कराना था। स्टेशन तक जाने के लिये हमने कोविड नियम का पालन करते हुए ओला कैब की दो टैक्सी बुक कर रखी थी जिसे हमे ठीक 8:00 बजे पिक करना था और हम पूरी तरह से तैयार होकर उसका इंतजार कर रहे थे।
8:10 तक इंतजार करने के बाद कैब का आना तो दूर कैब की तरफ से कोई मैसेज भी नहीं आया। ठीक 8:15 पर ओला एप्प पर हमारी बुकिंग का रिकार्ड गायब हो गया। आनन-फानन में एक दोस्त ने अपने किसी दोस्त को वैगनार के साथ भेजा और 9:00 बजे हम घर से निकल पड़े स्टेशन के लिये। मुम्बई की सड़क को इतना खाली और खामोश हमने इससे पहले कभी नहीं देखा था। कोई ट्रैफिक नहीं, कोई ओवर टेकिंग नहीं और सब कुछ बहुत शांत था। जिस यात्रा में पहले घण्टे भर से ज्यादा का समय लग जाता था, आज वह बस कुछ मिनट में पूरी हो गई थी।
स्टेशन पर जरूरी प्रक्रिया पूरी कर हमारा ट्रेन का सफर शुरू हुआ। हमारे कम्पार्टमेंट में हमारा ही परिवार था इसलिये बहुत तनाव नहीं था, एहतियातन धर्मपत्नी जी ने सीटों को अपने हाँथ से सैनेटाइज कर लिया और इस दुख के साथ चल पड़े कि पता नहीं कब तक के लिये अपने महबूब शहर से हम दूर जा रहे हैं!
आठ जून को रात नौ बजे हम प्रयागराज के छिवकी स्टेशन पर उतर गये जहाँ मेरा भतीजा अपने मामा जी के साथ हमारी प्रतीक्षा कर रहा था। पूरी एहतियात के बावजूद ट्रेन से उतरते ही यह भय मन में कौंध रहा था कि कहीं ऐसा ना हो कि हम अंजाने में कोरोना का संक्रमण ले आये हों, इसलिये भतीजे ने जब हमारा सामान कैरी करना और पांव छूना चाहा तो उसे दूर से ही रोक दिया। वह मन मार कर ड्राइविंग सीट पर जा बैठा और हम मध्य सीट पर बैठ कर घर आ गये। रात के करीब ग्यारह बजे हम घर आ गये थे। मां और पिता जी को पहले ही कई बार कहा था कि वह लोग शहर वाले घर चले जांये, पर वह तो पुत्र से ज्यादा पोते-पोती का इंतजार कर रहे थे। वह अपनी आंखो से सबको स्वस्थ देख लेना चाहते थे, इसलिये मेरे तमाम आग्रह के बावजूद वह घर पर ही थे हमारा इंतजार करते हुुए। यह पहली बार था जब पिता जी और मां को बार – बार मुझे यह कहना पड़ रहा था कि “मां दूर से…!”
फिलहाल अगले दिन सुबह-सुबह सरकारी अस्पताल जाकर अपना और पूरे परिवार का चेक अप करवा लिया और अपने चौदह दिन के ‘सेल्फ क्वारनटाईन पीरियड’ भर के लिये बामुश्किल मां और पिता जी को दूसरे वाले घर के लिये भेज दिया।
उत्तर प्रदेश का लॉक डाउन
मुम्बई में हमने एक बेहद अनुशसित लॉक डाउन को देखा और जिया था। अब हमारे सामने उत्तर प्रदेश का लॉक डाउन था, जिसे सहज ही मैं कह सकता था यह पूरी तरह से अराजक था। यहाँ न तो लोग एहतियात बरतने के प्रति सजग दिख रहे थे, न ही किसी सरकारी नियमावली की परवाह थी। बाजार अपनी पूरी रौनक के साथ गुलजार थे। बस बाजार शनिवर और रविवार बंद रहते थे, पर सड़के मुख्तसर तौर पर भरी ही रहती थीं। लोग एक दूसरे से पूरी नजदीकी के साथ मिल रहे थे। बस हम थे जो अपने मन में एक मुम्बई लेकर आये थे और कुछ दिनों से दूरी बरतने की जो आदत बन गई थी उसका निर्वाह कर रहे थे। सैनैटाइजर और मास्क दोनों को लोग लेकर तो चलते थे पर जेब से कुछ ही लोग निकालते थे।

उत्तर प्रदेश आये हुए दो माह होने वाले हैं। कोरोना संक्रमण के मामले यहाँ भी तेजी से फैल रहे हैं, पर अफसोस कि लोग यहाँ अब भी न तो बदले हैं, न सुधरे हैं। वह आज भी पूरे गर्व से यह कहते हुए घूम रहे हैं कि “जिस दिन काल आ जायेगा उसको कोई नहीं रोक पायेगा”। बस कुछ लोग हैं जो खुद के प्रति और दूसरों के प्रति सजग हैं पर यह संख्या बहुत ही कम है। शेष लोगों को उनके ईष्ट सद्बुद्धि दें ताकि वह अपने परिवार अपने समाज के प्रति इस लापरवाही से बच सकें।
इन्ही शुभकामनाओं के साथ हमारा एकांतवास तब तक चलता रहेगा जब तक कि स्थितियां नियंत्रण में नहीं आ जाती। इस एकांतवास में तमाम रचनात्मक गतिविधियां स्थगित कर बस पेड़ लगाने का अभियान जारी है और इस कार्य में मेरा भरपूर साथ दे रहा है हमारे खेतों में काम करने वाला ‘मंथे’ । इन पेड़ों पर जब कभी फल आयेंगे तो उन पर पहला हक उसी का होगा क्योंकि रोप भले मैं रहा हूं पर उनकी देखभाल में बड़ी भूमिका मंथे के पास ही होगी।