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Corona War: लॉकडाउन, मैं और आस-पास: 19

कृष्ण मोहन अग्रवाल

“लॉक डाउन, प्रभाव और निष्कर्ष

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः।
सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु।
मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
विश्व में समय-समय पर अनेकों विपदायें आती रही हैं, महामारी फैलती रही हैं, युद्ध होते रहे हैं, आर्थिक संकट आते रहे हैं। परंतु सर्वदा कुछ क्षेत्र, कुछ राष्ट्र ही उससे प्रभावित होते रहे हैं। परंतु संभवत: ऐसा पहली बार हुआ है कि सम्पूर्ण विश्व इस वृहत संकट के दौर से गुजर रहा है, शायद ही कोई ऐसा राष्ट्र हो जो इस संकट से अछूता है। सम्पूर्ण विश्व इस समय लॉक डाउन में है, सम्पूर्ण विश्व में युद्ध जैसी स्थिति है, एक ऐसा युद्ध जो सम्पूर्ण विश्व एक अदृश्य दुश्मन से लड़ रहा है और सम्पूर्ण विश्व आर्थिक संकट के अप्रतिम दौर से गुजर रहा है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे जीवन पूर्णत: थम सा गया है, यद्यपि हमारी श्वासें  चल रही हैं और सभी दैनिक क्रिया कर्म, सोना जागना, भोजन आदि यथावत हैं।

देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान
कितना बदल गया इनसान कितना बदल गया इनसान
सूरज न बदला चांद न बदला ना बदला रे आसमान
कितना बदल गया इनसान कितना बदल गया इनसान

यह गीत जिस समय लिखा गया था उस समय, लॉक डाउन से पहले और लॉक डाउन के समय भी उतना ही प्रासंगिक है और लॉक डाउन के बाद भी उतना ही प्रासंगिक रहेगा।
एक वाइरस जिसका जन्म चाइना के वुहान शहर में हुआ और धीरे-धीरे इसने महामारी का रूप ले कर सम्पूर्ण विश्व को अपने चपेट में ले लिया। इस वाइरस के जन्म एवं प्रसार के संबंध में अनेकों विवाद हैं जिनकी चर्चा करना यहाँ आवश्यक नहीं है। परंतु यहाँ यह कहना अति आवश्यक है कि इस वाइरस का नामकरण, इसकी उत्पत्ति स्थान के आधार पर “चाइना वाइरस” अथवा “वुहान वाइरस” होना चाहिये था जैसा भूतकाल में अन्य वाइरस के नामकरण में हुआ था। आरम्भ में अमेरिका सहित अनेकों देशों ने ऐसा कहा परंतु चाइना के तीव्र विरोध के कारण इसे आज हम “करोना वाइरस” या “कोविड 19” कह रहे हैं।


यद्यपि इस महामारी या किसी भी अन्य महामारी के केवल नुकसान ही होते हैं और इस महामारी से फ़ायदों की बात करना सिर्फ बेईमानी ही कही जा सकती है। परंतु जिस प्रकार सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी प्रकार प्रत्येक अनिष्ट के भी दो पक्ष होते हैं। हिन्दू मान्यतानुसार हर अनिष्ट में कुछ न कुछ इष्ट अवश्य निहित होता है, कुछ न कुछ शिक्षा अवश्य होती है।
जहाँ हम प्रदूषण से त्राहि-त्राहि कर रहे थे 2 किo मीo, कभी कभी तो 200 मीo, की दृष्टता नहीं थी, वहीं जालंधर से 200 किo मीo हिमाचल में स्थिति पर्वत माला स्पष्ट दिखाई दे रही हैं।


महानगरों में तारे अदृश्य हो गये थे जिन्हें हम फिर से टिमटिमाता देख रहे हैं। हमारी सुबह वाहनों के हॉर्न से होती थी, परंतु अब हम पक्षियों के कलरव सुनते हैं। गंगा, यमुना आदि नदियों के प्रदूषण से चिंतित करोड़ों रुपयों  हमने परियोजनाएं बना डालीं/ करोड़ों रुपये खर्च कर डाले, परंतु आज यही नदियां स्वत: इतनी निर्मल दिख रही हैं, ऐसे चमत्कार की हम कल्पना भी नहीं करते थे।

जहां इस लॉक डाउन में अनेकों व्यवसायियों एवं प्रॉफेश्नल को एक लंबा विश्राम मिल गया, वहीं गृहणियों को विश्राम मिलना तो दूर उनका काम और अधिक बढ़ गया। 
यहाँ हम इस महामारी के इसी दूसरे पक्ष से अवगत होंगे I
कुछ तथ्य जो उभर कर सामने आये
1. आज अमेरिका अग्रणी देश नहीं है।
2. चीन कभी भी विश्व कल्याण की नही सोच सकता।
3. कोई भी भौतिक वस्तु अन्न जल से ज्यादा मूल्यवान, महत्त्वपूर्ण नहीं है I
4. अन्नदाता (किसान) ही सर्व श्रेष्ठ है I
5. हमें छोटी छोटी सेवा दूध, फल, सब्जी देने वाले, सफाई कर्मचारी ……आदि जिन्हें हम हेय दृष्टि से देखते हैं हमारे लिए कितने महत्वपूर्ण हैं जिनके बिना हमारे अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है।
6. मानव जीवन से ज्यादा कुछ भी मूल्यवान नहीं है I
7. आपदा प्रबंधन में कुशल नेतृत्व व टीम वर्क अति महत्वपूर्ण है।
8. यद्यपि यूरोपीय भारतीयों से ज्यादा उच्च शिक्षित हैं, उन्नतिशील हैं, समृद्ध हैं परंतु आपदा प्रबंधन में, अनुशासन में भारतीय ही अग्रणी हैं।
9. भारतीयों की रोग प्रतिरोधक क्षमता विश्व के लोगों से बहुत ज्यादा है।
10. किसी भी समाज के वास्तविक नायक स्वास्थ्य कर्मी, पुलिस कर्मी, प्रशासन कर्मी हैं न कि फिल्मी सितारे, क्रिकेटर व अन्य खिलाडी, अथवा अन्य कलाकार एवं बुद्धिजीवी I परंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि हम इनके योगदान और इनकी महत्ता पर कोई प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं।
11. प्रकृति से हम कितने दूर चले गये थे इसका प्रत्यक्ष आभास हमें अब हुआ।
12. प्रगति प्रगति के नशे में, भौतिकवादी दुनिया की ओर भागते भागते हम प्रकृति का कितना अनिष्ट कर रहे हैं इसका भान हमें अब हुआ।
13. पहली बार पशु व परिन्दों को लगा कि यह संसार उनका भी है।
14. तारे वास्तव में टिमटिमाते हैं यह विश्वास महानगरों के बच्चों को पहली बार हुआ।
15. विश्व के अधिकतर लोग अपना कार्य घर से भी कर सकते हैं।
16. भोजन पकाना, साफ सफाई एवं अन्य गृह कार्य करना केवल स्त्रियों का ही काम नहीं है पुरुषों का भी दायित्व है और वे इसे बखूबी निभा सकते हैं।
17. देशी कम्पनी और विदेशी कम्पनी में क्या अंतर होता है I देशी कंपनियों में मानवता कूट-कूट कर भरी होती है जब कि विदेशी कंपनियों का मानवता से कोई सरोकार नहीं होता है।
18. सामूहिक परिवार एकल परिवार से अच्छा होता है।
19. हमारे नजदीक के छोटे छोटे दुकानदार ऑनलाइन सामान बेचने वाली बड़ी बड़ी कंपनियों से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।
20. हमें अपने वैदिक मूल्यों, जिन्हें हम अंध विश्वास समझते थे, उनकी महत्ता एवं उनके वैज्ञानिक आधार का ज्ञान हुआ।
क्वारेंटाईन होना और सैनीटाइजेशन:
आज इस वायरस/ महामारी से बचाव का हम एक मात्र उपाय हम क्वारेंटाईन होना और सैनेटाइजेशन यानी स्वच्छता को मान रहे हैं।

भारतीय संस्कृति में आदि काल से “स्वच्छता” और ‘‘सूतक’’ का उल्लेख किया गया और हमारे बुजुर्ग इसका पालन करते आ रहे हैं जो एक प्रकार से क्वारेंटाईन ही है। ‘‘सूतक’’ से बचना अर्थात अशुद्धता, अदृश्य नकारात्मक ऊर्जा से दूर रहना जिससे हम सुरक्षित रहें। जबकि विदेशी संस्कृति के नादान लोग हमारे इसी ‘सूतक’ को समझ नहीं पा रहे थे, इसे अंध विश्वास समझते थे और धीरे धीरे हम भी उनके बहकावे में आ चले थे । भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृत में स्वागत करने कि पद्धति में कौन सी पद्धति श्रेष्ठ है इसका आभास सम्पूर्ण विश्व को हो गया I नमस्कार करना अभिवादन की सर्वश्रेस्ठ सुरक्षित पद्धति है, न कि हाथ मिलाना अथवा चुंबन करना, यह बात सम्पूर्ण विश्व को समझ में आ गई I वो समझ ही नहीं रहे थे कि मृतक के शव में भी दूषित जीवाणु होते हैं ? हाथ मिलाने से भी जीवाणुओं का आदान-प्रदान होता है? हम शवों को जलाकर नहाते हैं और वो नहाने से बचते हैं I शवदाह ही शव निस्तारण कि सर्व श्रेस्ठ और सबसे सुरक्षित पद्धति है यह अब प्रतिपादित हो गया है I

हिन्दू मान्यताओं के अनुसार:

बच्चे का जन्म होता है तो ‘‘सूतक’’ लागू करके मॉ-बच्चे को एक माह तक अलग कमरे में रखते हैं यानी क्वारेंटाईन करते हैं।
किसी कि मृत्यु होने पर परिवार लगभग 12 दिन ‘‘सूतक’’ में रहता है यानी क्वारेंटाईन रहता है। मंदिर में पूजा-पाठ भी नहीं होती है और सूतक के घरों का पानी भी नहीं पिया जाता।
जो लोग शव की अंतिमयात्रा में जाते हैं उन्हे सबको ‘‘सूतक’’ लगता है, वह अपने घर जाने के पहले नहाते हैं, फिर घर में प्रवेश करते हैं। स्वछता एवं जीवाणुओं से सुरक्षा के धेय से सैनीटाइज करते हैं।
हम जिस व्यक्ति की मृत्यु होती है उसके उपयोग किये सारे रजाई-गद्दे चादर तक ‘‘सूतक’’ मानकर बाहर फेंक देते हैं।
हम लघु शंका, दीर्घ शंका के बाद कम से कम 3 बार साबुन/ शुद्ध मट्टी से हाथ धोते हैं यानी सैनीटाइज करते हैं, तब तक क्वारेंटाईन रहते हैं। बल्कि दीर्घ शंका के बाद नहाते हैं तभी शुद्ध होते हैं।
हम चन्द्र और सूर्यग्रहण में ‘‘सूतक’’ मानते, ग्रहण में भोजन नहीं करते हैं रहे और अब इस अवधारणा को मेडिकली प्रमाणित किया जा रहा है ।
हमने सदैव से होम हवन में घी, कपूर, लोंग और अन्य हवन सामग्री का उपयोग करते हैं जिससे जीवाणु मरते हैं और वातावरण शुद्ध होता है I आज पूरा विश्व इसे समझ रहा है ।
हम कपूर से आरती करते हैं क्यों कि कपूर जलाने से जीवाणु मरते हैं और वातावरण शुद्ध होता है I
हम मंदिरों में शंखनाद करते हैं और बड़े-बड़े घंटे-घंटियॉ बजाते हैं जिनकी ध्वनि आवर्तन से अनंत सूक्ष्म जीव स्वयं नष्ट हो जाते हैं। इसे भी आज पूरा विश्व मान रहा है I
हमने स्वच्छता के महत्व से ही शाकाहारी भोजन अपनाया और मांसाहारी भोजन को वर्जित माना।
हमने भोजन करने के पहले अच्छी तरह हाथ धोने यानी सैनीटाइजेशन को अपनाया और उन्होने चम्मच को अपनाया।
हमने स्वच्छता/ सैनीटाइजेशन के महत्व को समझते हुये घर में बाहर के जूते चप्पलों को ले जाना वर्जित माना I
हम प्रति दिन, विशेषत: रोगी के, नहाने के पानी में सैनीटाइजेशन के लिए नीम डालते हैं और वो कई दिन नहाते ही नहीं।
हमारे यहाँ वर्षा काल के बाद दीपावली से पूर्व प्रतिवर्ष पूरे घर की साफ सफाई एवं छूने से पोताई की प्रथा है, यह सैनीटाइजेशन ही तो है।
हम प्रतिदिन दूध में हल्दी, तुलसी के सेवन की हमारी प्रति रोधक क्षमता बढ़ाने के लिए ही संतुति करते हैं I हल्दी हमारे भोजन का अनिवार्य अंग है।
हम तो उत्सव मनाते हैं तो मंदिरों में जाकर पाठ करते हैं, धूप-दीप हवन करते हैं वातावरण को शुद्ध करने के लिये और वो मदिरा पी कर जश्न मनाते हैं।
हमने गाय के गोबर के सैनीटाइजेशन महत्व को समझा और इससे कच्चे घर के फर्श को लीप कर जीवाणु रहित करते हैं।

हम अतिसूक्ष्म विज्ञान को समझते हैं, आत्मसात करते हैं और वो सिर्फ कोरोना के भय में समझने को तैयार हुए। हमारी संस्कृति हमारी जीवन शैली में हमें उन सूक्ष्म जीवाणुओं से सतर्क रहने और हमारी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाना निहित है।

हम जाहिल, दकियानूसी, गंवार नहीं हैं बल्कि हम सुसंस्कृत, समझदार, अतिविकसित महान संस्कृति को मानने वाले हैं। हमारे पूर्वज ऋषि मुनि अति उन्नत श्रेष्ठ वैज्ञानिक थे। आज हमें गर्व होना चाहिऐ कि पूरा विश्व हमारी संस्कृति को सम्मान से देख रहा है और हमारी प्रथा, मान्यताएं जिन्हें हम अंध विश्वास दक़ियानूसी समझते थे उनका अनुसरण कर रहा है।

हमें भी अपनी भारतीय संस्कृति के महत्व को, उनकी बारीकियों को और अच्छे से समझने की आवश्यकता है क्योंकि यही जीवन शैली सर्वोत्तम, सर्वश्रेष्ठ और सबसे उन्नत हैं।

आज ह्म समझ गए हैं हमारा वैदिक काल कितना उन्नत था हम क्यों विश्व गुरु थे और आज ह्म पुन: उसी दिशा में अग्रसर हो चले हैं।

गर्व से कहिये हम सबसे उन्नत हैं।

सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जहॉ हमारा,
कुछ तो बात है, हस्ती मिटती नहीं हमारी।

लॉक डाउन के निष्कर्ष को हम भूल न जायेँ। आवश्यकता है इन निष्कर्षों को आत्मसात करने की।

अंत में फेस बुक से

हमें इन सभी “स्टूपिड पीपुल” जिनमें प्रचारक बनाम करोना प्रसारक भी शामिल हैं, जो राष्ट्र द्रोही हैं, मानवता के दुश्मन हैं को चिन्हित कर के इनका यथोचित दण्ड देना आवश्यक है जिससे ये पुन: सर न उठा सकें और मानवता को शर्मसार करने की धृष्टता न कर सकें।

आज प्रात: एक बहुत छोटी सी घटना मेरे साथ हुई।एक छिपकली मेरे सर से छूती हुई जमीन पर गिर गई। बुजुर्गों से मिले संस्कार के अनुसार मैं अशुद्ध हो गया था और जब तक स्नान कर के मैं शुद्ध नहीं हो जाता तब तक कोई भी वस्तु मैं छू नहीं सकता था। मैने तुरन्त स्नान किया और सारे वस्त्रों को अलग से धोया। स्नान पश्चात घर के मन्दिर में देशी घी का दिया जलाया।

हम इस पूरी प्रक्रिया को छुआ-छूत और अन्धविश्वास की संज्ञा देते हैं। परंतु अब हम इस छोटी सी घटना का आज के संदर्भ में विश्लेषण करेंगे।

आज इस करोना महामारी के संदर्भ में हम सैनीटाईजेशन और क्वारेनटाइन होने की बात करते हैं। करोना संक्रमण के प्रसार में करोना क्रोनोलॉजी समझाने के लिये एक वीडियो दिखाया जाता है जिसमें बताया गया है किस प्रकार से एक वस्तु से दूसरी वस्तु के स्पर्श से दूसरी वस्तु संक्रमित होती है, एक व्यक्ति के दूसरे व्यक्ति से स्पर्श पर दूसरा व्यक्ति संक्रमित होता है, किसी संक्रमित वस्तु के संसर्ग से व्यक्ति संक्रमित होता है।

यदि उपरोक्त वैज्ञानिक तथ्य है तो फिर हमारी मान्यताएँ, छुआ छूत अन्ध विश्वास क्यों? छिपकली के स्पर्श से सूक्ष्म जीवाणु मेरे बालों में प्रवेश कर जाते हैं और मान्यतानुसार हम अशुद्ध हो जाते हैं और जब तक हम स्नान नहीं करते हमारे लिये कुछ भी स्पर्श करना वर्जित होता है यानी हमें क्वारेनटाइन कर दिया जाता है। स्नान कर के हम सैनीटाईज होते हैं, शुद्ध होते हैं। तत्पश्चात देशी घी का दिया जला कर वातावरण को जीवाणु रहित बनाते हैं।

इस छोटी सी घटना का निष्कर्ष यह है कि जिन मान्यताओं को ज्ञान के अभाव में हम अन्धविश्वास और ढकोसले का नाम देते हैं, उन सभी के वैज्ञानिक आधार हैं जिनका विस्तृत ज्ञान हमारे ऋषी मुनियों को था और धीरे-धीरे अब उन सभी मान्यताओं के वैज्ञानिक आधार प्रतिपादित हो रहे हैं।

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