प्रबोध राज चंदोल
“लोग एक दूसरे से डरकर भाग रहे हैं”
नौकरी करते हुए अनेक वर्ष संघर्षशील रहे और यहां तक कि घर पर भी बैठना पड़ा। पर कभी जीवन की भाग-दौड़ कम नहीं हुई। जीवन तो सभी का भागदौड़ वाला और संघर्षमय होता है, पर सभी के अपने अपने अनुभव होते हैं।
अब मैं जीवन के 60 वर्ष पूरे कर चुका हूं और सेवानिवृत होकर सामाजिक जीवन जी रहा हूं। पिछले दिनों सोचता था कि यह सामाजिक जीवन नौकरी से भी अधिक व्यस्त हो गया है। कभी-कभी तो मन करता था कि बहुत हो चुका, अब सब कुछ छोड़कर आराम करना चाहिए। ऐसे में क्या पता था कि जल्दी ही कुछ दिन ऐसे आएंगे जिसमें सचमुच आराम ही आराम मिलेगा और केवल मेरे लिए ही नही बल्कि सभी के लिए!
घर में रहकर केवल आराम ही आराम, कोई काम-धाम नहीं, बस घरेलू छोटे-मोटे काम, खाना-पीना और आराम!अब तक के जीवन में यह पहला अवसर है जब ऐसी घरबन्दी हुई हो। अपने मन से आप कई दिन तक घर में बन्द रह सकते हो, पर यदि अनचाहे घर मेें बन्द रहने की कोई स्थिति बन जाए तो एक घण्टा भी काटना कठिन हो जाता है। उस समय बाहर जाने की जरूरत भी कुछ ज्यादा ही महसूस होती है।
एकदम से लॉकडाउन शुरू हो गया था। पहले तो ऐसा लगा कि अब क्या होगा? कैसे खाने का सामान लाएगें ? बाहर नहीं निकलेंगे तो सभी काम रुक जाएंगे, जीवन ही ठप्प हो जाएगा.. आदि आदि। पर, धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया। ऐसे में मनःस्थिति में बदलाव आना स्वाभाविक ही है।
कोरोना वायरस ने अदृश्य के प्रति हमारी आस्था को और अधिक बलवती किया है। पहले कभी-कभी एकांत में बैठकर मन में यह विचार आते थे कि इस दुनिया में असली तत्व वही है जो दिखाई नहीं देता और दिखाई देने वाली सभी चीजें धोखा हैं। पर, फिर यह सब दार्शनिक लगता और विचार भंग हो जाता।
मैंने अनेक वर्ष तक होम्योपैथी से संबन्धित विभाग में काम किया है। इस नाते कई आम लोगों से इस पद्धति के बारे में बात होती तो वे बताते थे कि उन्हें होम्योपैथी की दवा बहुत असर करती है और उनकी बात सुनकर मैं यह सोचता कि यह दवा असर कैसे करती है जबकि इसमें तो दवा का तत्व ढूंढना ही कठिन है? आपकी जिज्ञासा के लिए बता दूं कि होम्योपैथी के टिंग्चर में 3 पोटैंसी के बाद दवा का तत्व ढूंढ पाना बहुत कठिन है।
वर्तमान में कोरोना वायरस ने यह सिद्ध कर दिया है कि जो दिखाई नहीं देता उसी का प्रभाव अधिक होता है। मन यह सोचने पर मजबूर है कि बिना भाग-दौड़ के भी जीवन चल रहा है और पहले जो चीजें आवश्यक लग रही थीं अब उनकी आवश्यकता प्रतीत ही नहीं हो रही है। कई बार बैंक जाकर पैसे निकालने की सोची, पर नहीं गया। सोचा, कम में ही गुजारा कर लूंगा। न जाने कहां पर पुलिस वाले मिल जाएं? अपनी इज्जत अपने हाथ है और जब काम चल रहा है तो लक्ष्मण रेखा क्यों तोड़ना?
पहले दूध आदि लेने के लिए कॉलोनी के बाहर वाली दुकान पर चला जाता था। पर अब कॉलोनी के अन्दर ही एक छोटी दुकान से रोजमर्रा का सामान ले लेता हूं। आस-पास अलग सा माहौल है। जैसे दो चुम्बक के टुकड़ों को उनकी विपरीत दिशा के साथ एक साथ रखें तो वे एक दूसरे से दूर भागते हैं, वैसे ही आदमी, आदमी को देखकर भाग रहा है। दूरी बनाना तो सही है पर कुछ लोग तो अति करते हैं। ऐसे बचकर दूर भागते हैं जैसे भरी गर्मी में आग की लपटें उनकी ओर चली गई हों। एक दूसरे को देखकर ऐसा भय पहले कभी नहीं देखा। यहॉं तक कि किसी व्यक्ति के हाथ में हथियार देखने पर भी इतना भय नहीं लगा जितना कि अब बिना हथियार के लोग एक दूसरे से डरकर भाग रहे हैं।
हमारी कॉलोनी में कई छोटे-छोटे पार्क हैं। उनमें कुछ गिने चुने लोग आज भी सुबह कुछ देर के लिए घूमने के लिए आते हैं। पर लॉकडाऊन से पहले जो लोग नियमित आते थे, अब उनमें से अधिकतर लोग दिखाई नहीं देते हैं। बात करना तो दूर, एक दूसरे का अभिवादन करने से भी लोग कतरा रहे हैं। इक्का दुक्का कोई जानकार दिख जाता है तो कन्नी काटकर निकल जाने की कोशिश करता है ताकि कोई बात ही न करनी पड़े।
मेरा लड़का फरवरी के शुरू में अपनी नौकरी के काम से एक सप्ताह के लिए विदेश गया था। लगभग उसी समय विदेशों में कोरोना के मामले आने शुरू हो गए थे। उसके वापिस आने के बाद सरकारी तंत्र द्वारा कई बार उसके स्वास्थ्य के बारे में जानकारी ली गई। अभी कुछ दिन हुए फिर से पुलिस हाल-चाल लेने आई थी। सरकारी तंत्र की इस प्रकार की चुस्ती तो सबके हित में ही है, पर लोगों में कोरोना के भय का स्तर इस तरह से हावी है कि आस-पास के लोग हमें ही संदेह की दृष्टि से देखने लगे। इसमें दोष किसी का नहीं है, यह समय ही ऐसा है कि सभी एक दूसरे से बचते फिर रहे हैं।
हमारे आवास परिसर में कई छोटे छोटे पार्क हैं जहां गिलहरी, चिड़िया, कौवे, कबूतर आदि भी रहते हैं। मैं सुबह दूध लेने जाता हूं तो कुछ देर वहां गुजारता हूं। लॉकडाउन में मैंने यह आभास किया है कि अब ये पक्षी वहां अधिक स्वछंदता से रहते हैं जबकि अब वहां वे लोग भी नहीं आ रहे हैं जो उनके लिए नियमित रूप से दाना आदि डाला करते थे।
निश्चित ही यह लॉकडाउन कुछ न कुछ बदलाव तो लाने वाला है। मुझे तो यह लगता है कि यह कोरोना वार (आक्रमण) आदमी के व्यवहार में भी कुछ विलक्षण परिवर्तन लाकर रहेगा। शरीर के भीतर चुपचाप आकर बैठ जाता है और कुछ पता ही नहीं चलता। और फिर कुछ दिनों बाद अपना विकराल रूप दिखाता है। एक-दो दिन से तो यह सामने आ रहा है कि इसने अपना दूसरा रूप दिखाना शुरू कर दिया है। मनुष्य सामान्य है कोई लक्षण नहीं, पर भीतर कोरोना को लेकर घूम रहा है। कुछ सिर-फिरे इस खतरे को समझ नहीं रहे हैं। ऐसे में भी बेवजह सड़क पर अपनी स्कूटी या तेज आवाज वाली मोटर साईकिल तेजी से चलाते हुए सड़क पर दिखाई दे जाते हैं उनका क्या करें……?
प्रबोध राज चंदोल
अप्रैल 20, 2020