प्रबोध राज चंदोल
‘राजयोग और हठयोग‘
बात लॉकडाउन से पहले की है। मैं कहीं जाने के लिए दिल्ली की सड़कों पर निकलता तो बड़ी खीज सी हो जाती थी। सबको न जाने कहां जाने की जल्दी थी कि एक दूसरे को पार कर आगे निकल जाने की होड़! मेरी आदत है कि मैं जब भी स्वयं वाहन चालक की भूमिका में होता हूं तो अपने वाहन को अपने नियंत्रण में रखने का प्रयत्न करता हूॅं। दिल्ली में मेरे द्वारा चालित वाहन की औसत गति लगभग 30 किलोमीटर प्रतिघंटा से ज्यादा कभी निकल नही पायी। सड़कों पर ट्रैफिक ही इतना अधिक होता है और ऊपर से जगह-जगह लाल बत्ती और ट्रैफिक जाम! कभी-कभी तो बड़ी खीझ सी हो जाती, सोचता कहां आकर रहने लगे इस शहर में, इससे तो साइकिल भली बस थोड़ा सा समय ही तो अधिक लगता है। पैट्रोल का भी खर्च नहीं! पर फिर याद आता कि लम्बी दूरी की यात्रा तो साईकिल से भी संभव नहीं। भीड़ में से ठेले की तरह रेंग-रेंग कर कार चलाते हुए किसी तरह उससे बाहर निकल जाने पर यदि सड़क खाली दिखाई दे जाए तो चाहे लक्ष्य एक किलोमीटर ही क्यों न हो, 50-60 किलोमीटर के बीच की गति से वाहन चलाकर बड़ा संतोष सा मिलता है। बिलकुल वैसा अनुभव होता है जैसे किसी दावत में पूरा पेट भर जाने के बाद भी नीयत न भरे और पत्तल या थाली चाटने के बाद संतुष्टि मिलती है।
जीवन में किसी भी काम को करने से यदि संतुष्टि न मिले तो समझो कि परिश्रम तो व्यर्थ गया ही, साथ ही इसके बाद मन में जो अवसाद पैदा होगा, उससे किसी न किसी रोग को भी निमंत्रण मिल जाएगा। मुझे मोटर वाहन चलाते हुए 30 वर्ष से ऊपर हो चुके हैं, पर जब मैं सड़क पर वाहन चलाता हूं तो मुझे गाड़ी चलाता देखकर कुछ लोग आज भी यही अनुमान लगाते हैं कि मैं गाड़ी चलाना सीख रहा हूं। मेरे साथ अक्सर ऐसा होता रहा है कि एक 20 वर्ष का नौजवान बड़े गुस्से से मेरे बराबर अपनी तेज चलती हुई गाड़ी लेकर आता और अपनी स्पीड मेरे बराबर करके मेरी ओर देखकर झुंझलाहट से कहता ’अंकलजी, गाड़ी कैसे चला रहे हो’ और फिर अपनी कार को स्पीड देकर चला जाता। कई बार तो ऐसा हुआ कि कोई नौजवान बड़े गुस्से से मेरी कार के निकट आया तथा मेरी ओर देखकर क्रोध से चिल्लाते हुए कहता, ’गाड़ी चलानी नहीं आती तो क्यों चलाते हो? एक बार तो एक युवा बोला, ’अंकलजी बैलगाड़ी खरीद लो’। मैं उन लोगों की ओर हाथ जोड़ देता और वे मेरी उम्र का ख्याल करके झल्लाते हुए आगे बढ़ जाते। पता नहीं क्यों, पर ऐसे लोगों से भिड़ पड़ना मुझे कभी प्रिय नही लगा और यदि कभी मुझे उन पर क्रोध आया भी तो मैंने यह देखा है कि मानसिक असंतुलन होते ही मैं अपनी गाड़ी से स्वयं का नियंत्रण खो देता, बी. पी. बढ़ जाता और कई बार टकराने से बचा।
कार, टी.वी., मोबाइल या कंप्यूटर, घर के किचन से लेकर बाथरूप तक में प्रयोग की अनेक वस्तुएं सभी हमारे कृत्रिम जीवन के प्रतीक बन गए हैं। जीवन की अनूकूलता लगभग समाप्त हो गई है तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में संयम आवश्यक है अन्यथा अपने क्रोध पर काबू न रख पाने से हमें अनेक दुर्घटनाएं व व्याधियां आकर घेर लेंगी। मनुष्य अपने अधिकतर काम अपनी आदतों के वशीभूत करता है और आप मानें या न मानें उसकी बीमारियां और जीवन में घटित होने वाली दुर्घटनाओं के पीछे भी उसकी गलत आदतों का योगदान सर्वाधिक होता है। हम मूल जीवनशैली से कृत्रिम जीवनशैली में पर्दापण कर चुके हैं और यहीं से शुरू होती है मनुष्य शरीर में विभिन्न रोगों के पनपने की श्रृंखला।
लॉकडाउन शुरू हुआ तो जैसे एक-दूसरे से आगे निकलने की सारी प्रतिस्पर्धाओं पर विराम लग गया। लॉकडाउन से पहले मैं देखता था कि दिल्ली में अनेक नर्सिंग होम और रोग परीक्षण प्रयोगशालाएं रोगियों से भरी पड़ी हैं, जिस सरकारी या निजी अस्पताल या डाक्टर के पास चले जाओ, वहीं मरीजों की भीड़, जहां भी देखो मैडिकल स्टोर दवा खरीददारों से भरे हुए होते थे परन्तु लॉकडाउन में ये सब देखने को नहीं मिला। सारे देश में बस एक ही बीमारी और सभी डाक्टर उसी एक बीमारी कोविड-19 के मरीजों से जूझ रहे थे, बाकी अन्य बीमारियों से ग्रसित लोग ही दिखाई नहीं दिए। कई अस्पतालों में तो बाह्य रोगी विभाग बन्द ही पड़े रहे, ऐसे में कुछ गंभीर बीमारी से ग्रसित लोग तो निश्चित ही कष्ट में रहे होंगे, पर अस्पतालों की तरफ दौड़ती रोगियों की वह भीड़ कहां चली गई थी, यह एक सवाल बनकर रह गया?
कहीं ऐसा तो नहीं कि हम सब में मानसिक रोगी होने के लक्षण आते जा रहे हैं जिनके कारण थोड़ा सा असहज होते ही हम डॉक्टरों की ओर दौड़ पडते हों अन्यथा लॉकडाउन में वे लाखों रोगी कहां चले गए जो सुबह 8.00 बजे ही अस्पताल पहुंच जाते थे? क्या कोविड-19 के भय से और दूसरी सारी बीमारियां गौण हो गई थीं? लगता है हमारी जीवनशैली में कुछ खोट आ गया है जो जरा सा कुछ होते ही विचलित होकर डॉक्टर की ओर भागते हैं? हम यह भूल गए हैं कि यदि दिनचर्या ठीक हो तो 99 प्रतिशत् रोग स्वयं ठीक हो जाते हैं। परन्तु इस युग में हम अपने शरीर की प्रकृति पर विश्वास करने के बदले डॉक्टर पर अधिक विश्वास करने लगे हैं।
प्रकृति ने मनुष्य के अतिरिक्त अनेक जीव-जन्तु पैदा किए हैं और सभी पंच तत्वों से निर्मित एक ही कुदरत का हिस्सा हैं। फिर ऐसी क्या बात है कि मनुष्य को पैदा होते ही डॉक्टर की आवश्कता पड़ने लगती है और अन्य जीव स्वच्छंदता से निरोगी जीवन जीते हैं। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य जीवों के बीच में उनका कोई चिकित्सक नहीं, फिर भी वे सभी नियति द्वारा निर्धारित अपनी पूरी आयु तक जीवित रहते हैं। इसका एक ही उत्तर है और वह यह कि मनुष्य ने प्रकृति से अपनी दूरी बना ली है। हमें अपनी बुद्धि से गढ़ित विज्ञान पर अधिक भरोसा है और कुदरत के नियमों पर विश्वास कम हो गया है। अपनी बुद्धिबल के आवरण के कारण मनुष्य यह भूल गया कि जो प्रकृति रोग देती है उसी प्रकृति में उन रोगों से सुरक्षा की विधियां भी समाहित हैं बस उन विधियों को देखने की दृष्टि चाहिए।
इस दुनिया में हरएक जीव के मित्र और शत्रु दोनों विद्यमान हैं जो हमारे अनुकूल वे मित्र और जो प्रतिकूल वे शत्रु। शत्रु घात लगाता है, आक्रमण करता है और मित्र संकट से उबरने में मदद करता है। मनुष्य के शरीर में भी मित्र और शत्रु दोनों तरह के जीवाणु होते हैं। यदि जीवाणु केवल शत्रु होते तो अब तक मनुष्य का नामोनिशान मिट चुका होता।
एक बात और कि जब हम कृत्रिम तरीका अपनाकर अपने शरीर में आए शत्रु जीवाणुओं को नष्ट करने का उद्यम करते हैं तो अनजाने ही सही, पर उस प्रक्रिया में मित्र जीवाणुओं को नष्ट करने का जोखिम भी उठाते हैं। अनेक लोगों का परीक्षण करने पर यह सामने आ सकता है कि उनमें विभिन्न तरह की बीमारियों के कीटाणु तो हैं, परन्तु उक्त बीमारियों का कोई लक्षण नहीं है। इसका केवल एक ही कारण है कि उन व्यक्तियों के शरीर में रोगजनक कीटाणुओं के पनपने का वातावरण नहीं है। रोग दो प्रकार से आते हैं: एक तो मनुष्य की अपनी गलती से और दूसरा वातावरण में सदा विद्यमान रहकर रोग फैलाने वाले विषाणुओं से। कोरोना जैसे अनेक विषाणु सैकड़ों वर्षों से इस धरती पर रह रहे हैं और जैसे ही उन्हें उपयुक्त वातावरण मिलता है, वे सक्रिय हो जाते हैं। अतः ऐसा कोई भी वायरस हमारे शरीर के भीतर न जाए, उसके लिए सावधानी और यदि शरीर के भीतर चला जाए तो उसे वहां पनपने का वातावरण न मिले, ऐसी शारीरिक तैयारी। यही किसी भी तरह के विषाणु से लड़ाई का तरीका है। इसीलिए किसी भी विषाणु से बचाव के लिए स्वच्छता, सावधानी और रोगप्रतिरोधी शक्ति का विकास ही एकमात्र रास्ता है। लॉकडाउन और सामाजिक दूरियां तो केवल मानवजनित अल्पकालिक उपाय हैं।
कुछ महीनों पहले जैसे ही कोविड-19 दुनिया के देशों में फैलने लगा तो सभी ओर भय व्याप्त हो गया था। यह एक नए तरह का संक्रामक रोग था जिसका कोई उपचार दुनिया के किसी भी देश में उपलब्ध नहीं था। परन्तु भारतीय जीवनशैली में रोगों से लड़ने के अपने तरीके हैं। उनमें से एक है प्रकृति के सान्न्धि्य में रहकर प्राकृतिक जीवनशैली को अपनाना जिसमें प्राकृतिक आहार का सेवन, साधारण रहन-सहन और नियमित योग का अभ्यास करना है। ये सभी कृत्य प्राकृतिक चिकित्सा के अन्तर्गत आते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा के अभ्यास से अपने शरीर को रोगमुक्त रखा जा सकता है। इसमें यदि योग पर ध्यान देवें तो योग के दो अंग हैं: एक राजयोग और दूसरा हठयोग। एक में मानसिक शुद्धि पर बल दिया जाता है तो दूसरे में शरीर की शुद्धि को महत्व दिया जाता है। लक्ष्य दोनों का एक ही है और वह है इसके निरन्तर अभ्यास से आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर परमसिद्धि को प्राप्त करना ताकि मनुष्य का ईश्वरीय अलौकिक शक्ति के साथ एकाकार हो जाए।
एक समय था जब यह योगविद्या कुछ ही लोगों के अभ्यास तक सीमित थी और योगसाधना के बल पर योगी जरा, व्याधि और अकालमृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेते थे। परन्तु आधुनिक काल में योग आम आदमी का विषय बन गया है और कुछ व्यापारिक सोच रखने वाले लोगों ने तो इसे शरीर को रोगमुक्त करने का साधनमात्र बना दिया है। आज का मनुष्य अपने दैनिक कार्यो के निष्पादन में अनेक प्रकार के प्रकृति विरुद्ध कार्यों में संलग्ल रहता है और जब उसका शरीर और मन दूषित हो जाता है तो वह योगविद्या की सहायता से उनका शोधन करने के लिए प्रयास करता है ताकि स्वस्थ होकर पुनः अपनी पुरानी दिनचर्या में लिप्त हुआ जा सके। धन और संपत्ति की लोलुपता से मनुष्य की मानसिकता में कई तरह के बदलाव आए जिससे आज के समाज में यौगिक चिकित्सा एक व्यवसाय का रूप ले चुकी है। जिस प्रकार से विश्व में औषधि विज्ञान का व्यवसायीकरण हुआ, उसी तरह से अब योग का भी व्यवसायीकरण हो रहा है।
यहां यह समझना अनिवार्य है कि केवल कुछ आसन मुद्राओं को सीखकर या उनका अभ्यास करके शरीर को रोगमुक्त नहीं रखा जा सकता है। यदि ऐसा होता तो भारतीय समाज में समस्त रोगों का उपचार कुछ आसन करके हो जाता और अनेक प्रकार के औषधीय निर्माण की प्रक्रियाओं का सृजन न होता तथा अनेक उपचार की पद्धतियां भी विकसित न होती। परन्तु फिर भी योग काफी हद तक मनुष्य को स्वस्थ जीवन प्रदान करने में सहायक है।
योग के अंगों में हठयोग एक पूरी प्रक्रिया है जिसके निरन्तर अभ्यास से ही मनुष्य रोगमुक्त जीवन जी सकता है। यद्यपि इस पूरी प्रक्रिया का नियमित पालन अत्यन्त दुष्कर है। आधुनिक भाग-दौड़ के जीवन में यह सम्भव भी नहीं है कि प्रतिदिन शरीर शोधन की सभी क्रियाओं का पालन किया जा सके। परन्तु फिर भी उपचार के नाम पर औषधियों का प्रयोग और शरीर में इन औषधियों के विष का संचार कम से कम हो, इस हेतु यदि कुछ योग क्रियाओं का अभ्यास नियमित किया जाता रहे तो शरीर स्वस्थ व सबल बना रहेगा। यह सत्य है कि योगशास्त्र की कठिन क्रियाएं अपनाना सर्वसाधारण के लिए संभव नहीं है, परन्तु अनेक विद्वानों ने अपने अनुभव से योगासनों की कठिन विधियों को सरल विधियों में परिवर्तित कर दिया है। इन सरल विधियों का अभ्यास करके भी आमजन अपने शरीर की शक्ति को बढ़ाकर यथासंभव रोगमुक्त जीवन जी सकते हैं।
किसी भी विद्या को प्रयोग में लाने से पहले यह आवश्यक है कि उस विधा के बारे में मूलभूत जानकारी हो। अतः किसी भी नए व्यक्ति को योग विद्या का अभ्यास करने से पूर्व किसी विशेषज्ञ से प्रशिक्षण अवश्य लेना चाहिए अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि अधिक हो सकती है। योगासन करने के कुछ नियम होते हैं और यदि उन नियमों की अनदेखी की जाए तो योगासनों से मनुष्य रोगमुक्ति की जगह रोगों से पीड़ित हो जाएगा। जब से योग का प्रचार-प्रसार विश्व स्तर पर हुआ है तब से अनेक लोग थोड़ा सा प्रशिक्षण लेकर योगी होने का दावा करने लगे हैं। ऐसे लोगों से भी सावधान रहना चाहिए क्योंकि ये लोग अति उत्साह में आपके साथ खिलवाड़ कर सकते हैं। स्वस्थ व्यक्ति को योगासन करवाने तथा रोगी को योगासन करवाने के नियम भी भिन्न होते हैं। अतः आसनों का अभ्यास करवाने से पूर्व यह जानना आवश्यक होता है कि किस व्यक्ति को कौन सा आसन करना चाहिए और कौन सा आसन नही करना चाहिए।
जब किसी व्यक्ति को रोग का उपचार करने के लिए योगासन करवाए जाएं तो योगशास्त्री को विशेष सावधानी रखनी होती है। रोगी का उपचार करने के लिए सबसे पहले शरीर का शोधन अनिवार्य है जिसके लिए योग विद्या में षटकर्म क्रियाओं को करने का विधान है। इन क्रियाओं में से कौन सी क्रियाएं रोगी बिना कष्ट के कर सकता है और कौन सी क्रियाओं से रोगी को हानि हो सकती है, यह निर्णय बड़ी सावधानी से लेना होता है। अतः किसी भी अधूरे ज्ञान वाले व्यक्ति की शरण में जाकर योग से उपचार नही करवाना चाहिए। आज हमारे समाज में अनेक ऐसे योगाचार्य पैदा हो गए हैं जो अपने अधकचरे ज्ञान के आधार पर अनेक लोगों का योग के माध्यम से उपचार करने लगे हैं। ऐसे लोग लोकजगत में योग की प्रतिष्ठा ही गिराऐंगे।
बच्चों, बड़े-बूढ़ों, महिलाओं के बारे में भी योगासनों के नियम भिन्न हैं तथा इन्हें करने के लिए अभ्यास की भी आवश्यकता है। आज के युग में प्रचार-प्रसार के अनेक माध्यम हैं और बहुत से लोग मीडिया से देखकर अपने आप योगासनों का अभ्यास करने लगते हैं तो यह ठीक नहीं है। यदि अभ्यास में त्रुटि हो जाएगी तो जीवनभर के लिए कष्ट झेलना पड़ सकता है। अतः ऐसी गलती कदापि नहीं करनी चाहिए। आज योग और योग करवाने वाले योगाचार्य दोनों का प्रचार अत्यन्त प्रभावशाली गति से हो रहा है। ऐसा इसलिए है कि योग को एक व्यवसाय का रूप दिया जा रहा है और हरएक योगाचार्य अपने-अपने कौशल को लोगों के सामने रखकर अधिक से अधिक ग्राहक बनाने में लगा है। योग को अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता मिल जाने के बाद लोकजीवन में भी इसकी मांग बढ़ी है जिससे योग का व्यवसायीकरण और तेज हो गया है। ऐसे में यह भी जरूरी नहीं है कि जहां योग करवाने का अधिक शुल्क लिया जाता है, वहां उच्च स्तर का योग ही सिखाया जाएगा। अतः योगासनों को सीखने और चाहने वाले लोगों को योग के साधकों से ही योग का ज्ञान लेकर अपने व्यवहार में लाने की आवश्यकता है।
विद्वानों ने कहा है कि मनुष्य के लिए निरोगी काया ही सबसे बड़ा सुख है। मनुष्य के समस्त बुद्धि कौशल को प्रकृति में जन्में एक अदृश्य विषाणु ने कुछ दिनों में ही धराशायी कर दिया। इसी बात से अब सबक लेने का समय है। लॉकडाउन में हम सब अपने घरों में बन्द रहे पर अब धीरे-धीरे फिर से बाहर निकलने का समय आता जा रहा है। हमें यदि इस धरती पर अस्तित्व में रहना है तो धरती के प्राकृतिक रूप से छेड़-छाड़ किए बिना अपने कामों को करने की आदतें विकसित करनी होंगी अन्यथा एक दिन यह प्रकृति मनुष्य को लील जाएगी।
प्रबोध राज चंदोल
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जुलाई 14, 2020