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Corona War: लॉकडाउन, मैं और आस-पास: 56

प्रबोध राज चंदोल

लॉकडाउन और धरती का लौटता वैभव

लॉकडाउन ने सारा जनजीवन ठप्प सा कर दिया है। कोरोना काल में अपने को कुदरत के कहर से बचाने का एक मानवीय उपक्रम लॉकडाउन है, पर आपदाओं से निपटने के लिए यह व्यवस्था कदापि स्थायी समाधान नहीं है। घरों में बन्द रहना भी प्रकृति के अनुकूल नहीं है।

कोरोना वायरस कोई पहली आपदा हो, ऐसा भी नहीं है। सदियों से न जाने कितनी आपदाएं इस धरती पर आ चुकी होंगी। कभी आंधी-तूफान, कभी जल-प्रलय, कभी सूखा, कभी भूकम्प तो कभी महामारी। असल में आपदाएं लाना कुदरत का एक रास्ता है जो धरती के जीव-निर्जीव तंत्र में संतुलन स्थापित करता है। कोरोना वायरस भी इससे अछूता नहीं है, पर इसमें और पहले की आपदाओं में एक मूल भेद यह दिखाई देता है और वह यह है कि पहले की आपदाएं कुछ क्षेत्रों तक सीमित रही थीं, परन्तु यह संपूर्ण विश्व में व्याप्त हो गई। इससे यह बात सिद्ध होती है कि कोई न कोई बात अवश्य है जिससे कि धरती के नैसर्गिक जीवन में व्यवधान उत्पन्न हो रहा है और अब कुदरत कुपित होकर सारी धरती के जीर्णोद्धार करने पर उतारू हो गई है।

5 जून को समस्त विश्व में पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। इस अवसर पर अनेक देशों में असंख्य संस्थाएं अपने तरीके से पर्यावरण के प्रति लोगों को जागरूक करती हैं, अनेक व्याख्यान और आलेख लिखे जाते हैं और फिर ये संस्थाएं इस अवसर पर आयोजित समारोह की झांकियों का प्रदर्शन वर्षभर करती रहती हैं और बड़ी बड़ी राशि अनुदान के रूप में प्राप्त कर अपना एजेंडा पूरा करती हैं। केन्द्र की और विभिन्न राज्य सरकारों में भी एक पर्यावरण मंत्रालय बना दिया जाता है और पर्यावरण बचाने के लक्ष्य की औपचाकिता पूरी कर दी जाती है।

हमें यह समझ में क्यों नही आता है कि पर्यावरण किसी संस्था या किसी एक मंत्रालय का विषय नहीं है बल्कि इसे तो समग्रता का वह अभियान होना चाहिए जिसमें प्रत्येक मनुष्य नियमित दिनचर्या में इसके साथ जीने की चाहत रखे। मानवीय तथाकथित प्रयासों से पर्यावरण यदि सुधर जाता तो कोविड-19 जैसी त्रासदी क्यों आती? लॉकडाउन ने यह सिद्ध कर दिया है कि यदि प्रकृति के कामों में मानवीय हस्तक्षेप कम हो जाए तो पर्यावरण स्वयं ही अपना उद्धार कर लेगा पर यह बात हममें से किसी के भी गले के नीचे नहीं उतर रही है।

लॉकडाउन के कारण मनुष्य की पर्यावरण विरोधी गतिविधियां जैसे ही बन्द हुई, दिल्ली के पास से बहने वाली यमुना नदी हो या कानपुर के पास की गंगा नदी, सभी का पानी स्वच्छ हो गया। यहां की वनस्पतियों में नवजीवन का संचार हो गया, वायु बिलकुल शुद्ध हो गई। सुना है कि धरती पर मानवजनित ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से आकाश में प्रकृति के द्वारा हमारी सुरक्षा के लिए बनी ओजोन लेयर में जो छिद्र हो गया था, वह भी लॉकडाउन में भर गया है। प्रकृति के इस परिवर्तन से भी हमने कोई सबक नहीं लिया और लॉकडाउन में ढील आते ही दिल्ली में मानवीय हलचल शुरू हुई तो फिर से यमुना के विषैले होने की खबर आने लगी है।

यह समझ से परे है कि आखिर मनुष्य अपने जीवन को दांव पर लगाकर कौन सा विकास करने में लगा है? सुनते हैं कि लगभग साढ़े चार अरब साल पहले पृथ्वी से थिया नाम का एक ग्रह आकर टकराया था। उसका आकार पृथ्वी से लगभग दो गुना था। उसके टकराने से दो बातें हुई- एक तो उस पिंड से निकले पानी से यह पृथ्वी पानी से भर गई और दूसरा पृथ्वी का एक हिस्सा टूटकर अलग हो गया जो अब चन्द्रमा के रूप में अन्तरिक्ष में पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा है। पृथ्वी पर जल के आने के बाद ही यहां जीव-जगत का प्रारंभ हुआ और प्रकृति ने यहां  अनेक प्रकार की वनस्पतियां, जीव जन्तु, कीट पतंग पैदा किए।

इस प्रक्रिया में धरती पर अलग-अलग पारिस्थितिक तंत्र विकसित हुए जिनके अपने-अपने जीव हैं। जैसे जलीय जीव व वनस्पतियां अलग हैं तथा मैदानी जीव और वनस्पतियां अलग हैं। कुछ जीव तो ऐसे होते हैं जो जल और जमीन दोनों पर जिन्दा रह सकते हैं। पर अनेक ऐसे हैं जिन्हें यदि जल से निकालकर जमीन पर रखने का प्रयास किया जाए तो वे मर जाएंगे और इसके विपरीत यदि जमीन के जीवों को जल में छोड़ देंगे तो वे भी जीवित नही रह पाएंगे। इसी प्रकार पृथ्वी पर हर एक पारिस्थितिक तंत्र का संपूर्ण खाद्य चक्र जैव विविधता के बल पर चलता है। उस पारिस्थितिक तंत्र के सारे जीव और वनस्पतियां उसमें उत्पन्न खाद्य के बल पर अथवा एक दूसरे को खाकर जीवित रहते हैं और अन्त में सभी नष्ट होकर निर्जीव गति को प्राप्त करते हैं और इसी चक्र से धरती का संतुलन बना रहता है।

इस धरा के बिना मनुष्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती है तथा इसी प्रकार से यदि यहां पर कोई भी नया जीवाणु या विषाणु जन्म लेता है तो यह मान लेना उपयुक्त होगा कि उक्त जीवाणु या विषाणु के जन्म से पहले यहां उसके अनुकूल जलवायु निर्मित हो गई थी अन्यथा उसकी उत्पत्ति ही नहीं होती। अतः धरती पर कोविड-19 का जन्म हुआ है तो निश्चित ही उसकी उत्पत्ति के अनुकूल वातावरणीय परिस्थितियों का भी सृजन हुआ होगा।

लगभग 30 वर्ष पहले की बात है, मैं किसी काम से पूर्वी दिल्ली के गाजीपुर गांव की ओर गया था। गांव से बाहर की ओर गन्दे पानी के बहाव के लिए एक बड़ा नाला है जिसके किनारे पर कूड़े में मरे पशुओं के अवशेष और मांस के लोथड़ों को गिद्धों का एक समूह खा रहा था। वहीं निकट में उस कूड़े में से कुछ सुअर भी अपना भोजन करते हुए उन गिद्धों के पास पहुंच गए और उन सुअरों ने गिद्धों को वहां से भगाना शुरू कर दिया। जैसे ही सुअर गिद्ध पर अपनी थूथड़ी से आक्रमण करता तो गिद्ध अपने पेट से मांस का एक टुकड़ा मुंह में ले आता और उसे सुअर के समक्ष फैंक देता। गिद्ध को ये आशा थी कि भोजन देखकर सुअर उसका पीछा छोड़कर मांस का टुकड़ा खाने लगेगा मगर सुअर मांस के टुकड़े को देखे बिना फिर से गिद्ध पर आक्रमण कर रहा था और आखिर में गिद्ध वहां से पीछे की ओर जाते गए और भाग गए। वहां गिद्ध अपना भोजन कर रहा था और सुअर अपना भोजन कर रहा था। ये दोनों अपना-अपना भोजन करेंगे तो वहां पड़े कूड़े में जीवाणु और विषाणु पैदा करने वाले कूड़े का प्राकृतिक रूप से निस्तारण हो जाएगा। गिद्ध एक पक्षी है जो ताजा या सड़ा हुआ मांस, मृत पशु और कीड़े आदि खाता है। यदि गिद्ध अपना भोजन नही करेगा तो उन पदार्थों के गलन और सड़न की प्रक्रिया में अनेक कीटाणु व रोगाणु जन्म लेंगे और नए नए रोग फैलाएंगे।

हमारे देश से गिद्ध प्रजाति खत्म होती जा रही है जैसे-जैसे ये समाप्त होंगे वैसे वैसे धरती पर मृत पशु और सड़ा-गला मांस बढ़ेगा तथा नए-नए विषाणु पैदा होकर नई-नई बीमारियां लाएंगे। क्या हमने कभी इस बात पर विचार किया कि गिद्ध खत्म क्यों हो रहे हैं और इन्हें क्यों बचाना जरूरी है? ये मात्र एक उदाहरण है अन्यथा पर्यावरण बचाने के लिए तो कई तरह से विचार करने की आवश्यकता है।
आज के युग में मनुष्य भी कुछ ऐसा ही कर रहा है जिससे प्रकृति की वह प्रक्रिया बाधित हो रही है जिसमें धरती पर अनेक मुर्दा पदार्थों, रोग से ग्रसित प्राणियों, रुग्ण पेड़ और अन्य वनस्पतियों को नष्ट करके नव निर्माण का चक्र चलता है। ऐसे में निकट भविष्य में यदि कोरोना की भांति ही अन्य अनजाने रोगों का आक्रमण हो तो आश्चर्य की बात न होगी क्योंकि प्रकृति की अपनी नियति है जिसमें अति के बाद अंत में सम्पूर्ण जगत के संतुलन की प्रक्रिया को आरम्भ होना ही है।


अस्सी के दशक की बात है, मैं एक प्रतियोगी परीक्षा देने के लिए देहरादून गया था। परीक्षा देने के बाद कुछ सहपरीक्षार्थी सहस्रधारा देखने जाने की बात कर रहे थे तो मैं भी उनके साथ चल दिया। यह स्थान शहर से थोड़ा बाहर की ओर था

जहां जाने के लिए अलग से व्यवस्था करनी होती थी। वहां जाकर हमने देखा कि एक जगह तालाब की भांति पानी भरा हुआ था इस तालाब का पीछे वाला लगभग आधा हिस्सा एक छतरीनुमा पहाड़ के नीचे आच्छादित था तथा उस छतरीनुमा पहाड़ में से सहस्रों जलधाराएं नीचे की ओर उस जलकुंड में झरकर गिर रही थीं। पहाड़ में से इन सहस्रों जलधाराओं के निकलने के कारण ही इस स्थान को सहस्रधारा कहा जाता था। हमसे पहले वहां एक-दो लोग और थे जो उस कुण्ड में स्नान कर रहे थे। हमें बताया गया कि उस पानी में नहाने से त्वचा से संबन्धित समस्त रोग ठीक हो जाते हैं। वह पानी अनेक औषधीय पेड़-पौधों की जड़ों तथा उस पहाड़ में विद्यमान खनिजों में से होता हुआ छननी के झरने की तरह से उस कुण्ड में गिरता था तो पानी में औषधीय गुणों का आ जाना स्वाभाविक था जिसके कारण ही रोग ठीक होते होंगे। उस समय वहां आस-पास कोई बस्ती नहीं थी, पूरी तरह से एक प्राकृतिक वातावरण व्याप्त था। लगभग 35 वर्ष बाद संयोग से मैं पुनः उसी स्थान पर सहस्रधारा को देखने गया तो मेरे मन में वहां की जो पुरानी छवि थी वह सारी नष्ट हो गई, वहां का सारा चित्र ही बदल गया था। अब वह स्थान प्राकृतिक नही रहा था बल्कि शहर का एक हिस्सा ही प्रतीत हो रहा था। वहां जाने के लिए कंकरीट की सड़क बना दी गई थी और तिपहिया सवारियां चल रही थीं। आस-पास के पहाड़ी मैदान खुदाई के बाद अस्त-व्यस्त हो चुके थे। सड़क के दोनों ओर दुकानें और मकान बन गए थे। न तो पहले वाला सहस्रधारा का छतरीनुमा पहाड़ और न ही कहीं वह जलकुंड दिखा जिसकी स्मृति में मैं उस स्थान को देखने गया था।

उस सड़क के बाईं ओर बनी दुकानों के पीछे की तरफ दूर से एक पानी का श्रोत पहाडी़ ढलान पर सीमेंट से बनाई हुई चौड़ी नाली में बहता हुआ आ रहा था और उसी श्रोत को जगह-जगह रोककर सीमेंट के अनेक छोटे-छोटे गोल या चौकोर जलकुण्ड थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बना दिए गए थे और लोग उन्हीं में नहा रहे थे।

मानवीय हस्तक्षेप ने सहस्रधारा का पूरा भूगोल ही बदल कर रख दिया था। जो औषधीय गुण सहस्रधारा के अपने मूल रूप के पानी में थे वे कदापि वर्तमान में बह रहे पानी में नही होंगे यह तो सभी स्वीकार करेंगे। अपनी अभिलाषाओं की पूर्ति हेतु मनुष्य प्रकृति के मूल रूप से छेड़-छाड़ करता है और अपने लिए प्राकृतिक आपदाओं को निमंत्रण देता है।

पृथ्वी पर सभी सजीव और निर्जीव पदार्थों का एक संतुलन बना होता है। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी जीव प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं। अतः जब भी मनुष्य की आबादी बढ़ने या उसकी लिप्सा के कारण धरती के नैसर्गिक ढांचे में हस्तक्षेप बढ़ेगा और उस हस्तक्षेप से धरती की जैव-विविधता प्रभावित होने लगेगी तो प्रकृति स्वयं संतुलन बनाने का प्रयास करेगी और प्राकृतिक आपदाओं का आगमन होता रहेगा। प्रकृति में विनाश की लीला इसलिए होती है कि बदले हुए परिवेश में उसे कुछ नवनिर्माण करना है। आज का मनुष्य न जाने क्यों प्रकृति के नियमों को तोड़ने में लगा है, पहाड़ों पर अप्राकृतिक खनन, वनों की अन्धाधुन्ध कटाई, जलस्रोतों का दोहन, असीमित जनसंख्या वृद्धि आदि अनेक प्रकार के प्रकृति के विरूद्ध आचरण, ये सभी प्रकृति को कुपित करने वाले हैं।

ऐसे में यदि प्राकृतिक आपदाएं आती है तो कैसा आश्चर्य? कोरोना वासरस का आना जनसंख्या वृद्धि को प्रकृति द्वारा नियंत्रित करने का एक प्रयास दिखाई देता है जिसे मनुष्य लॉकडाउन के माध्यम से धता बताना चाहता है। पर, हमें यह नही भूलना चाहिए कि प्रकृति सर्वोपरि है जिसके अपने नैसर्गिक नियम हैं। यदि उनका उल्लंघन होगा तो हम कितने भी घरों में बन्द क्यों न हो जाएं, एक दिन बड़ा सा भूकम्प आएगा और सब कुछ तहस-नहस कर जाएगा और इसके बाद फिर से शुरू होगा प्रकृति के द्वारा एक नए संसार की रचना का काम पर उसे देखने के लिए हम जीवित नही होंगे।

प्रबोध राज चंदोल
मोबाईलः 9873002562
जून 5, 2020

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