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Corona War: लॉकडाउन, मैं और आस-पास: 60

प्रबोध राज चंदोल

अपनी जनस्वास्थ्य परम्परा को बचाने का समय

दिल्ली के लोगों में कोरोना का जो भय आरम्भ में दिखाई दिया था, वह अब समाप्त हो रहा है। हालांकि कोरोना के रोगियों की संख्या काफी बढ़ चुकी है। अब सभी समझ रहे हैं कि इसके डर से भागना कोई समाधान नहीं, इसका सामना करना ही होगा। वास्तविकता तो यह है कि मनुष्य विज्ञान में कितना भी तरक्की कर ले, पर प्रकृति की घटनाओं पर उसका कोई जोर नहीं है और यदि वह अपना जोर चलाता भी है तो उसके जितने भी क्रियाकलाप प्रकृति के विरूद्ध होंगे, वे प्रकृति को कुपित ही करेंगे। जब कोई कुदरती मार आती है तो मनुष्य असहाय हो जाता है और उसके पास उस आपदा का सामना करने के अलावा और कोई रास्ता होता ही नही है। किसी भी प्राकृतिक  विपदा के सामने सीना तानकर खड़े हो जाना ही एकमात्र विकल्प है। पर यह बात तब तक समझ में आना मुश्किल है जब तक ऐसी परिस्थितियां पैदा न हो जाएं।

एक युक्ति से समझाता हूं। आप कभी किसी सड़क या गली में कभी पैदल जा रहे हों और यदि कोई कुत्ता आपके पीछे भोंकना शुरू कर दे तो दृढ़ता और साहस के साथ उसके समक्ष खड़ा होकर केवल उसकी ओर देखने लग जाएं, आप देखेंगे कि कुत्ता रुक जाएगा और एक जगह खड़े होकर आपको देखते हुए भोंकने लगेगा। कुछ देर वह भोंकेगा और फिर धीरे से भोंकना कम करते हुए वापिस मुड़कर चला जाएगा। किसी भी विपदा में दृढ़ता, साहस और सावधानी ही मनुष्य के हथियार हैं। कोरोना के साथ ऐसा ही करना होगा, उसका सामना करने के लिए हमें अपने आप को तैयार करना होगा, अन्यथा यह जीवन का  कोढ़ बन जाएगा।

अनलॉक होने के बाद कुछ लोग तो अभी भी अपने ही घर में कैदी का जीवन जी रहे हैं, पर बहुत से ऐसे भी हैं जो इस बीमारी की कोई परवाह किए बिना अपने काम पर निकल चुके हैं। कोरोना का खतरा अभी टला नहीं है, इसलिए अधिकतर लोगों में अभी भी इसका भय व्याप्त है। बहुत से लोगों का तो इससे लगे बन्धनों के कारण सामाजिक जीवन रुक गया है और उसके अभाव में वे अवसाद का शिकार होने लगे हैं। कुछ घरों के युवा अपने घर के बुजुर्ग लोगों को घर से बाहर निकलने ही नहीं दे रहे हैं, उन घरों के बुजुर्ग मानसिक अवसाद का शिकार हो रहे हैं।

मेरे घर से कुछ दूरी पर लगभग 85 वर्ष के एक प्रौढ़ हैं, अक्सर मुझे अपने घर के बाहर बैठे दिख जाते तो मैं उनसे हाथ जोड़कर नमस्ते करता हुआ निकलता था और वे भी प्रसन्न होकर मुस्कराते हुए मुझे आर्शीवाद देते और यह भी पूछते कि मैं ठीक हूं? उनके प्रतिउत्तर व भाव से यह लगता था कि वे चाहते हैं कि मैं कुछ देर वहां र रुककर उनसे कुछ बातें करूं। जब कभी वे मुझे पास के ही एक पार्क में बैठे मिल जाते तो मैं कुछ देर उनके पास खड़े होकर बातें करता भी रहा हूं। उम्रदराज लोगों से बात करने पर कई बार ऐसी अनुभव की बातें पता चलती हैं जिनपर हम कभी विचार ही नहीं करते, इसलिए अपने से उम्र में बड़े लोगों के साथ समय-समय पर अवश्य बैठना चाहिए। पिछले काफी दिनों से मैं देख रहा था कि वे पार्क में न जाकर, अक्सर अपने घर के सामने बैठे होते थे, मैं उनके घर के सामने रुक कर उनसे बात करने में संकोच करता और उनका अभिवादन करता हुआ निकल जाता।

अभी कुछ दिन हुए मैं उनके घर के सामने से जा रहा था और उनके घर के मुख्य द्वार पर बड़ा सा लोहे का द्वार आधा खुला हुआ था तो वे मुझे भीतर पड़ी एक चारपाई पर एक ओर करवट से लेटे हुए दिखे। उनका चेहरा द्वार की ओर था और वे बाहर की ओर देख रहे थे। वहां लेटे हुए ही उनने द्वार पर खड़े अपने लड़के से घर के दरवाजे के बाहर कुर्सी पर बैठने की इच्छा व्यक्त की, मैंने चलते-चलते सुना कि उनके लड़के ने सख्ती से कहा ’आप इस दरवाजे के बाहर कदम नहीं रखोगे’, यह सुनकर मैं ठिठक कर रूक गया और भीतर लेटे हुए उन बुजुर्ग के चेहरे पर उभरे भावों को देखकर विचलित सा हो गया। अपने पुत्र की बात पर बिना किसी प्रतिक्रिया के वे मौन होकर बस लेटे रहे। ये कैसी अवस्था है जब आदमी अपने मन की एक छोटी सी बात भी नहीं कर सकता है। मैं भी उनकी कोई मदद् नही कर सकता था। मन मसोसकर रह गया पर उनके चेहरे का अवसाद मुझे साफ दिख रहा था।

अनेक लोग दुनियां में हैं जिनके काम-धन्धें ऐसे हैं कि उन्हें घर से बाहर निकलना ही है। मेरे मौहल्ले में कोरोनाकाल में भी कुछ सब्जी वाले हमेशा आते रहे हैं। मैंने उन पर कोरोना का वैसा डर नही देखा जैसा हमारे मन में था। वे अपने मुंह से कोरोना की कोई बात शुरू भी नही करते थे, हां, ग्राहक सब्जी खरीदते समय जरूर उन्हें यह शिक्षा देते दिखते कि भैया अपने मुंह पर मास्क लगा लो। मैं देखता कि ग्राहकों के कहने से फेरीवाला अपने मुंह पर मास्क लगा लेता पर थोड़ी ही देर बाद जब सब्जी बेचने के लिए आवाज लगाता तो फिर से मास्क हटाना पड़ता। यह देखकर मुझे अपने बचपन की एक याद आने लगी।

स्कूल के दिनों में मई-जून में गर्मियों की छुट्टियां हो जाती थी तो हम जैसे बच्चे नानी, मामा, बुआ या मौसी के घर जाकर आनन्दित होते थे। अपने बचपन में मुझे भी स्कूल की छुट्टियां पुरानी दिल्ली में रहकर बिताने का मौका कई बार मिला था। संपूर्ण भारत में ही नहीं बल्कि विश्व में पुरानी दिल्ली एक ऐसी जगह है जहां के रहन-सहन और खान-पान की सभ्यता सम्भवतः कहीं ओर नही मिलेंगी। सभी की जानकारी के लिए बताना चाहूंगां कि कहीं भी चले जाएं परन्तु जितने विविध प्रकार की खाने-पीने की चीजें आपको पुरानी दिल्ली में मिलती हैं उतनी कहीं भी नही मिलेंगी। भरी गर्मी में भी वहां की गलियों में कुल्फी, चुस्की, मलाई कुल्फी, बर्फ पर रखी हुई गन्डेरी, खिरनी व फालसे, मटके का जलजीरा आदि अनेक तरह की चीजें बेचने वाले आते थे। कुछ बेचने वालों के तो अपने ठीये थे और वे उसी जगह बैठे हुए मिलते थे, जैसे एक दही-भल्ले वाले का समय और स्थान निश्चित था और वह शाम को 3 बजे से 6 बजे तक गली में एक मकान के चबूतरे पर अपने छबड़े में सब सामान के साथ बैठा मिलता था। आस-पास के घरों में से बच्चे-बडे़ सभी तरह के लोग आते और अपनी पसंद की चाट या दही-भल्ले ढाक के पत्तों से बने दोनों में अलग-अलग बनवाते और पैक करवाकर घर ले जाते, जिसे घर के लोग एकसाथ बैठकर गप्प लगाते हुए आनन्द के साथ खाते।

मुझे याद है कि हम उस दही-भल्ले वाले के आने की प्रतीक्षा किया करते थे और जब उससे लाई चाट खाते तो स्वाद और संतोष का भाव सबके चेहरों पर साफ दिखाई देता था। इसके अलावा कुछ फेरीवाले पहले मौहल्ले में एक चक्कर लगाकर फिर एक निश्चित स्थान पर जाकर खड़े हो जाते थे। हम सभी यह जानते थे कि कौनसा फेरीवाला किस समय कहां खड़ा मिलेगा। उनमें से कुछ फेरीवाले आवाज देकर अपना सामान बेचते पर कुछ ऐसे थे जो आवाज नहीं देते थे।

कुल्फी वाले की ठेली पर एक घण्टी थी वह उसे बजाता आता तो हम सभी को पता चल जाता कि कुल्फीवाला आया है, चने-मुरमुरे वाला आता तो रबड़ वाला भोंपू बजाता, मटके के जलजीरे वाला अपना मटका बजा देता, बच्चों के लिए खिलौने, गुब्बारे, सीटी बेचनेवाला आता तो एक तरह के लम्बे गुब्बारे पर हाथ बड़ी तेजी से फिराता जिससे चिड़चिड़ाती हुई एक तेज आवाज निकलती और हम सभी उसे पहचान जाते। ये फेरीवाले बिना आवाज लगाए भी अपने आने की सूचना लोगों तक पहुंचा देते।

शहर के गली मौहल्लों में फेरी लगाकर सब्जी बेचने वालों पर मास्क न लगाने के नाम पर उठते सवालों को देखकर मुझे वे पुराने समय के सन्देश सूचक उपाय याद आ गए। जब कोरोना जैसा वायरस नही था तब भी हमारे यहां  फेरीवाले सामान बेचने के लिए आवाज नहीं देते थे, परन्तु फिर भी उनके आने की आहट हमें मिल जाती थी।

हमारी सांस्कृतिक विरासत बड़ी समृद्ध है, पर उसकी ओर हमारा ध्यान नही जाता है। कम साधनों से सरल जीवन जीने की हर बात हमारे यहां देखने में आती है। हमारा हर त्यौहार, मेला या अन्य उत्सव हमें कोई न कोई शिक्षा देता हुआ आगे के जीवन जीने के लिए तैयार करता है। हमारी प्रत्येक परंपरा से हमारे जीवन की राह बनती है। चाहे वह माघ मेले में नदी के पानी से स्नान करना हो, होली के मौके पर उल्लास और मतवालापन हो, दिवाली पर विजयोल्लास या दीपोत्सव, सभी से हमारे मन और शरीर में ऊर्जा का संचार होता है और वही उर्जा हमारे स्वास्थ्य को बनाए रखती है। हमारे यहां के प्रत्येक पर्व को मनाने के पीछे एक गहरी सोच है जिस पर प्रायः विचार नही किया जाता है।

जैसे माघ के महीने में नदी का स्नान करने से हमारे शरीर में विद्यमान शक्ति का परीक्षण हो जाता है और आगे के बदलते मौसम में होने वाले परिवर्तन के लिए शरीर तैयार भी हो जाता है। दिवाली के उत्सव पर हम मानसिक उर्जा से भर जाते हैं और भरपूर पौष्टिक आहार लेकर आने वाली सर्दी का सामना करने के लिए अपने शरीर को तैयार कर लेते हैं तथा इसी प्रकार से मार्च के माह में हमारी रबी की फसल पकने के कगार पर होती है और हम सब हर्ष और उल्लास में होते हैं, उसी समय हमारे यहां का मौसम बदल रहा होता है तो उस दिन शाम को होलिका दहन के समय हमारा शरीर अग्नि के संपर्क में आता है तथा उससे अगले दिन सुबह शीतल जल, मिट्टी, कीचड़, सूर्य का प्रकाश या सुगंधित गुलालों के संपर्क में आता है तो बदलते मौसम में शरीर की रोग प्रतिरोधी शक्ति तो विकसित होती ही है, साथ ही सर्दी के मौसम में जो चमड़ी के रोग, शरीर की जकड़न या छाती की कफ आदि की शिकायतें शरीर में हो जाती हैं उनका प्राकृतिक रूप से निदान होकर शरीर अपने आपको नए बदलते मौसम में ढालने के लिए तैयार कर लेता है। प्रकृति में सदा ही नए-नए रोगों का आगमन होता रहा है परन्तु अपनी संस्कृति के बल पर ही हम समय-समय पर पैदा हुए रोगों को पछाड़ते आए हैं और वर्तमाना में कोरोना जैसे रोग का सामना करने के लिए भी तैयार हैं।


हमारे देश में यह परंपरा है कि समाज के लोग प्रत्येक त्यौहार या कोई भी धार्मिक आयोजन एक-दूसरे के सहयोग से घुल-मिलकर करते हैं और कभी भी इस तरह की दूरी बनाए रखने का बन्धन नही लगा जैसा कोरोना के कारण। हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले असंख्य तीर्थयात्रियों का एक मेला है कुंभ, जिसमें दस करोड़ से भी अधिक भारतीय श्रद्धालु भाग लेते हैं। यह हिन्दू समुदाय का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन है जिसमें लोग बड़ी संख्या में एकत्रित होकर पवित्र नदी में स्नान करते हैं। इस मेले में न केवल भारतवर्ष के करोड़ों लोग स्नान करने के लिए आते हैं बल्कि देशभर के साधु और संतों का आगमन भी होता है। एक मायने में यह विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन है तथा इसमे अनेक विदेशी पर्यटक भी भाग लेते हैं। पर किसी को कोई कारोना जैसी बीमारी नही होती बल्कि ऐसे आयोजनों से हमारी रोग प्रतिरोधी शक्ति विकसित हो जाती है।
पिछले कुछ महीनों से विश्वव्यापी कोविड-19 महामारी से समस्त विश्व में हाहाकार मचा है। अनेक लोग इस बीमारी से काल का ग्रास बन गए। भारत में जब यह महामारी आई तो यहां कई तरह के प्राकृतिक और आयुर्वेद के उपाय अपनाकर लोगों ने अपनी रोग-प्रतिरोधी शक्ति को मजबूत किया और इस बीमारी का सामना किया। भारतीय देशी चिकित्सा पद्धति के बल पर सदियों तक भारतीय जनस्वास्थ्य संरक्षण की परंपरा स्थापित रही है तब तो यहां एलोपैथी चिकित्सा नही थी। कहीं ऐसा तो नही कि अन्य चिकित्सा पद्धतियों के आगमन और उनके प्रचार तंत्र से हमारे देश की देशी और प्राकृत चिकित्सा उपेक्षा का शिकार होकर पिछड गई। अब उसी प्राकृत तथा देशी चिकित्सा को पुनः प्रतिष्ठित कर भारत देश की स्वास्थ्य व्यवस्था का स्वदेशीकरण करने के लिए यह आवश्यक लगता है कि भारत में प्राकृतिक चिकित्सा को यथोचित प्रोत्साहन मिले।

भारत में आज कई तरह की चिकित्सा पद्धतियां प्रचलित हैं जिनमें एलोपैथी, आयुर्वेद, होमियोपैथी, यूनानी एवं सिद्ध वे पद्धतियां हैं जिन्हें भारत सरकार ने मान्यता प्रदान की है परन्तु इनके अतिरिक्त भारत में अनेक ऐसी पारंपरिक तथा वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियां जनसामान्य में प्रचलित हैं जिन्हें सरकार के स्तर पर कोई मान्यता नही दी गई है। सभी चिकित्सा पद्धतियों में सबसे अधिक प्रचलित आधुनिक चिकित्सा पद्धति है जिसे हम एलोपैथी कहते हैं। देश में आज अनेक सरकारी एवं गैरसरकारी एलोपैथी के अस्पताल हैं। सरकारी अस्पताल तो देश के प्रत्येक वर्ग के लिए खुले हुए हैं परन्तु इन अस्पतालों की संख्या भारत की जनसंख्या की तुलना में काफी कम है। एलोपैथी के सरकारी अस्पतालों की तुलना में प्राइवेट अस्पतालों की गिनती भी काफी आधिक है परन्तु इनमें चिकित्सा का खर्च इतना अधिक आता है कि देश का गरीब व आम आदमी इतनी महंगी चिकित्सा का भार वहन करने में असमर्थ है। मजबूरी में यदि कोई गरीब अपनी चिकित्सा के लिए इन प्राइवेट अस्पतालों में जाता भी है तो उसे अपनी सारी जमा पूंजी से हाथ धोना पड़ जाता है।


प्राचीनकाल से भारतीय परंपरा में अनेक देशी व प्रकृति से जुड़ी चिकित्सा पद्धतियों के द्वारा उपचार की विधियां प्रचलित रही हैं। भारतीय चिकित्सा पद्धति में प्रकृति के साथ सान्निध्य को वरीयता देते हुए आयुर्वेद, योग व आसन, मिट्टी, जल, वायु, मालिश तथा व्यायाम से अनेक रोगों का उपचार किया जाता रहा है। भारत में प्रकृति ने कई प्रकार के मौसम दिए हैं और उनसे जो जलवायु बनती है उसमें अनेक प्रकार की वनस्पतियां पैदा होती है। हमारे पूर्वजों ने इन वनस्पतियों के विभिन्न प्रयोग करके इनके उपयोग की विधियां लिपिबद्ध की हैं जो आयुर्वेद के रूप में हमारे समक्ष विद्यमान हैं। सदियों से भारत में प्रकृति के द्वारा प्रदान की गई अनेक औषधीय पेड-पौधों से ली गई ताजी, हरी और स्वच्छ गीली जड़ी बूटियों या वनस्पतियों या इनके सूखे द्रव्यों का उनके प्राकृतिक रूप में प्रयोग करके स्वरस, कल्क या काढ़ा बनाकर अथवा भैषज्य विज्ञान के ज्ञान से निश्चित प्रक्रिया के अन्तर्गत क्वाथ, हिम, फांट, अर्क, आसव, भस्म, चूर्ण आदि तैयार करके औषधियों के रूप में उपयोग होता रहा है। परंतु आज हम अपनी पारंपरिक जनस्वास्थ्य परंपरा का भुलाकर विदेशी चिकित्सा प्रणाली के पीछे हो लिए हैं। इसमें कोई संदेह नही कि एलोपैथी की कुछ उपब्धियां अचूक हैं पर हमारी पैथी में भी तो कुछ विलक्षण रहा होगा अन्यथा कैसे सदियों तक हमारी जनस्वास्थ्य परंपरा उस पर टिकी रही?
मेरा स्वयं का यह मानना है कि प्रारम्भ में मनुष्य प्राकृतिक जीवनशैली अपनाते हुए जंगल में रहता रहा था और फिर धीरे-धीरे उसने समूह में रहना शुरू किया। गांव व शहर का निर्माण होने से मनुष्य प्रकृति से दूर होने लगा तो रोगों से भी ग्रस्त होने लगा और उनसे मुक्त होने के लिए उसने प्राकृतिक वस्तुओं और वनस्पतियों का परिष्करण करके औषधियों का निर्माण आरम्भ किया जिससे ’आयुर्वेद’ उत्पन्न हुआ। वनों में प्रकृति के साथ रहकर निरोगी जीवन जीने का समय तो अब समाप्त हो चुका है परन्तु प्राकृतिक जीवनशैली अपनाने हेतु प्रत्येक गांॅव और नगर में स्थानीय प्राकृतिक स्वास्थ्य केन्द्रों की स्थापना तो की ही जा सकती है। हम सभी जानते हैं कि प्राकृतिक चिकित्सा एक सस्ती एवं सुलभ चिकित्सा पद्धति है जिसे आंचलिक व ग्रामीण स्तर के लोग भी आसानी से अपनाकर रोगमुक्त जीवन जी सकते हैं। अतः एक ऐसी व्यवस्था विकसित की जा सकती है जिसमें जनसाधारण को प्राकृतिक चिकित्सा के प्रति प्रेरित किया जा सके और धनवान व निर्धन सभी को स्वस्थ रहने के समान अवसर उपलब्ध हों।

वर्तमान में सरकार द्वारा मान्यताप्राप्त चिकित्सा पद्धतियों के चिकित्सक या विशेषज्ञ अपने रोगियों को योग व ध्यान करने की सलाह देने लगे हैं। इसका अभिप्राय यह हुआ कि प्रत्येक चिकित्सा पद्धति का अपना एक अलग महत्व है। समय की मांग है कि जहां जिस पद्धति की आवश्कता हो वहां उस पद्धति को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। कुछ उपचार एलोपैथी के तरीके से ही कुशलता से किए जा सकते हैं तो वहां एलोपैथी को ही प्रोत्साहन मिले। परन्तु ऐसे अनेक रोग हैं जिनमें पारंपरिक प्राकृतिक चिकित्सा तथा आयुर्वेद जैसी पद्धतियां अत्यन्त प्रभावी रूप से काम करती हैं तो वहां इन पद्धतियों को प्रोत्साहन व संरक्षण की आवश्यकता है। कोई भी रोग दूषित जीवनशैली से ही पैदा होता है तो क्यों न ऐसे उपाए किए जाएं जिससे देश के लोगों में प्रकृति के साथ रहते हुए प्राकृतिक चिकित्सा अपनाने के प्रति आकर्षण उत्पन्न हो जाए और हम अपनी पुरानी विरासत की ओर लौट चलें।

प्रबोध राज चंदोल
मोबाईलः 9873002562
जून 22, 2020

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