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Corona war: लॉक डाउन, मैं और आसपास: 51

प्रबोध राज चंदोल

“मजदूरों की होमसिकनेस और मजबूर मीडिया” 

लॉकडाउन शुरू होने के कुछ दिनों बाद ही मीडिया में एक खबर चालू हो गई थी और वह थी मजदूरों के पलायन की। इस खबर को बनाने के लिए कुछ मीडियाकर्मी तो इतने उत्साहित रहते थे कि वे इसे कोरोना जैसे गंभीर वायरस के खतरे से भी अधिक महत्व देते लगते। एक बात मुझ जैसे साधारण आदमी को भी समझ में आ रही है कि सरकार का एक सूचना तंत्र होता है, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काम करता है और यदि सरकार ने लॉकडाउन जैसा कठोर कदम उठाया है तो उसके पास कोई न कोई ऐसी विश्वसनीय सूचना अवश्य होगी कि यह कदम उठाना उसकी विवशता बन गई, अन्यथा कौन राजनेता चाहता है कि देश के सभी काम-धन्धें बन्द हो जाएं? जनता के द्वारा चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार के प्रतिनिधियों से जनता के हित में काम करने की अपेक्षा होती है न कि अहित में। प्रिंट मीडिया हो या इलैक्ट्रोनिक मीडिया पिछले दिनों दोनों ने इस प्रकार से मजदूरों के पलायन की खबर प्रसारित की कि कभी-कभी तो मुझे यह लगा कि जैसे मजदूरों के पलायन के पीछे कोरोना वायरस फैलने के कारण हुआ लॉकडाउन नही बल्कि केन्द्र या राज्य सरकार जिम्मेदार है!
बहुत पहले मैंने अपनी बेरोजगारी के दिनों में अनेक वर्ष मीडियाकर्मियों के बीच बिताए हैं। मैं उनके बीच टाइम-पास वाला आदमी था। कभी किसी के साथ खड़े होकर बात करता रहता तो कभी किसी अन्य के साथ गप्प करते हुए चाय पी ली। चायवाला भी मेरा मित्र बन गया था। उसके पास कई सेवक काम करते थे। जब भी वह अपने पीने के लिए चाय बनवाता तो बिना मेरे मांगे या दाम लिए उसमें से मेरे पीने के लिए भी भिजवा देता था। उस समय इलैक्ट्रोनिक मिडिया का नही प्रिंट मिडिया का जमाना था तो फोटो पत्रकारों का भी एक अलग ही महत्व था। अखबार या मैग्ज़ीन में फोटो छपने से फोटो पत्रकार को गर्व की अनुभूति होती थी। एक फ्रीलांस फोटो पत्रकार तो मेरे साथ ऐसा जुड़ गया कि उसके कहने पर मैंने कुछ स्टोरी भी की और मेरी वे स्टोरी उसके द्वारा लिए गए छायाचित्रों के साथ सम्मानित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुईं। उस समय एक प्रतिस्पर्धा सी रहती थी कि कौन पत्रकार या फोटोग्राफर कुछ एक्सक्लूसिव लेकर आता है। फोटो या खबर जितनी खास या सबसे अलग होती, उतनी ही उस स्टोरी या फोटो का महत्व होता। कई फ्रीलांस फोटोग्राफर तो कई-कई अखबारों में अपनी एक्सक्लूसिव फोटो बेच देते थे। उस समय दो प्रमुख भारतीय न्यूज़ ऐजेन्सियां थीं एक ’वार्ता’ और दूसरी ’भाषा’। फ्रीलांस पत्रकार की एक्सक्लूसिव फोटो या स्टोरी तो ये एजेंसियां भी खरीद लेती थी। मैं अक्सर देखता था कि चाय की दुकान पर सभी पत्रकार आपस में मित्र की भांति मिलते-जुलते हुए एक-दूसरे से उस दिन होने वाली सरकारी और गैरसरकारी घटनाओं को कवर करने के बारे में एक-दूसरे से चर्चा में लिप्त रहते थे। लेकिन उन लोगों के बीच प्रतिस्पर्धा की पराकाष्ठा यहां तक होती थी कि साथ खड़े रहकर बात करते हुए भी एक-दूसरे से उस दिन की खास खबर को छिपाने में भी कोताही नही करते थे। कई बार तो मैंने देखा कि दो पत्रकार एक साथ चाय पीने के बाद एक दूसरे से यह कहकर चले जाते कि वह कवरेज के लिए जा रहे हैं, परन्तु दोनों में से कोई भी एक दूसरे को यह नही बताते थे कि कहां और कौन सी कवरेज के लिए! पर जब दोनों का एक ही कवरेज पर आमना-सामना हो जाता तो खिसियानी मुस्कराहट के साथ अपने काम में लग जाते।

चूंकि मेरे शब्दकोष में मित्रता या आत्मीयता शब्द की ऐसी कोई व्याख्या नहीं थी जिसमें एक-दूसरे से सूचनाओं को छिपाया जाए तो मैं अक्सर उनके बीच में असहज सा हो जाता और सोचता कि ये सब आपस में इतना निकट होते हुए भी खबर को छिपाकर एक-दूसरे को अंधेरे में रखने का प्रयास कैसे कर लेते हैं? मैं तो बस उनके आपसी व्यवहार को बुद्धि भ्रमित मानव की तरह कानों से सुनता और आंखों से देखता रहता था।

आजकल जब भी मैं टी. वी. पर या अखबारों में मजदूरों के पलायन वाली खबरें देखता हूं, तो वही एक्सक्लूसिव पत्रकारिता वाली गंध का अनुभव करता हूं। वास्तव में मजदूरों के पलायन की कोई भी खबर एक्सक्लूसिव है ही नहीं। चूंकि सभी जान रहे हैं कि जो मजदूर रोजगार के लिए अपने घरों से दूर चले गए थे, वे लॉकडाउन में काम के अभाव में वे अपने घरों को लौटने का प्रयास कर रहे हैं। आज जो श्रमिक वर्ग पलायन कर रहा है, वह कई वर्ष पहले अपना घर-बार और माता-पिता को छोड़कर कई सौ किलोमीटर दूर रोजगार करने के लिए गया था। घर के भीतर मिलने वाली सुविधाओं और घर से बाहर निकलकर मिलने वाली सुविधाओं को ये मजदूर लोग भली प्रकार से जानते हैं। घर से दूर जाकर श्रम बेचकर रोजी-रोटी कमाने का दूसरा नाम ही जीवन का संघर्ष है।

आज जब परिस्थितिवश ऐसे श्रमिकों का रोजगार चला गया तो इन लोगों की चिंता दोहरी हो गई है। एक तो उन्हें अपने घरवालों की चिंता है कि जब वे अपने घरवालों को रुपए-पैसे नही भेज पाएगा तो वे कैसे अपना जीवनयापन करेंगे? और दूसरी चिंता भी इन श्रमिकों को अपने घरवालों की ही है और वह यह कि उसके घरवाले भी स्वंय उसके कुशलक्षेम की चिंता में होंगे कि उनका कमाऊ पूत शहर में न जाने किस हाल में होगा और यदि वह दुर्भाग्य से कोरोना की चपेट में आकर विदा हो गया तो उससे कभी मुलाकात भी नही हो पाएगी। इसलिए अपने घर से सैंकड़ों किलोमीटर दूर बैठा वह मजदूर चाहता है कि उसका यह संकटकालीन समय अपनों के बीच बीते और यदि उसके पास कुछ जमा-पूंजी बची है तो वह भी केवल अपने ऊपर ही खर्च न होकर घर के सभी लोगों के काम में आए। यही तो भारतीय संस्कृति की संयुक्त परिवारवाली सोच है जिसे शहरों में रहकर स्टोरी करने वाले पत्रकार कभी नही समझ पाएंगे। इस मायने में पत्रकारों द्वारा जिस प्रकार से इन मजदूरों की स्टोरी प्रस्तुत की जा रही हैं, वह सत्यता से परे एकतरफा दिखाई देती हैं।

एक अन्य वास्तविकता यह है कि हमारे देश का मेहनतकश आदमी कभी खाली रह ही नहीं पाता है। जब गांव में फसल से सम्बन्धित कोई काम नहीं होता तो वह खाली समय में अपने घर से निकलकर दूर परदेश में कमाने चला जाता है और रबी या खरीफ की फसल के कटाई के समय पुनः अपने गांव लौटकर खेत-खलिहान में अपने घरवालों का हाथ बंटाता है। यह वह आदमी है जो अपने बूढ़े माता-पिता को निराश्रित गृह में नहीं छोड़ता है। अपने विकलांग सम्बन्धी को भी असहाय नहीं छोड़ता है बल्कि हर समय उसका सहारा बनकर खड़ा रहता है। तभी तो जब देश के प्रधानमंत्री ने कहा कि अपने घर के बूढ़े लोगों का अधिक ध्यान रखें तो ये सभी मजदूर अपनों के साथ रहने को आतुर हो गए और इस आतुरता ने उनमें अपने घर में अपने सम्बन्धियों के साथ रहने का एक जुनून सा पैदा कर दिया।

एक्सक्लूसिव पत्रकारिता के छद्म वाहक उस मजदूर की मनःस्थिति का सम्भवतः कभी वास्तविक आकलन नहीं कर पाएंगे। सड़कों पर एक्सक्लूसिव स्टोरी के लिए घूमने वाले पत्रकार भी भली-भांति जानते हैं कि घर पर जो सुविधाएं होती हैं, वे सुविधाएं घर से बाहर निकलने पर नहीं होती हैं और उसमें भी यदि लॉकडाउन जैसे हालातों में घर से दूर जाना पडे़ तो जो सुविधाएं आम दिनों में मिल जाती हैं, वे भी नही मिलेंगी। ऐसे में जब ये पत्रकार अपने घरों को जाते हुए इन मजदूरों के बीच में जाकर उनकी मजबूरी को उनके सामने बार-बार उठाने का प्रयास करते हैं तो कहीं इन पत्रकारों का उददेश्य मजदूरों को उकसाना तो नहीं है ताकि कोई एक्सक्लूसिव स्टोरी उभर कर सामने आ जाए? यह बात मैं आरोप लगाने के लिए नहीं बल्कि अपने मन में उठे सवाल के वशीभूत कह रहा हूं।

अस्सी के दशक के आस-पास की घटना है। मैं एक मीटिंग के सिलसिले में दो अन्य लोगों के साथ दिल्ली से त्रिवेंद्रम गया था। सफर काफी लम्बा था, पर उस समय जहाज से यात्रा करना काफी महंगा पड़ता था जो मेरे जैसे आदमी के लिए संभव नहीं था। दिल्ली से तीन लोगों को उस मीटिंग के लिए रेल से वहां जाना था जिनमें एक मैं और मेरे साथ अन्य दो लोग थे। वे दोनों मुझसे उम्र में काफी बड़े थे तो मैं स्वयं को सुरक्षित महसूस कर रहा था और मुझे यह अनुभूति होती रही कि जैसे मेरे साथ मेरे दो अभिभावक हैं और घर से इतनी दूर कहीं कुछ ऐसी-वैसी बात हुई तो वे संभाल लेंगे।

हमने दिल्ली से ही जाने व आने की ट्रेन की टिकटें एक साथ एक ही ट्रेन से बुक करवा ली थीं। वहां जाते हुए हमारी टिकेट कन्फर्म थीं परन्तु वापसी में उन दोनों की टिकटें तो कन्फर्म थीं परन्तु मेरी टिकेट प्रतीक्षा सूची में थी। उन दोनों ने मुझे समझाया कि वहां से हमारी वापसी के दिन तक मेरी टिकेट भी कन्फर्म हो जाएगी तो मैं निश्चिंत होकर उनके साथ चला गया। जब वहां हमारा काम समाप्त हो गया और हमारी वापसी के दिन तक भी मेरी सीट कन्फर्म नही हुई तो मैं विचलित हो गया। दोनों वरिष्ठ लोगों ने मुझे समझाया कि मैं प्रतीक्षा की टिकेट से ही उनके साथ उसी ट्रेन से चलूं तो वे मुझे अपनी सीटों पर ही बैठा लेंगे और टी. टी. से बात भी कर लेंगे परन्तु मेरा मन नही माना, कहीं टी. टी. न माना तो? जेल ही कर देगा?

वे दोनों तो चले गए और मैं उस अनजान प्रदेश में, जहां की भाषा भी मैं नहीं जानता था, वहां अकेला, बेसहारा रह गया। अब घर वापसी कैसे हो यही चिंता सताने लगी। ट्रेन की टिकेट मिलने का तो सवाल ही नहीं था और वहां  से घर की लगभग 2300 किलोमीटर की दूरी थी। उस शहर में कोई मुझे पहचानता भी नहीं था तो किससे जाकर सहायता मांगता? बड़ी उलझन सी हो गई और कुछ देर तक तो दिमाग ने काम करना ही बन्द कर दिया। अकेलेपन और बेसहारे का घोर एहसास मुझे होने लगा और अपने घर की याद भी आने लगी। कुछ और समय के बीत जाने पर मुझे घर की याद इतनी प्रचण्डता से आने लगी कि मैं पागल सा हो गया, मन कह रहा था कि अभी किसी तरह से घर पहुंच जांऊ! ऐसी स्थिति में मैंने निर्णय लिया कि चाहे कुछ भी हो, कैसे भी जाना पड़े पर अब तो घर के लिए चलना ही होगा।

त्रिवेन्द्रम से मद्रास लगभग 730 किलोमीटर था। मैं बस पकड़ते हुए मद्रास पहुंचा। वहां जाते ही सीधे रेलवे स्टेशन गया और सौभाग्य से मुझे दिल्ली जाने के लिए अगले दिन की ट्रेन की टिकेट मिल गई। परन्तु मेरे मन में गृहातुरता इतनी अधिक बलवती हो गई थी कि होटल में रातभर मुझे नींद नही आई और सुबह जब रेल में जाकर बैठ गया तो ही कुछ चैन मिला।

घर से दूर किसी व्यक्ति पर यदि कोई संकट आता है तो उसे सबसे पहले घर और घरवालों की याद आती है और यह याद बड़ी तीव्र तथा विचलित करने वाली होती है। असल में यह मन की एक स्थिति है जिसे अंग्रेजी में ’होमसिक’ कहते हैं। घर से बाहर रहने पर जब संकटजनित विकट स्थिति आती है और उसमें भी जब अकेलेपन का एहसास प्रचण्ड हो जाए तो उससे खिन्नता सी पैदा हो जाती है। ऐसे में व्यक्ति के मन में सबसे पहले घर पहुंचने की बात आती है और इसके अतिरिक्त दुनिया में और कुछ दिखाई नही देता। अतः घर की ओर पलायन करते इन मजदूरों के मन की स्थिति को देखने के लिए एक अलग दृष्टि की आवश्यकता है। परन्तु आधुनिक पत्रकारिता जगत का झुकाव कहां और किस ओर रहता है यह भी तो देखना होगा। हाथ में कैमरा लिए इलैक्ट्रोनिक मिडिया के अनेक पत्रकार जो देश के राजमार्गों की खाक छान रहे हैं, उनका लक्ष्य क्या है यह भी देखना होगा? वस्तुस्थिति को धरातल पर लाना एक बात है और एक्सक्लूसिव फोटो या रिपोर्ट बनाने और दुनिया में उस रिपोर्ट का तहलका मचाने का लक्ष्य निर्धारित कर अन्तर्राष्ट्रीय एवार्ड का एक सपना संजोकर पत्रकारिता करना दूसरी बात।

ऐसा लगता है जैसे पत्रकारिता जगत में अपने घरों को जाते इन मजदूरों की कवरेज करने की प्रतियोगिता चल रही है। कोई इन्हें मजबूर बता रहा है तो कोई बेबस, लाचार और बेसहारा बता रहा है। अपने कंधों पर बैग लटकाए और सिर पर सामान ले जाते इन मजदूरों का इन तथाकथित पत्रकारों ने मजाक बनाकर रख दिया है। आप एक बात पर विचार करें कि यदि हममें से किसी को शहर से अपने गांव जाना हो तो क्या कुछ इसी प्रकार से हम अपना सामान और अपने परिवार को नहीं ले जाएंगे जैसे ये श्रमिक ले जा रहे हैं? हां, एक अन्तर है कि जब हम जाते हैं तो आवागमन के साधन और सवारी पूरी तरह से उपलब्ध रहती है, पर वर्तमान काल में इनके लिए वह साधन उपलब्ध नहीं हैं। तो इसका उत्तर यह है कि यह समय ही संकटकाल का है, प्रधानमंत्री सहित अनेक नेता लोगों से कह चुके हैं कि आप जहां हैं, वहीं रहें और इसके लिए आपको यथासंभव हर प्रकार की सहायता दी जाएगी। सभी को यह भी जानकारी है कि सार्वजनिक यातायात नहीं चल रहा है और ये बात ये सभी मजदूर भी जानते हैं। परन्तु फिर भी अपने घरों को जाना चाहते हैं। चूंकि इनकी परिस्थितियां ऐसी होंगी जिससे घर जाना जरूरी है। ऐसे में यह कहना कदापि गलत नहीं होगा कि ये लोग अपने घर की ओर रुख करने से पहले सभी बातों पर समुचित विचार करके और हिम्मत जुटाकर ही यह फैसला लेते होंगे कि अब तो घर जाना ही है, चाहे रास्ते में कुछ भी हो। इनके फैसले पर मैं कुछ नहीं कहूंगा क्योंकि यह तो मनुष्य का मन है, जिस ओर चल पड़ा तो चल पड़ा! पर यह जरूर कहूंगा कि जिन हालातों में भी ये अपने घरों को जाने के लिए मजबूर हैं, उसके लिए तो इनके साहस की प्रशंसा करनी चाहिए न कि इन्हें बेबस, लाचार और मजबूर कहकर इनका अपमान करना।

मैंने एक्सक्लूसिव रिपोर्ट बनाने के लिए निकले कई जांबाज पत्रकारों की रिपोर्ट टी. वी. पर देखी हैं जिनमें वे कुछ मजदूरों और उनके परिवार वालों से बात करते हैं। पर किसी रिपोर्ट से भी मुझे ऐसा आभास नहीं हुआ कि कोई भी मजदूर अपने आप को बेबस और लाचार कहलवाना चाहता हो? हां, उन्होंने अपनी परेशानियां अवश्य बताई हैं तथा उनकी बातों से यह अवश्य लगता है कि सम्भवतः इन कैमरे वालों को अपनी परेशानी बताने से उन्हें सरकार या किसी अन्य स्रोत से अपने घर जाने में कुछ मदद मिल जाए! सच तो यह है कि ये मजदूर कभी बेबस हो ही नहीं सकते हैं क्योंकि ये मेहनतकश लोग हैं जो अपने पसीने को बेचकर अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं और जो व्यक्ति शारीरिक परिश्रम करना जानता है वह कभी बेबस नहीं हो सकता।

एक्सक्लूसिव रिपोर्ट बनाने की लालसा रखने वाले पत्रकारों से मेरा एक सवाल और है कि जब ये श्रमिक भरी गर्मियों में बड़े-बड़े भवनों के निर्माण, भट्टों पर ईंट बनाने के काम, सड़क निर्माण, सड़कों पर भारी वजन का रेहड़ा या आप ही को साईकिल रिक्शा से खींचकर अपना श्रम बेच रहे होते हैं, तो तब इन पत्रकारों में से कितनों ने जाकर इनके हालातों पर अपना कैमरा चलाया? इन पत्रकारों को यह पता क्यों नहीं चलता कि जब एक श्रमिक महिला भवन निर्माण के चलते गारे का तसला या ईंट का चट्टा लेकर जा रही होती है तो उसका छः महीने का बच्चा वहीं कहीं आस-पास एक पतली सी गुदड़ी पर लेटा हुआ होता है। इन श्रमिकों के बनाए भवनों के वातानूकूलित कमरों में बैठकर ही तथाकथित समाज सुधारक और पत्रकार इनके अधिकारों की लम्बी बातें करते हैं, इन्हें बेबस और मजबूर बताते हैं परन्तु क्या कोई भी मजदूर आज तक इनके पास यह कहने आया कि मैं मजबूर हूं या आप मेरी मदद कर दो!


आज जब वे ही श्रमिक अपनी हिम्मत और दृढ़ता के बल पर अपने घर जाने का साहस कर रहे हैं तो ये पत्रकार अपनी रिपोर्ट और अपनी फोटो को एक्सक्लूसिव और कीमती बनाने के लिए कभी उन मजदूरों के बच्चों को सड़क पर सोता दिखाते हैं, कभी किसी महिला द्वारा अपने बच्चे को अपनी अटैची पर लिटाकर ले जाते दिखा रहे हैं, कभी किसी श्रमिक द्वारा अपने बच्चे को अपने कन्धे पर बैठाकर ले जाते दिखा रहे हैं, कभी किसी को अपने मालवाहक रिक्शा पर सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय करने को लेकर स्टोरी बना रहे हैं और इसी तरह सब एक्सक्लूसिव पिक्चर बनाने के प्रयासों में लगे हैं। मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि कोई भी एन्कर या साक्षात्कारकर्ता और कैमरामैन इन श्रमिकों में विद्यमान पुरुषत्व और उनके साहस को क्यों नहीं देख पा रहा है? काश! कि इन मजदूरों की मजबूरी की छायाचित्र प्रदर्शनी बनाने के बजाए इनके पराक्रम और साहस को दिखाती हुई तस्वीर या खबर को एक्सक्लूसिव बनाने की चाहत पत्रकारिता जगत के इन सूरमाओं में होती। दूसरे लोगों की संघर्षगाथा पर बात करना या उनके जीवन के संघर्ष की तस्वीर उतारना तो सरल होता है, जीवन की सार्थकता तो तब है जब कोई हमारे जीवन के क्रियाकलापों को अनुकरणीय दर्शाते हुए हमारी तस्वीर लेने की अभिलाषा करे।

मुझे तो आश्चर्य होता है इस श्रमिक वर्ग के जोश को देखकर, ये सभी विपरीत परिस्थितियों का मुकाबला बड़े धैर्य के साथ करते हुए अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हैं। कितनी ही बार अनेक जगहों पर इनके मनोबल को तोड़ने के प्रयास हुए पर इनकी उमंग के समक्ष सभी विफल रहे। इनके द्वारा लॉकडाउन का उल्लंघन करना तो मुझे भी ठीक नहीं लगता पर अपने परिवार के लोगों से मिलने की इनकी अभिलाषा के सामने यह उल्लंघन बौना प्रतीत होता है। इन श्रमिकों के अपने घर की ओर लौटने के अभियान से बस एक ही डर लगता है कि कहीं अपनों से मिलने की चाहत में ये उन्हें कोरोना जैसी भयंकर बीमारी का उपहार भेंट करने की गलती न कर बैठें!

प्रबोध राज चंदोल
मोबाईलः 9873002562
मई 27, 2020

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