
“ढाल “
मैं
उन पराक्रमी पुरुषों में
नहीं हूं कि जिन्हें
मैं न चाहूं तो
उनकी राख भी
नहीं मिल सकती
इस पृथ्वी पर ।
न ही मैं
उन खुशनसीब
लोगों में हूं कि जो
किसी को चाहें
तो वे वसंत की तरह
समा जाते हों
उनके रोम रोम में ।
मेरे चारों तरफ फैला है
असमंजस का अंधेरा
और मेरी बाहाँ पर है
संपोलों का डेरा
जिन्हें देखकर लोग
हो जाते हैं भयभीत ।
लोग जानते हैं कि
फैल चुका है विष मेरी रगों में
जो कर सकता है मृतप्राय
उन्हें भी।
लोग जानते हैं
मैंने अपनी नजरों से नहीं किया
किसी का शिकार
और न ही मेरी फुफकार से
हुआ है कोई आहत
लेकिन फिर भी
मेरे ऊपर होती रहती है
बाणों की बौछार।
वे
कर देना चाहते हैं
मुझे खत्म
मेरे भीतर के ज़हर को नहीं
यह ज़हर ही तो है
उनकी अभिलाषा।
यह विष
जो था मेरे लिए एक ढाल
उनके लिए बन गया है
एक शस्त्र !
Sneh Madhur
12/10/1997
कुछ तो बोलो
सच बोलो
झूठ बोलो
कुछ भी बोलो
दिल तो खोलो जी।
इधर देखो
उधर देखो
किधर भी देखो
आंखें तो खोलो जी।
इनको भूलो
उनको भूलो
सबको भूलो
यादों में तो लाओ जी।
एक बार दो
दो बार लो
कितना भी लो
गुनना तो सीखो जी।
अकड़ा करो
नखड़ा करो
झगड़ा करो
बिगड़ा तो करो जी।
ताका करो
झांका करो
भागा करो
दूरी तो लांघो जी।
छोड़ा करो
जोड़ा करो
तोड़ा करो
पकड़ो तो सही जी।
19/05/2023 Friday 9.30 am
मेरा आसमान
स्नेह मधुर
पहाड़ पर चढ़ रहे व्यक्ति के पास
ऊंचाई पर पहुंचने से
ठीक पहले
रह जाती हैं
बस कुछ ही सांसें
कुछ गिनी हुई सांसें
और गिने हुए कदम।
और फिर शुरू होती है जंग
वैसी ही जैसे
स्लॉग ओवर में
बची हुई कम गेंदों पर
अधिक रन बनाने की
गेंद कम
दरकार ज्यादा रनों की
थमने लगती हैं सांसें
लक्ष्य लगने लगता है बहुत दूर
और अचानक
बल्ले से निकले चौके छक्के
उस असंभव दूरी को
देते हैं ढकेल पीछे
लक्ष्य होता है पैरों के नीचे और
फिर भी बची रह जाती हैं
कुछ सांसें ।
लेकिन क्रिकेट जैसी उत्तेजना
और संभावनाएं अविजित लक्ष्य को
हासिल कर सकने की
नहीं होती जिंदगी में
खासकर चढ़ते समय पहाड़
जब लक्ष्य होता है पास
लेकिन सांसें होती हैं
उससे भी कम
तब
उन कीमती सांसों को
बचाए रखने के लिए
छोड़नी पड़ती हैं
सांसों से भी अधिक कीमती चीजें।
पहाड़ की चढ़ाई पर
नहीं काम आते कीमती उपकरण
या अंतरंग रिश्ते
लक्ष्य हासिल करने में
बोझ बन रहे रिश्तों की
देनी पड़ती है बलि
वरना लग जाता है
असफलता का दाग़
जो नहीं छूट पाता
किसी भी डिटर्जेंट से।
सांसों को
बचाए रखने के लिए
छोड़नी पड़ती है उन लम्हों पर से
अपनी गिरफ्त
और देखना पड़ता है उन्हें
अपने से दूर जाते हुए
जिन्हें बचाने के लिए
साथ संजोए रखने के लिए
मैंने किए थे
ढेर सारे वायदे खुद से
अब जब मुझे चढ़ना ही है पहाड़
पहुंचना है समिट तक
तो तोड़ना पड़ेगा उन कसमों को
बनना पड़ेगा निष्ठुर
क्योंकि
मैंने खुद से भी किया था एक वायदा
शिखर पर
अपने पद चिन्ह बनाने का।
है मुश्किल
अर्जुन बनना
जो नहीं हो पाते पाशमुक्त
वे नहीं बन पाते
अनुकरणीय।
मैं पहला व्यक्ति नहीं होऊंगा
एवरेस्ट पर फतह हासिल करने वाला
लेकिन हो सकता हूं वह पहला आरोही
जो सैकड़ों की भीड़ में से
आगे निकलते हुए
कुछ पहले
एवरेस्ट पर पहुंच जाने वालों में।
तेनजिंग ने सातवीं बार में
हासिल किया था लक्ष्य
मैं
तीसरी, चौथी बार में ऐसा करके
आ सकता हूं दुनिया भर की नज़र में
बस इसके लिए मुझे
बचाए रखनी होंगी
कुछ सांसें
अपने लिए।
मैं नहीं चाहता रौंदना पहाड़ को
बस चाहता हूं नापना
अपने पैरों से पहाड़ को
मेरे पैरों के नीचे की भी ज़मीन
है उतनी ही पूज्य
जितना आंखों से दिखता आसमान।
जैसे मैं चाहता हूं
अपनी आंखों से
नीले आसमान को
अपने भीतर उतार लेना
उसी तरह चाहता हूं
इन श्वेत ऊंचाइयों को
समाहित कर लेना
अपनी रगों में।
आंखों से दिखने लगा है शिखर
पुकारने लगी हैं दिशाएं
लक्ष्य की है यह मांग
बचाना ही होगा इन सांसों को
पहाड़ों की इन ऊंचाइयों पर
चढ़ करके ही
आ सकता है मेरी बाहों में
मेरा आसमान!!!
निश्चित आकार
मन के उमड़ते ही
घुमड़ते बादलों के बीच से
अचानक
लगती हैं टपकने
फिर बरसने
उनकी मदहोशियां
और फिर भिगोकर ये लफ़्ज़
हो जाते हैं
विलीन
सब कुछ उड़ेलकर।
भविष्य में
जब कोई
बांचेगा उन्हें
तो निकालेगा अपने अर्थ
नहीं पहुंच पाएगा
उन बादलों तक
नहीं ढूंढ पाएगा
बादलों को पिघला देने वाली
उस नितांत निजी
ऊष्मा को।
सबकुछ अनकहा
अनसुना
बस
सागर मंथन
और कुछ नहीं
कुछ भी नहीं!!!
(29/01/2023 साढ़े 11 दोपहर, रजाई के अंदर)
अमिताभ बच्चन और मैं आमने सामने
When I was directing Amitabh Bachchan and Jaya Bachchan
बात 1984 दिसंबर की है। सुपरस्टार अमिताभ बच्चन इलाहाबाद से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे हेमवती नंदन बहुगुणा जी के खिलाफ़। मुझे माया पत्रिका से संपादक आलोक मित्रा जी और आदरणीय बाबूलाल शर्मा जी ने पूरे चुनाव के फोटो कवरेज की जिम्मेदारी सौंपी थी ट्रांसपेरेंसी (कलर टी पी) से जो उस समय इलाहाबाद में मेरे अलावा कोई नहीं खींच पाता था। कोडक की टी पी प्रोसेस होने के लिए इलाहाबाद से बॉम्बे जाती थी।
अचानक मुझे कहा गया कि मनोरमा पत्रिका के लिए एक इंटरव्यू लेना है, आज ही, अमिताभ जी और जया बच्चन जी का पारिवारिक फोटो के साथ, उसी दिन दोनों चीज़ चाहिए क्योंकि उसी दिन मनोरमा को छपने के लिए प्रेस में जाना था। उस दिन मतगणना चल रही थी और अमिताभ जी पार्क रोड में एक बंगले में मौजूद थे। मतगणना में अमिताभ जी उस समय बहुगुणा जी से करीब पचास हजार की लीड ले रहे थे और चारों तरफ जयकारे लग रहे थे।
मैं किसी तरह बंगले में पहुंच पाया। जया जी मुझे अच्छी तरह से पहचानती थीं, इसलिए भीड़ के बीच से उन्होंने मुझे भीतर बुला लिया था। भीतर ड्राइंग रूम में मैं था और जया जी, बस। जया जी ने मुझे एक लंबा साक्षात्कार दिया। साक्षात्कार में उन्होंने दावा किया कि अमिताभ जी की शक्ति को आप लोग नहीं पहचानते हैं, उनके wordwide contacts हैं और वह इलाहाबाद को बदल देगें, सड़कें hotmix plants बनेगी (जो बनी भी) और बसों में कंडक्टर नहीं होगें, automatic खुलने और बंद होने वाले दरवाज़े होगें आदि आदि। उन्होंने इलाहाबाद की गंदगी दूर करने का भी वायदा किया था और अपना एक अनुभव भी सुनाया था कि चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने जीरो रोड पर प्रशंसकों की तरफ हाथ हिलाते हुए ऊपर नज़र उठाई तो देखा कि दूसरी मंजिल पर अपनी बालकनी में खड़ा एक लड़का किस तरह से मुंह से थूक निकाल रहा था पूरी लंबाई में और फिर उसे अपने मुंह में खींच भी ले रहा था वापस…. So Disgusting…! जया जी ने कहा था कि मैं इलाहाबाद की बहू हूं और यहां के युवाओं को साफ सफाई के बारे में भी बताऊंगी.. हाइजीन के बारे में। अंत में मैने उनसे अमिताभ जी के साथ उनकी एक पारिवारिक फोटो खिंचवाने का भी अनुरोध किया।
जया जी ने कहा कि अमिताभ जी तो भीतर पूजा पर बैठे हैं, कैसे उठेगें? मेरे पुनः अनुरोध पर जया जी ने कहा कि मैं कोशिश करती हूं। यह कहकर वह भीतर चली गईं।
थोड़ी देर में वह बाहर आईं और उनके साथ सफेद कुर्ता पायजामा पहने और माथे पर लंबा चौड़ा टीका लगाए अमिताभ जी थे, कुछ गुस्साए से कि क्यों उन्हें पूजा से उठा दिया गया? कौन सी आफ़त आ गई थी? भीतर आकर उन्होंने मुझे घूर कर देखा जैसे पूछ रहे हैं कि क्या करना है?
मैंने उन्हें सोफे पर बैठने को कहा। वह एक सोफे पर बैठ गए तो मैंने लंबे वाले सोफे पर बैठने को कहा। वह सोफे के किनारे वाले एक सिरे पर बैठ गए और फिर प्रश्नवाचक नज़रों से मेरी तरफ देखने लगे। मैंने जया जी से भी सोफे पर बैठने के लिए कहा। जया जी सोफे के दूसरे किनारे पर बैठ गईं और वह भी मेरी तरफ प्रश्नवाचक निगाहों से देखने लगीं। मैंने अपने 124 जी मैट याशिका कैमरे को खोला और फोकस करने के बाद कहा कि आप लोग थोड़ा करीब आ जाइए।
मेरा आदेश सुनकर जया जी थोड़ी हिलीं लेकिन अमिताभ जी ने जरा भी हरकत नहीं की। उन दोनों लोगों के बीच लगभग दो तीन फीट का फासला बना रहा।
मैंने फिर कहा कि “आप लोग थोड़ा और करीब आ जाइए।”
मेरे आदेश को सुनकर जया जी ने अमिताभ जी की तरफ देखा लेकिन अमिताभ जी ने खामोशी ओढ़े रखी और क्रूरतापूर्वक नजरों से मुझे देखने लगे। मैं भूल गया था कि मैं सदी के महानायक को निर्देशित कर रहा हूं, जिसके सामने प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई तक पानी मांग जाते हैं। मुझे इस बात का कतई अहसास नहीं था जबकि मैं बॉम्बे में उनकी शूटिंग के दौरान उनका कड़क व्यवहार देख चुका था।
दोनों दंपत्ति के एक दूसरे के करीब आने की कोई मंशा न देखकर मैंने भी अपनी कैमरे पर से आंख हटाते हुए बेचारगी भरे स्वर में कहा, “ऐसा कैसे होगा अमित जी? मुझे पति पत्नी की फोटो एकसाथ चाहिए,आप cooperate नहीं कर रहे हैं।”
अमित जी ने मुंह खोला, भारी आवाज़ में बोले जिसका पूरा जग दीवाना था, “बैठे तो हैं हम साथ साथ, और क्या चाहिए?”
मैंने कहा कि”जैसे पति पत्नी बैठते हैं एक साथ, थोड़ा और करीब आइए।”
“साथ ही साथ तो बैठे हैं हम?”
“अरे, पति पत्नी की तरह, एकदम पास”।
“क्या पति पत्नी सोफे पर चिपक कर बैठते हैं हमेशा?”
यह सुनकर मुझे हंसी सी आ गई और सोचा कि शायद मैं उन्हें समझा नहीं पा रहा हूं।
जया जी भी हिचकिचाने सी लगी थीं। उन्हें लगने लगा था कि शायद कुछ ज्यादा हो रहा है, अमित जी का मूड उखड़ सकता है।
वह बोलीं, “इसी को ले लीजिए, अमित जी को पूजा पर बैठना है।”
मैं भी ज़िद पर अड़ गया। मुझे जो चाहिए था, वही लूंगा, कोई खैरात तो चाहिए नहीं।
जब देखा कि सोफे पर दोनों टस से मस नहीं हो रहे हैं तो मैंने नया idea उछाला, ऐसा करते हैं कि आप खड़े हो जाइए और खड़े खड़े वाली फोटो खींच लेते हैं।
अमित जी ने मेरी तरफ आग बबूला होकर देखा कि यह लौंडा मुझे नचा रहा है! उस समय मैं लौंडा ही था, कुल 25 साल की ही तो उम्र थी और सामने था बॉलीवुड का बादशाह जिसकी चमक का मेरे ऊपर कोई प्रभाव परिलक्षित नहीं हो रहा था। शायद यही बात अमिताभ जी को परेशान कर रही थी।
दोनों लोग खड़े हो गए। मैंने कैमरे में झांका, मज़ा नहीं आया। मैंने अमित जी से कहा, “थोड़ा और पीछे होइए।” अमित जी ने मेरा हुक्म मान लिया।
मैंने नया आदेश सुनाया, “थोड़ा और पीछे”।
अमित जी और जया जी थोड़ा और पीछे हुए।
मैंने कहा, दीवार से सट जाइए, वहां पर लाइट सही है।”
दोनों यंत्रचालित तरीके से और पीछे हो गए।
मैंने उनसे उस जगह को बदलने को कहा, “लाइट सही नहीं मिल रही है”, और जगह भी बता दी। मेरा यह आदेश भी मांन लिया गया तो मैंने दूसरा कारतूस निकाला और fire कर दिया, “ऐसे नहीं चलेगा…! आप लोग तो अजनबियों की तरह एक दूसरे के बगल में खड़े भर हैं। ऐसे कोई पति पत्नी खड़ा होता है फोटो में साथ? थोड़ा प्रेम प्रदर्शित कीजिए वरना फोटो देखकर लगेगा कि तलाक के बाद की फोटो है! मनोरमा पत्रिका पारिवारिक मैगजीन है, बंगालियों के घरों में जाती है, जरा intimate look दीजिए।”
इतना सुनते ही अमिताभ जी भड़क उठे, “मुझे नहीं खिंचवानी है फोटो, मैं जा रहा हूं”।
इतना कहकर अमित जी भीतर जाने वाले दरवाजे की तरफ चल दिए।
मैंने जया जी की तरफ कातर नजरों से देखा और बोला, “प्लीज़, समझिए कि मुझे क्या चाहिए?”
अचानक जया जी ने अपने तेवर बदले और अपने फार्म में आ गईं। शाल ओढ़कर दरवाजे की तरफ बढ़ रहे अमिताभ को रोकते हुए मुझसे कहा, “बस last… आप अपना कैमरा ready रखिए “!
मैंने कहा “yes, ok”
जया जी ने प्रेम पूर्वक अमिताभ की तरफ देखा और पास आने का आग्रह किया।
अमित जी और जया जी फिर उसी दीवार के साथ सट कर खड़े हो गए। लेकिन अमिताभ जी की अकड़ बदस्तूर थी। जया जी की योजना समझकर मैंने शटर पर अपनी उंगली लगा दी। जया जी ने मुझे गौर से देखा और कहा, “क्लिक”!
इतना कहते ही जया जी ने अमित जी की तरफ अपने को हल्का सा झुका लिया और अमित जी कुछ समझ पाते, इससे पहले उनकी कमर में अपना पूरा हाथ डाल दिया। मैंने शटर दबा दिया। जया जी के चेहरे पर मुस्कान आ गई और अमिताभ भी भौंचके से रह गए! मेरे को कैमरा बंद करते देख वह भी मुझे घूरते हुए पूजा करने के लिए कमरे में चले गए और जया जी ने मेरी तरफ मुस्कुराते हुए देखा और आंखों में चमक भरते हुए पूछा, “Happy !”
मुझे उस लड़कपन में इतनी भी तमीज़ नहीं थी कि मैं खुशी खुशी औपचारिक रूप से Thank you भी बोल देता क्योंकि उस समय की पत्रकारिता के दौर में मुझे श्रेष्ठ होने का भाव रखना सिखाया गया था। न किसी की चाटुकारिता करना, न ही सर कहना (जैसा कि आजकल का रिवाज़ है चैनल पर बड़े से लेकर छोटे तक को सर सर कहते दिखेंगे), न ही अहसान मानना…किसी की पोजिशन से भी अप्रभावित रहकर शुद्ध पत्रकारिता करना। जया जी के इस कठिन प्रयास में विशेष सहयोग का आभार व्यक्त करने की जगह मैं सोचे जा रहा था कि अभी तो इंटरव्यू लिखना है पत्रिका के लिए….कहीं देर न हो जाए! उस समय एक दिन में कई जिम्मेदारियों का निर्वाह करना पड़ता था। यहां से भागकर वहां जाना है और वहां से वहां…! बस भागते ही रहना, घड़ी की रफ्तार से भी तेज़।
और एक खास बात बता दूं। मनोरमा में यह साक्षात्कार तो छपा और फोटो भी। लेकिन इतनी मेहनत से खींची गई फोटो साक्षात्कार के बीच में क्वार्टर पेज छपी थी और वह भी ब्लैक एंड व्हाइट, जगह की कमी थी इसलिए फोटो के साथ न्याय नहीं हो पाया था।
अगली बार बताऊंगा कि जब बहुगुणा जी को पता चला कि अमिताभ बच्च
न उनके खिलाफ मैदान में उतरेंगे तो उन्होंने क्या प्रतिक्रिया दी थी….!!!
भविष्य
अगर कोई ढेला
आकर सिर से टकराए
और चारों तरफ’ चोर चोर की आवाज़
गूंज रही हो तो
मत घबराना
अपने पथ से विचलित मत होना
क्योंकि यह तो तय है कि
ढेला कोई आक्रामक ही मरेगा
कोई गांधी नहीं
और आजकल
आक्रामक बनने के लिए
कितने गठबंधनों की जरूरत पड़ती है
यह तो तुम जानते ही हो।
अगर सड़क के किनारे
कोई लावारिस व्यक्ति
दुर्दशा की हालत में पड़ा
तुम्हें दिख जाए
तो उसके तार तार हो गए वस्त्रों
जख्मों पर भिनकती मक्खियों और
आंखों में बसी पीड़ा को
बहुत गहराई से मत महसूस करना
क्योंकि वह हो सकता है
तुम्हारा भविष्य ।
यह जान लेना तो ठीक है
लेकिन सिर्फ इसलिए कि जब
तुम इस दौर से गुजरो
तो यही सोचना
कि यह तो अभी कुछ नहीं है
आक्रमणकारियों के पास तो
आत्मा को तार तार कर देने वाले शस्त्र हैं।
मुझे
लक्ष्य तक पहुंचने के लिए
लहू की गर्मी को
बरकरार रखना ही होगा।।
दर्पण
जब कोई निर्वस्त्र दिख जाता है
तो क्यों लोग आंखों पर
हाथ रख लेते हैं
आंखें क्यों
भींच लेते हैं
मुँह फेर लेते हैं
कहते है कि यह तो नंगा है।
नंगा क्या है ?
चेहरे पर मेक अप की कोई परत न होना
नंगई है?
रोज़ दाढ़ी सफाचट न करना
नंगई है?
और अंतः वस्त्रों को उतार देना
नंगई है?
अपने जख्मों की पट्टी खोल देना
नंगई है?
बालों को न रंगना
आंखों पर चढ़े कॉन्टैक्ट लेंस को उतार देना
नंगई है?
तौलिया लपेटे बिना बाथरूम से बाहर आ जाना
नंगई है?
चढ़ी धूप में आंखों पर से कला चश्मा उतार देना
नंगई है?
ये सब
न करना नंगई है
अपने को छुपाना
शिष्टता है
सुंदरता है
नफासत है
जो कुछ भी तुम्हारे पास है
वही सबकुछ तुन्हें देखने वाले के पास
लेकिन जो दिखता है सच्चाई
वह नंगा है
और उसे देखने दिखाने से बचने वाला
वह?
अमीर और सुसज्जित व्यक्ति का
दर्पण ही तो
नंगई!
(13/14 नवंबर 2010, 2.30 am)
बेचैन नदियां
मेरी ख्वाहिश है
कि मैं जा मिलूं
किसी दरिया से
मुझे लगता है कि
मेरे भीतर
बेचैन हैं
कई नदियां।
मैं नहीं गया
पहाड़ों पर कभी
लेकिन क्यों मेरे भीतर
जमा हो रहे हैं
पत्थरों के टुकड़े
लगातार अपना आकार खोते हुए।
तुम तक पहुंचने तक मुझे लगता है
वे सब बन चुके होंगे
रेत
और फिर उनके ऊपर
ठांठे मारेंगी
तुम्हारी इनायतें
और मैं बेदम होता हुआ भी
फूलकर हो जाऊंगा
कुप्पा।
मेरा सबकुछ समा जायेगा
तुम्हारे भीतर
और अगर रह गया कुछ भी साबुत
तो नहीं पा पचा पाओगे उसे
और उसे फेंक दोगे किनारों पर
जहां से उठाकर बच्चे
करेगें उससे अठखेलियां
तुम चाहते हो
जिसे भी बनाना अपना
नहीं तोड़ते उसे अपनी भुजाओं से
तुम्हें लगता है उसका साबुत बने रहना
ही है ठीक
तो कर देते हो उसे मुक्त
अपनी गिरह से।
ऐ दरिया
मुझे माफ कर दो
मैं हूं ठोस
नहीं लायक तुम्हारे प्यार के।
लेकिन एक सवाल
उठता है मेरे जेहन में
सब कुछ रेतीला पाकर भी
क्यों बार बार भागता है किनारों की तरफ दरिया
क्या वह पहुंचना चाहता है वहां
जहां उसका है कुछ अपना।
जहां पर कोई पहाड़
कर रहा होता है
उसका इंतज़ार
रेतों पर माथा पटककर
बारंबार जाते हो लौट
पहाड़ बन सकते हैं रेत
क्या रेतो का भी बन सकता है
पहाड़!
वह खुदको मिटाकर भी
रहता है असहाय
रेतो पर माथा पटकने से भी
नहीं पिघलते हैं रेत!
12- 2-35 pmm 1 अक्टूबर 2010 Night
कुछ तो कहो!
सच बोलो
झूठ बोलो
कुछ भी बोलो
दिल तो खोलो जी।
इधर देखो
उधर देखो
किधर भी देखो
आंखें तो खोलो जी।
इनको भूलो
उनको भूलो
सबको भूलो
यादों में तो लाओ जी।
एक बार दो
दो बार लो
कितना भी लो
गुनना तो सीखो जी।
अकड़ा करो
नखड़ा करो
झगड़ा करो
बिगड़ा तो करो जी।
ताका करो
झांका करो
भागा करो
दूरी तो लांघो जी।
छोड़ा करो
जोड़ा करो
तोड़ा करो
पकड़ो तो सही जी।
19/05/2023 Friday 9.30 am
जोड़े गए रिश्ते
रिश्ते न टूटें
तो अच्छा है
टूटे रिश्ते जुड़ें
तो और भी अच्छा है।
बस
चिटके दर्पण में
खुद को निहार सकने का
जज़्बा भी हो
अपने पास।
इस जबरन जोड़े गए रिश्ते को
समझ कर निरर्थक
कहीं फिर से
कूड़े में फेंक देने की
न पड़ जाए
जरूरत?
इसलिए
पुराने रिश्तों की सिहरन को
महसूस करने के लिए
गोंद से जोड़ी तस्वीर तो चल जाती है
लेकिन
टांके लगाकर जोड़े गए पहिए
नहीं चल पाते
दो कदम भी।।
प्रेम का झटका
कर देता है हल्का
उड़ा देता है पतंग की तरह
खटास कर देती है
जीभ को भी गोठिल।।
(29 जनवरी 2023 दोपहर 11 बजे)
बरसों से हूं तुम्हारी तलाश में
कहाँ-कहाँ नहीं ढूंढ तुम्हें
पहाड़ों के शिखर से लेकर
पठारों में
दरख्तों के नीचे तलक
और आंधी में उड़ आयें सूखे पत्तों के भी नीचे
और नरम दूब के ऊपर टंगी
ओस की बूंद के नीचे भी
इससे पहले कि उन्हें कोई दे कुचल अपने पैरों के तले
मैं ढूंढ लेना चाहता हूं तुम्हें ॥
मैं ढूंढ लेना चाहता हूं तुम्हें
सृष्टि के अन्तिम छोर तक सूर्य किरणों पर होकर सवार अगर वे पंहुचा पायेंगी तुम तक या फिर हवा के वेग के साथ मैं पंहुच जाना चाहता हूं उन कन्दराओं तक जहां पहुंचने में सूरज को भी आ जाता है पसीना
कहां छिपे हो तुम?
तुम हो कौन
इस उम्मीद के साथ कि
यह उम्र भी पड़ जायेगी कम
तुम्हें खोज पाने में
जिसे ढूंढते रहना चाहता हूं उम्र भर दिख जाये कोई अशक्त बूढ़ी काया और मैं हो जाऊं संज्ञाशून्य |
वह भी तब जब मेरे पास नहीं है कोई बोधिवृक्ष न ही हुआ है जन्म किसी प्रासाद में जहां किसी गवाक्ष से झांकने पर
मैं योद्धा हूं
मैंने कितनों का किया है वध
मेरे शरीर पर भी हैं अनगिनत घाव
लेकिन मैं जिन्दा हूं
इसलिए नहीं कि मैंने पी रखा है अमृत
बल्कि इसलिए कि नहीं बुझी है अभी
उम्मीद की किरण
मैं जानता हूं कि मैंने खुद को नहीं जन्मा और न ही अपने हाथों से किया है तलवार का वरण
लेकिन वार मैं खुद करता हूँ
और निशाना भी मैं ही साधता हूं.
मैं प्रकृति नियंत्रित हूं
लेकिन उत्तरदायी हूं अपने कृत्यों का
अपनी नियति का
मैं तुम्हें इसलिए ढूंढ रहा हूं
क्योंकि मैं जान लेना चाहता हूं वह अंतर भेद
जो तुममें और मुझमें है
क्या अन्तर है तुममे और मुझमें
तुमसे है सृष्टि और मैं भी हूं उसी का अंश
तुमने जन्मा है मुझे
पेड़-पौधों, पर्वतों, हिम नदियों को
आंख से दिखने वाली
और उनमें समाहित किया है संवेदनाओं को
तो मैंने भी रचा है अपने प्रतिरूपों को
भरी हैं उनमें अदृश्य महत्वाकांक्षायें – दुर्बलतायें
क्या फर्क है तुममें और मुझमें ?
तुम्हें ढूंढ रहा हूं मैं इसलिए
ताकि आलिंगनबद्ध करके तुम्हें
समाहित कर लूं अपने भीतर
जिसके भीतर अभी तक मैं हूं
वह सब चाहता हूं अपने भीतर
तुमने ही दी है यह काया
कृपा स्वरूप ?
बांधे रखने के लिए खुद से ?
मैं होना चाहता हूं मुक्त
तुम्हारी अदृश्य डोरों से
तुम्हारी इस कारा से
मैं नहीं बनना चाहता शासक
न ही तुम्हारी इच्छाओं का गुलाम
बन्द मुट्ठी के प्रहार से
बेहतर है
खुली हथेली का विस्तार
मैं अब भी ढूंढे जा रहा हूं तुम्हें
क्या मेरी तलाश पूरी नहीं हो पायेगी
किसी सुजाता के बिना
क्या गले में पड़ी माला की नियति
बंधन बन जाने में है
क्या मैं तुमसे प्यार ही कर सकता हूं
या फिर घृणा
इतना मत कसो मेरी वीणा के तार
कि हो जाऊं निःश्वांस
या फिर भटक जाऊं राह
किनारे नदी के प्रवाह को बाधित नहीं करते
तुम्हें ढूंढ रहा हूं मैं
तुम्हें देने के लिए चुनौती
अगर यह सबकुछ तुम्हारा है ही
तो फिर मैं कौन हूं
तुमसे असहमत का यहां क्या काम
और फिर तुम मुझे
खत्म भी नहीं कर सकते
क्योंकि मेरे खत्म होते ही इस दुनिया में
क्या रह जायेगा शेष
तो फिर क्या करोगे तुम
एकालाप ?
मैं तुम्हें कर रहा हूं बर्दाश्त
तुम्हें भी करना होगा
चाहो तो फूटने दो मुक्ति का कोंपल
उसे दो विस्तार
वह हर लेगा अन्धकार को
उसका फैलाव लायेगा इस धरती पर सवेरा
सवेरा जो होगा अपना
हम सबका
मैं ढूंढे जा रहा हूं तुम्हें
क्योंकि मेरे पास नहीं है दर्पण
जो होता
तो क्यों ढूंढता तुम्हें
दीवानों की तरह ॥
स्नेह मधुर
खा भी जाता है घर
कभी-कभी घर खींच लेता है
कभी-कभी कर हींच लेता है
कभी-कभी घर भींच लेता है
कभी-कभी घर सींच देता है
कभी-कभी घर खींच लेता है ।।
घर में होती है दीवारें और छत भी
जो देते हैं संरक्षण
घर के होते हैं हाथ पाव भी
जो देते हैं गति और आत्म निर्भरता
घर की होती है एक गोद भी
जिसमें होता है ममत्व
तो घर की होती है एक हद भी
जिसको तोड़ते ही सनक जाता है घर
और हो जाता है खंड खंड।।
घर का भी होता है एक आईना
जिसमें देख सकता है हर कोई
अपना बढ़ता कद और अपना फैलता आकार
नहीं चाहता कुछ भी एक मां की तरह घर
पर, घर भी रखता है कुछ चाह
और लेता है कुछ ठान
उसका भी होता है एक दंभ
कभी कभी बन जाता है एक पिता
कहने को निर्दयी।।
धूप लगने पर कभी छांह बन जाता है घर
तो सर्दियों में कभी लिहाफ बन जाता है घर
सुनकर कोई आहट चहकने लगता है घर
तो सूंघकर कोई गंध महकने लगता है घर
किसी अजीज को बाहर जाता देख
पैरों को कभी बांध देता है घर
तो अनचाहों को देख दरवाजे भी बंद कर लेता है घर।।
सब को ठहरा देने वाला कभी श्राप बन जाता है घर
तो नई मंजिलों की तरफ रुखसर बंदों का
आशीर्वाद बन जाता है घर
रोज आने जाने वालों के लिए सड़क बन जाता है घर
तो बुलाने पर भी न आने वालों के लिए
कड़क बन जाता है घर
थके हारों के लिए कभी भूख और नींद बन जाता है घर
तो दिवास्वप्नों में डूबों को
खा भी जाता है घर।।
(7 मार्च 2023 दोपहर 12 बजे)
स्नेह मधुर
लफ्ज़
लफ्जों के भी
होते हैं दांत
किसी ने काटा तो होगा ही
लंबे समय तक जख्म पर
जैसे नमक छिड़कने का
होता होगा अहसास!
लफ्ज़ों के
जीभ भी होती है
नहीं?
तो तुम्हें जीभ को सिर्फ दूर से चलाने में ही
हासिल है महारत
किसी के पास आकर
और पास आकर
लाओ जीभ को
हरकत में
लहरों की तरह मचलने लगेगा अंग अंग
और फूटने लगेगी
वागधारा!
लफ्ज़ों के होते हैं
दिमाग़ भी
चालाकी से किसी ने
चुरा लिया होगा कुछ
नहीं पता चला होगा अब तक।
लफ्ज़ नहीं बोलते झूठ
सच्ची कहता हूं
तुमने मुझसे कहा
चाहत हो तुम मेरी
खुद को च्यूंटी काटकर
बार बार हो जाता हूं रोमांचित
अब भी।
लफ्ज़ों के होते हैं हाथ पैर भी
नहीं, यह सच नहीं है?
लफ्ज़ होते हैं विकलांग
नहीं होते हैं उनके हाथ पैर
वे बस लुढ़कते ही रहते हैं
नहीं होते हैं उनके मुंह
जब भी आते हैं लफ़्ज़ मेरे पास
तो आते हैं उड़कर
कानों में घोल जाते हैं
अपना दुख सुख
और समझा जाती हैं दुभाषिया बनकर
उनके साथ आईं
ढेर सारी
हवाएं।
लफ़्ज़ नहीं बन पाते
कठपुतलियां
नहीं नाचते हैं
उंगलियों के इशारों पर
नहीं होता उनका कोई
निश्चित आकार
मन के उमड़ते ही
घुमड़ते बादलों के बीच से
अचानक
लगती हैं टपकने
फिर बरसने
उनकी मदहोशियां
और फिर भिगोकर ये लफ़्ज़
हो जाते हैं
विलीन
सब कुछ उड़ेलकर।
भविष्य में
जब कोई
बांचेगा उन्हें
तो निकालेगा अपने अर्थ
नहीं पहुंच पाएगा
उन बादलों तक
नहीं ढूंढ पाएगा
बादलों को पिघला देने वाली
उस नितांत निजी
ऊष्मा को।
सबकुछ अनकहा
अनसुना
बस
सागर मंथन
और कुछ नहीं
कुछ भी नहीं!!!
(29/01/2023 साढ़े 11 दोपहर, रजाई के अंदर)
31/07/2009
मैं टूट रहा हूं.
टूटन की शुरुआत हुए
गुजर गया है एक लम्बा वक्त।
लंबा वक्त इसलिए कि
जुड़ने का आकार लेने का वक्त
उससे छोटा था।
एक बार के प्रहार से ही
शुरू हो जाती है टूटन की प्रक्रिया
दिखती नहीं
लेकिन दरारें पड़ने लगती हैं।
अगर फिर न हो प्रहर
तो इन दरारों के बीच भी
खिल उठती है कोंपल
लेकिन दरारों के बीच
मिट्टी को जब न मिले
घुसने का मौका
और लगतार हो रहे प्रहारों से
दरारें और होती जायँ चौड़ी
तो फिर बिखरना तय है।
प्रहार/ टूटन/ बिखराव
और फिर शुरू होते हैं
हर टुकड़े को
अपनों से असंबद्ध करने की प्रक्रिया
अपने शेष हिस्से के अस्तित्व को
बचाए रखने की लड़ाई
और फिर उस लड़ाई में
विजय पाने के लिए
दूसरों को जोड़ने
और दूसरों से जुड़ने की
प्रक्रिया।
मैं टूट रहा हूं।
मुझे नहीं मालूम
कि मैं कितनी दूर जा गिरूंगा
किससे जुडूंगा
कौन जोड़ पायेगा मुझे।
या फिर
खत्म हो जायेगी मेरी पहचान
डूब जाऊंगा किसी
समंदर में।
28-07-1997
बेदखल
बार-बार
बेदखल किया गया है मुझे
अपनी जमीन से
जहाँ से प्रथम बार किया था स्पर्श मातृभूमि का
जहां घुटनों के बल चल कर
तन मन को सराबोर कर लिया था उस माटी से
जहां पहली बार खड़ा हुआ तन कर
और देखा आसमान की तरफ विजय भाव से ।
जहाँ से मैंने कदम बढ़ाना चाहा
मंज़िल की तरफ
लेकिन
चाहकर भी न टिक पाया
उस धरती पर
जिसने मुझे दिया था
सहारा।
हर बार बेदखल किया गया मुझे
उस धरती से
जहां मैंने नींव रखी
और नींव लेने लगी जब कोई आकार
तो मैं कर दिया गया
बेदखल।
उम्र भर मैं
करता रहा यात्राएं
और डालता रहा
अनगढ़ गड्ढों में
नींव का पत्थर।
आज मैं खुश हूं
इसलिए नहीं कि
मैं
बन गया था
बंजारा
बल्कि इसलिए कि
मेरी बनाई नींवों पर
खड़ी हैं कितनी ही इमारतें
गगनचुंबी…!
गौरैया
गौरैया
उड़ गई
मेरे खेत से लेकर दाने
नहीं रोक पाया उसे
दाने ले जाने से
क्योंकि वही गौरैया
कहीं से लेकर आई थी
कुछ तिनके
दबाकर
अपनी चोंच में
मेरे घर में
अपना घर बनाने को।
लोग कहते हैं
जिस घर में
किसी के आने जाने की
नहीं होती महक
नहीं होती खुशियों की बरसातें
वहाँ नहीं बनाती हैं गौरैया
अपना घोंसला
नहीं करती हैं
बच्चे पैदा।
जिस घर में नहीं गूंजती हैं
किलकारियां
वहां अगर लोग रहते तो
कौन जाता श्मशान घाट?
यही सोचकर
मैं गौरैया को नहीं रोक पाता हूं
शायद खुशियां फिर
चमकने लगें
धूप सी
गौरैया को
हो गया हो
अनुमान!
भविष्य
अगर कोई ढेला
आकर सिर से टकराए
और चारों तरफ’ चोर चोर की आवाज़
गूंज रही हो तो
मत घबराना
अपने पथ से विचलित मत होना
क्योंकि यह तो तय है कि
ढेला कोई आक्रामक ही मरेगा
कोई गांधी नहीं
और आजकल
आक्रामक बनने के लिए
कितने गठबंधनों की जरूरत पड़ती है
यह तो तुम जानते ही हो।
अगर सड़क के किनारे
कोई लावारिस व्यक्ति
दुर्दशा की हालत में पड़ा
तुम्हें दिख जाए
तो उसके तार तार हो गए वस्त्रों
जख्मों पर भिनकती मक्खियों और
आंखों में बसी पीड़ा को
बहुत गहराई से मत महसूस करना
क्योंकि वह हो सकता है
तुम्हारा भविष्य ।
यह जान लेना तो ठीक है
लेकिन सिर्फ इसलिए कि जब
तुम इस दौर से गुजरो
तो यही सोचना
कि यह तो अभी कुछ नहीं है
आक्रमणकारियों के पास तो
आत्मा को तार तार कर देने वाले शस्त्र हैं।
मुझे
लक्ष्य तक पहुंचने के लिए
लहू की गर्मी को
बरकरार रखना ही होगा।।
दर्पण
जब कोई निर्वस्त्र दिख जाता है
तो क्यों लोग आंखों पर
हाथ रख लेते हैं
आंखें क्यों
भींच लेते हैं
मुँह फेर लेते हैं
कहते है कि यह तो नंगा है।
नंगा क्या है ?
चेहरे पर मेक अप की कोई परत न होना
नंगई है?
रोज़ दाढ़ी सफाचट न करना
नंगई है?
और अंतः वस्त्रों को उतार देना
नंगई है?
अपने जख्मों की पट्टी खोल देना
नंगई है?
बालों को न रंगना
आंखों पर चढ़े कॉन्टैक्ट लेंस को उतार देना
नंगई है?
तौलिया लपेटे बिना बाथरूम से बाहर आ जाना
नंगई है?
चढ़ी धूप में आंखों पर से कला चश्मा उतार देना
नंगई है?
ये सब
न करना नंगई है
अपने को छुपाना
शिष्टता है
सुंदरता है
नफासत है
जो कुछ भी तुम्हारे पास है
वही सबकुछ तुन्हें देखने वाले के पास
लेकिन जो दिखता है सच्चाई
वह नंगा है
और उसे देखने दिखाने से बचने वाला
वह?
अमीर और सुसज्जित व्यक्ति का
दर्पण ही तो
नंगई!
(13/14 नवंबर 2010, 2.30 am)
बेचैन नदियां
मेरी ख्वाहिश है
कि मैं जा मिलूं
किसी दरिया से
मुझे लगता है कि
मेरे भीतर
बेचैन हैं
कई नदियां।
मैं नहीं गया
पहाड़ों पर कभी
लेकिन क्यों मेरे भीतर
जमा हो रहे हैं
पत्थरों के टुकड़े
लगातार अपना आकार खोते हुए।
तुम तक पहुंचने तक मुझे लगता है
वे सब बन चुके होंगे
रेत
और फिर उनके ऊपर
ठांठे मारेंगी
तुम्हारी इनायतें
और मैं बेदम होता हुआ भी
फूलकर हो जाऊंगा
कुप्पा।
मेरा सबकुछ समा जायेगा
तुम्हारे भीतर
और अगर रह गया कुछ भी साबुत
तो नहीं पा पचा पाओगे उसे
और उसे फेंक दोगे किनारों पर
जहां से उठाकर बच्चे
करेगें उससे अठखेलियां
तुम चाहते हो
जिसे भी बनाना अपना
नहीं तोड़ते उसे अपनी भुजाओं से
तुम्हें लगता है उसका साबुत बने रहना
ही है ठीक
तो कर देते हो उसे मुक्त
अपनी गिरह से।
ऐ दरिया
मुझे माफ कर दो
मैं हूं ठोस
नहीं लायक तुम्हारे प्यार के।
लेकिन एक सवाल
उठता है मेरे जेहन में
सब कुछ रेतीला पाकर भी
क्यों बार बार भागता है किनारों की तरफ दरिया
क्या वह पहुंचना चाहता है वहां
जहां उसका है कुछ अपना।
जहां पर कोई पहाड़
कर रहा होता है
उसका इंतज़ार
रेतों पर माथा पटककर
बारंबार जाते हो लौट
पहाड़ बन सकते हैं रेत
क्या रेतो का भी बन सकता है
पहाड़!
वह खुदको मिटाकर भी
रहता है असहाय
रेतो पर माथा पटकने से भी
नहीं पिघलते हैं रेत!
12- 2-35 pmm 1 अक्टूबर 2010 Night
सिद्धान्तहीन
27-09-03
सिद्धांतहीन
विचारहीन
रीढ़विहीन
स्वप्नविहीन
उद्देश्यविहीन
खड़े हैं चोबदार बनकर
किसी किशोरी के यौवनद्वार पर।
आता है जब आततायी
तो खोल देते हैं द्वार
आता है जब तूफान
तो उड़ जाते हैं अरमान
जब लगता है कि आमाश फट पड़ेगा
तो झुका देते हैं अपनी काया
ताकि पेट रह सके सुरक्षित।
जब पूछता है कोई
कौन मारेगा आततायी को?
तो कहते हैं कि करो प्रतीक्षा
होगा अवतार
देख रहा है सब भगवान।
कौन उठाएगा शस्त्र?
तो कहते हैं
हम करते हैं जीवन का सम्मान
अपराध है अक्षम्य ।
नहीं है
हमारी दृष्टि में कोई अपराधी
कानून करेगा अपना काम
हम नहीं हैं
किसी भी व्यक्ति के खिलाफ़।
क्या जा पायेगा आतताई?
यह व्यवस्था का प्रश्न है
जिम्मेदार लोगों को करनी चाहिए
त्वरित कार्रवाई
क्या करोगे अब भी
प्रतीक्षा?
तूफ़ान चला जाता है
चोबदार कर देता है
द्वार बंद
और खड़ा हो जाता है मुस्तैद
अपनी ड्यूटी पर।
पूछती है व्यवस्था
क्या हुआ?
कुछ नहीं।
तूफ़ान आया था?
देखा नहीं कभी
पहचानूं कैसे?
क्यों नहीं बतलाया?
जो हुआ सो हुआ
अब क्या पंख लगाकर घुमाऊं?
किसी की प्रतिष्ठा को धूमिल करना
उचित नहीं।।
27/09/03 नवरात्र का प्रथम दिन
“मैं करूंगा”
जो लगता है तुम्हें अच्छा
भेद सकता है तुम्हें भीतर तक
पहुंचा सकता है मुझे तुम्हारी तहों तक
भिगो सकता है गुफाओं के गर्भ में
छिपे प्यासे बिन्दु को
वह सब तुम करो।
वह सब तुम करो
या फिर कहो
या इशारा ही करो कि
मैं करूं।
मैं करूंगा
अगर तुम चाहोगी
अगर तुम्हें अच्छा लगेगा
तृप्त हो सकती होगी
तो मैं जरूर करूंगा।
मैं जानता हूं तृप्ति का अहसास
जब जागता हुआ भी रहता है स्वप्निल
और निंद्रा में भी
जी लेता है जिंदगी
क्योंकि मैं
रात रात जागकर
नींद में रह रह कर
तुम्हारे होठों की जुंबिश को देखकर
निश्चिंत होता रहता है
चाहकर भी
तुम्हारे अंकपाश से नहीं हो पाता मुक्त
क्योंकि मेरे उठने की रोशिश भर से
तुम्हारे कपोलों पर फैल जाती है लालिमा
और मुझे लगता है कि स्वप्न में भी
मैं हूं तुम्हारे भीतर।
मुझे
और क्या चाहिए
तुम्हें जो अच्छा लगे
अगर मैं कर सकता हूं
तो कहो।
मैं करूंगा
तुम्हारे संकेतों को पकड़ूंगा/ समझूंगा
मैं जानता हूं
तुम्हें पाने के लिए मुझे
भीतर तक जाना होगा
अभेद्य गुफाओं के
तिलस्मी राहों से गुजरते हुए
मुझे उस बिंदु पर पंहुंचना होगा
जहां जब मैं पुकारूंगा कि तुम मेरी हो?
तब अचानक कहीं से रोशनी फट पड़ेगी
और उसके साथ
बह रहे झरने की
एक एक बूंद नृत्य करती हुई कहेगी
“हां, मैं तुम्हारी हूं…
मेरे प्यार !”
############
“जब अतीक ने ओपी सिंह और वीएन राय IPS को घुटने के बल झुका दिया था”: स्नेह मधुर
इलाहाबाद में सत्तर के दशक के नामी भू माफिया रहे “मौला भुक्खल” की एंबेसडर गाड़ी 1985 के आसपास बीच चौराहे पर रोककर और उन्हें चुनौती देकर अतीक अहमद ने दबंगई के क्षेत्र में अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने की यात्रा की शुरूआत कर दी थी। फिर अपने बढ़ते साम्राज्य को सुरक्षित रखने के लिए अपने प्रतिद्वंदियों का खात्मा करते हुए राजनीति में कदम रखा और विधायक भी बन बैठा। एक तरह से राजनीति के सुरक्षा चक्र ने अपराध की दुनिया में उसकी उम्र बढ़ा दी थी।
विधायक बनने से पहले इलाहाबाद के दुर्दांत बदमाशों चांद बाबा, जग्गा और छम्मन का वह नया साथी ही था। उस काल में क्षीण काया वाले चांद बाबा की इलाहाबाद में इतनी दहशत थी कि उसे कहीं से गुजरता देख पुलिस वाले मुंह फेर लेते थे। शाम होते ही कहीं न कहीं बमबाजी हो जाना रोजाना की बात हो चुकी थी। झोले में बम लिए हुए वह कोतवाली में घुस जाता था। करैली का एक बड़ा आलीशान मकान उसने पचासों बम फेंककर एक घंटे में ही खाली करा दिया था। जब वह जेल गया था तो उसने जेल के भीतर ही चाय और तंबाकू की दुकान खुलवा दी थी। उस पर लगाम लगाने वाला कोई न था। लखनऊ पुलिस ने भी उसे छह महीने तक एनएसए के तहत जेल में बंद रखा था लेकिन उसके रुआब में कोई कमी नहीं थी। उसने डीएम को फोन पर जमकर गरिया दिया था। उसने खुलकर कहा था कि पूरा पुलिस विभाग बिका हुआ है।
डीएम ने तत्कालीन एसपी सिटी को फोन कर अपने साथ हुए दुर्व्यवहार की बात बताई थी और उसे ठिकाने लगाने को कहा था। लेकिन ओपी सिंह ने कुछ नहीं किया था। चांद बाबा अक्सर ओपी सिंह से मिलने चला जाता था और उनकी तारीफ के पुल बांध देता था। चांद बाबा ओपी सिंह को ईमानदार बताते हुए उनकी गुडबुक में रहने की कोशिश करता रहता था। चांद बाबा, छम्मन और जग्गा के सामने अतीक की कोई हैसियत नहीं थी। वह अतीक को ललकार देता था।
असल में अतीक एक तरह से चांद बाबा का चेला ही था लेकिन अतीक ने जब चुनाव लडने की इच्छा बताई तो चांद बाबा ने इसका विरोध किया और खुद भी 1989 के चुनाव के मैदान में कूद पड़ा। अतीक ने भी नामांकन कर दिया और दोनों में तनातनी हो गई। दोनों की गिरोह पर वर्चस्व की लड़ाई खुलकर सामने आ गई।
इस दौरान चांद बाबा की दबंगई अपने उरोज पर थी और लोकप्रियता भी आसमान छू रही थी। इतना दुर्दांत था चांद बाबा कि कोतवाली के सामने ही बमबाजी करके पुलिस को चेता देता था कि उसका अभियान चालू है। चुनाव में मतदान के बाद चांद बाबा मस्जिद में नमाज़ पढ़ने गया और वहां से रोशन बाग में ढाबे पर पराठा खाने गया। वहीं पर चांद बाबा का काम तमाम हो गया। लेकिन चांद बाबा की हत्या की एफआईआर में अतीक का नाम नहीं था। हालांकि सर्वत्र यही चर्चा होती रही कि ओपी सिंह ने ही अतीक के मुंह में चारे के रूप में चांद बाबा को डाल दिया था। ओपी सिंह हमेशा इससे इनकार करते रहे। यह बात दूसरी है कि कुछ दिन बाद डीएम ने भी ओपी सिंह को थैंक्यू बोला था।
पुराने लोग बताते हैं कि पुलिस की योजना थी कि चांद बाबा के मारे जाने के बाद अतीक को भी हलाल कर दिया जाए और इसे गैंग वार दिखा दिया जाए। यह बात जग्गा को पता चल गई और जग्गा सिविल लाइंस से अपनी मोटरसाइकिल से भागकर अतीक के पास पहुंचा और पुलिस की साजिश के बारे में उसे बताया। अतीक अपनी जान बचाने के लिए उसी मोटरसाइकिल से पुलिस की आंखों में धूल झोंककर गली गली भागने में सफल रहा।
चांद बाबा के अंतिम संस्कार में हज़ारों लोग उमड़े थे और मुस्लिमों में बड़ा आक्रोश भी था। चांद बाबा के मारे जाने पर जग्गा भी अतीक से नाराज़ होकर बॉम्बे भाग गया था। बाद में जग्गा को बहला फुसलाकर वापस इलाहाबाद लाया गया और सबके सामने उसे कुत्ते की मौत मारा गया। अतीक के इस दबदबे से गिरोह के अधिकतर सदस्य अतीक के साथ आ गए थे। छम्मन ने भी अतीक के पैरों में सिर रखकर जान की भीख मांग ली थी। अभी दो वर्ष पूर्व बीमार हालत में छम्मन की मौत हुई है।
इसी दौरान अतीक चुनाव जीत गया और उसकी बादशाहत का दौर शुरू हो गया जिसका अंत उसी के गढ़ में चार दशक के बाद हो ही गया। एक एक करके पांच बार विधानसभा का चुनाव खुद जीता और अपने भाई अशरफ को भी विधायक बनवा ही दिया। खुद सांसद भी बन गया लेकिन वर्ष 2007 करैली में हुए मदरसा कांड के बाद उसका ग्राफ ऊपर नहीं उठ पाया। अतीक के खिलाफ सीबीआई से जांच कराने का आश्वासन देने भर से मायावती का ग्राफ बड़ी तेज़ी से ऊपर उठा और वह मुख्यमंत्री बन गईं। मुसलमानों ने उन्हें दिल खोलकर वोट दिया था। यह बात दूसरी है कि सीबीआई ने इस जांच को लेने से इंकार कर दिया और मदरसा कांड हमेशा के लिए ठंडे बस्ते में चला गया। जनवरी 2007 में आधी रात के बाद तीन सशस्त्र बदमाश लड़कियों के मदरसे में घुसे थे और दो नाबालिग लड़कियों को उठा ले गए थे और सामूहिक बलात्कार के बाद सुबह उन्हें मदरसे में वापस छोड़ गए थे। आतंक इतना था कि पुलिस ने एफआईआर भी दर्ज नहीं की थी जब तक की हंगामा नहीं शुरू हो गया था।
शहर में जब अतीक अहमद का काफिला निकला करता था तो उसके साथ दर्जनों गाड़ियां होती थीं और जब वह सड़क पर खड़े होकर किसी से बात करता था तो दर्जनों लोग असलहे लेकर उसकी सुरक्षा में लगे रहते थे। शनिवार को जब वह मारा गया तो वह नितांत अकेला था। पिछले एक हफ्ते से पुलिस के दबाव के कारण उसके सारे शूटर्स फरार हो चुके थे, उसको तन्हा छोड़कर।
अतीक की अपराधिक सत्ता के दबदबे की नुमाइश का सबसे बड़ा साल 1989 था जब पुलिस प्रशासन से उसकी ऐलानिया अदावत हो गई थी और इस लड़ाई में वह विजेता के रूप में उभरा था। हुआ यह कि धूमनगंज थानाध्यक्ष रविवार होने की वजह से थाने पर नहीं आए थे और सेकंड अफसर के रूप एक दरोगा राय काम कर रहा था। थाने पर अतीक ने फोन कर एसओ से बात करने की इच्छा व्यक्त की। राय ने बताया कि एसओ गश्त पर हैं।
एक घंटे बाद फिर लैंडलाइन पर फोन आया, राय ने वही जवाब दिया। आधे घंटे बाद फिर अतीक का फोन गया और राय ने जब फिर वही जवाब दिया तो अतीक बिफर उठा। राय को ढेर सारी गालियां दे डाली कि एसओ अपने क्वार्टर में सो रहा होगा, तुम लोग फर्जी गश्त पर दिखा रहे हो! मैं अभी थाने पर आता हूं और तुन्हें बताता हूं।
थोड़ी देर बाद अतीक थाने पहुंच गए और जब राय दरोगा ही उससे रूबरू हुआ और उसने अतीक द्वारा किए जा रहे दुर्व्यवहार पर आपत्ति जताई तो अतीक ने उसको दो चार थप्पड़ जड़ दिए।
उस समय दोपहर के डेढ़ बजे का वक्त रहा होगा। विधायक के दुर्व्यवहार से आक्रोशित दरोगा राय एसपी सिटी ओपी सिंह के घर पहुंच गया। ओपी सिंह लंच करके झपकी की मुद्रा में थे। दरोगा के आने की सूचना मिलने पर उसे बुलाया। दरोगा का रोना सुनकर ओपी सिंह भी विचलित हो गए और उन्होंने तत्कालीन एसएसपी वी एन राय को फोन कर घटना के बारे में बताया और निर्देश मांगा। वी एन राय ने आवश्यक कार्रवाई करने का निर्देश दिया और लंच कर विश्राम करने लगे।
ओपी सिंह ने दरोगा राय से अतीक के खिलाफ सुसंगत धाराओं आईपीसी 325, 332 आदि में मुकदमा दर्ज करने को कहा। सरकारी कार्य में दखलंदाजी एक संज्ञेय अपराध है, सरकारी कर्मचारियों के लिए एक सुरक्षा कवच।
ओपी सिंह ने सीओ चतुर्थ ओपी सागर को वायरलेस पर घटना बताकर इस नए नए विधायक की गुंडई खत्म करने के लिए उसे तत्काल गिरफ्तार करने की अपनी योजना बताई और अपने गनर और डेढ़ डेढ़ सेक्शन पीएसी लेकर दोनों दो विभिन्न दिशाओं में निकल गए। सागर को धूमनगंज की तरफ भेजकर ओपी सिंह खुद अतीक के घर चकिया की तरफ कूच कर गए।
ओपी सिंह को अतीक घर पर नहीं मिला लेकिन थोड़ी ही देर में वह गांव की तरफ से अपने लाव लश्कर के साथ आता दिख गया। ओपी सिंह ने अतीक को रोका और बताया कि वह उसको गिरफ्तार करने आए हैं। अतीक ने गुस्से में कहा कि आप हमें तो गिरफ्तार कर नहीं सकते हैं, यहां पुलिस वालों की लाशें बिछ जायेगी! दस हज़ार लोग मौजूद हैं हमारे साथ… आप सब मारे जाओगे!
यह धमकी सुनकर ओपी सिंह ने कहा .. मारे तो सभी जायेगें, हम भी और आप भी.. पुलिस भी छोड़ेगी नहीं।
ओपी सिंह ने अपने साथ आई फोर्स की तरफ देखा तो पाया कि इनकी फोर्स अतीक के लाव लश्कर से बहुत कम है। वह और फोर्स मंगाना चाहते थे लेकिन मोबाइल का जमाना था नहीं और वायरलेस पर सबके सामने अपनी रणनीति की चर्चा नहीं कर सकते थे।
ओपी सिंह इसी उधेड़बुन में थे कि कैसे अतीक को गिरफ्तार किया जाए? उनका जोश उबाल मार रहा था। विधायक क्या चीज़ होती है पुलिस के सामने? जिसने पुलिस पर हाथ उठाया है, उसे सबक सिखाना ही पड़ेगा। अचानक उन्हें ओपी सागर वापस आते दिख गए तो उनकी जान में जान आ गई। लेकिन इसी बीच उस समय के मेयर श्यामाचरण गुप्ता भी पहुंच गए और अतीक की गिरफ्तारी का विरोध करने लगे।
थोड़ी देर बाद विधायक राकेश धर त्रिपाठी भी पहुंच गए और उन्होंने शोर मचाना शुरू कर दिया कि विधानसभा के स्पीकर को सूचित किए बिना किसी विधायक की गिरफ्तारी अवैधानिक है, देखते हैं कि पुलिस कैसे गिरफ्तार करती है?
इस बीच एसएसपी वी एन राय सोकर उठे तो उन्हें सारे घटनाक्रम के बारे में पता चला तो उन्होंने मामले की गंभीरता समझते हुए आस पास के जनपदों से और पुलिस और पीएसी बुलवा ली। मौके पर ए डी एम सिटी मोहन स्वरूप भी पहुंच गए। वी एन राय ने अतीक के पास संदेश भिजवाया कि उन्हें गिरफ्तार करना औपचारिकता भर है। कोतवाली पहुंचने पर सम्मानित तरीके से छोड़ दिया जाएगा। बस फोर्स का मनोबल बनाए रखने के लिया यह करना जरूरी है।
एसएसपी के इस आश्वासन पर अतीक गिरफ्तारी देने के लिए तैयार हो गया लेकिन राकेश धर त्रिपाठी और श्यामाचरण गुप्ता फैल गए कि बात आगे बढ़ चुकी है, यह गिरफ्तारी विधायकों की गरिमा के खिलाफ़ है। अगर आज गिरफ्तारी हुई तो पुलिस के हाथ खुल जायेंगे और हर जगह विधायकों को अपमानित करने की नई परंपरा शुरू हो जाएगी। अतीक को जब अन्य विधायकों का समर्थन मिल गया तो उसने वी एन राय से कहा कि अब वह सरेंडर नहीं करेगा और अगर पुलिस ने उसे जबरिया ले जाने की कोशिश की तो लाशें बिछ जाएंगी।
इधर वी एन राय कोतवाली में बैठकर अतीक के आने का इंतजार कर ही रहे थे कि डी एम अरुण कुमार मिश्र भी कोतवाली पहुंच गए। अब यह प्रशासनिक प्रतिद्वंदिता का मुद्दा बन गया और डी एम व एसएसपी के स्वाभिमान आपस में टकराने लगे। एसएसपी द्वारा पूरा प्रकरण बताने पर डी एम ने कहा कि इस मामले की मजिस्ट्रेटी जांच करा देते हैं, अगर जरूरत समझी गई तो गिरफ्तारी की जाएगी। ऊपर से भी यही आदेश आया है। केंद्रीय गृह मंत्री ने (महबूबा मुस्तफा के पिता तब गृह मंत्री हुआ करते थे) गिरफ्तारी से मना किया है, यह गिरफ्तारी अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना लाएगी।
वी एन राय के सिर पर तो मानों घड़ों पानी गिर गया हो! कहां वह अतीक को गिरफ्तारी के लिए मना रहे थे और आपात स्थिति के लिए दूसरे जनपदों से फोर्स मंगा रहे थे लेकिन डीएम ने तो उनकी रणनीति ही डस्टबिन में डाल दी! वह बेचैन हो गए कि फोर्स को क्या मुंह दिखाएंगे?
इधर चकिया में ओपी सिंह डटे हुए थे। वह अतीक अहमद को घर के अंदर घुसने ही नहीं दे रहे थे। ओपी सागर भी उनके साथ थे। फोर्स भी आने लगी थी लेकिन अतीक के लोग भी जमा होने लगे थे। ओपी सिंह चूहेदानी में फंसने लगे थे। नीचे गलियों में फोर्स बढ़ती जा रही थी और छतों पर राइफल लेकर अतीक के लोग! नीचे खड़ा एक एक सिपाही छत पर मौजूद दो दो लोगों के निशाने पर आ चुका था। यानी जल्दी ही चकिया की यह गली जंग का मैदान बनने वाली थी। लेकिन नीचे खड़े सिपाहियों को इस बात का इलहाम भी नहीं था कि मौत उनके सिर पर नाच रही है।
अतीक ने घर से चाय वगैरह मंगवाया। मोहन स्वरूप ने तो चाय पी ली और पार्टनर कहते हुए ओपी सिंह को भी चाय पीने के लिए प्रोत्साहित किया। लेकिन इस विषम परिस्थिति में इतनी फोर्स के सामने ओपी सिंह को थूक निगलना भी कठिन लग रहा था। उन्हें तो अतीक चाहिए था हथकड़ी में ताकि दरोगा के साथ हुए अपमान का बदला लिया जा सके। जब हम अपने गाल पर पड़े हुए तमाचे का बदला नहीं ले सकते हैं तो आम आदमी को कैसी सुरक्षा दे पायेंगे? उनके हाथ कसमसा रहे थे। अभी बस चार साल की ही नौकरी हुई थी उनकी और लगने लगा था कि अगर पुलिस का मनोबल टूट गया तो वे अपराधियों के सामने नज़र झुकाकर चलने को मजबूर हो जाएंगे और इसके लिए वह ही जिम्मेदार माने जाएंगे। उन्हें अहसास हुआ कि वह आईपीएस अफसर जरूर बन गए हैं लेकिन हकीकत में वह कठपुतली भर हैं। एसपी सिटी का पहला चार्ज था और इसी में मुंह की खानी पड़ रही है।
अंधेरा घिर आया था, सड़कों पर स्ट्रीट लाइट न होने के कारण एक दूसरे को देख पाना भी मुश्किल हो रहा था। वहां मौजूद सभी लोग कश्मकश की स्थिति में थे। किसका निर्णय गलत था? आखिर किसी न किसी को पीछे हटना पड़ेगा। कौन मानेगा अपनी पराजय? अतीक अहमद तो झुकने को तैयार नहीं थे, मरने मारने पर उतारू थे। घंटों बीच चुके थे।
अचानक वायरलेस ने शोर मचाना शुरू कर दिया। कमांडर की आवाज़ गूंजी, समस्त फोर्स वापस आ जाए… डी एम साहेब ने पूरे प्रकरण की मजिस्ट्रेटी जांच के आदेश दिए हैं… जांच मोहन स्वरूप करेगें… सभी वापस आ जाएं…।
फैसला हो चुका था। तनी हुई रीढ़ की हड्डियां शिथिल होने लगीं थीं.. जवानों के बूटों की दूर जाती पदचाप और मद्धिम पड़ती जा रही थी.. अब जुगनुओं की आवाज़ कुछ ज्यादा तेज सुनाई पड़ने लगी थी, चीखती हुई सी जैसे वह अजनबियों को वहां देखकर क्रोधित हो रहे हैं और वहां से चले जाने को कह रहे हैं, उनके इलाके से दूर.. बहुत दूर…! वहां मौजूद हर आम और खास की समझ में आ गया था कि एक नई शख्सियत का आविर्भाव हो चुका है जिसके सामने भविष्य में पुलिस प्रशासन को घुटने टेकते रहना ही पड़ेगा।
आधी रात को पराजित कमांडर का फोन मेरे पास आया। भरे हुए गले से कहा.. कल सुबह अपनी फोर्स को मैं क्या मुंह दिखा पाऊंगा? इससे अच्छा होता कि मेरा तुरंत तबादला हो जाता और मैं रातों रात चोरों की तरह यहां से निकल जाता… या फिर इसी कोतवाली में पंखे से लटककर झूल जाऊं….!!!
(लेकिन हुआ ऐसा नहीं। किसी ने आत्महत्या नहीं की बल्कि कहानी में ऐसा मोड़ आ गया कि पूरा इलाहाबाद दंग रह गया..)
Sneh Madhur: “तिल था नहीं, ताड़ बन गया”: स्नेह मधुर
बात संभवतः वर्ष 1997 की है। सुबेश कुमार सिंह एसएसपी इलाहाबाद थे। ताज़ा ताज़ा आए थे। मेरी मुलाकात नहीं थी उनसे। मैंने एक नियम बना लिया था कि नए एसएसपी से तुरंत भेंट करके यह नहीं पूछूंगा कि आप यहां पर क्या करेगें, कैसे अपराधियों पर लगाम लगाएगे… आदि आदि? एक बार एक एसएसपी ने कार्यभार ग्रहण करने के चार पांच दिन मुझे फोन करके पूछा था, “सब आ गए, सिर्फ आप ही नहीं आए…कल आप आइए या मैं आता हूं आपसे मिलने”! मेरा जवाब था, “अभी तो आए हैं आप, अभी कुछ दिन गुजारिए, यहां की हवा को समझिए, फिर मिलेंगे कभी…”।
कहने का तात्पर्य यह है कि मैंने कई पुलिस अफसरों को आते जाते देखा था जो आते ही बड़ी बड़ी बातें करते थे, बस! काम के नाम पर सिफर.. या तो थोड़ा ईमानदार होते थे या ज्यादा बेईमान! मुझे उनका भोंपू बनना पसंद नहीं था। एक एसएसपी को तो नशे में टुन्न होकर एक इंस्पेक्टर की जेब से रुपए निकालते मैने अपनी आंखों से देखा हुआ था। यह बात मैंने अपने संपादक को समझा दी थी और वे मेरे विचारों से सहमत थे। मुझे एसएसपी से कोई काम भी कराना नहीं होता था, इसलिए पी आर वर्क करने की कोई मजबूरी भी नहीं थी।
सुबेश कुमार सिंह को आए कुछ ही दिन हुए थे कि मुख्यमंत्री मायावती का आगमन हो गया था। परेड ग्राउंड में उनकी जनसभा थी। उस जनसभा को कवर करने के लिए मैं भी परेड ग्राउंड पहुंच गया और प्रेस गैलरी में जाकर बैठ गया।
जेठ की दोपहरी थी। पारा 45 डिग्री से ऊपर पहुंच गया था। इस तपिश में बैठा नहीं जा रहा था। लोगों को धूप से बचाने के लिए कोई शामियाना भी नहीं लगाया गया था। पीछे मुड़कर देखा तो चारों तरफ हजारों लोग जिनमें महिलाएं, बच्चे और वृद्ध भी शामिल थे, अपनी नेता मायावती के इंतज़ार में बैठे थे। बैठे क्या थे धूप में भुन रहे थे। कोई चाहे जितना भी परेशान क्यों न हो, अपनी जगह से हिल नहीं सकता था।
लेकिन मुझे गर्मी बर्दाश्त नहीं हो रही थी। पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार मायावती को अब तक जनसभा में पहुंच जाना चाहिए था। सिर्फ मंच ही इस तरह से बनाया गया था कि तीन तरफ से घिरा हुआ था और ऊपर से भी ढांका हुआ था। मंच पर चल रहे दर्जन भर एयर कंडीशनर बाहर चल रही सनसनाती लू की तरफ ठंडी हवा फेंके जा रहे थे लेकिन वह ठंडी हवा किसी इंसान तक नहीं पहुंच पा रही थी, एसी से बाहर निकलते ही दम तोड़ दे रही थी।
मायावती का जो जलवा हुआ करता था, उसने सभी पुलिस वालों को चौकस मोड में डाल रखा था। कोई अपनी जगह से उठने की कोशिश करता था तो पुलिस उसे हड़काकर बैठा देती थी। मायावती कब आएंगी, किसी को पता नहीं चल पा रहा था। पुलिस अफसरों को तो पता होगा ही लेकिन कौन अपना मुंह खोले? किसकी शामत आई हुई थी?
मैंने देखा कि जहां पर मायावती का मंच सजा हुआ था, उसके पास ही एक भारी छायादार पेड़ था और वह पेड़ मेरी कुर्सी से मात्र कुछ ही गज दूर था। बस, प्रेस गैलरी से निकल कर मंच की तरफ जाने वाले रास्ते को पार करना था जहां पुलिस का जबरदस्त बंदोबस्त था।
मैंने आस पास बैठे पत्रकारों के सामने पेड़ के नीचे चलने का प्रस्ताव रखा तो सभी ने मुझे चुपचाप बैठे रहने की सलाह दी। असल में अधिकतर पत्रकार ग्रामीण पृष्ठभूमि से आते हैं जो यातनाएं और अत्याचार के अभ्यस्त होते हैं, मुश्किलों से घबराते नहीं हैं। मैंने सोचा कि हम लोगों जैसे जागरूक लोग भी अपनी जगह से हिलने को तैयार नहीं हैं जिनसे सी एम की सुरक्षा का कोई खतरा नहीं है? यानी गर्मी में गंवारों की तरफ तड़पते रहेंगे? लू का आतंक, मायावती का आतंक और फिर पुलिस का आतंक! जब कोई लू से मर जायेगा तब कलम तोड़ने लग जायेंगे ये कलमकार!!
मैंने महसूस किया कि मैं तो नहीं झेल पाऊंगा इस गर्मी को। मैं अपनी जगह से उठा और प्रेस गैलरी के प्रवेश द्वार की तरफ बढ़ने लगा। प्रवेश द्वार पर पुलिस वाले खड़े थे, उनमें से कई लोग मुझे पहचानते थे। मेरी तरफ प्रश्नवाचक नजरों से देखा, मैंने बाहर जाने का इशारा किया।
पास में ही एसएसपी भी खड़े थे। सब बैठे हुए थे सिर्फ मुझे खड़ा देखकर उन्होंने भी मेरी तरफ प्रश्नवाचक नजरों से देखा और पूछताछ के लिए मेरे करीब आ गए।
मैंने कहा, “मुझे पेड़ के नीचे छाया में जाना है, मुझसे गर्मी बर्दाश्त नहीं हो रहीं है।”
एसएसपी समझ गए कि मैं पत्रकार हूं। उन्होंने कहा, “सी एम बस आने ही वाली हैं, आप बैठ जाइए भीतर गैलरी में”।
मैंने कहा, “सी एम जब आ जायेगी तो मैं वापस लौट आऊंगा, सामने ही तो है पेड़!”
एसएसपी ने कहा, ” आप बैठिए, कोई अपनी जगह से नहीं हिलेगा सी एम के वापस जाने तक”।
एसएसपी का जवाब सुनकर मुझे क्रोध आ गया। मैंने कहा, “मैं आपका गुलाम नहीं हूं, मैं तो जा रहा हूं पेड़ की तरफ, आपको रोकना हो तो रोक कर दिखाइए”।
यह कहकर मैं वहां से चल पड़ा और पेड़ के नीचे जाकर खड़ा हो गया। वहां जाकर मैंने चारों तरफ देखा, हर पुलिस वाले की नज़र में मैं ही था। सभी एसएसपी के आदेश का इंतजार कर रहे थे। मैं भी एसएसपी की प्रतिक्रिया का ही इंतजार कर रहा था। लेकिन एसएसपी ने कोई त्वरित प्रक्रिया व्यक्त नहीं की। सब कुछ शांत ही रहा। दस मिनट बाद ही सी एम भी आ गईं और मैं वापस गैलरी में आ गया।
जनसभा खत्म होने के उपरांत मैं ऑफिस लौट आया, खबर बनाकर भेज दी। शाम को छह बजे के करीब मेरे पास एसएसपी कार्यालय से फोन आया कि एसएसपी साहब बात करेगें। मैं चौंका! कोई खास वजह तो दिखती नहीं कि एसएसपी मुझे फोन करें? हो सकता हो कि सीएम के जाने के बाद हल्का महसूस कर रहे हों और अपना पी आर वर्क शुरू कर दिया हो! मैंने फोन पर एसएसपी के टेलीफोन ड्यूटी से कहा कि बात करा दो।
एसएसपी ने मुझसे दो चार लाइन का औपचारिक हाल चाल पूछा और फिर अकस्मात बोल दिया कि आपसे मेरा कोई झगड़ा हुआ था क्या?
“झगड़ा! कैसा झगड़ा?”
“सीएम के कार्यक्रम के दौरान!”
“नहीं तो, क्यों? और यह कैसा सवाल है?”
“आप श्योर हैं न कि मेरा आपसे कोई झगड़ा नहीं हुआ था!”
“हां भई, आपने मुझे प्रेस गैलरी से बाहर जाने को रोका था लेकिन मैंने आपकी बात नहीं मानी। झगड़े जैसी कोई बात तो हुई नहीं थी। न आपने कड़ाई से कुछ कहा था और न ही मेरे बाहर निकलने पर आपने कोई प्रतिक्रिया दी थी या किसी सिपाही दरोगा को मुझे रोकने के लिए भेजा था। बल्कि चुनौती तो मैंने दी थी कि मुझे रोककर दिखाओ।”
“तो ठीक है। आप संतुष्ट हैं?”
“हां, लेकिन यह झगड़े वाला सवाल उठा कहां से?”
“असल में कुछ पत्रकारों ने मुझे फोन किया कि जनसभा के दौरान मैंने एक वरिष्ठ पत्रकार के साथ बेहूदगी की। मैं आपको जानता भी नहीं था लेकिन जहां तक मुझे स्मरण है कि मैंने आपको मना जरूर किया था लेकिन उसमें कोई अशिष्टता नहीं थी। आपको तो मालूम ही है कि वीवीआईपी प्रोग्राम में अगर लोग उठकर चलने लगेंगे तो अव्यवस्था फैल जाएगी, सुरक्षा व्यवस्था अनियंत्रित हो जायेगी इसलिए सामान्य रूप से लोगों को अपनी जगह से उठने के लिए मना कर दिया जाता है। पत्रकारों का कहना था कि मेरी इस बेहूदगी को लेकर पत्रकारों में आक्रोश है और वे मुझसे मिलने आ रहे हैं और मेरा घेराव करेंगे। विधायक जी का भी फोन आ गया और वह भी नाराजगी व्यक्त कर रहे थे। इसीलिए मैंने सोचा कि आपसे सीधे पूछ लेता हूं और अगर आप मेरे व्यवहार से आहत महसूस कर रहे हों तो आपसे क्षमा मांग लूं।”
“कमाल है! मुझसे किसी ने कुछ नहीं पूछा और न वहां पर कोई सुनने वाला था, फिर भी इस तरह की कहानियां गढ़ी जा रही हैं।”
“आप चिंता न करें, मैं संभाल लूंगा, बस आप संतुष्ट रहें।”
“ये कौन से विधायक जी हैं जिन्होंने अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की है?”
“विधायक अतीक अहमद ने।”
मैं सन्न रह गया।
“उनसे क्या मतलब? वह तो वहां पर थे भी नहीं और न ही मेरी उनसे कोई बात हुई थी। वह तो बसपा के विधायक भी नहीं हैं।”
“उनका कहना था कि पत्रकार बेहद खफा हैं और मुझे तुरंत डैमेज कंट्रोल करना चाहिए।”
एसएसपी से बातचीत के बाद मैं चिंतित हो उठा। अगर मेरे साथ दुर्व्यवहार हुआ था तो मुझे पत्रकारों को बताना चाहिए या पत्रकारों को मुझसे पूछना तो चाहिए! और पत्रकार मेरे फैंस भी नहीं हैं, उल्टे मेरा विरोध करते रहते हैं। यह कोई राजनैतिक कुचक्र प्रतीत होता है।
मैं इसी उधेड़बुन में था कि फिर टेलीफोन की घंटी बजी। फोन पर विधायक अतीक अहमद थे।
“का होई गवा रहा? एसएसपी कुछ बोल वोल दिहेन रहन का?”
“ऐसा तो कुछ नही था, किसने बताया आपको?”
दो तीन पत्रकारों का नाम लेकर अतीक अहमद ने मुझसे कहा, “डराए की जरूरत नै न, हम कह दिए हैं एसएसपी से समझज्यों, कह दिया है कि वरिष्ठ पत्रकार हैं माफी वाफी मांग लिहो “!
मैंने कहा, “पहली चीज़ तो यह की ऐसा कुछ हुआ नहीं है और दूसरा यह कि मैं आज की तारीख में अपनी रक्षा करने के लिए समर्थ हूं, किसी से किसी भी तरह की मदद की आवश्यकता नहीं है मुझे।”
“ऊ तो हम समझित ही, लेकिन हमरो ड्यूटी रही की एसएसपी को समझाए देई कि गलत जगह हाथ मत डालो, बस। हमरे लायक कौनो काम होय तो बताए दिहौ, संकोच जिन किहौ।”
वार्तालाप खत्म हो गया। मैं सोच में पड़ गया कि यह हो क्या रहा है? क्या मुझे कोई किसी झमेले में फंसा रहा है, मुझे बेवजह पार्टी क्यों बनाया जा रहा है?”
करीब एक घंटे बाद पता चला कि कुछ पत्रकारों ने एसएसपी का घेराव कर रखा है। वार्ता चल रही है। कुछ देर बाद घेराव खत्म भी ही गया। मुझसे किसी पत्रकार ने कोई बात नहीं की। कोई तिल तक नहीं था लेकिन ताड़ बन चुका था। ऐसे भी दिन आते हैं।
[11/05, 14:32] Sneh Madhur: 1984 का चुनाव: अमिताभ बच्चन बनाम बहुगुणा
वर्ष 1984 में 30 अक्टूबर को देश की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की उनके ही आवास में उनके ही सुरक्षा प्रहरियों द्वारा गोली मारकर की गई हत्या के बाद पूरे देश में आक्रोश था। दिल्ली में दो बड़ी घटनाएं घटी थीं। 1948 में महात्मा गांधी की हत्या और 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या। दोनों ही गांधी थे और दोनों के मारे जाने के वर्ष में 19 के साथ 4 और 8 के अंक भी थे, एक में 48 और दूसरे में 84,अजीब संयोग! दोनों को ही गोली मारी गई थी और दोनों की हत्या उनके आवास में की गई थी, एक की सुबह और एक की शाम को। दोनों ही अति शक्तिशाली राजनेता थे और दोनों की ही हत्या के बाद प्रतिक्रिया स्वरूप हजारों निर्दोष लोगों का कत्लेआम हुआ था। दोनों की ही हत्या के बाद तत्कालीन सरकार ने सुरक्षा में लापरवाही की कोई जिम्मेदारी नहीं ली थी और इसके उलट इन हत्याओं से उपजी सहानुभूति का बेशर्मी के साथ राजनैतिक लाभ लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यही नहीं, इन दो हत्याओं के बदले में सरकार प्रायोजित नरसंहारों में जो हजारों निर्दोष लोग मारे गए थे, उनकी मौत पर भी कोई दुख तक व्यक्त नहीं किया था। बल्कि यह संदेश देने की कोशिश की गई थी कि जो कौम हमसे टकराएगी, वह चूर चूर हो जाएगी।
बहरहाल, देश में लोकसभा के चुनाव की घोषणा कर दी गई थी और कांग्रेस के सबसे बड़े सिपहसालार अरुण नेहरू एक महाशक्ति के रूप में अवतरित हुए थे और रणनीतिक चालें चलने और गोटियां बिछाने की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई थी क्योंकि राजीव गांधी राजनैतिक रूप से अपरिपक्व थे और शोकग्रस्त भी थे। नेहरू खानदान में वह (अरुण नेहरू) आखिरी राजनैतिक शख्सियत थे जिन्होंने नेहरू सरनेम को अपनाया था, वरना अन्य सभी ने नेहरू सरनेम को त्याग कर गांधी सरनेम अपना लिया जो आज तक जारी है। यह भी शोध का विषय है कि नेहरू खानदान गांधी खानदान में कैसे परिवर्तित हो गया?
देश में लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका था और इंदिरा गांधी की शहादत से उपजी कांग्रेस की लहर भी चरम पर थी। मुझे जहा तक याद आता है, शायद 23 नवंबर को इलाहाबाद संसदीय सीट से हेमवती नंदन बहुगुणा जी ने अपना नामांकन किया था “दमकिपा” से, “दलित मजदूर किसान पार्टी” से। इस पार्टी से चौधरी चरण सिंह, मोरार जी देसाई, देवी लाल आदि लोग जुड़े थे। इस चुनाव में देश भर में दमकिपा ने 168 उम्मीदवार उतारे थे जिसमें से तीन ने विजय भी हासिल की थी।
बहुगुणा जी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री रह चुके थे, इलाहाबाद उनकी कर्मभूमि थी और इलाहाबाद की रग रग में उनकी पद्चाप ध्वनित होती थी। नामांकन के बाद उन्होंने अपने घर पर प्रेस कांफ्रेंस की थी जिसमें शहर के कुछ वरिष्ठ पत्रकार शामिल हुए थे। मुझे भी उस प्रेस कांफ्रेंस में शामिल होने का अवसर मिल गया था “अमृत प्रभात” अखबार की तरफ से। बहुगुणा जी राष्ट्रीय स्तर के नेता थे। मैंने सवाल पूछ लिया “कितने दिन रहेगें इलाहाबाद में?”
बहुगुणा जी का जवाब था, “मुझे पूरा देश देखना है। मैं तीन दिन से ज्यादा यहां रुक नहीं पाऊंगा।”
फिर मुस्कुराकर बोले, “इलाहाबाद तो अपना शहर है, यहां पर घर घर जाने की क्या जरूरत? सभी तो अपने ही हैं।”
हंसी मजाक चल ही रहा था कि दूसरे कमरे से टेलीफोन की घंटी बजने की आवाज़ सुनाई पड़ी। किसी ने फोन उठाया और फिर बहुगुणा जी के कान में फुसफुसाकर कुछ बोला। बहुगुणा जी ने उसकी तरफ देखा और चिंतित मुद्रा में कुछ सोचने लगे।
पत्रकारों में भी सुगबुगाहट शुरू हुई। पूछा कि क्या मामला है?
बहुगुणा जी ने थोड़ी सी हिचकिचाहट के बाद बताया कि एन टी रामा राव का फोन आया है लाइटनिंग कॉल से। बात करना चाहते हैं।
उस समय लैंडलाइन का जमाना था। एसटीडी का जन्म नहीं हुआ था। शहर से बात करने के लिए ट्रंक कॉल बुक कराना पड़ता था जिसमें घंटों या कई दिनों तक का वक्त लग जाता था। अगर अर्जेंट बात करनी होती थी तो लाइटनिंग कॉल बुक कराना पड़ती थी जिसकी कीमत बहुत ज्यादा हुआ करती थी। कोई अर्जेंट बात होगी तभी रामाराव ने लाइटनिंग कॉल की होगी! पत्रकारों ने कहा कि जाकर फोन सुन लीजिए, हम लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं। एन टी रामाराव विख्यात फिल्मी हस्ती होने के साथ ही आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री भी हुआ करते थे। कांग्रेस विरोधी कैंप के बड़े नेता थे।
थोड़ी देर बाद बहुगुणा जी लौटे तो थके हुए लग रहे थे। चिंता में डूबे हुए दिख रहे थे। हम लोगों ने पूछा तो कोई जवाब नहीं दिया। अन्य बातों का भी बेमन से जवाब दे रहे थे।
एक वरिष्ठ पत्रकार ने जो बहुगुणा जी से मुंह लगे थे, अपनी मूंछें टेरते हुए कहा कि रामाराव से जो बातचीत हुई है, बता दीजिए। हम लोग तो घर के ही हैं, हमसे क्या परदा?
कुछ पल ठहर कर बहुगुणा जी ने धीरे धीरे कहना शुरू किया, ” एन टी रामाराव ने बताया कि इलाहाबाद से मेरे खिलाफ अमिताभ बच्चन को कांग्रेस की तरफ से उतारा जा रहा है।”
यह सुनकर सबको सांप सूंघ गया। किसी के मुंह से कोई आवाज नहीं निकली। लग रहा था कि जैसे सबका फ्यूज उड़ गया हो, किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि इस सूचना पर क्या प्रतिक्रिया दें। यह ऐसी खबर थी जिसने सबको उत्तेजित कर दिया था। लोग निःशब्द थे और दिवास्वप्नों में डूब गए थे, सोचने लगे थे कि अमिताभ बच्चन यहां की गलियों में घूमेंगे, फोटो खिंचवाए, पत्रकारों से वार्ता करेंगे, अकल्पनीय!
इस सन्नाटे को चीरते हुए बहुगुणा जी की आवाज़ फिर गूंजी,” एन टी रामाराव कह रहे थे कि तुम चुनाव हार जाओगे। मैं हवाई जहाज भेज रहा हूं, तुरंत चले आओ और आंध्र प्रदेश से भी नामांकन कर दो। कल सुबह आ जाओ, मैं सारा इंतजाम कर देता हूं।”
एक के बाद एक बम फूट रहे थे और लोगों को तो जैसे लकवा मार गया था। कोई अपनी जगह से हिल भी नहीं पा रहा था। पता नहीं लोगों की सांसे चल भी रहीं थी कि नहीं! कमरे के भीतर सिर्फ सीलिंग फैन की ही घरघराती आवाज़ सुनाई पड़ रही थी। सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के इलाहाबाद से चुनाव लडने की खबर उत्तेजना तो पैदा कर रही थी लेकिन बहुगुणा जी के हार जाने की एन टी रामाराव की भविष्यवाणी उस उत्तेजना पर टनों पानी गिरा दे रही थी। खुशियों के ऊपर दुखों का पहाड़ जो टूट पड़ा था!
एक पत्रकार ने इस शांति को भंग करते हुए पूछा कि आपने क्या सोचा है?
बहुगुणा जी जवाब नहीं दे पाए।
जब फिर यह सवाल दोहराए गया तो बहुगुणा जी ने अपने अंदाज़ में जवाब दिया, ” सोचना क्या है? इलाहाबाद मेरी कर्मभूमि है। जब मैं यहां से हार जाऊंगा तो कहां से जीतूंगा? ये नचनिया गवैया लोग मुझे हरायेगें? मैं नहीं मानता।”
एक पत्रकार ने गंभीरता बरतते हुए अपनी जुबान खोली,” एन टी रामाराव फिल्म स्टार रहे हैं, लोगों की नब्ज पहचानते हैं, उनकी बात में गंभीरता है इसलिए उसे गंभीरता से ही लीजिए। चले जाइए, वहां से भी नामांकन कर दीजिए!”
बहुगुणा जी ने कुछ देर विचार किया और फिर कहा, “नहीं, मैं यहां के लोगों को धोखा नहीं दे सकता हूं। यह मेरी कर्मभूमि है, यहां बच्चे बच्चे को मैं जानता हूं और लोग मुझे जानते और मानते हैं। इस प्रदेश का मैं मुख्यमंत्री रह चुका हूं, केंद्रीय मंत्री रहा हूं, कितने काम किए हैं, इंडस्ट्रियल एरिया बनाया है, मैं यहां से हार जाऊंगा? नहीं, कभी नहीं…मैं कहीं नहीं जाऊंगा, यहीं से चुनाव लडूंगा!”
बहुगुणा जी की यह उक्ति सुनकर कोई खुश नहीं हुआ। यह बहुगुणा जी की आत्मश्लाघा ही लग रही थी, यह हर पत्रकार समझ रहा था। एक तो अमिताभ बच्चन और दूसरा एन टी रामाराव की भविष्यवाणी! सबको बहुगुणा जी की हार आसमान पर लिखी इबारत के रूप में नज़र आने लगी थी। सबको वैसा ही दुख हो रहा था जैसे कि अस्पताल में भर्ती मरीज के लिए डॉक्टर यह घोषणा कर दी कि किसी और अस्पताल में दिखाना हो ले कर… अब कुछ बचा नहीं है, बस भगवान से प्रार्थना करिए….!
23 नवंबर की उस शाम को हेमवती नंदन जैसे महानायक का सितारा इलाहाबाद के आकाश में डूब रहा था और लोगों की आंखों में एक और सितारा चमकने लगा था जिसको इलाहाबादियों ने न तो समीप से कभी देखा था और इतनी शोहरत हासिल कर लेने के बाद जिसने अभी तक इलाहाबाद की इस धरती पर पैर भी न रखा था। रुपहले पर्दे के इस सितारे को बिना मांगे ही इलाहाबादियों ने वोट के साथ दिल भी दे दिया था।
Sneh Madhur
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Sneh Madhur: “जब मैंने अमिताभ बच्चन से हाथ मिलाने से मना कर दिया था ?”
स्नेह मधुर
शायद 29 नवंबर 1984 की सुबह ही थी जब मैं अपनी विजय सुपर स्कूटर से ब्लैक हेलमेट लगाकर अल्लापुर से सर्किट हाउस पहुंचा था। सर्किट हाउस के गेट में मैं घुसा ही था कि सामने से एक एंबेसडर कार और एक जीप सरसराती हुई निकली। मैंने फटाफट स्कूटर मोड़ी और इन भागते वाहनों के पीछे हो लिया। कार में फिल्म स्टार अमिताभ बच्चन तीन लोगों के साथ बैठे हुए थे अपनी नई राजनैतिक यात्रा शुरू करने के लिए। उनके साथ उनके छोटे भाई अजिताभ बच्चन, उत्तर प्रदेश युवा कांग्रेस के उपाध्यक्ष अजय श्रीवास्तव और एक अन्य व्यक्ति बैठे थे जिनकी याद मुझे नहीं है, शायद कोई विधायक थे। इलाहाबाद की कांग्रेस का कोई भी व्यक्ति उनके साथ नहीं था, उनकी आवभगत करने के लिए, उनका मार्ग प्रशस्त करने के लिए।
अमिताभ बच्चन की दो गाड़ियों का काफिला चंद्रशेखर आज़ाद पार्क होते हुए यमुना नदी के किलाघाट पहुंचा। वहां पर एक स्टीमर में ये सभी लोग बैठ गए। मकसद था संगम में जाकर “काग स्नान” करना, हनुमान जी के दर्शन करना। स्टीमर में मुझे भी बिठाया गया और विजय अग्रवाल जी को भी जो उस समय प्रेस फोटोग्राफर हुआ करते थे, आजकल वाइस चांसलर हैं भोपाल में। मैं अमृत प्रभात का रिपोर्टर था उस समय और शाम को ही मुझे अमिताभ बच्चन के कार्यक्रमों की कवरेज करने का असाइनमेंट दे दिया गया था। अमिताभ बच्चन के कार्यक्रम का प्रेसनोट लेकर अजय श्रीवास्तव जब अखबार के दफ्तरों में गए थे तो पत्रकारों में कोई उत्साह नहीं था। एक तो उस समय के पत्रकार बड़ी बड़ी हस्तियों के पीछे भागना पसंद नहीं करते थे (ब्रेकिंग न्यूज का दबाव नहीं था, आज की तरह कुत्तों की तरह हांफते हुए दौड़ने वाला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नहीं था) और दूसरे शहर कांग्रेस कमेटी की तरफ से कोई सूचना न होने के कारण अजय श्रीवास्तव के प्रेस नोट को हल्के में लिया जा रहा था। कुछ पत्रकारों ने तो अपने व्यंग्य बाण भी चला दिए थे कि “अमिताभ बच्चन सच्ची में आय रहन हैं या मसखरी करत हौ…”!
उस समय ज्यादा अखबार नहीं थे और सीनियर जर्नलिस्ट सुबह उठना पसंद नहीं करते थे। माहौल यह था कि “कउनो आय जाए, हमका का…!” गालिब का एक शेर भी है शायद ..नींद बड़ी चीज़ है, मुंह ढक के सोइए! इसलिए मुझ जैसे युवा रिपोर्टर को “अमिताभ वमिताभ बच्चन” के लिए ठेल दिया गया था।
स्टीमर पर अमिताभ बच्चन के बगल में बैठा तो अजय श्रीवास्तव ने परिचय कराना शुरू किया, “ये हैं स्नेह मधुर, रिपोर्टर अमृत प्रभात…!” अमिताभ बच्चन ने शेक हैंड करने की औपचारिकता पूरी करने के लिए अपने दाहिने हाथ को आगे बढ़ाया।
मैंने भी खुशी खुशी अपना दाहिना हाथ बढ़ाया। लेकिन यह क्या? मेरी नज़र उनकी हथेली पर पड़ी तो मैं सिहर उठा! उनकी पूरी हथेली पर सफेद दाग थे! मैंने झटके से अपना हाथ वापस खींच लिया कि कहीं मेरा हाथ उनके संक्रामक हाथ से छू न जाए और मुझे भी यह रोग लग जाए! अपनी तात्क्षणिक बुद्धि और बला की फुर्ती के कारण अमिताभ बच्चन की हथेली को छूने से मैं बाल बाल बचा था। मैंने अपना हाथ खींच कर दूरी बनाते हुए हाथ जोड़ लिए। अमिताभ मेरे इस व्यवहार से चकित होकर मेरी तरफ घूरने से लगे। उन्होंने भी हाथ जोड़ दिए लेकिन शायद उनके मन में विचारों की आंधियां चल रही होगी कि पूरी दुनिया में यह कौन सा शख्स है जो मुझसे हाथ मिलाने में हिचकिचा रहा है? खैर तभी अजय श्रीवास्तव ने विजय अग्रवाल से उनका परिचय करवाया तो विजय अग्रवाल ने लपक कर हाथ मिला लिया। अन्य लोगों ने भी हाथ मिलाने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई। मैं सोच में डूब गया कि आख़िर सब लोग हाथ क्यों मिला रहे हैं? क्या किसी की नज़र अमिताभ बच्चन की दगही हथेली पर नहीं पड़ी है?
स्टीमर के संगम बीच पहुंचने तक मेरे दिमाग की खिड़कियां खुल चुकी थीं। अरे, यह तो सफेद वफेद दाग़ का चक्कर नहीं है! घर में दीपावली पर पटाखे फोड़ते समय उनकी हथेली जल गई थी और ये उसी के दाग थे! धत तेरे की….! मैं बेकार ही सशंकित हो गया था! इसी को कहते हैं कि जिसके हिस्से में जो चीज़ नहीं होती है, वह हाथ में आकर भी फिसल जाती है…!
: माया पत्रिका ने अमिताभ बच्चन के चुनाव की तस्वीरें खींचने का मुझसे कॉन्ट्रैक्ट किया था transparency में। उस समय transparency खींचने वाला कोई फोटोग्राफर इलाहाबाद में नहीं था। फोटो धुलने के लिए बॉम्बे जाती थीं kodak company में। जया और अमिताभ की मैंने चुनाव के दौरान कई फोटो खींची थी लेकिन माया और मनोरमा को कुछ exclusive photo चाहिए थे urgent. मतगणना चल रही थी, जीत का अंतर बढ़ता जा रहा था, लोग पागल हुए जा रहे थे। अमिताभ जी पार्क रोड पर राजन जी के बंगले में थे, पूजा कर रहे थे। मैं राजन जी के बंगले पहुंचा पार्क रोड पर। खूब भीड़ थी, अमिताभ जी अंदर थे, जाना संभव नहीं था। मैं lawn में बैठकर भीतर घुसने की कुछ तिकड़म सोच ही रहा था कि अचानक बंगले का मेन गेट खुला और एक एंबेसडर कार अंदर घुसी। लोग दौड़े। खिड़की से दिखा कि उसमें जया बच्चन जी थीं। मैंने सोचा की भीतर घुसने का रास्ता मिल ही गया। लेकिन तभी मेरे दिमाग में यह भी कौंधा कि जया जी इस दीवानी भीड़ से बचने के लिए कार से उतरकर सीधे भीतर चली जायेंगी और मैं उन तक पहुंच भी नहीं पाऊंगा क्योंकि मैं उनसे बीस पच्चीस मीटर दूर था! मुझे न जाने क्या सूझा कि मैं ज़ोर से चीख पड़ा, “जया जी…!!!” चूंकि मैं इस दौरान कई बार उनसे मिल चुका था और वह मुझे पहचानती थीं, मैंने सोचा कि वह मुझे देखकर रुक जायेंगी। पुकारने के बाद मैंने उनकी तरफ दौड़ना शुरू कर दिया यह सोचकर कि हो सकता है मेरे पहुंचने से पहले भीड़ उन्हें घेर ले और उन्हें भागना पड़े। इसलिए दौड़ते हुए ही मैंने Yashica Mat G 24 कैमरे का ऊपर का ढक्कन खोला, शटर स्पीड दुरुस्त की और aperture को घुमाया और साथ में कैमरे में झांके बिना ही बाएं हाथ से फोकस भी करने लगा। मेरी आवाज़ सुनकर जया जी एक पल के लिए ठहर गईं और ढूंढने लगी कि कौन उन्हें उनके नाम से पुकारने का दुस्साहस कर रहा है? मुझे पता नहीं क्या सूझा कि बिना कुछ सोचे समझे मैने कैमरे का बटन दबा ही दिया। कोई भी घटिया सा भी फोटोग्राफर बिना फोकस किए हुए दौड़ते हुए कैमरे का बटन दबाने की मूर्खता कभी नहीं करेगा, लेकिन मैने खतरा उठाया यह सोचकर कि ज्यादा से ज्यादा फिल्म खराब होगी और क्या? जया जी ने मुझे अपनी तरफ भागते हुए आते देखा तो तुरंत पलट कर वह भी दौड़ते हुए घर में घुस गईं। दरवाज़ा बंद हो गया। वह इकलौता और आखिरी shot था, अगर मैंने क्लिक न किया होता तो वह moment निकल जाता। बाद में उन्होंने मुझे भीतर बुलवा लिया और घंटे भर तक हम लोग साथ रहे और अमिताभ जी के साथ कई फोटो खींची लेकिन क्या मालूम था कि जो फोटो मैंने फोटोग्राफी के नियमों को ताक पर रखकर क्लिक की थी, वह फोटो ऐसी बेशकीमती निकली कि जैसे मेरे लिए pose दे रही हैं… माया ने इस रंगीन फोटो को बैक कवर पर छापा था और यह फोटो कई शहरों की पान की दुकानों पर पोस्टर की तरह चिपकी भी देखी गईं थी।
[22/03, 15:51] Sneh Madhur: विजय अग्रवाल जी भी फोटो खींचते थे। मेरी उनसे स्वस्थ प्रतिस्पर्धा हुआ करती थी। वह contrast फोटो बना कर लाते थे और मैं soft सारे tones के साथ। मेरी फोटो के ब्लॉक अच्छे नहीं बन पाते थे, प्रसून पॉल ने मना कर दिया था कि बिना contrast के ब्लॉक बनाना मुश्किल काम है, इस पर मेरे लिए एक नए ब्लॉकर को ढूंढ कर लाया गया था। एक बार तो प्रथम पृष्ठ पर मेरी तीन फोटो छपी थी और तीनों में मेरा नाम था। 1980/81में मैं और विजय अग्रवाल जी ही फ्रीलांसर के रूप में फोटो खींचते थे, नेपू दा और उनके सुपुत्र अरुण मुखर्जी स्टाफर फोटोग्राफर थे। और कोई नहीं था। मैं जब 1982 में माया से वापस अमृत प्रभात लौटा तो स्टाफ रिपोर्टर बन गया लेकिन अवकाश के दिनों में मैं मनोरमा के लिए मॉडल्स के फोटो खींचा करता था। उस दौर में मेरे पास कई models थीं। उसी काल खंड में मैंने माया के लिए आलोक मित्रा और आदरणीय बाबूलाल शर्मा जी के अनुरोध पर अमिताभ जी के चुनाव के समय ट्रांसपेरेंसी फोटो (TP) खींचने का काम स्वीकार कर लिया था। बाद में आदरणीय गोपाल रंजन जी ने, जिन्हें मैं साइकिल पर बिठाकर अल्लापुर से अमृत प्रभात लाता और ले जाता था, मैनेजमेंट से शिकायत कर दी थी कि स्नेह मधुर रिपोर्टर होकर बाहर के लिए फोटोग्राफी करते हैं, उनसे अमृत प्रभात के लिए भी फोटोग्राफर के रूप में सेवाएं ली जाएं। तमल कांति घोष जी ने (तब रंजन जी उनके करीबी हुआ करते थे) मुझसे एक फंक्शन की फोटो खींचने को कहा तो मैंने मना कर दिया। इस पर संपादक माथुर साहेब ने मुझसे मौखिक स्पष्टीकरण मांगा था और मैंने इतना आहत महसूस किया की छह पृष्ठों का लिखित स्पष्टीकरण देने के साथ ही अपना त्यागपत्र भी दे दिया था। हालांकि उस स्पष्टीकरण का कुछ नहीं हुआ लेकिन मैंने कसम खा ली थी कि अब मैं फोटोग्राफी नहीं करूंगा, किसी के लिए भी नहीं। उस समय मैं क्राइम रिपोर्टर हो चुका था। तब से फोटोग्राफी बंद ही रही। विजय अग्रवाल जी आजकल भोपाल में वाइस चांसलर हैं। [01/04, 00:09] Sneh Madhur: बात 1984 दिसंबर की है। सुपरस्टार अमिताभ बच्चन इलाहाबाद से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे हेमवती नंदन बहुगुणा जी के खिलाफ़। मुझे माया पत्रिका से संपादक आलोक मित्रा जी और आदरणीय बाबूलाल शर्मा जी ने पूरे चुनाव के फोटो कवरेज की जिम्मेदारी सौंपी थी ट्रांसपेरेंसी (कलर टी पी) से जो उस समय इलाहाबाद में मेरे अलावा कोई नहीं खींच पाता था। कोडक की टी पी प्रोसेस होने के लिए इलाहाबाद से बॉम्बे जाती थी।अचानक मुझे कहा गया कि मनोरमा पत्रिका के लिए एक इंटरव्यू लेना है, आज ही, अमिताभ जी और जया बच्चन जी का पारिवारिक फोटो के साथ, उसी दिन दोनों चीज़ चाहिए क्योंकि उसी दिन मनोरमा को छपने के लिए प्रेस में जाना था। उस दिन मतगणना चल रही थी और अमिताभ जी पार्क रोड में एक बंगले में मौजूद थे। मतगणना में अमिताभ जी उस समय बहुगुणा जी से करीब पचास हजार की लीड ले रहे थे और चारों तरफ जयकारे लग रहे थे।
मैं किसी तरह बंगले में पहुंच पाया। जया जी मुझे अच्छी तरह से पहचानती थीं, इसलिए भीड़ के बीच से उन्होंने मुझे भीतर बुला लिया था। भीतर ड्राइंग रूम में मैं था और जया जी, बस। जया जी ने मुझे एक लंबा साक्षात्कार दिया। साक्षात्कार में उन्होंने दावा किया कि अमिताभ जी की शक्ति को आप लोग नहीं पहचानते हैं, उनके wordwide contacts हैं और वह इलाहाबाद को बदल देगें, सड़कें hotmix plants बनेगी (जो बनी भी) और बसों में कंडक्टर नहीं होगें, automatic खुलने और बंद होने वाले दरवाज़े होगें आदि आदि। उन्होंने इलाहाबाद की गंदगी दूर करने का भी वायदा किया था और अपना एक अनुभव भी सुनाया था कि चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने जीरो रोड पर प्रशंसकों की तरफ हाथ हिलाते हुए ऊपर नज़र उठाई तो देखा कि दूसरी मंजिल पर अपनी बालकनी में खड़ा एक लड़का किस तरह से मुंह से थूक निकाल रहा था पूरी लंबाई में और फिर उसे अपने मुंह में खींच भी ले रहा था वापस…. So Disgusting…! जया जी ने कहा था कि मैं इलाहाबाद की बहू हूं और यहां के युवाओं को साफ सफाई के बारे में भी बताऊंगी.. हाइजीन के बारे में। अंत में मैने उनसे अमिताभ जी के साथ उनकी एक पारिवारिक फोटो खिंचवाने का भी अनुरोध किया।
जया जी ने कहा कि अमिताभ जी तो भीतर पूजा पर बैठे हैं, कैसे उठेगें? मेरे पुनः अनुरोध पर जया जी ने कहा कि मैं कोशिश करती हूं। यह कहकर वह भीतर चली गईं।
थोड़ी देर में वह बाहर आईं और उनके साथ सफेद कुर्ता पायजामा पहने और माथे पर लंबा चौड़ा टीका लगाए अमिताभ जी थे, कुछ गुस्साए से कि क्यों उन्हें पूजा से उठा दिया गया? कौन सी आफ़त आ गई थी? भीतर आकर उन्होंने मुझे घूर कर देखा जैसे पूछ रहे हैं कि क्या करना है?
मैंने उन्हें सोफे पर बैठने को कहा। वह एक सोफे पर बैठ गए तो मैंने लंबे वाले सोफे पर बैठने को कहा। वह सोफे के किनारे वाले एक सिरे पर बैठ गए और फिर प्रश्नवाचक नज़रों से मेरी तरफ देखने लगे। मैंने जया जी से भी सोफे पर बैठने के लिए कहा। जया जी सोफे के दूसरे किनारे पर बैठ गईं और वह भी मेरी तरफ प्रश्नवाचक निगाहों से देखने लगीं। मैंने अपने 124 जी मैट याशिका कैमरे को खोला और फोकस करने के बाद कहा कि आप लोग थोड़ा करीब आ जाइए।
मेरा आदेश सुनकर जया जी थोड़ी हिलीं लेकिन अमिताभ जी ने जरा भी हरकत नहीं की। उन दोनों लोगों के बीच लगभग दो तीन फीट का फासला बना रहा।
मैंने फिर कहा कि “आप लोग थोड़ा और करीब आ जाइए।”
मेरे आदेश को सुनकर जया जी ने अमिताभ जी की तरफ देखा लेकिन अमिताभ जी ने खामोशी ओढ़े रखी और क्रूरतापूर्वक नजरों से मुझे देखने लगे। मैं भूल गया था कि मैं सदी के महानायक को निर्देशित कर रहा हूं, जिसके सामने प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई तक पानी मांग जाते हैं। मुझे इस बात का कतई अहसास नहीं था जबकि मैं बॉम्बे में उनकी शूटिंग के दौरान उनका कड़क व्यवहार देख चुका था।
दोनों दंपत्ति के एक दूसरे के करीब आने की कोई मंशा न देखकर मैंने भी अपनी कैमरे पर से आंख हटाते हुए बेचारगी भरे स्वर में कहा, “ऐसा कैसे होगा अमित जी? मुझे पति पत्नी की फोटो एकसाथ चाहिए,आप cooperate नहीं कर रहे हैं।”
अमित जी ने मुंह खोला, भारी आवाज़ में बोले जिसका पूरा जग दीवाना था, “बैठे तो हैं हम साथ साथ, और क्या चाहिए?”
मैंने कहा कि”जैसे पति पत्नी बैठते हैं एक साथ, थोड़ा और करीब आइए।”
“साथ ही साथ तो बैठे हैं हम?”
“अरे, पति पत्नी की तरह, एकदम पास”।
“क्या पति पत्नी सोफे पर चिपक कर बैठते हैं हमेशा?”
यह सुनकर मुझे हंसी सी आ गई और सोचा कि शायद मैं उन्हें समझा नहीं पा रहा हूं।
जया जी भी हिचकिचाने सी लगी थीं। उन्हें लगने लगा था कि शायद कुछ ज्यादा हो रहा है, अमित जी का मूड उखड़ सकता है।
वह बोलीं, “इसी को ले लीजिए, अमित जी को पूजा पर बैठना है।”
मैं भी ज़िद पर अड़ गया। मुझे जो चाहिए था, वही लूंगा, कोई खैरात तो चाहिए नहीं।
जब देखा कि सोफे पर दोनों टस से मस नहीं हो रहे हैं तो मैंने नया idea उछाला, ऐसा करते हैं कि आप खड़े हो जाइए और खड़े खड़े वाली फोटो खींच लेते हैं।
अमित जी ने मेरी तरफ आग बबूला होकर देखा कि यह लौंडा मुझे नचा रहा है! उस समय मैं लौंडा ही था, कुल 25 साल की ही तो उम्र थी और सामने था बॉलीवुड का बादशाह जिसकी चमक का मेरे ऊपर कोई प्रभाव परिलक्षित नहीं हो रहा था। शायद यही बात अमिताभ जी को परेशान कर रही थी।
दोनों लोग खड़े हो गए। मैंने कैमरे में झांका, मज़ा नहीं आया। मैंने अमित जी से कहा, “थोड़ा और पीछे होइए।” अमित जी ने मेरा हुक्म मान लिया।
मैंने नया आदेश सुनाया, “थोड़ा और पीछे”।
अमित जी और जया जी थोड़ा और पीछे हुए।
मैंने कहा, दीवार से सट जाइए, वहां पर लाइट सही है।”
दोनों यंत्रचालित तरीके से और पीछे हो गए।
मैंने उनसे उस जगह को बदलने को कहा, “लाइट सही नहीं मिल रही है”, और जगह भी बता दी। मेरा यह आदेश भी मांन लिया गया तो मैंने दूसरा कारतूस निकाला और fire कर दिया, “ऐसे नहीं चलेगा…! आप लोग तो अजनबियों की तरह एक दूसरे के बगल में खड़े भर हैं। ऐसे कोई पति पत्नी खड़ा होता है फोटो में साथ? थोड़ा प्रेम प्रदर्शित कीजिए वरना फोटो देखकर लगेगा कि तलाक के बाद की फोटो है! मनोरमा पत्रिका पारिवारिक मैगजीन है, बंगालियों के घरों में जाती है, जरा intimate look दीजिए।”
इतना सुनते ही अमिताभ जी भड़क उठे, “मुझे नहीं खिंचवानी है फोटो, मैं जा रहा हूं”।
इतना कहकर अमित जी भीतर जाने वाले दरवाजे की तरफ चल दिए।
मैंने जया जी की तरफ कातर नजरों से देखा और बोला, “प्लीज़, समझिए कि मुझे क्या चाहिए?”
अचानक जया जी ने अपने तेवर बदले और अपने फार्म में आ गईं। शाल ओढ़कर दरवाजे की तरफ बढ़ रहे अमिताभ को रोकते हुए मुझसे कहा, “बस last… आप अपना कैमरा ready रखिए “!
मैंने कहा “yes, ok”
जया जी ने प्रेम पूर्वक अमिताभ की तरफ देखा और पास आने का आग्रह किया।
अमित जी और जया जी फिर उसी दीवार के साथ सट कर खड़े हो गए। लेकिन अमिताभ जी की अकड़ बदस्तूर थी। जया जी की योजना समझकर मैंने शटर पर अपनी उंगली लगा दी। जया जी ने मुझे गौर से देखा और कहा, “क्लिक”!
इतना कहते ही जया जी ने अमित जी की तरफ अपने को हल्का सा झुका लिया और अमित जी कुछ समझ पाते, इससे पहले उनकी कमर में अपना पूरा हाथ डाल दिया। मैंने शटर दबा दिया। जया जी के चेहरे पर मुस्कान आ गई और अमिताभ भी भौंचके से रह गए! मेरे को कैमरा बंद करते देख वह भी मुझे घूरते हुए पूजा करने के लिए कमरे में चले गए और जया जी ने मेरी तरफ मुस्कुराते हुए देखा और आंखों में चमक भरते हुए पूछा, “Happy !”
मुझे उस लड़कपन में इतनी भी तमीज़ नहीं थी कि मैं खुशी खुशी औपचारिक रूप से Thank you भी बोल देता क्योंकि उस समय की पत्रकारिता के दौर में मुझे श्रेष्ठ होने का भाव रखना सिखाया गया था। न किसी की चाटुकारिता करना, न ही सर कहना (जैसा कि आजकल का रिवाज़ है चैनल पर बड़े से लेकर छोटे तक को सर सर कहते दिखेंगे), न ही अहसान मानना…किसी की पोजिशन से भी अप्रभावित रहकर शुद्ध पत्रकारिता करना। जया जी के इस कठिन प्रयास में विशेष सहयोग का आभार व्यक्त करने की जगह मैं सोचे जा रहा था कि अभी तो इंटरव्यू लिखना है पत्रिका के लिए….कहीं देर न हो जाए! उस समय एक दिन में कई जिम्मेदारियों का निर्वाह करना पड़ता था। यहां से भागकर वहां जाना है और वहां से वहां…! बस भागते ही रहना, घड़ी की रफ्तार से भी तेज़।
और एक खास बात बता दूं। मनोरमा में यह साक्षात्कार तो छपा और फोटो भी। लेकिन इतनी मेहनत से खींची गई फोटो साक्षात्कार के बीच में क्वार्टर पेज छपी थी और वह भी ब्लैक एंड व्हाइट, जगह की कमी थी इसलिए फोटो के साथ न्याय नहीं हो पाया था।
अगली बार बताऊंगा कि जब बहुगुणा जी को पता चला कि अमिताभ बच्चन उनके खिलाफ मैदान में उतरेंगे तो उन्होंने क्या प्रतिक्रिया दी थी….!!!
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“पुलिस” के डर से भागती “पुलिस”
स्नेह मधुर
पहले कभी गुज़रे ज़माने की बात है, जब यह सुना जाता था कि अपराधी पुलिस के डर से भागते हैं। यह वह जमाना था, जब दस पेज के अखबार होते थे जिनमें दुनियाभर की कुल मिलाकर कुछ ही खबरें हुए हुआ करती थीं, बस कुछ खास ही। स्वाभाविक है कि बहुत सारी खबरें छूट भी जाया करती रही होंगी। अब जब सूचना का विस्फोट हो चुका और ज्वालामुखी की तरह उसका लावा बहने लगा है तो बहुत से लोग बेपर्दा होने लगे हैं और ऐसी ऐसी जानकारियां सामने आने लगी हैं कि लोगों के दिमाग़ के फ्यूज तक उड़ने लगे हैं।
पुलिस के अत्याचार और अनाचार की कहानियां घर घर पहुंचाने का काम अखबार और हिंदी फिल्में पहले की तरह लगातार करती ही जा रही हैं, लेकिन पहले एक छवि पुलिस विभाग की ऐसी भी थी कि गलत कामों को नीचे के दरोगा सिपाही ही अंजाम दिया करते थे और ऊपर के अफ़सर कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार होते हैं। लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के इस युग में और सोशल मीडिया जैसी सुरसा की कभी खत्म न होने वाली भूख ने तो गज़ब ढा दिया है। जहां एक तरफ इलेक्ट्रानिक मीडिया तिल को ताड़ बनाकर खुद की भी बदनामी मोल ले लेता है, लेकिन वहीं दूसरी तरफ समाज के सारे “देवताओं भगवानों” को भी नंगा करने में कोई कसर नहीं छोड़ता है। इस “मीडिया” की वजह से अब सबके नक़ाब उतरने लगे हैं और जब नकाब उतरेगा तो क्या होगा? चेचक तक के दाग दिखाई पड़ने लगते हैं।
करीब चार दशक पूर्व मेरे पास एक थानेदार आया और अपनी वाहवाही कराने के लिए मुझसे एक खबर प्रकाशित करने का अनुरोध किया। उसने बताया कि करीब दस वर्ष से फरार एक हत्यारे को उसने दूसरे शहर से गिरफ्तार कर एक बड़ा काम किया है, अख़बार में छपना चाहिए। मैंने पूछा कि वह हत्यारा दूसरे शहर में क्या कर रहा था, फरारी के दौरान अपना जीविकोपार्जन कैसे कर रहा था? थानेदार ने अति उत्साह में बताया कि जब उसने उसे पकड़ा, उस समय वह रिक्शा चला रहा था।
यह सुनते ही मुझे क्रोध आ गया। मैंने कहा कि हत्यारा रिक्शाचालक कोई पेशेवर क्रिमिनल नहीं लगता है वरना अपराध की कमाई किसी को रिक्शा चलाने को मजबूत नहीं कर सकती है, जरायम की कमाई के ढेरों रास्ते हैं। उससे अनजाने में हत्या हो गई होगी और वह पुलिस की पिटाई के डर से फरार हो गया होगा! अपना पेट भरने के लिए जो रिक्शा चलाकर बीस पच्चीस रुपए कमाता हो, उसे गिरफ्तार कर अपने आप को तीसमारखा समझने लगे हो? यहां तुम्हारे थाने में चारों तरफ अपराधियों का बोलबाला है, जुआं चल रहा है, स्मैक बेची जा रही है, लड़कियां छेड़ी जा रही हैं, लोग तमंचा लहराते हुए गुंडा टैक्स वसूल रहे हैं, कितनों को गिरफ्तार किया है तुमने?
मेरी डांट से थानेदार रूआंसा हो गया और एसएसपी से जाकर उसने मेरे खिलाफ शिकायत करते ही एफआईआर दर्ज करने की अनुमति मांगी। एसएसपी ने मुझसे पूछा कि थानेदार आप पर आरोप लगा रहा है कि आपने उसके साथ दुर्व्यवहार किया है? मैंने पूरा वाकया बताया तो एसएसपी ने भी कहा कि आपने सही किया, ये सब कामचोर होते हैं, रिक्शावाला घर आया होगा तो उसे पकड़ लिया होगा, या फिर रिक्शावाला खुद ही थाने पहुंच गया होगा।
कहने का अभिप्राय यह है कि पुलिस को दस साल लग गए एक सामाजिक और आर्थिक रूप से विपन्न अपराधी को पकड़ने में? अगर अपराधी अमीर या प्रभावशाली होता तो? क्या पुलिस कभी ऐसे लोगों पर हाथ डाल पाती? आपको मालूम ही होगा कि जब दस्यु सुंदरी फूलन देवी सांसद बन गई थीं तो एक पुराने मामले में उनकी गिरफ्तारी का वारंट आया तो वह फरार हो गईं। अकेले नहीं, दो सरकारी गनर भी उनके साथ गुम हो गए थे। बड़े बड़े पुलिस अफसर फरार फूलन को ढूंढने के लिए टीम बनाते थे, छापेमारी करते थे, लेकिन फूलन पुलिस के हाथ नहीं लगीं, लेकिन वह खुद ही एक दिन वापस आ गईं अपने गनर के साथ।
एक विधायक भी काफी समय तक फरार चले। सरकारें बदल गईं, अफसर बदल गए लेकिन विधायक जी अपने धंधे में जुटकर पैसे कमाते रहे, सारी दुनिया से मिलते रहे, बस पुलिस को नहीं मिले। अशोक की लाट लगाकर सैल्यूट लेने और जयहिंद सुनते रहने वाले अफसर अखबारों में प्रेसनोट भेजने में कोई कमी नहीं छोड़ते और उसमें लिखते कि फरार विधायक की तलाश में पुलिस टीम ने कहां कहां छापेमारी की, दूसरे राज्यों तक पहुंच गए लेकिन फरार विधायक की परछाईं तक नहीं मिली जांबाज अफसरों को।
कई साल बीत गए। नई सरकार आई जिसमें विधायक की सेटिंग नहीं हो पाई थी। उन्हें लगा कि कहीं एनकाउंटर में न मार दिए जाएं? बस, खुद ही थाने पहुंच गए और वहां से सुरक्षित जेल भिजवा दिए गए।
कहने का मतलब यह है कि पुलिस कभी इतनी सक्षम नहीं रही है कि वह अपराधी को ढूंढ कर उसे अदालत तक पहुंचा दे। वह जो पुरानी कहावत कही गई है कि “पुलिस के हाथ बहुत लंबे होते हैं”, उसमें एक तकनीकी कमी छुपी हुई है। पुलिस के हाथ लंबे तो होते हैं लेकिन हाथ बिना हड्डी के होते हैं, इसलिए अपनी जगह से टस से मस नहीं हो पाते। उन्हें हिलाने के लिए और अपराधी तक पहुंचाने के लिए यानी कि उन्हें अपना काम याद दिलाने के लिए उस लुजलुज हाथ में या तो नोट भरे जाते हैं या सरकार उसमें अपने निर्देश का डंडा लगाती है। तब पुलिस हिलती है। आमतौर पर अपराधी पुलिस को थाली में परोस कर दे दिया जाता है जिसपर पुलिस अपनी टोपी रख देती है।
शायद इसीलिए पहले पुलिस के “इक़बाल” की भी चर्चा की जाती थी। यह ” पुलिस का इक़बाल” क्या होता है? अधिकतर लोग नहीं जानते हैं, बस अफसोस व्यक्त करते कह देते हैं कि “पुलिस का इकबाल खत्म हो गया है।” असल में पुलिस का इकबाल का मतलब होता है कि पुलिस के नाम से लोग डर डर कांपने लगे, पुलिस को देखकर लोग भागने लगें। लेकिन कोई दबंग अपराधी तो पुलिस को देखकर भागेगा नहीं, भागेगा तो शरीफ, बिना सोर्स सिफारिश वाला ही।
यह “इक़बाल” आखिर पुलिस पैदा कैसे करती है? चौराहे पर किसी रिक्शेवाले को पीटकर, फुटपाथ पर बैठकर जीविका चलाने वाले को लठियाकर यानी जिसका कोई माई बाप न हो, जो पुलिस की शिकायत न कर सके या शिकायत करे तो उसकी सुनवाई न हो, उसको चौराहे पर गिरा गिरा कर मारकर। बस एक बार अपना इक़बाल बुलंद कर पुलिस वसूली अभियान में लग जाती है, जरायम कराने, जमीन पर कब्जा कराने, मकान खाली कराने, दबंगों की मदद करने और राजनैतिक आकाओं के एजेंडों को सेट करने में।
अब बहुत दूर मत जाइए, मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह का ताज़ा उदाहरण ले लीजिए। जब राजनैतिक एजेंडा पूरा करने में उन्हें दूध में पड़ी मक्खी मान लिया गया तो बदले की आग में सुलगते हुए उन्होने अपने गृह मंत्री अनिल देशमुख पर ही करोड़ों की वसूली कराने का आरोप लगा दिया। परिणामस्वरूपअनिल देशमुख को जेल जाना पड़ा। मामला जब फिर रंग बदलने लगा तो उन्हें लगा कि शायद दांव उल्टा पड़ गया और उन्हें अपनी जान बचाकर भागना पड़ा। वे फरार हो गए। मुंबई का पूर्व पुलिस कमिश्नर फरार हो गया और पुलिस को अपने ही आका को ढूंढने के लिए निकलना पड़ा! परमबीर सिंह को कोर्ट ने फरार घोषित कर दिया और उनके खिलाफ गैर जमानती वारंट भी जारी कर दिया।
अब भला सोचिए कि पुलिस के तौर तरीके और कानून का जानकार प्रभावशाली पुलिस अफसर अपनी पुलिस के ही डर से भागता फिरता रहा, महीनों! परमबीर सिंह को लगा कि सरकार में उनकी उपयोगिता खत्म हो गई है और उनके आकाओं को डर है कि वे उनके राज़ का कहीं पर्दाफाश न कर दें? ऐसे में परमबीर सिंह को रास्ते से हटाया भी जा सकता है? परमबीर सिंह इस बात को अच्छी तरह से समझते होंगे कि सत्ता की मलाई लूटने के लिए कोई भी पुलिस अफसर किसी भी स्तर तक जा सकता है, अपने सीनियर को धूल भी चटा सकता है। जैसाकि परमबीर सिंह खुद करते रहे होगें! अब हालात ऐसे हो गए हैं कि पूर्व पुलिस कमिश्नर और वर्तमान में पुलिस महानिदेशक होमगार्ड परमबीर सिंह अपनी ही मुंबई में खुद को सुरक्षित नहीं मान रहे हैं और वह भी अपनी ही पुलिस से, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट में उनके वकील ने लिखकर दिया है।
क्या यही है न्याय का रास्ता! पुलिस अफसर ही असुरक्षित हो गए हैं अपने ही महकमे में? आम तौर जब आम आदमी इस तरह की स्थितियों में फंसता है तो ये ही अफसर उसे पुलिस के सामने सरेंडर करने और पुलिस की मदद करने जैसे आदर्श वाक्य बोलकर उसकी बखिया उधेड़ देते थे और जब अपनी पर पड़ी तो भागते फिर रहे हैं! पुलिस की गिरफ्तारी से बचने के लिए परमबीर सिंह जाते हैं हाई कोर्ट। वहां राहत नहीं मिलती तो जाते हैं सुप्रीम कोर्ट। आम साधारण आदमी इन परिस्थितियों में क्या अपने शहर से भागकर महंगे वकीलों को मोटी रकम देकर न्याय के लिए कोर्ट दर कोर्ट का चक्कर लगा सकता है?
परमबीर सिंह महीनों फरार रहे लेकिन पुलिस उन्हें ढूंढ नहीं पाई। ताज्जुब है न! अगर आम आदमी फरार होता तो पुलिस क्या करती? खानदान भर के लोगों को पकड़कर थाने में बंद कर देती, छोटे बच्चों, महिलाओं को छोड़ने के लिए पैसे वसूलती, घर को कुर्क कर देती और दूर देहात का मामला होता है तो घर तोड़ देती है, दरवाज़े उखाड़ देती है। लेकिन जब बड़े लोगों का मामला होता है तो घर पर नोटिस भेजकर थाने में आमंत्रित करती है। और अगर परमबीर सिंह जैसे अफसर का मामला हो तो कोर्ट द्वारा गिरफ्तारी का आदेश जारी होने के बाद भी वह झूठ बोलने से नहीं चूकती है कि कुछ पता नहीं चल रहा है, लगता है कि देश छोड़कर चले गए हैं!
झूठ पर झूठ इन आईपीएस अफसरों द्वारा, बड़े बड़े ओहदेदारों द्वारा, अपने विभाग में आदर्श की मिसाल बनकर रोल मॉडल होने का भ्रम पैदा करने वालों द्वारा सार्वजनिक रूप से बोला जाता है! शर्मनाक! अफसरों की इस नपुंसकता को उनके अधीनस्थ अफसर देख कर उन्हीं की तरह गिरगिट जैसे रंग बदलना सीख जाते हैं। फिर उसी पुलिस से आप अनुशासन, नैतिकता, कर्तव्यपरायणता आदि की उम्मीद करते हैं?
परमबीर सिंह कोई रिक्शावाले नहीं थे जो किसी शहर की भीड़ में खो जाएं और कोई उन्हें न पहचान पाए। सब जानते थे कि कहां हैं परमबीर सिंह, सबसे बात होती थी, बस मौका दिया जा रहा था अपना बचाव करने का ताकि गलती से कोई ऐसा सच न सामने आ जाए जिससे आका लोगों की करतूतें जगजाहिर हो जाएं। आखिर सरकार भी तो चाहेगी कि परमबीर सिंह सरकार की ही भाषा बोलें क्योंकि वह अभी नौकरी में हैं और लगातार महत्वपूर्ण पदों से नवाजे जाते ही रहे हैं। लेकिन तमाम प्रदेशों में ओछी हरकतें करने वाले अफसर जब न्याय की मांग को लेकर पुलिस से ही भागते हैं और कोर्ट में जाते हैं तो लगता है कि इस महकमे में ही कोई कमी है। पुलिस से जनता ही नहीं डरती, खुद पुलिस भी डरती है।
एक बार एक एसपी ने थाने के भीतर एक पत्रकार के साथ थानेदार द्वारा किए गए दुर्व्यवहार की शिकायत मिलने पर कहा था कि “आप लोग थाने के भीतर जाने की हिम्मत कैसे कर लेते हैं? अगर मेरी गाड़ी पर नीली बत्ती न लगी हो तो मैं थाने में कभी न जाऊं।”
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स्नेह मधुर
भई, वास्तव में नाम में दम होता है। जब नाम तेजस्वी रखा था तब क्या किसी ने सोचा था कि बेटा खानदान का नाम रोशन करेगा? लोग कहते हैं कि होनहार बिरवान के होत चीकने पात। ऐसा भी कुछ नहीं हुआ। हाईस्कूल पास करने के लाले पड़ गये, वह भी तब जब घर में मां और बाप दोनों ही मुख्यमंत्री हों। घर के ड्राइंगरूम से लेकर लान तक में ढेरों आईएएस पनवाडिय़ों की तरफ घूमते दिख जाते रहे होंगे। सही कहा गया है कि बच्चे के दिमाग में लक्ष्य पहले से ही निर्धारित हो जाने पर उसे गारंटी के साथ सफलता मिलती ही है। तेजस्वी ने प्राइमरी स्कूल के टीचरों की तरफ बड़े-बड़े अफसरों को अपने आगे-पीछे घूमते देख पहले ही तय कर लिया था कि पढऩे से फायदा ही क्या जब बाद में यही सब करना पड़ेगा। उसने क्रिकेट में किस्मत आजमायी क्योंकि वहां पर स्टारडम था-छक्का मारने पर तालियां बजती थीं और कई बार तो सुन्दर-सुन्दर बालायें भी सारी मर्यादायें तोडक़र स्टेडियम के भीतर चुंबन देने चली आती थीं। लेकिन वहां भी किस्मत का बल्ला नहीं चल पाया। फिर भी चिंता किस बात की थी? चिंता तो उन्हें करनी चाहिए जिनके मां-बाप दमदार नहीं होते हैं। पहले की फिल्मों में पिता अपने बच्चों के भविष्य के साथ बड़ी उम्मीदें लगाते थे और कहते थे-मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राज-दुलारा। लेकिन बिहार में हुए शपथ ग्रहण से स्पष्टï है कि अब बेटा ही अपने मां-बाप से उम्मीद रखता है -मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा बाप हमारा..।यानी बच्चों को स्थापित करना बाप की जिम्मेदारी है। बच्चों को भीड़ में छोडक़र अपना रास्ता खुद तलाशने की सलाह देने वाले मां-बाप हद दर्जे के गैर जिम्मेदार अभिभावक होते हैं। अभी तक बीबियां ही अपने पति को नाकारा कहकर हिकारत भरी नजरों से देखती रही हैं, अब तो हर बच्चा अपने पिता की तरफ टेढ़ी दृष्टिï कर अपना माथा ठोंक सकता है कि क्या खराब किस्मत पायी है मौंने जो ेेसा बार मिला जो सिर्फ पढऩे पर जोर देता है। खुद कुछ नहीं कर सकता इसलिए कहता है कि खूब पढ़ोगे तो आगे बढ़ पाओगे। अरे , यह काम खुद कर लिया होता तो हमें नौकरी के लिए लाले पड़ते? खुद कुछ कर नहीं पाये और सारी उम्मीदें हमसे लगा बैठी हैं। एक तरह हमारा बाप है और दूसरी तरफ तेजस्वी का बाप..। क्या किस्मत पायी है तेजस्वी ने? उम्र 26 साल, पहला चुनाव, पहली जीत, पहली बार मंत्री पद और साथ में उप मुख्यमंत्री पद का ताज! वाह!
हमारी बात कड़वी लग रही है? जरा बिहार के मंत्रियों की सूची निकाल कर देख लो भाई, कितने मंत्री हाई स्कूल पास हैं? जब ये पढ़ाई से भाग रहे होंगे तो बाप ने ही दिलासा दिया होगा कि कोई बात नहीं है चिंता की, सब ठीक हो जायेगा। बाप की प्रेरणा से ही तो ये सब मंत्री बन पाये। असल में ज्यादा पढऩे का माहौल बनाकर सरकार सबको बाबू और चपरासी बनाना चाहती है। जो सरकार के झांसे में नहीं आते, वे शासक बनते हैं। यूपी में देखिये, चपरासी की पोस्ट के लिए बीटेक और पीएचडी वालों ने अप्लाई कर रखा है-23 लाख पढ़े-लिखे लोग चपरासी बनना चाहते हैं। आखिर ज्यादा पढऩे से फायदा क्या? क्या कम पढ़े-लिखे लोग शासन नहीं चला सकते हैं? इमरान को देखिये, इंजीनियङ्क्षरग पढ़े बिना ही ऐप्स बना रहा है। क्या अकबर कहीं से कमजोर था? इतने वर्षों तक भारत पर शासन किया था अकबर ने। एक बार अकबर के नौ रत्नों से पूछा गया था कि आप लोगों को दुबारा मौका मिले तो खूब पढक़र अकबर के नौ रत्न बनना चाहेगें या फिर बिना पढ़े ही अकबर? सभी ने अकबर बनना चाहा था। तो कौन सी आफत टूट पड़ी है लालू के कम पढ़े-लिखेे बच्चों के राजा बनने में? एक तरह से इस घटनाक्रम पर हाय-तौबा मचाने की जगह प्रेरणा लेनी चाहिए कि मां-बाप की खून-पसीने की कमाई को कोचिंग में झोंक देने से बेहतर है कि कुछ और करे, नहीं तो मां-बाप जानें-काहे पैदा किये रहिन?
संजय गांधी का उदाहरण आपके सामने है। वह भी बचपन से पढ़ाई-लिखायी छोडक़र कुछ बड़ा काम करना चाहते थे। अपनी मां के बल पर। मां ने साथ भी दिया और पूरे देश में संजय का डंका बजने लगा था। तथाकथित प्रबुद्ध वर्ग नेे बड़ी आलोचना भी की थी लेकिन संजय का विजय रथ आगे ही बढ़ता गया। फिर अपनी इच्छा के विपरीत मां के लिए राजीव गांधी को अपने खानदानी पेशे में उतरना पड़ा था। फारुख अब्दुल्ला की भी तीसरी पीढ़ी सत्ता का स्वाद चखती रही। मुलायम सिंह यादव ने भी मौका देखते ही जैसे झपट्टïा मारकर अखिलेश को सिंहासन पर बिठा ही दिया। उसी तरह से लालू ने भी अपने सबसे छोटे बेटे तेजस्वी के लिए स्टेडियम सजवा दिया और सभी फील्डरों से कह दिया कि मेरा बेटा पहली गेंद पर छक्का मारेगा ही। पहली बार राजनीति में कदम रखा और विधायक बनते ही सीधे उप मुख्यमंत्री। एक बेटा उपमुख्यमंत्री तो दूसरा बेटा मंत्री। आप यह मत सोचिये कि तेजस्वी और तेज प्रताप की सफलता देखकर मेरे सीने पर सांप लोट रहा है। लालू ने सोच-समझकर योज्यता के आधार पर ही तो पद बांटे होंगे। बिहार में कौन ऐसा अति विद्वान एमएलए मिल जायेगा जो तेजस्वी और तेज प्रताप से तेज हो? कौनो गलत नहीं किये हंै लालू, कहे का मतलब है कि जब एक घर में दुई-दुई मुख्यमंत्री होंय ता का उनकर गदेलवन टिकट लेये के खातिर लाइन में खड़ा होइयें-आपन फाइल दबाय के, चिरौरी करिहें कि हमऊ का कुछ दै दो? अरे जो लेंगे सीना ठोंक कर लेंगे। अब देखियेगा कि बिहार में कैसी तूती बोलती है लालूराज की, नीतीश बाबू देखते रह जायेंगे।
इस कथन का सार यह है कि अगर मां-बाप योज्य होंगे तो बच्चों को कुछ न कुछ हासिल करा ही जायेंगे..अगर बच्चों को कुछ नहीं मिला तो यह मां-बाप की अयोज्यता है न कि बच्चों का कुसूर। अगर आपको जीवन में असफलता मिल रही है तो मंदिर में सिर झुकाकर भगवान से पूछिये कि आखिर आपसे पिछले जन्म में कौन सा पाप हो गया था जो इस जन्म में ऐसे मां-बाप आपके नसीब में आयेे हैं..क्या भगवान कोई और बेहतर जुगाड़ नहीं कर सकता था?
राहुल गांधी को ही देख लीजिये। मां-बाप की वजह से ही तो वह युवराज बने घूम रहे हैं। दिल से नहीं चाहते थे राजनीति के इस पचड़े में पडऩा लेकिन पुरखों की विरासत को तो पड़ेगा ही संभालना। जब टाटा-बिड़ला के बच्चे ही उनकी विरासत संभालते हैं तो राजनीतिज्ञों की विरासत अगर उनके बच्चे संभाले तो इसमें कौन सी बुराई है? राहुल गांधी सज्जन पुरुष हैं। उन्हें इस हकीकत को स्वीकारने में कोई झिझक नहीं हुई। उन्होंने युवाओं के बीच कह ही दिया कि अगर मैं इस खानदान का न होता तो जहां पर खड़ा हूं वहां तक कभी नहीं पंहुच पाता।
वास्तव में बिहार पूरे देश के लिए आदर्श है। बिहार के विधान सभा चुनावों के नतीजों ने हमारी माटी के डीएनए को हथौड़े की तरह सबके दिमाग में ठोंक दिया है। चैनेलों-काफी हाउसों-ट्रेनों-बसों में बैठे फालतू लोग जब देखो तब काल्पनिक आदर्शों की बातें बड़े ही जोरदार ठंग से करते नजर आ जायेंगे और लगेगा कि जैसे बस उनके विचारों का क्रियान्वयन होते ही देश में आमूल-चूल परिवर्तन आ जायेगा। वर्षों से सुनते आये थे कि कांग्रेस के परिवारवाद ने देश को गर्त में डाल दिया है। लेकिन हमारे देश का जो डीएनए है, वह कथनी और करनी में अंतर का है।
नेहरू और इंदिरा गांधी की नीतियों का विरोध कर-करके सत्ता में आये लोग जब बुजुर्ग हुए तो अपने बच्चों को राजनीति में लांच करने का कोई मौका नहीं गंवाया। लोगों ने उनकी निंदा की तो मुस्कुराकर रह गये। असल में पढ़े-लिखे संभ्रांत लोग और खासकर मीडिया इस देश की जनता के बारे में अपनी एक धारणा बनाकर उसी पर अड़ी रहती है कि जनता यह चाहती है, जनता वह चाहती, जनता ऐसा करेगी, ऐसा नहीं करेगी। अपनी संकुचित सोच में वह जनता को ढाल लेते हैं और जनता की बात के नाम पर अपनी बात लोगों पर थोपने लगते हैं। उदाहरण के लिए इमरजेंसी के बाद कांग्रेस का सफाया हो गया था। जनता पार्टी देश की सत्ता पर काबिज हो गयी थी। लेकिन जनता पार्टी के टूटने के बाद जब दुबारा चुनाव हुए तो कांग्रेस ने चमत्कारी ढंग से सत्ता में वापसी की थी। इसका अनुमान किसी को नहीं था। उस समय जनसत्ता अखबार के संपादक प्रभाष जोशी की कलम की धार और उनके राजनैतिक विश£ेषणों के सभी कायल हुआ करते थे। लेकिन उन्होंने भी किसी भी कीमत पर कांग्रेस के न आने की भविष्यवाणी की थी। कांग्रेस की जीत के बाद उन्होंने बाकायदा संपादकीय लिखकर माफी मांगी थी कि जनता की नब्ज समझने में उनसे भूल हो गयी थी।
लोग यह कहते थे कि चारा घोटाले के सजायाफ्ता लालू के राजनैतिक दिन खत्म हो गये हैं। जनता उन्हें वोट नहीं देगी। तरह-तरह की अटकलबाजियां होती रहती थीं। नीतीश कुमार उनका साथ लेकर फंस गये हैं। नीतीश का लाभ लालू को मिल सकता है, लालू का लाभ नीतीश को नहीं मिलेगा। मुलायम सिंह यादव ने इसका उल्टा कह दिया था कि नीतीश को समर्थन देकर लालू ही फंस गये हैं-नीतीश दगाबाज हैं। लेकिन जब वोटों की गिनती हुई तो चारा घोटाले के मुलजिम की पार्टी को ही लोगों ने सिर पर उठा लिया। लोगों ने लालू को अपना आदर्श माना। जब उनके बेटे तेजस्वी की तस्वीर अखबारों में छपी थी कि तेजस्वी के पास करोड़ों की संपत्ति के साथ 17 लाख रुपये की कीमत वाली मोटरसाइकिल है तो लोगों ने उपहास उड़ाया था कि बिहार की गरीब जनता भला तेजस्वी को क्यों वोट देगी? जरा पूछिये कि कहां से आया इतना पैसा-हिसाब दें? लेकिन लोगों ने तेजस्वी को अपना आदर्श माना। असल में खराब स्थितियों में जी रहे लोग भी अपने को उसी के साथ जोडऩा चाहते हैं जो समृद्ध हो-शक्तिशाली हो-दबंग हो। वे जानते हैं कि नियम-कानून की मदद से उनका उद्धार नहीं होने वाला है। कोई ऐसा ही व्यक्ति उनकी मदद कर सकता है जो नियम-कानूनों से ऊपर हो। यही कारण है कि ये आरोप भले ही मायावती पर लगें कि उनके चार बार मुख्यमंत्री बनने के बावजूद भी दलितों का कोई भला नहीं हो पाया। लेकिन जब मायावती हेलीकाप्टर में बैठकर दलितों की सभा में जाती हैं तो दलितों में उनके प्रति ईष्र्याभाव नहीं जागृत होता है बल्कि स्वाभिमान की संतुष्टिï होती है कि अभी तक उन पर अत्याचार करने वाले ही यह सुख भोगते थे, अब उनके बीच का कोई व्यक्ति भी उस मुकाम पर पंहुचने में सफल हुआ है। लालू यादव भी कहते थे कि जब वे हेलीकाप्टर से गांवों में जाते हैं तो वहां पर लोगों को बताते हैं कि कभी मैं भी भैंस पर बैठकर पशुओं को चराया करता था लेकिन अब हेलीकाप्टर पर उड़ रहा हूं। इससे लोग आनंदित होते थे। गांवों के लोग घोटालों-भ्रष्टïाचारों-अपराधों को हेय दृष्टिï से नहीं देखते हैं। अभावों में जी रहे लोग शक्तिशाली व्यक्ति को अपने दरवाजे पर खड़ा देखना चाहते हैं। इसके लिए वे कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। उनको मालूम है कि उनकी जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आने वाला है चाहे सरकार किसी की बनें, लेकिन अगर कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति उनके दरवाजे पर आ जाता है तो उनकी शान बढ़ जाती है।
इसीलिए अपने को समाजवादी कहने के बावजूद मुलायम सिंह यादव अपने जन्मदिन पर इंज्लैंट से क्वीन एलिजाबेथ की बज्घी मंगाकर उस पर बैठकर जनता के बीच में घूमने में संकोच नहीं करते हैं। बालीवुड की हीरोइनों को अपने गांव में नचाकर वह गांव के उन लोगों की हसरतों को पूराकर उनका दिल जीत लेते हैं जो जिंदगी भर अपने बल पर इस आनंद को हासिल कर पाने का दम नहीं रखते हैं।
फिल्मों में राजकपूर ने लोगों को सपना दिखाकर उनका मनोरंजन किया और खूब यश लूटा। राजनीति में भी इसी तरह के करतब दिखाकर लोगों को अपनी तरफ आकर्षित किया जाता है। अगर लालू ने अपने बच्चों को मंत्री पद न दिलवाया होता तो कोई भी उनके इस त्याग को उनका महान कार्य मानकर उन्हें अपना आदर्श न मान लेता। लोग अवसर का लाभ उठाने को गलत नहीं मानते हैं बल्कि जो अवसर का लाभ लेने से चूक जाते हैं उन्हें बकलोल समझ लेते हैं। मोदी ने भले ही आदर्श स्थापित करने की कोशिश की है लेकिन वह अपने देश के डीएनए में ग्राह्यï नहीं है। लोग सोचते हैं कि जो अपनी भतीजी को मुख्यमंत्री रहते अच्छी नौकरी नहीं दिला सकता है, अपने भाई-भतीजों की मदद नहीं कर सकता है, वह हमारे बीच का तो नहीं लगता है। लोग उच्च पदों पर अपने जैसे लोग चाहते हैं जो नियमों को तोडक़र मदद कर सकें तब उनकी जयजयकार होती है। लालू ने जो कुछ किया है उससे पूरे बिहार का सीना चौड़ा हुआ है। ताज भले ही नीतीश के सिर पर हो लेकिन राज लालू का ही चलेगा। बुद्धिजीवी भले ही कुछ कहें लेकिन हमारे देश का डीएनए यही कहता है कि अगर 56 इंच का सीना है तो लालू का ही है। तेजस्वी के उप मुख्यमंत्री बनने के बाद अब तय हो गया है कि अगले कुछ दशकों में बिहार की राजनीति तेजस्वी के इर्दगिर्द ही घूमेगी। बिहार को एक नया युग पुरुष मिल गया है।
अंत में यह कहा जा सकता है कि बार हो तो लालू जैसा, वरना न हो.
स्नेह मधुर
[25/11/2022, 10:03] Sneh Madhur: लिफाफा देखकर मजबून मत भांपो यार..! स्नेह मधुरभई, यह बात घोर आपत्तिजनक है कि एक होनहार युवा के बिहार में मंत्री बनने पर लोग इस तरह से खफा हैं और मजाक उड़ा रहे हैं जैसे इस देश में हर काम साफ-सुथरे ढंग से और मेरिट पर होता रहा है। सिवाय आईएएस या कुछ और परीक्षाओं को छोडक़र सब जगह सिफारिश का ही बोलबाला है। शुद्धता तो किसी क्षेत्र में नहीं है, वाणी में कहां से आ जायेगी। तेज प्रताप अनपढ़ तो है नहीं, हां जो कुछ पढ़ा होगा अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़ा होगा। अंग्रेजी दां से कठिन ङ्क्षहदी पढ़ाना, मुश्किल काम तो है ही। लेकिन दूसरी कोशिश में पढ़ लेने पर साधुवाद देना चाहिए-खिंचाई की कोई जरूरत नहीं थी।
जहां तक पढ़ाई के सिस्टम की बात है-शिक्षा के पाठ में लिखा है कि डिग्री का कोई महत्व नहीं होता है। राजनीति में वैसे भी डिग्री जितनी दूर रहे, उतना अच्छा है-वरना इंसान जनता से दूर हो जाता है-समस्याएं उसकी समझ में नहीं आती हैं। औपचारिक शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण अनौपचारिक शिक्षा है। दो-दो मुख्यमंत्रियों के घर में रहने वावा व्यक्ति डिग्री विहीन हो सकता है लेकिन ज्ञानविहीन नहीं। वैसे भी, हमारे यहां लगभग हर क्षेत्र में गुरु-शिष्य की परंपरा रही है। किताबों में भी लिखा है और पुराने समय में गुरु लोग फख्र से बताते भी थे कि गुरुदेव स्नान करने के बाद अपनी लंगोटी कुएं पर छोड़ देते थे जिसे साफ करने के लिए शिष्यों में होड़ लग जाती थी। आज भी कुछ वैसी ही स्थितियां कहीं-कहीं पर हैं कि मास्टर साहब के लिए बच्चे बीड़ी-सिगरेट का इंतजाम करते मिल ही जाते हैं। अगर शिष्य के पिता अफसर हुए या मिलिट्री कैंटीन से उनका जुगाड़ हो तो फिर क्या है-हर महीने लिकर की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी शिष्य के ऊपर आ ही जाती है। इसका सुखद परिणाम प्रैक्टिकल में अच्छे नंबर और दुष्परिणाम खराब नंबर के रूप में दिख ही जाता है।
लोग हंस रहे हैं कि मंत्री तेज प्रताप शपथ लेते समय शब्द का शुद्ध उच्चारण ही नहीं कर पाये। अरे अक्ल के दुश्मनों, क्या मंत्री बने हैं स्कूल में पढ़ाने के लिए या पढ़े-पढ़ाये अफसरों की क्लास लेने के लिए? यहां तो हिंदी में एमए या पीेचडी करने वाले भी एक प्रार्थना पत्र लिखने में पसीना फेंक देते हैं। ऐसे लोग प्रवक्ता बन कर मोटी तनख्वाह खींच रहे हैं लेकिन एक होनहार युवक की जरा सी त्रुटि के लिए इतना बखेड़ा? लो, कह तो दिया लालू ने कि मोदी भी अक्षुण्ण को अक्षण्ण कह गये थे। अब भिड़ो लालू से तो जानें। लोग कहते हैं कि जब तक समोसे में आलू रहेगा, बिहार में लालू रहेगा। हम तो कहते हैं कि समोसे से आलू चला जायेगा लेकिन बिहार से लालू नहीं जायेगा। जब केजरीवाल तक लालू के गले लगकर अपने आप को गौरवान्वित महसूस कर रहे थे तो समोसे की क्या औकात जो आलू बिना बाजार में आ सके? कहने को तो केजरीवाल सफाई देते फिर रहे हैं कि मैं गले नहीं लगा था, लालू ही खींच लिये थे। लो सुनो, आईआरएएस हैं केजरीवाल-आयआयटियन हैं केजरीवाल-दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं केजरीवाल लेकिन फिर भी लालू के जादू ने खींच ही लिया। बात ही कुछ ऐसी है लालू की जो पिछले बीस बरस से मीडिया में छाये हुए हैं। अपनी बीबी राबड़ी को सीएम बनाकर दुनिया से कहा था बोलो तो जानें। अब अपने बेटे को डिप्टी सीेएम बना दिया। सोनिया गांधी तो प्राइम मिनिस्टर बनते-बनते रह गयीं। मुलायम सिंह यादव ने ऐसे दांव मारा कि सामने सजी थाली हाथ से निकल गयी। यह बात दूसरी है कि सोनिया विदेशी थीं इसलिए भारत के डीएनए को समझ नहीं पायीं और भावावेग में यह फैसला ले लिया कि अब नत्थू खैरे को प्राइम मिनिस्टर बना दूंगी लेकिन खुद न बनूंगी। अगर भारतीय डीएनए उनके खून में होता सीधे सिंहासन पकडक़र ही बैठ जातीं और लालू को गेट पर खड़ा कर देतीं। लालू मुलायम से कहते कि बुरबक हो का जो महिला का अपमान करत हो-हमारी संस्कृति में महिला देवी होती है। ऐसा कह कर वह वित्त मंत्रालय हथिया लेते और मनमोहन सिंह को समझाते कि वित्त समझने के लिए चित्त सही होना चाहिए, जाकर हावर्ड में चित्त को ठीक कराकर आओ।
लोग बेटे तेज प्रताप को जलील कर रहे हैं कि वह हिंदी का सही उच्चारण नहीं कर पाते हैं। अरे भई, यह तो हमारी राजनैतिक परंपरा है। सोनिया को ही देख लीजिये, वह आज भी कागज में लिखा हुआ पढ़ती हैं लेकिन आधा भी सही नहीं बोल पाती हैं। बहुत से लोग तो सिर्फ उनको बोलते हुए देखने के लिए ही जाते हैं कि विदेशी नारि किस तरह से हमारी हिंदी को आत्मसात करने की जीतोड़ कोशिश किये जा रही है। इस देश में करोड़ों लोग ठीक ठंग से हिंदी नहीं बोल पाते हैं लेकिन सोनिया की कोशिश निश्चित रूप से प्रशंसनीय ही कही जायेगी। सोनिया तो विदेशी हैं लेकिन राजीव गांधी हिंदुस्तानी थे, वह क्या शुद्ध हिंदी बोल पाते थे? प्राइम मिनिस्टर बने थे देश के। महात्मा गांधी को भूल गये, विदेश पलट होने के बावजूद शुरू में भाषण देना उनके लिए कितना कष्टïसाध्य था। लेकिन अभ्यास करते-करते कितने महान वक्ता बन गये। हमारा देश क्या खाक तरक्की करेगा जब एक होनहार युवक को हतोत्साहित किया जायेगा। क्या महत्वपूर्ण पद पाने के लिए शुद्ध भाषा का ज्ञान जरूरी है? मीन-मेख निकालने वाले तो कुछ न कुछ निकालते ही रहेंगे-इसी कारण हमारा देश तरक्की नहीं कर रहा है। जब टीवी आया था सबने रिजेक्ट कर दिया था। कलर टीवी आया तो रोज अखबारों में छपता था कि यह ब्लैक एंड व्हाइट से भी अधिक नुकसानदेह है। जब मोबाइल आया तो बताया कि यह अमीरों का सामान है। जब कंप्यूटर आया तो हाहाकार मच गया कि इसकी क्या जरूरत है..इससे देश में बेरोजगारी बढ़ेगी। मुलायम सिंह यादव ने खुलकर विरोध किया था और आज उनका बेटा लैपटाप बांट रहा है। जब अंग्रेजी स्कूल खुल रहे थे तो उसका जबरदस्त विरोध किया जा रहा था। मुलायम सिंह यादव अंग्रेजी विरोध के अगुवा थे। आज अंग्रेजी स्कूल में बच्चे का एडमिशन कराने के लिए लोग जान दिये जा रहे हैं।
जब कोई महत्वपूर्ण पद हासिल करता है तो ढेर सारी उम्मीदें उससे लगा दी जाती हैं। पूरा देश रोज पूछता है कि आज कुछ हुआ कि नहीं? लोग जल्दी ही निराश होने लगते हैं। पता नहीं हर कोई इतनी जल्दी में क्यों रहता है? बच्चों से उम्मीद करते हैं कि जल्दी से बड़े हो जायें। जल्दी से पढ़ाई पूरी करें। जल्दी से नौकरी मिले ताकि जल्दी से शादी हो जाये। अगर साल भर तक बच्चा नहीं हुआ तो सास-ननद के कान खड़े हो जाते हैं कि अरे अभी तक कुछ क्यों नहीं हुआ? क्या कुछ गड़बड़ है? अरे, लगता है कि बहू में ही दोष हैं। अपने लडक़े को एनओसी देने में दो पल भी नहीं लगायेंगे जैसे बच्चे उत्पादन का उसका पुराना रिकार्ड रहा हो।
मोदी से उम्मीद है कि जल्दी से अच्छे दिन आ जायें। अरे वायदा किया था न चुनाव के दौरान। अगर वायदा न किया होता तो किसको वोट देते? कोई और विकल्प था? अरे थोड़ा धीरज धरो, सालों से अच्छे दिन नहीं हैं, कुछ साल और सही। ज्यादा से ज्यादा यह होगा कि अच्छे दिन नहीं आयेंगे तो उखाड़ फेंकना सरकार को। तब तक तो धीरज धरो भई। हां, कोई और इससे अच्छे दिन लाने की गारंटी दे रहा हो तो और बात है।
देखो, आमिर खान भी जल्दी में हैं। सालों से माल बटोर रहे हैं, दुनिया को टीवी पर संदेश देते हैं कि हिम्मत रखें लेकिन अचानक बहती गंगा में हाथ धोने उतर आये। लगने लगा कि यहां रहना ठीक नहीं है, यहां पर असहिष्णुता फैल रही है। अरे अपनी फिल्मों में असहिष्णुता ही तो दिखाते थे इतने साल, भुला गये गये? गजनी वाली मेमोरी निकली। वैसे यह बताने की क्या जरूरत कि मेहरारू कहत रही कि चल कहीं और चला जाये। बड़े आये मेहरारू की बात मानने वाले। पहली वाली मेहरारू से पूछ्यो कि तुहो चलबो अपना लडक़ा-बच्चा लेकर या फिर किरण के साथ निकल जायें-अकेले-अकेले? हां, आमिर साहब को पुरानी बीबी-बच्चों की याद कहां आवे। शबाना आजमी भी परेशान हैं कि यह देश अब रहने लायक नहीं रहा। सही कहा है, जब तक दाऊद रहा, तब तक सब ठीक रहा। अब राजन आय गवा है तो कहां रहे पुराने दिन? शाहरुख ने भी सर्वोच्च हासिल कर लिया, अब उन्हें भी असहिष्णुता दिखने लगी है।
असहिष्णुता तो इस देश के डीएनए में ही है। लोग बहुत जल्दी ही तैश में आ जाते हैं। अवार्ड वापस करना अपने आप में खुद ही असहिष्णुता का परिचायक है। लेकिन यह असहिष्णुता बलशाली व्यक्ति के सामने अचानक गायब हो जाती है। वहां पर लोग मिमियाने लगते हैं। एक छोटा चोर पकड़ा जायेगा तो पूरा मोहल्ला उसे बांधकर पीटेगा। उधर से गुजरने वाले पहले पूछेंगे कि क्या हुआ और फिर वे भी अपने हाथ गरम कर लेंगे। कोई नहीं दया करने वाला। एक गाड़ी से कोई टकराता है तो गलती देखे बिना ट्रक ड्राइवर को उतारकर पीटा जाता है। फिर उसे पहिये के नीचे लिटाकर उसी की ट्रक उसी के ऊपर चढ़ा दी जाती है। फिर ट्रक में आग लगा दी जाती है। सैकड़ों लोगों के सामने-पुलिस वालों के सामने। असहिष्णुता का उदाहरण कुंडा कांड है जहां एक युवा डिप्टी एसपी को पीट-पीटकर मार डाला जाता है। नीतीश के मुख्यमंत्री बनते ही बिहार में भी असहिष्णुता बढ़ गयी लगती है। असहिष्णुता का ताजा उदाहरण उस दिन बिहार में देखने को मिला जब नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद संभाला। एक मेटाडोर किसी घर में घुस गयी। गुस्साये लोगों ने ट्र्क में आग लगायी। ट्र्क ड्राइवर के घर में घुसकर हिंसा की। जब पुलिस पंहुची तो असहिष्णु लोगों ने पुलिस पर पथराव किया। इंसपेक्टर मारा गया। इस असहिष्णुता के लिए कौन जिम्मेदार है? इस तरह की न जाने कितनी घटनाएं रोज अखबारों में सालों से छपती रही हैं, चैनेल्स पर बार-बार रिपीट करके दिखायी जाती रही हैं लेकिन न तो आमिर को दिखायी पड़ीं और न शाहरुख को। चलो, जब जागो तभी सवेरा मान लो। यह पक्का है कि इस देश में असहिष्णुता है और न जायेगी। अपना वतन तय कर लो। यहीं पर रहना है कि किसी सहिष्णु देश में जाना है। उन लोगों के बारे में भी भई सोच लो जिनके पास इतना पैसा नहीं है कि वे दूसरे देश में जाकर बस सकें। ऐसे लोग आपके रिश्तेदार और दोस्त भी हो सकते हैं। सबको साथ लेकर चलना भई तो कितना अच्छा रहेगा। वरना आप के जाने के बाद लोग यही कहेंगे ..दोस्त-दोस्त न रहा..।
सबसे अच्छे अपने केजरीवाल भाई हैं। पूरी जिंदगी लालू का विरोध किहिन और अब मौका मिलते ही लपक पड़े पटना की तरफ कि तनी देखा तो जाये कि कैसन होत हैं ई महापुरुष लोग जो चारा खाये के बाद-जेल जाये के बाद भी जनता की जेब से वोट निकाल लेत हैं। लालू से गले मिले के समय कितना हंसत रहें केजरीवाल कि अहा जीवन धन्य हो गवा। बात फैल गयी तो कहे लगें कि ऊ लालू लिपटाय लिहिन रहेन..हम नहीं मिलत रहे गले। हां भइया, बड़ा सयाना भा न। लिपटत समय तोहार हाथ कहां रहा? लालू की कमरिया में रहा न, वहां कइसे पंहुच गवा? लिपटे के समय रावण की तरह हंसे को के कहे रहा? बड़ा मजा आवत रहा न? नहीं आवत रहा तो काहे नहीं झटक दिये रहो, के रोके रहे तोका, हां? तू तो ऐसे हंसत रहा जैसे कि फिल्मन मां विलेन हंसत है छोकरिया का रेप करत समय। एक बार अनुपम खेर ने अमिताभ बच्चन के घर में एक चर्चा के दौरान भारतीय फिल्मों की विशेषताओं का जिक्र करते समय कहा था कि हमारी फिल्मों में रेप के दौरान विलेन हमेशा ठहाके लगाता है जबकि रियल लाइफ में रेप करते समय कोई हंस ही नहीं सकता है, कोई कोशिश करके देख ले। वैसे ही अरविंद केजरीवाल को लालू जबरियन लिपटाय लिहें तो फिर एहमा हंसी की बात का रही? ई तो वैसे ही हंसत रहें जैसे कि कह रहे हों कि मिल गया..मिल गया..हमारा डीएनए मिल ही गया..कब के बिछुड़े हम आज कहां के मिले..।
एक बात अऊर। सोशल मीडिया पर चलत रहा कि उपमुख्यमंत्री साहब आठवीं फेल हैं। अरे बुरबक, बिहार में का कहो, यूपी में भी कौनो अफसर का लडक़ा फेल नहीं होय सकत है। अरे ऊ तो बिहार का धन्यभाग है कि दुइनो होनहार लडक़न ने उस शिक्षा पद्धति को रिजेक्ट कर दिया था जो सिर्फ बाबू बनाने के लिए ही है। उनको बाबू तो बनना नहीं था। उनकी बहन मीशा एमबीबीएस करके गोल्ड मेडल लाकर लालू का डीएनए दिखा ही चुकी हैं। और का चाही। खुद ही पढ़ाई छोड़ दी और बुरबक लोग उड़ाय रहे हैं कि फेल होय गये रहन। जरा सोचिए, क्या बिहार में लालू के लडक़ों को फेल करने की हिम्मत किसी मास्टर या स्कूल में है? लाख टके का सवाल है, जवाब जरूर दीजिये या कम से कम सोचिये जरूर। प्रतिभा को सम्मान देना सीखिये, लिफाफा देखकर मजबून भांपने की गलती मत करियेगा-पक्का धोखा मिलेगा।
स्नेह मधुर
[26/11/2022, 11:47] Sneh Madhur: चश्मा उतारो फिर देखो यारों..!
स्नेह मधुर
भारत में करोड़ों लोगों ने यह जानकर राहत की सांस ली है कि फिल्म स्टार आमिर खान अब देश छोडक़र नहीं जायेंगे। आमिर खान ने यह कहकर लोगों को दिलासा देने की कोशिश की है कि उनका भारत छोडक़र जाने का कोई इरादा नहीं है। समझ में नहीं आता कि रातों-रात ऐसा क्या और किसने कर दिया कि आमिर का भय गायब हो गया? क्या वे अपने मकसद में कामयाब हो चुके थे या फिर दंगल फिल्म पर पडऩे वाली काली छाया से वह भयभीत हो गये और उन्होंने फिलहाल विवाद को खत्म करने की रणनीति अपनायी-अपने शुभीचंतकों के कहने पर। क्योंकि बढ़ती असहिष्णुता के उनके बयान से दुखी लोगों ने उन सभी उत्पादों का बहिष्कार शुरू कर दिया था जिसकी वकालत आमिर खान टीवी पर करते नजर आते हैं। हाथ से पैसा निकलने का झटका से बड़ा झटका कुछ नहीं होता है और खासकर उनके लिए जो पैसे के लिए ही कोई भी रूप धरने या किसी भी तरह की नौटंकी करने को तत्पर रहते हैं। अगर पैसे के बिना कोई सामाजिक काम किया हो तो उसका जिक्र उनके फैंस को करना चाहिए।
सवाल यह उठता है कि अपने फैसले को बदलने के लिए क्या उन्हें कोई मनाने गया था या फिर उन्हें पूरे विश्व में ऐसा कोई देश ढूंढे नहीं मिला जहां जाकर वह आश्रय ले सकते और साथ में आजाद भी रह लेते-अपने अंदाज में? पीके फिल्म बनाकर सिर्फ हिंदुओं के देवी-देवताओं का मजाक उड़ाकर तीन सौ करोड़ रुपये शान से कमाकर कुछ भी बक देना सिर्फ हिंदुस्तान में ही संभव है। यहां पर आजादी और अराजकता में कोई अंतर नहीं है और इस अद्भुत अराजकतापूर्ण आजादी के लिए लोग मर मिटने को तैयार हो जाते हैं। यहां तक कि लोग विदेशों में जाकर खूब ऐश करते हैं और यहां पर आकर वहां की हर चीज की खूब बड़ाई करते हैं लेकिन रहना इंडिया में ही चाहते हैं क्योंकि किसी को कुछ भी कह देने की आजादी यहीं पर है। लंदन का हाइड पार्क भड़ांस निकालने के लिए काफी मशहूर है। वहां पर किसी भी धर्म के बारे में, देश के बारे में या व्यक्ति के बारे में कुछ भी अनाप-शनाप कहा जा सकता है। लोग सुनते भी हैं, प्रतिवाद भी करते हैं लेकिन झगड़ा नहीं करते हैं। लेकिन वहां भी क्वीन के बारे में एक शब्द भी फालतू कहने की इजाजत नहीं है। यह तो इंडिया में ही है कि प्रधानमंत्री को टुकड़े-टुकड़े कर देने की धमकी देना वाला व्यक्ति वर्षों तक राज करने वाली कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के साथ स्वच्छंद रूप से घूम सकता है। इसके बाद भी कहेंगे कि भारत में असहिष्णुता बढ़ रही है-अब तो यहां पे रहा नहीं जाये रे..।
आमिर के दो दिनों के बयान में काफी अंतर है। पहले कहते थे कि मेरी बुद्धिजीवी बीबी डरी हुई है और कहती है कि कहीं और चला जाये, यहां पर बच्चे सुरक्षित नहीं है। अब कहते हैं कि मुझे भारतीय होने पर गर्व है, हम कहीं नहीं जायेंगे। अरे, भई जाओगे कहां? पैसा खर्च करके घूमने तो कहीं भी जा सकते हैं लेकिन बच्चों के साथ जाकर सेटल होने के लिए तो रोजी-रोटी का इंतजाम भी तो देखना पड़ता है। आपमें किस तरह के गुण हैं? क्या खूबी है आपमें? क्या फिल्म बनाकर कमायेंगे? विदेश में कोई घास डालेगा आपको? बच्चों का भी तो भविष्य बालीवुड में ही है। बच्चे आईएएस या नेता तो बनेंगे नहीं। यह सब सोचकर ही तो कहना पड़ा कि मुझे भारतीय होने पर गर्व है। आने वाली फिल्म के बिजनेस का भी तो सवाल है-अगर लोगों का दिल खट्टïा हो गया तो फिल्म चलने से रही और अगली फिल्म के लिए भी टोटा पड़ जायेगा। तब सही मायने में कह सकते थे कि अब यहां का दाना-पानी बंद हो गया, कहीं कुछ और ढूंढा जाये। जनता चरित्रहीन और भ्रष्टï लोगों को स्वीकार कर लेती है-देशद्रोहियों को नहीं। अगर आपको लगता है कि वास्तव में सहिष्णुता में कमी आयी है तो उदाहरण सहित अपना मंतव्य रखना चाहिए था न कि जुमलेबाजी कर निकल लिये। उंगली कटाकर शहीद होने का ढोंग नहीं चलने वाला है।
यह सही बात है कि किरण राव ने ऐसा कुछ कहा होगा कि उसे डर लग रहा है। हो सकता है कि वह अपने दाम्पत्य जीवन को असुरक्षित मान रही हो। आमिर को पूरी बात बतानी चाहिए थी कि देश में ऐसा क्या हो रहा है जिससे उनकी बौद्धिक बीबी का भयभीत होना उचित था। आमिर को बीबी के डर को दूर करना चाहिए था। हो सकता है कि आने वाली फिल्म की असफलता से आमिर खुद डर गये हों और पब्लिसिटी के लिए जानबूझकर डर की बात कही है। क्या आमिर इतने कमजोर हो चुके हैं कि अपनी बात कहने के लिए उन्हें बीबी की आड़ लेनी पड़ी? हो सकता है कि वह आमिर से जानना चाहती हो कि लोग अवार्ड क्यों वापस कर रहे हैं? शाहरुख भाई भी खफा दिख रहे हैं। लेकिन बेडरूम में कही हुई बात क्या इस तरह से सार्वजनिक की जाती है।
वैसे आमिर के डर को लेकर देश में चर्चा की उतनी जरूरत नहीं है जितनी की हो रही है। आमिर सिर्फ एक कलाकार हैं जो फिल्म के चरित्र को जीते हैं, लिखे हुए संवाद पढक़र बोलते हैं और तालियां बजवाते हैं। आमिर कोई बौद्धिक व्यक्ति नहीं हैं। एकबार दाऊद को लेकर सलमान खान के विवाद में पडऩे पर सलमान के पिता सलीम खान ने बड़ी ही सटीक बात कही थी कि सेलीब्रेटीज से टिप्पणी लेकर उसे मुद्दा बनाना उचित नहीं है क्योंकि फिल्म वाले इतने जागरूक नहीं होते हैं। उनकी टिप्पणियां गंभीर नहीं होती हैं। सहिष्णुता के मुद्दे पर आमिर से बेहतर टिप्पणी तो कालेज के छात्र दे सकते हैं जैसाकि बेंगलूरु में राहुल गांधी के सवालों के जवाब छात्र-छात्राओं ने इस तरह से दिये कि राहुल गांधी की ही बोलती बंद हो गयी।
वैसे जब सवाल उठा है तो आमिर के फैंस यह जानना चाहते हैं कि किन्हीं स्थितियों में अगर उन्हें भारत छोडऩा ही पड़े तो वे किस देश की राह पकड़ सकते हैं जहां पर दो रोटी के साथ सुकून भी मिल सके? वे यूरोपीय देशों में जहां पर काफी स्वतंत्रता है या फिर सऊदी अरब जैसे देशों का रुख करेंगे जहां का कानून काफी सख्त है? इससे आमिर की रुचि का भी पता चलेगा और लोगों को भी पता चलेगा कि हमसे अच्छा कौन है?
वैसे आमिर ने गलत नहीं कहा है लेकिन देर से कहा है। भारत में असहिष्णुता हमेशा रही है। बढऩे का क्या पैमाना है वह आमिर ही जानें। उन्हें अब तक क्यों नहीं दिखायी पड़ा यह आमिर ही जानें। चार दिन पहले ही यूपी के बाराबंकी जिले में एक नवजात शिशु को उसके मां-बाप ने खेत में जिंदा ही दफना दिया था। जल्दीबाजी में बच्चे के पैर बाहर ही रह गये थे जिसे चील-कौवे खाने के लिए टूट पड़े थे। उसके पेट तक गिद्ध की टोंट पंहुच गयी थी। उसी वक्त एक महिला ने बच्चे के पैर को देख लिया तो उसमें हरकत नजर आयी। उसने बच्चे को खेत में से खोदकर निकाला, उसका मुंह साफ किया तो वह जिंदा मिला। उसे अस्पताल में भर्ती कराया तो वह पूर्ण रूप से स्वस्थ निकला। कितनी बड़ी असहिष्णुता थी? ऐसे कितने ही उदाहरण हैं जहां पर निर्दोषों-मासूमों के साथ अत्याचार किया जाता है। यह नहीं होना चाहिए लेकिन इसे धर्म की दृष्टिï से कभी नहीं आंका गया। आमिर या शाहरुख को यह सब नहीं दिखायी देता क्योंकि वह भारत में नहीं इंडिया में रहते हैं। उस इंडिया में जहां की आबादी मात्र कुछ प्रतिशत है और जहां तक पंहुचने के लिए करोड़ों लोगों के हाथ हवा में छटपटाते मिल जायेंगे। इत्तफाक से आमिर और शाहरुख और उनके जैसे कुछ लोग वहां तक पंहुचने में कामयाब हो गये हैं। भारत से इंडिया की यात्रा में आमिर और शाहरुख की आंखों पर चश्मे चढ़ते गये और वह सब सच दिखना बंद हो गया जिसमें करोड़ों भारतवासी आज भी डूब-उतरा रहे हैं। राजकपूर जैसे महान दृष्टïा ने अपनी फिल्म में पहले ही कह दिया था..चश्मा उतारो फिर देखो यारों..!
बहरहाल, पैसे लेकर मंगल पांडे का रोल करने वाला असल जिंदगी में मंगल पांडे कैसे हो सकता है? देश की जनता को समझना चाहिए कि आमिर खान नकली मंगल पांडे हैं। असल जिंदगी में तमाम ऐसे बलिदानी हैं जिनके बच्चों ने कारगिल में जान गंवायी और मुंबई कांड में अपने सपूत खोये लेकिन फिर भी वे देश के लिए अपने दूसरे बच्चे को भी सेना में भेजने को आतुर हैं। जनता असली और नकली में फर्क करना सीखे, आमिर-शाहरुख लोगों की बातों के भ्रमजाल से बचे। मीडिया को भी चकाचौंध से बचना होगा। साथ में गैरजिम्मेदार लोगों की अधकचरी बातों को राष्टï्रीय फलक पर आवश्यकता से अधिक स्थान देकर पूरे देश को गहरे अंधेरे में डुबोने की साजिश से सतर्क भी रहना होगा।
स्नेह मधुर
[22/01, 11:28] Sneh Madhur: ‘अथ कथा अमृत प्रभात’: 5‘अमृत प्रभात’ के बढ़ते कदम
जब केएम अग्रवाल ने इलाहाबाद में अपनी पैठ बना ली
अमृत प्रभात के शुभारंभ के समय से रिपोर्टिंग चीफ कृष्णमोहन अग्रवाल थे। वह लखनऊ से आए थे। अजय चतुर्वेदी, मनोहर नायक आदि उनके साथ थे। अग्रवाल शहर के लिए नए जरूर थे लेकिन वह काफी मेहनत करते और नई नई खबरें लाते। जबकि एनआइपी में एसके दुबे चीफ रिपोर्टर थे। वह अनुभवी और पुराने थे और उनके सूत्र भी अच्छे थे लेकिन केएम उनसे 19 नहीं थे। उन्होंने भी अपने सूत्र विकसित किए। एक बार मैंने उनसे पूछा कि आप ऐसे विभागों की खबर लाते कहां से हैं जिनको कम लोग ही जानतेे हैं?
उन्होने बताया कि उन्होंने इलाहाबाद की टेलीफोन डाइरेक्टरी मथ डाली है और उसमें ऐसे विभागों के नाम मिले जिनके बारे में लोग या तो जानते नहीं, या कम जानते हैं। मैं वहां फोन कर पहुंच जाता हूं और जब अखबारनवीस पहुंच जाए तो खबर तो कुछ न कुछ निकल ही आती है।
उनमें एक अच्छी बात यह भी थी कि समय से काम खत्म कर लेते और चलते-चलते एकाध खबर पकडाते जाते। बाद में शिव शंकर गोस्वामी, स्नेह मधुर, जेपी सिंह, मुनेश्वर मिश्र, सुनील शुक्ल भी जुड़े। इनमें स्नेह मधुर को छोड सबने डेस्क पर भी काम किया। रवि उपाध्याय मेरे अमृत प्रभात के अंतिम दिनों में आए। लक्ष्मी नारायण शर्मा, सुभाष राय, डा भुवनेश्वर सिंह गहलौत, हिमांशु रंजन, अंबरीष सक्सेना और कल्याण चंद्र जायसवाल, रामअवतार यादव डेस्क पर थे।
केएम अग्रवाल ने इलाहाबाद में अपनी पैठ बना ली थी और स्थापित पत्रकार हो गए थे। उनका व्यवहार भी अच्छा था। वह सबके सुख दुख में भी शामिल रहते। होली आदि अवसरों पर तो पूरे अमृत प्रभात के लोगों के घर जाने का उनका कार्यक्रम होता था। कई बार हम सब लोग मिलकर सभी के घर जाते और होली खेली जाती। पूरा शहर घूम लिया जाता। होली पर नामकरण में भी वह रुचि लेते। कई बार मेरे घर आए और हम दोनों ने मिल कर नामकरण किया। उन्होंने मेरा और मैने उनको नाम दिया। उनका मानना था कि यह सब छोटी-छोटी बातें, थोड़ी ही देर के लिए सही मन को हल्का कर देती हैं और लोग आनंदित होते हैं।
उनका सामाजिक परिवेश बड़ा था। मुझे याद है 84 के दंगों में किस तरह हम लोगों ने प्रभावित मुहल्लों में जाकर सिख परिवारों से मुलाकात की और उन्हें हिम्मत बंधाई और सहयोग का आश्वासन दिया। केएम अग्रवाल की फोटोग्राफी में भी रुचि थी। वह बीच-बीच में फोटोग्राफी भी करते जो सबसे हट कर होती। एक बार कुंभ में वह रात को नौ बजे मेरे घर आए और बोले, चलें मेले में घूमें।
आफिस में ही कार्यक्रम बन गया था। हम लोग उस दिन जल्द घर आ गए थे। मैं भी खा पीकर तैयार था। विकट जाड़ा थी। लेकिन हम लोग निकले। उन दिनों एक रिपोर्टर की ड्यूटी मेले में लगती जिससे रात की खबरें मिल जातीं। उन दिनों केएम डेस्क पर आ गए थे और प्रादेशिक इंचार्ज थे। मेले में मुनेश्वर मिश्र की ड्यूटी लगी थी। हम लोगों ने सोचा उन्हें भी ले लिया जाए। प्रेस कैंप में सभी अखबारों के कैंप थे। पत्रिका के कैंप में मुनेश्वर मिश्र सोने की तैयारी कर रहे थे। सब लोग साथ निकले। पूरे मेला घूमा गया, कई खबरें मिलीं। रात को कुंभ मेला अलग ही भावलोक में होता है, जगह- जगह साधुओं की धूनी लगी होती है, मेला रात में भी नहीं सोता। लगभग हर कैंप में कुछ न कुछ सक्रियता रहती है। हम लोग पूरे मेले का भ्रमण कर लगभग भोर में तीन चार बजे घर पहुंचे। उस दिन कई खबरें मेले मे मिलीं जो खूब पढ़ी गई। रिपोर्टर यदि मूवमेंट करे तो निश्चित ही उसे ऐसी खबरें मिलती रहेंगी जो दूसरों को नहीं मिलेंगी। मेरी भी उन दिनों फोटोग्राफी में रुचि बढ़ रही थी। क्लिक थर्ड कैमरा मेरे पास था जो उस समय बेसिक कैमरा था। उससे मैंने खजुराहो की अच्छी फोटो खींची हैं जिनमें कुछ आज भी मेरे पास हैं।
केएम यूनियन में भी सक्रिय थे। वह संस्थान के विरूद्ध कोई काम नहीं करते थे लेकिन कुछ लोगों ने तमाल बाबू का कान भर दिया था। ये लोग एनआइपी रिपोर्टिंग के थे जो उनकी शिकायत किया करते थे जिससे तमल बाबू नाराज हो गए थे। वह चाहते थे कि उन्हें रिपोर्टिंग से हटा दिया जाए और बाद में उन्हें हटा दिया गया। वह डेस्क पर आए और प्रादेशिक के इंचार्ज बनाए गए। मन में चाहे जो हो लेकिन अग्रवाल जी के काम पर कोई असर नहीं पड़ा। उन्होंने प्रादेशिक को भी चमका दिया। बाद में 1989 में वह गौहाटी से निकलने वाले पूर्वांचल प्रहरी में संपादक बन कर चले गए। केएम जब तक इलाहाबाद में रहे, वह सामाजिक सरोकारों से जुड़े रहे। उन्होंने न केवल पत्रकार यूनियन को सक्रिय किया, बल्कि पत्रकारों की एक अन्य संस्था बनाई और उसके बैनर तले कई आयोजन किए। वह आज तक अमृत प्रभात के पुराने लोगों से जुड़े हैं। उन्होंने पिछले साल लोगों के इलाहाबाद पर अनुभव को पुस्तक रूप में प्रकाशित कराने की योजना बनाई थी और दो दिन इलाहाबाद में लोगों का गेटटुगेदर भी कराया जिसमें पुराने लोग आपस में मिले, लेकिन मैं अपनी व्यस्तता के कारण नहीं जा सका।
केएम के हटने के बाद सुधांशु उपाध्याय रिपोटिंग में गए। सुधांशु जी कवि और अच्छे गीतकार हैं। वह आराम से रिपोर्टिंग करते। उनकी खबरों में कविता झलकती थी और खबर और हेडिंग में इनवर्टेड कामा में शब्द खूब प्रयोग करते थे। दो एक खबर ही लिखते। एक बार मैने कहा भी भाई, इवर्टेड कामा में खबरें नहीं लिखी जानी चाहिए क्योंकि इससे पाठक उसे समझ नहीं पाता। आप कहना कुछ चाहते हैं, हो सकता हो, कुछ और अर्थ निकाले।
मैंने एक बार की सत्य घटना उन्हें बताई। मैं जहां अल्लापुर में रहता था। वहां लेबर चौराहे पर मामा की दूध की डेयरी पर अमृत प्रभात आता था। मैं दूध डेयरी से नहीं लेता था, पराग का लाता था। यह काम बेटे के जिम्मे था लेकिन उस दिन मैं ही गया था। वहां एक अखबार आता था और पाठक अधिक होते। अखबार बांचा जाता। एक आदमी पढ़ता, अन्य सुनते। मैं वहां लोगों को जुटा देख रुक गया और देखने लगा कि कौन सी खबर पढ़ी जा रही है। उस दिन सुधांशु जी की खबर पहले पेज पर टॉपबाक्स लगी थी। हेडिंग में ही तीन इनवर्टेड कामा लगा था। जो आदमी पढ़ रहा था, वह एक लाइन पढ़ कर रुक जाता, कुछ सोचता और आगे पढ़ने लगता।
इस बीच दूसरे व्यक्ति ने कहा- यार दूसरा कुछ पढ़ो समझ में नहीं आ रहा है।
मैं वहां से हट गया। दो एक दिन बाद यह बात मैने सुधांशु को बताई, उन्हें अच्छा नहीं लगा (यह पढ़कर भी, हो सकता है, अच्छा न लगे)।
मैं जब दैनिक जागरण मे आया तो यूनिटों के दौरों में संपादकीय बैठकों में मैं बिना नाम लिए यह घटना साथियों को जरूर बताता हूं कि खबर की भाषा-शैली कैसी होनी चाहिए। सुधांशु की भाषा बहुत अच्छी होती, इसमें संदेह नहीं, लेकिन खबर में भी उनका कवि छिपा रहता। खबर स्पष्ट, सरल और सुगम भाषा में होनी चाहिए जबकि कविता में बात प्रतीकों, विंबों और संकेतों में कही जाती है। खैर बाद में वह डेस्क पर आ गए और अक्षर भारत के ब्यूरो चीफ के रूप में भी काम किया।
उनके बाद जेपी सिंह चीफ रिपोर्टर बने। उनके साथ स्नेह मधुर और मुनेश्वर मिश्र थे। यह टीम अच्छी थी। जेपी भी मेहनती थे, मुनेश्वर मिश्र भी। स्नेह मधुर की तो क्राइम रिपोर्टिंग में कोई टक्कर ही नहीं थी। वह बहुत गहराई में जाकर खबर लिखते हैं।
मुझे तेलियरगंज में हुई बैंक डकैती की घटना याद आती है। मधुर ने उसका 10-12 दिन फालोअप दिया जो लगातार बाईलाइन पहले पेज पर छपी और हर बार एक नए क्लू की ओर संकेत किया जाता। पुलिस वाले परेशान हो गए और बोले, मधुर जी आप स्टोरी लिखना बंद कर दीजिए क्योंकि हम लोग जिस लाइन पर काम करते हैं,आपकी स्टोरी में सुबह दूसरी लाइन देखने को मिलती है और हम लोग कन्फ्यूज हो जाते हैं।
मधुर ने कहा- ठीक है। आज जो स्टोरी छपे उस पर काम कीजिएगा, लुटेरे पकड़ मे आ जाएंगे।
और वही हुआ। दरअसल मधुर के सूत्र बहुत गहरे थे और वह खबर लिखते समय कभी पुलिस से नहीं पूछते। मैंने अपने पत्रकारिता जीवन में तीन अच्छे क्राइम रिपोर्टर देखे जिनका जवाब नहीं था। लखनऊ में स्वतंत्र भारत के अंबिकादत्त मिश्र, इलाहाबाद में स्नेह मधुर और दिल्ली में नवभारत टाइम्स के पंकज त्यागी।
इन तीनों की क्राइम रिपोटिंग का कोई जवाब नहीं है। मैं पंकज त्यागी के बारे में तो नहीं जानता लेकिन अंबिकादत्त मिश्र और स्नेह मधुर के बारे में तो जानता हूं कि ये कभी थाने नहीं जाते थे। स्नेह मधुर को तो इलाहाबाद में स्थानीय थाने का दारोगा पहचानता नहीं था। हां, ऊपर के अधिकारियों से उनके अच्छे संबंध हमेशा रहे।
थाने में बैठ कर क्राइम रिपोर्टिंग करने और मौके पा जाकर रिपोर्टिंग करने में यही अंतर होता है। जब हम पुलिस डायरी को उतारते हुए खबर बनाएंगे तो उसमें कैसे जान आएगी? आज के लगभग सभी क्राइम रिपोर्टर यही करते हैं। अब तो और आसान हो गई है रिपोर्टिंग। पूरी पुलिस विज्ञप्ति ही वाट्सएप पर आ जाती है और रिपोर्टर उसे उतार कर भेज देता है। इसी से लगभग सभी अखबारों में एक सी खबरें देखने को मिलती हैं।
[22/01, 11:35] Sneh Madhur: इलाहाबाद के लोकप्रिय अखबार अमृत प्रभात की 80 और 90 के दशक की रिपोर्टिंग टीम पर वरिष्ठ पत्रकार रामधनी द्विवेदी जी का विश्लेषण। के एम अग्रवाल जी तब चीफ रिपोर्टर हुआ करते थे और उनके कार्यकाल में अमृत प्रभात की रिपोर्टिंग टीम विश्व की सबसे धारदार और निष्पक्ष टीम हुआ करती थी। वह सिर्फ अमृत प्रभात का ही नहीं, पत्रकारिता का भी स्वर्णिम युग हुआ करता था। संपादक श्री सत्यनारायण जायसवाल, समाचार संपादक ऊर्जा से भरपूर, उदारवादी तथा राजनीतिज्ञों से टकराव लेने को हमेशा तत्पर श्री कमलेश बिहारी माथुर जो पत्रकार की खूबियों को उजागर करने के साथ उसकी कमियों की निगहबानी भी किया करते थे ताकि अखबार पर किसी की उंगली न उठने पाए। यह शोध का विषय हो सकता है कि उन डेढ़ दशकों की आक्रामक पत्रकारिता का प्रदर्शन न तो पहले कभी देखा गया था और न ही बाद में किसी ने ऐसा होता पाया है, सिवाय हिंदुस्तान अखबार के जिसमें अमृत प्रभात की ही टीम ने अपने परचम लहराए थे। सारा श्रेय जाता है श्री कमलेश बिहारी माथुर जी को जिन्होंने उस पीढ़ी को पत्रकारिता के ऐसे संस्कार दिए जो कभी झुके नहीं। वह पत्रकारिता को निष्पक्ष बनाए रखने के लिए प्रबंधन से भी टकराए। श्री कृष्ण मोहन अग्रवाल जी ने आत्मकथ्य के रूप में एक पुस्तक भी लिखी है “जो कभी झुका नहीं”। धारदार पत्रकारिता के एकल प्रयास अवश्य हुए होंगे लेकिन संपूर्ण अखबार के रूप में सामूहिक प्रयास के बिरले ही उदाहरण होंगे। श्री रामधनी द्विवेदी जी भी उसी परंपरा के पत्रकार हैं जिन्होंने डेस्क से संबंधित अपने रूटीन कार्य के अतिरिक्त विज्ञान परिशिष्ट निकालकर वैज्ञानिक पत्रकारिता को भी पंख दिए थे। अखबार का देर रात तक थका देने वाला काम, दिन में परिवार के अतिरिक्त होम्योपैथी के माध्यम से जन सेवा, ज्योतिष का अध्ययन और फिर संपूर्ण समर्पण के साथ रात की ड्यूटी! कितनी ऊर्जा हुआ करती थी सपनों को उड़ान देने की! उस कालखंड को पुनः स्मृतियों में शब्दशः जीवंत कर देने जैसा भी अभूतपूर्व कार्य किया है श्री रामधनी द्विवेदी जी ने सत्तर वर्ष की अवस्था में और नई पीढ़ी के लिए एक प्रेरणादायक अवसर भी, चाहे तो वे शोध भी कर सकते हैं आज के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ज़माने में उस काल की आक्रामक और संवेदनशील पत्रकारिता के अंतर पर। आज भी वह सक्रिय हैं लेखन के साथ नई विधा तबला वादन के क्षेत्र में गुंजायमान होने के लिए। वह एक उदाहरण हैं कि जिस भी क्षेत्र में रहें अपनी मुस्कान, मधुर भाषा, धैर्य और समर्पण के साथ अपने पदचिन्ह अवश्य बनाने के प्रयास करते रहें। नमन!!!Xxxxxx
कहानी/ Story
एक लडक़ी की गुजारिश
0 स्नेह मधुर
आज यूनिवर्सिटी में मेरा पहला दिन था। लड़कियों के कालेज से निकलकर पहली बार को-एजुकेशन वाली संस्था यूनिवर्सिटी में जा रही थी। इसका मतलब यह नहीं था कि मैं भयभीत थी। मैंने डरना कभी नहीं सीखा था। घर में भी मैं सबकी लाड़ली थी और ढेरों भाइयों के बीच रहते-रहते मुझे लडक़ी होने का अहसास कभी किसी ने होने नहीं दिया था। यूनिवर्सिटी जाते हुए मन में उत्तेजना थी तो गुम्बदों से भरे हुए विशाल भवन, ऊंची-ऊंची छतोंं वाले नक्काशीदार कक्ष में बैठने और अपरिचित हम- उम्र युवाओं के बीच सैकड़ों मीटर लम्बे फैले लानों में हिरणी की तरह कुलांचे भरने का स्वप्न भी करवटें ले रहा था। यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी की कल्पना करके तो रोंगटे खड़े हो जाते थे। कितनी किताबें..! मन करता था कि बस लाइब्रेेरी में ही बैठी रहूं उम्र भर! पापा के साथ एक झलक देखी थी कभी लाइब्रेरी की और ऐसा लगता था कि एयर फोर्स में जाने का सपना इन किताबों की दुनिया के सामने कितना बौना है।
रिक्शे से जब यूनियन हाल के सामने से गुजरी तो अचानक दाहिनी बांह पर तेज जलन का अहसास हुआ। दर्द को मुंह के अन्दर घोंटते हुए जब जलन वाले स्थान को छुआ तो पता चला कि किसी ने जलती हुई सिगरेट छुआ दी थी। सामने देखा तो एक लडक़ा सिगरेट के छल्ले उड़ाता हुआ चोर निगाहों से मेरी तरफ देख रहा था। उसे देखते ही और यह अहसास होते ही कि इसी लडक़े ने बद्तमीजी की है, मेरे तन-बदन में आग लग गयी। मैं बुलन्द आवाज में चीखी, ‘रिक्शा रोको…!’
मेरी आवाज की कर्कशता को भांपने में रिक्शेवाले को देर नहीं लगी। उसने झटके के साथ ब्रेक लगा दिया और उसी झटके के साथ मैं रिक्शे से लगभग कूद ही पड़ी। मेरे भीतर जैसे चंडी जाग उठी थी और किसी की परवाह किये बिना मैं उस ढीठ लडक़े को सबक सिखाने के लिए उसके पीछे दौड़ पड़ी। प्रत्याशा के विपरीत किसी लडक़ी को अपनी तरफ खूंखार इरादों से आता देख उस लडक़े के हाथों के तोते उड़ गये और सिगरेट फेंककर ऐसे भागा कि कहीं सबके सामने उसकी मर्दान्गी पर ही प्रश्न चिन्ह न लग जाये! कुछ ही पलों में वह एक बिल्डिंग के पीछे तिरोहित हो गया। कुछ दूर तक मैं भी उसकेपीछे दौड़ी और अन्त में उसे हाथ से जाता देख खीज कर अपनी सैंडिल ही उसकी तरफ दे मारी।
एक लडक़ी का चीखना, रिक्शे से कूदकर लोफर के पीछे दौडऩा और फिर सैंडिल फेंकना.. ! बस, और क्या चाहिये था तमाशे के लिए ? मेरे चारों तरफ मजमा लग गया, जैसे सडक़ पर कभी-कभी मैंने किसी तमाशे वाले के चारों तरफ फालतू लोगों को भीड़ लगाये देखा था। किसी के मुंह से बोल नहीं फूट रहे थे। देखा सभी ने था यह तमाशा लेकिन ये मर्द बनने वाले लोग ऐसे भोले बनकर आपस में फुसफुसा रहे थे जैसे अभी-अभी मां की कोख से बाहर निकले हों।
‘अरे क्या हो गया भई? क्या कोई कुछ चुरा कर भागा है..? ’
‘अरे चोर भी रहा होगा तो क्या ले गया होगा..?’
‘लगता है किसी ने कुछ कर दिया…।’
‘क्या कर दिया? कुछ दिखायी तो पड़ नहीं रहा है..’
‘अरे कुछ दिखायी देता है क्या…?’
ये सब बातें मेरी चारों तरफ गूंज रहीं थीं। मैं खामोश खड़ी थी और समझ में नहीं आ रहा था कि करूं तो क्या करूं? इसी में कुछ और आवाजें भी शामिल हो गयीं।
‘अरे का बकबक करत हो तुम लोग? देखत नहीं हौ कि पसीना-पसीना होकर खड़ी है लडक़ी..ई नहीं कि जरा पूछो कि का भवा रहा…?’ सहानुभूति लेने के लिए भीड़ में से शायद किसी ने उवाचा था।
‘हां भई हाल तो पूछना ही चाहिये..क्या हो गया था मैडम..?’
न चाहते हुए भी कि इन निरर्थक लोगों से क्या बोलूं, कुछ न कुछ तो बोलना ही था, ‘एक लुच्चा जलती हुई सिगरेट छुआ गया था मेरी बांह में…उधर गया है भाग कर.. । सबने जाते देखा लेकिन कोई पकडऩे भी नहीं गया उसे…।’
‘अरे क्या..? जलती हुई सिगरेट छुआ गया आपको..? जरा देखें कहीं चोट तो नहीं आयी आपको..?’
‘यह देखिये, यहां जलाया है बदमाश ने…।’
दर्जनों जोड़ी निगाहें दूर से खिसकते-खिसकते नजदीक आ गयीं और लोगों में होड़ सी लग गयी उस जले हुए कपड़े को देखने के लिए। यहां तक कि धक्का-मुक्की होने लगी। लोग क्लोज लुक लेने के लिए मेरे इतना करीब आने लगे कि मुझे लगा कि मैं गिर ही जाऊंगीं। अचानक मुझे अहसास हुआ कि लोग जले हुए कपड़े को कम बल्कि उसके भीतर से होकर मेरे जिस्म को ज्यादा देख रहे थे। उनकी तेज और तेज होती जा रहीं गर्म सांसों से लगा कि उस जलन को वे अपने भीतर तक महसूस करने लगे थे। अचानक बिजली की कडक़ से भी तेज एक लहर मेरे बदन में नीचे से ऊपर तक गुजर गयी। लज्जा और अपमान के ज्वर में जलती हुई मैं चीख पड़ी।
‘आप लोगों को शर्म नहीं आती कि उस बदमाश को पकडऩे की जगह यहां जमघट लगाये हुए हैं? कोई जाता क्यों नहीं उसे पकडऩे के लिए?’
चारों तरफ सन्नाटा सा छा गया। लोग अपनी जगह से एक-दो फीट पीछे जरूर हट गये लेकिन किसी की भी निगाह मेरे बदन से न हटी। मैं बेचारगी की हालत में उनसे बचने का उपाय ढूंढने लगी। लेकिन जब वहां पर मौजूद भीड़ चट्टान की तरह जमी रही और लगा कि वे ऐसे ही युगों तक खड़े रह सकते हैं तो मैंने ही पहल की और भीड़ में से रास्ता बनाने की कोशिश करते हुए एक आखिरी वार किया, ‘अच्छा, आप लोग चूडिय़ां पहन कर बैठें, मैं ही जाती हूं उस बदमाश को तलाशने।’
एक पैर में सैंडिल पहनकर लगभग लंगड़ाते हुए मैं उस दिशा की तरफ बढऩे लगी जिधर उस बदमाश को जाते देखा था। मेरे पीछे-पीछे वह हुजूम भी चलने लगा। क्रोध के अतिरेक में और भी तेजी से चलने लगी। उनकी चाल में भी तेजी आ गयी। किसी तरह से गिरते-पड़ते मैं उस बिल्डिंग के पिछवाड़े पंहुची। वहां कोई नहीं था।
मैंने कहा, ‘इधर ही भागा था बदमाश… ।’ सभी की निगाहें मेरी उंगली के साथ-साथ घूमीं और एक ही पल में वापस अपनी जगह आ गयीं यानी कि मेरे जिस्म पर। अब मुझे अपनी बेचारगी, लडक़ी होने और पुरुषों की उपस्थिति में कमजोर होने का अहसास हो आया। मैं भीतर से कांपने लगी लेकिन ऊपर से खुद को मजबूत दिखाती हुई बोली ‘मेरी सैंडिल कहां गयी? इधर ही तो गिरी थी…। ’
लोगों की निगाहें इधर-उधर घूमीं और फिर मेरे ऊपर आकर हो गयीं स्थिर। मुझे बेचैनी सी हो रही थी। ऐसा महसूस हो रहा था कि एक बाल्टी फ्रिज का पानी मिल जाये और उसे अपने ऊपर उलट लूं। मैंने खीजते हुए कहा , ‘मेरी सैंडिल कहां है.. कोई तो बताये..! ’
‘तोहार सैंडल इहां है ..लै जाओ..!’
आवाज सुनकर जान में जान आयी। कम से कम कोई तो बोला और वह भी मेरी समस्या का समाधान करते हुए जिसकी इस माहौल में दूर-दूर तक कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही थी। आवाज की तरफ पलट कर देखा तो पाया कि वहां से करीब बीस-पच्चीस फीट दूरी पर चाय के ठेले के पास बेंच पर बैठा एक आदमीनुमा व्यक्ति चाय सुडक़ रहा था। उसकी दाढ़ी बेतरतीब बढ़ी हुई थी और होंठ पान के अधिक सेवन के कारण लाल से काले हो रहे थे। उसकी हालत अच्छी नहीं लग रही थी लेकिन उस समय वह मेरे लिए देवदूत की तरह था। उसके पास मेरी सैंडिल थी जिसकी मुझे जरूरत थी। इसलिए मैं फौरन ही उसकी तरफ चल पड़ी। उस तक पंहुचने का फासला मैंने बड़ी मुश्किल से लंगड़ाते हुए तय किया। मेरे पीछे लडक़ों का हुजूम वैसे ही चल रहा था जैसे किसी पागल के पीछे बच्चों का शोर मचाता हुआ झुंड चलता है। वहां पंहुच कर मैं उसके सामने मूर्तिवत खड़ी हो गयी क्योंकि कहने के लिए मेरे पास कुछ नहीं था और उसे अच्छी तरह से मालूम था कि मैं वहां क्या करने आयी हूं? उसी ने तो मुझे आवाज दी थी।
उसने बड़ी बारीकी से मुझे ऊपर से नीचे तक निहारा और फिर चाय पीने लगा।
‘मेरी सैंडिल कहां है?’
उसने आहिस्ता से अपनी शर्ट के ऊपरी बटन खोले और भीतर हाथ डालकर जो चीज निकाली वह मेरी सैंडिल थी। सैंडिल वापस पाकर जहां एक पल के लिए मेरा गुस्सा शान्त हो गया, वहीं अजीब से लिजलिजेपन का अहसास भी होने लगा। समझ में नहीं आया कि सैंडिल देकर उसने हमदर्दी जतायी है या फिर सार्वजनिक रूप से मेरा मजाक उड़ाया है। जब वह शर्ट के भीतर से सैंडिल निकाल रहा था तो आस-पास दर्शक दीर्घा में मौजूद लोगों के होठों की चौड़ान स्लो मोशन में बढ़ती जा रही थी।
‘हे ..तुम लोग का कूकुर की तरह पीछे-पीछे लगे हो..! जाओ काम करो अपना.. लडक़ी देखी नहीं कि जुबान गीली होय गयी… भागो यहां से..!’
उसके स्वर में या तो अधिकार का पुट था या फिर लोग उसको पहले से जानते थे। उसकी एक दहाड़ पर मजमा लगाने वालों की भीड़ काई की तरह फट गयी। रह गये सिर्फ कुछ लोग जिन्हें देखकर लगता था कि वे उस दाढ़ी वाले आदमी के अपने लोग थे, उसके हम हमप्याला या फिर उसके सेवक। हिन्दी फिल्मों की घुट्टी पीने के बाद अपने समाज का अनदेखा रूप देखकर उसे तत्काल समझने में ज्यादा देर नहीं लगती है।
‘थैंक्यू फार द सैंडिल..’ कहकर मैं लौटने को हुई। अब मेरा वहां रुकने का कोई मकसद नहीं रह गया था।
‘ओय मैडम, चिन्ता जिन करो..जो तोहरे साथ बद्तमीजी किये है ओकर पता कल तक चल जायी..आय के माफी मांगी…।’
‘अरे पंडित जी, ऊ तो पवनवा रहा…कल एक लडक़ी का दुपट्टा खींचकर भाग गवा रहा..।’
‘ई पवनवा कौन है…?’
‘पवनवा शुकुल जी के साथ रहत है…पूरा गैंग ईहे काम करत है..आजकल के.पी.यू.सी. होस्टल की बाउंड्री पर बैठकर जौनो लडक़ी ओहर से गुजरे ओकर दुपट्टा छीन लेत है…दर्जनों दुपट्टा इकट्ठा कर लिये है…।’
‘लागत है आपन बहिनी की बिहाये के खातिर जमा करत है…।’
पंडित का यह डायलाग सुनकर वातावरण में हंसी गूंज उठी जैसे तनावपूर्ण घटनाओं के बाद फिल्म में कोई हास्य का दृश्य आ गया हो। उन लोगों की बातचीत सुनकर लगा कि वे उस लोफर को अच्छी तरह से जानते हैं। मेरे बढ़ते हुए पांव रुक गये।
‘तो आप लोग उसे जानते हैं? मेरे साथ चलिये, मुझे उसके खिलाफ थाने में रिपोर्ट लिखानी है।’
‘अरे मैडम, किसके-किसके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करायेंगी…? ई तो उमरिया ऐसी है कि अच्छे-बुरे का होश नहीं रहता है…ई तो यूनिवर्सिटी है…सबै जवान मिलिहैं इंहा…केकरे से शिकायत करबू और केहरे से मदद मंगबू…जेकरो दुम उठाबू मादै नजर आयी ..यानी कि कौन है जेकर कमीज सर्फ से धुली है..बिलकुल बेदाग..ई लफड़ा मा तुम न पड़ो.. ई सब तुम्हार काम नै न..!’
‘इसका मतलब है कि लड़कियां इसी तरह से अपमानित होती रहें?’
‘ऐ मेमसाब, लडक़ी होय के लडक़ी जात के बारे में नहींं जानत हौ? बड़ी भाग्यशाली हो जौन अब तक तुम्हरे साथ कुछ न भवा। जहां चली जाओ और जेका देखो उहै औरतन का बदन छुअत है या छुये का खातिर मचला जाय रहा है..लोग तो चुटकी भी काट लेत हैं..। हम जानित ही कि ई सब हमरे भाई बिरादर हैं, साथी हैं, लेकिन आज तक कौनो लडक़ी का विरोध करत नहीं देखा है। कौनो लडक़ी उफ नहीं करत..शिकायत नहीं करत..बचके निकल जात है बस! घरौ में जाकर नहीं बतावत। काहे..? अरे कतल होय जाये या फिर घर से निकलना बन्द होय जाये..। जाओ हिम्मत होय तो आज की घटना घर मा जाकर बताये दो और फिर कल यूनिवर्सिटी आये का मिले तो बतायो..! हम चलकर खुद तुम्हरे साथ थाने में रिपोर्ट लिखायेंगे, समझी।’
मैं खामोशी के साथ वहां से चली आयी। खूब सोचा-समझा। सहेलियों से राय ली। सहेलियों की शादी-शुदा बहनों, भाभियों-दादियों, सभी से पूछा। किसी ने यह नहीं कहा कि उनके साथ भी कभी कुछ ऐसा हुआ है लेकिन सभी इस बात पर एकमत थे कि भीड़ भरे स्थानों, सिनेमा हालों, कालेजों, बसों, ट्रेन और काउंटरों पर हर जगह महिलाओं के साथ अश्लील हरकतें होना आम बात है। कोई भी महिला इससे नहीं बची है लेकिन घर लौटकर किसी को बताती भी नहीं है। बेटियां अपनी माओं को नहीं बतातीं, मायें अपने बच्चों से नहींं बतातीं और पत्नियां अपने पतियों से नहींं बतातीं। क्योंकि वे जानती हैं कि इस तरह की हरकतें करने वाले उनके पिता, भाई या पति ही जैसे लोग हैं। हमारे नहीं हैं तो किसी और के होंगे ही। हमारे और उनके बीच सिर्फ एक परदा है। इस परदे को हटाकर अगर उन्हें अपने साथ होने वाली इन घटनाओं के बारे में बता देंगे तो वे एक ही काम कर सकते हैं, जान लेने का, हाथ पैर तोडऩे का, बस। और अगर उनमें से कोई ऐसा नहीं कर पाया तो उनकी नजरें हमेशा के लिए अपनी मां, बहन, पत्नी के सामने झुक जायेंगी और वे ‘बेचारे’ बन जायेंगे। या तो वे आत्महत्या कर लेंगे या फिर अपनी पत्नी-बहन को चरित्रहीन साबित कर अपनी बेचारगी को छिपाने की कोशिश करेंगे। पुरुष हमेशा वीर होते हैं-किसी युद्ध को जीते बिना ही। उनके सामने कोई चुनौती मत रखो वरना उनको खो दोगी। हर तरफ से पराजित होना ही औरत की नियति है। इसलिए खामोश रहो, अत्याचार सहती रहो और अपने ‘उनमें’ वीर पुरुष होने का भ्रम बनाये रखो..।
मैंने घर में इस घटना के बारे में किसी को नहीं बताया था। मैं अपने पापा और भाइयों से बेहद प्यार करती हूं। मैं नहीं चाहती थी कि किसी मवाली के चक्कर में पडक़र वे अपने कैरियर और बेलौस ठहाकों को खो बैठें। मुझे घर की दीवारों से टकरा-टकराकर गूंजती उनकी हंसी अच्छी लगती है। मैंने किताबें पढ़ी हैं, फिल्में देखी हैं और रोज हो रहे अत्याचारों की रोंगटे खड़े कर देनी वाली कहानियां भी सुन रखी हैं। मैं नहीं चाहती थी कि मेरा घर श्मशान घाट बन जाये। सब लोग खुश रहेंगे तो मैं
भी उनकी खुशी में शामिल हो सकूंगी। परिवार की खुशियों के सामने मेरी व्यक्तिगत पीड़ा के क्या मायने हैं? जिस दु:ख को मेरी मां ने बर्दाश्त कर लिया, कभी अहसास तक न होने दिया, क्या मैं उसे बर्दाश्त नहीं कर सकती?
लेकिन मन नहीं मानता था। क्या मैं इतनी कमजोर हूं? इस तरह की अपमानजनक स्थितियों से बचने का क्या कोई रास्ता नहीं है? मैं सोचती रहती। नहीं… कोई रास्ता जरूर होगा, नहीं… यह औरतों की नियति है और हमें अपनी नियति, अपने दु:खों के साथ खुश रहना सीख लेना चाहिये। सच्चाई यही है कि ये मर्द लोग अपनी बहनों-भाभियों-मांओं को अपनी जात से नहीं बचा सकते इसलिए वे खुद भी राक्षस बन जाते हैं-प्रतिशोध लेते हैं। हमें अपनी रक्षा खुद करनी है और साथ में यह भ्रम भी बनाये रखना है कि वे ही हमारे रक्षक हैं।
मैं क्या कर सकती हूं यह मुझे नहीं मालूम था। मन में कसमसाहट सी मची रहती थी। इतनी जल्दी हार मान लेने की मेरी उम्र नहीं थी लेकिन मैं क्या कुछ कर पाऊंगी, इसमें संदेह था। खैर मैंने सब कुछ हालात पर छोडक़र इसे अपनी नियति ही मान लिया था और रोज की तरह मैं कालेज जाती रही-सिर झुकाकर। कोई कितना भी फब्ती कसता मैं कोई जवाब नहीं देती-हलाल किये जाने वाले बकरे की तरह सिर झुकाये रहती। लोगों के ब्यंज्यबाण सुनकर मुझे ऐसा लगता ही नहीं था कि मैं उनके बीच में हूं या मेरे बारे में कोई चर्चा कर रहा है। कोई कुछ भी कह मुझे तो बस खामोश ही रहना था। यह बात दूसरी है कि ऐसी गऊ तो किसी भी मर्द के लिए आसान चारा हो सकती है, यह मैं जानती थी लेकिन बड़ों ने जो सीख दी थी उसके सामने मैं मजबूर थी।
एक दिन मैं मनोविज्ञान विभाग के सामने से गुजर रही थी। पता नहीं क्यों यूनिवर्सिटी में इकलौता मनोविज्ञान विभाग ही है जहां पर सन्नाटा कुछ ज्यादा ही पसरा रहता है। मैं अकेली कभी नहीं-कहीं नहीं जाती थी। उस दिन भी तीन लड़कियां मेरे साथ थीं। अचानक एक लडक़ा किसी जासूसी उपन्यास के पात्र की तरह झाडिय़ों के बीच से नमूदार हुआ और हम सबके सामने बेशर्मी के साथ खड़ा होकर किसी फिल्मी खलनायक की तरह मोटरसाइकिल की चाबी का लंबा सा छल्ला घुमाने लगा। अरे, यह तो वही पंडित है जिसने मेरी सैंडिल अपनी शर्ट के भीतर से निकाली थी। पंडित यानी छात्रों का मसीहा, छात्र नेता, गुंडा या कोई और नाम ले लिया जाये जिसपर उसे कोई आपत्ति नहीं होगी बल्कि नयी उपमा सुनने के बाद वह भी अपनी खींसे निपोर देता। वह शायद नशे में था। उसे देखते ही मेरी तीनों सहेलियां वहां से ऐसे गायब हुर्ईं कि वे कब गयीं मुझे कुछ पता ही नहीं चला। शायद पंडित के बारे में उनकी जानकारी कुछ ज्यादा ही थी-मेरी कम थी तभी तो मैं वहां से भागी नहीं थी-शिकार की तरह खुद ही उसके सामने खड़ी थी। शायद उसका शिकार कौन बनेगा, मेरी सहेलियां पहले से ये बात जानती थीं और इसीलिए पंडित ने उन्हें जाने से रोका भी नहीं। लगता है कि उस दिन सैंडिल वापस करने के बाद से ही वह मुझपर अपना अधिकार जताना चाहता है-मुझे अपनी जायदाद बनाना चाहता है।
मैं आगे बढऩे को हुई तो उसने रास्ते पर अपनी बांहे फैला दी। मैंने पीछे लौटना मुनासिब नहीं समझा। समझ गयी कि आज मुझे अकेले ही लडऩा होगा।
मैंने कहा :‘ मेरा रास्ता छोड़ो, मुझे जाना है। ‘
नशे में उसकी जुबान लडख़ड़ा रही थी। बोलाॠ :‘ मैडम, यह रास्ता तो अब इन बांहों के नीचे से होकर ही जायेगा।‘
यह सुनकर मेरे तन-बदन में आग सी लग गयी। ऐसी स्थिति के लिए मैं महीनों से तैयार थी। मैं खुद लडऩा नहीं चाहती थी लेकिन अगर कोई मुझसे भिडऩा ही चाहता था तो मैं ज्वालामुखी बनी बैठी थी।
मैंने आंखों में आग भरते हुए कहा: ‘छोड़ मेरा रास्ता!‘
पंडित ने कभी सोचा भी नहीं रहा होगा कि कोई लडक़ी धमकी देकर उसे पूरा भी कर सकती है। क्या करेगी ज्यादा से ज्यादा? यही कहेगी आंखों में आंसू भरके कि मुझे जाने दो, मेरी शादी तय हो गयी है, मैं ऐसी-वैसी लडक़ी नहीं हूं……! बस न! और अंत में उसके पास कोई चारा नहीं रहेगा और वह जल बिन मछली की तरह उसकी बांहों में दम तोड़ देगी। बाद में बदनामी के भय से मुंह चुराते हुए घूमेगी। जो लड़कियां भाग गयी थीं शायद वे उसका शिकार बन चुकी थीं इसलिए उसने उनकी तरफ ध्यान भी नहीं दिया था।
मुझे ऐेसी कोई बेचारी नहीं बनना है, यह मैंने तय कर लिया था। मैंने अपने पर्स को सीने से चिपकाया और धीरे से उसके भीतर अपना हाथ डाल दिया। पर्स के भीतर के घनघोर अंधेरे में मेरी उंगलियों ने उस चीज को ढूंढ लिया था जो मेरा हथियार था। हथियार हाथ में आते ही मेरा आत्मविश्वास सारी हदें तोडऩे को बेताब होने लगा। मैंने अपनी खूंखार नजरें उसकी आंखों में गड़ा दीं यह जानने के लिए कि उसका अगला कदम क्या होगा?
जैसे ही उसने मुझे खामोश पाकर इसे मेरा आत्मसमर्पण मान लिया और मेरी तरफ एक कदम बढ़ाया-मैं एकदम सतर्क हो गयी। दूसरा कदम, तीसरा कदम और चौथे कदम पर जैसे ही वह मेरी रेंज में आया, मैंने अपने काबू से बाहर हो रहे दिल को कड़ा
किया और पर्स के भीतर उंगलियों में मजबूती के साथ पकड़ रखी शीशी को बाहर निकाला और जल्दी से उसका ढक्कन खोलकर पूरी ताकत से शीशी को उसके चेहरे पर दे मारा। शीशी में जो भी चीज थी वह बहुत कम मात्रा में थी लेकिन उसके भीतर किसी भी वहशी दरिंदे को आगे बढऩे से रोक रखने की पूरी क्षमता थी। चेहरे और हाथ पर उसके छींटे पड़ते ही वहां से धुआं सा उठने लगा और फिर पलों के भीतर वहां की खाल भी जलने लगी। कुछ बूंदें उसकी आंखों में भी चली गयी थीं इसलिए वह मुझे देख भी नहीं पा रहा था। अतिरेक पीड़ा से गुजरते हुए वह बस इतना ही कह पाया, ‘अरे, तुमने यह क्या क र डाला लडक़ी? ‘
मैं न बोली। लेकिन मन में सोचा कि तुम क्या करने जा रहे थे, यह तुमने सोचा था? मेरा मान मर्दन करने के बाद तो तुम अपना होंठ चाटते हुए एक विजेता की तरह यहां से जाते। उस समय तुम्हें क्या मेरी करूण पुकार उद्वेलित कर पाती? क्या उन लड़कियों का क्र ंदन तुम्हारे कानों में गूंज रहा है जिनकी बेबसी का लाभ उठाकर तुमने उन्हें जीवन भर के लिए अपनी ही नजरों में गिरा दिया? मैं न जाने क्या-क्या सोचे जा रही थी-मुझे तो कोई होश नहीं था। जब होश आया तो मैंने देखा कि मैं लोगों से घिरी हुई हूं। मेरे चारों तरफ मर्द ही मर्द थे लेकिन इस बार उनकी आंखों में वासना के डोरे नहीं थे और न ही कामातुर आंखों से मेरी तरफ देखने की हिम्मत कर पा रहे थे। सबकी आंखों में सिर्फ एक ही भाव था और वह था मेरी प्रशंसा का। लोग मेरी जय-जयकार कर रहे थे। उनकी नजरों में मैंने एक इतिहास की रचना कर दी थी। जिस पंडित के सामने सारी यूनिवर्सिटी फेल थी, वह मेरे सामने घायल चूहे की तरह पड़ा कराह रहा था। उसे पहले अस्पताल भेजा गया और फिर अखबारवालों के शोर मचाने पर जेल भेज दिया गया। आपको मालूम है कि मेरा क्या हुआ? न ही मैं जेल गयी, न ही किसी ने मुझपर लांछन लगाया और न ही घरवालों की भृकुटि तनी। उल्टे ही अखबारवालों और पुलिसवालों ने मेरी प्रशंसा में इतने कसीदे कढ़ दिये कि उनकी नाक गर्व से ऊंची हो गयी थी। सारा शहर मुझे जान गया था और न जाने कितनी संस्थाओं ने मुझे सम्मानित कर डाला था। बड़ी बात तो थी ही! अब तक लोगों ने उन लड़कियों के जले हुए चेहरे देखे थे जिन्होंने लडक़ों की मांग के सामने झुकने से इंकार कर दिया था और लडक़ों ने उनके चेहरे पर तेजाब फेंककर उन्हें सबक सिखाया था। आज लडक़ों का ही वह हथियार मैंने लड़कियों के हाथों में पकड़ा दिया था। तमाम मांओं ने तो अपनी लड़कियों के बैग में तेजाब की शीशी रखनी शुरू कर दी थी और लडक़ों ने भी लड़कियों से बात करते समय थोड़ा दूरी बनाकर रखनी शुरू कर दी थी।
सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि घर बैठे हुए ही मैं यूनिवर्सिटी यूनियन का चुनाव जीत गयी। है न आश्चर्यजनक बात! मेरी जरा सी हिम्मत ने मेरी जिंदगी के मायने ही बदल दिये। आज मैं गर्व से लड़कियों से कहती हूं कि जब तुम्हें लगे कि तुम्हार साथ अन्याय हो रहा है तो अपने भीतर ताकत पैदा करो-उसका विरोध करो। डरो नहीं, क्योंकि जिससे तुम भयभीत हो वह तुमसे भी बड़ा कायर है। यही गुजारिश है मेरी तुम लोगों से कि अपनी लड़ाई तुम्हें खुद लडऩी पड़ेगी। इन मर्दो के भरोसे मत रहना। तुम्हारे सामने इनकी कोई हैसियत नहीं है। तुम कहने को अबला हो, असल में तुम इन नपुंसक मर्दोंं के लिए एक बला के समान ही हो।
यह कहानी आप किसी किशोरी को मत सुनाइयेगा। डाकू खड्ग सिंह वाली कहानी के बाबा भारती की तरह मैं आपसे अनुरोध करती हूं। वरना हर लडक़ी का अपने भाई, अपने पिता-चाचा और अपने पति पर से विश्वास उठ जायेगा। और अगर किसी पर ऐतबार ही नहीं रहा तो कोई कैसे जी पायेगा…? यह दुनिया कैसे चलेगी…! यही गुजारिश है मेरी आपसे…।
चुटकी भर नमक
0स्नेह मधुर
ट्रेन के प्लेटफार्म से हिलते ही लगा कि अन्तत: यात्रा शुरू हो गयी है। यह जीवन की कोई अन्तिम यात्रा की शुरुआत नहीं थी लेकिन जीवन के पिछले दो दशक जब एक ही तरह से यानी कि स्थायित्व के भाव से काट दिये गये हों तो घर और दफ्तर के तीन किलोमीटर के फासले से अधिक और अलग दिशा में की गयी यात्रा मेरे लिए सफर जैसी ही थी। सफर यानी कष्ट भी। कहने वाले कहेंगे कि एक सौ बीस किलोमीटर की दूरी कोई दूरी होती है! इतनी दूरी तो रोज ही तय की जा सकती है। जरूर की जा सकती होगी मेरे भाई! मैंने भी बीस-पच्चीस बरस की उम्र में भूखे-प्यासे रहकर कितने एडवेंचर कर डाले हैं जिनके बारे में आज सोचकर भी आश्चर्य ही होता है और कभी-कभी तो खुद को च्यूंटी काटकर भी देख लेता हूं कि यह जो वन पीस में यहां मौजूद खड़े-खड़े भुट्टे उदरस्थ किये जा रहा है क्या वही है जो बस को ओवरटेक करती ट्रक के बांये और बस के बीच में से अपनी पुरानी मोटरसाइकिल निकाल कर ले जाता था! बिना इस बात की परवाह किये कि ट्रक ड्राइवर और बस में बैठी सवारियों तक चीख-चीखकर कह रही हैं कि मरेगा स्साला..! इस लफ्ज को न जाने कितनी बार सुनने के बाद उन्हीं की तरफ मुस्कराते हुए पलटकर देखना भी नहीं भूलता था कि देखो, आखिर मरने नहीं पाया स्साला…! राहगीर तक उसको सरकस का कोई जांबाज मान लेते थे। लेकिन दो दशक बाद और पहले में उतना ही अन्तर है जितना कि सिक्के दो पहलुओं में कि दोनों एक जैसे नहीं हो सकते। आज जब किसी की गाड़ी में बैठता हूं तो पहला निर्देश यही देता हूं कि जरा धीरे चलना, मुझे कोई जल्दी नहीं है। अब कोई खतरा कम से कम मोल तो नहीं लेना चाहता हूं।
ट्रेन जैसे-जैसे गति पकड़ती जा रही थी, खिडक़ी से बाहर से गुजर रहे दृश्यों के विपरीत दिशा में भागने की गति भी बढ़ती जा रही थी। दूर की चीजें तो तैरती हुईं सी आंखों के सामने से इस तरह से गुजरती थीं जैसे कोई लम्बी सी नदी ड्राइंग रूम की दीवार से लगे फ्रेम में से निकलती जा रही है। खिडक़ी के सबसे करीब की चीजें जो अपने स्थूल रूप में अपनी तमाम विकृतियों के साथ मौजूद रहती हैं, वे इतनी तेजी से गुजर जाती थीं कि उनकी विकृतियां अपना प्रभाव मन में जगह बना नहीं पाती थीं।
ट्रेन में ज्यादा मुसाफिर न होना पता नहीं क्यों मुझे सुकून देता है। बैठने की सुविधा तो रहती ही है, मन करे तो बर्थ पर लेटा भी जा सकता है। लेटना जरूरी नहीं होता है लेकिन मन में यह तो रहता ही है कि जब जी चाहे लेट तो सकते ही हैं, सो भी सकते हैं या फिर कुछ नहींं तो ऊपर की बर्थ पर लेटकर ट्रेन के अपने भीतरी और बाहरी शोर के बीच चुपके से कोई गीत भी गुनगुनाया जा सकता है, कोई सपना भी देखा जा सकता है-दिवास्वप्न!
सपने ही देख रहा था जब ‘गरम मूंगफली ले लो…’ की आवाज गूंजी । लो, अभी सोच ही रहा था कि इन चार घंटों का सफर कैसे कटेगा और अमरूद खाने से शुरुआत ही की थी कि मूंगफलीवाला भी आ गया! यानी कि सफर में खाने-पीने की तकलीफ नहीं होगी और सफर अच्छा कटेगा। वैसे तो मैं सफर के दौरान अजनबियों से बात करना बिलकुल पसन्द नहीं करता हूं लेकिन अपने अन्तरंग लोगोंं से भी महिलाओं की तरह देर तक बात करने की कल्पना मात्र से मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। बचपन से ही दब्बू स्वभाव का होने के कारण और बात-बात पर कडक़ बाप की ज्यादा बात न करने की चेतावनी ने भी न बोलने की रही-सही कसर पूरी कर दी थी। फलत: दब्बू के साथ-साथ घोंघा भी घोषित हो गया था। इसलिए सफर में मैं हमेशा कई पत्रिकायें और किताबें रखता हूं ताकि अगर एक किताब से बोर होने लगूं तो दूसरी में मन लगा लूं। इसी तरह से बैग में पानी की बोतल के साथ बिस्कुट के पैकेट, टिफिन,फल और यहां तक कि टाफी भी रखता हूं। आप कहेंगे कि थोड़े से सफर के लिए इतना लम्बा इन्तजाम! कैसा अस्थिर चित्त और भयभीत प्रकृति वाला इंसान है। बात भी सही है। मैंने कई बार इस बारे में सोचा है और उन लोगों के लिए मन में ईष्र्या का भाव भी पैदा हुआ है जो अचानक ही किसी सफर के लिए मस्ती के साथ खाली हाथ ही निकल पड़ते हैं। और एक मैं हूं कि जब यह अच्छी तरह से मालूम है कि जीवन की अन्तिम यात्रा अचानक और बिना किसी तैयारी के शुरू हो जायेगी तो भी बीच की छोटी यात्राओं में आने वाले कष्टों से बचने के लिए कितना पुख्ता इन्तजाम रखने की कोशिश करता हूं।
मेरे हाथ में आधा खाया हुआ अमरूद था तो उसके हाथ में मूगफलीभरा झोला। 12-13 साल का लडक़ा लगता था। गोरी रंगत होने के साथ ही गालों पर चकत्ते से पड़ गये थे। शायद किसी विटामिन की कमी की वजह से ऐसा हो गया हो। सर्दियों की शुरुआत भर थी। ठीक से जाड़ा पडऩा शुरू नहीं हुआ था लेकिन एहतियातन मैंने जैकेट पहन रखी थी। उस लडक़े ने पायजामे के ऊपर एक कमीज भर। मंूगफलीवाले झोले को सीने से इस तरह से चिपकाये हुए वह खड़ा था जैसे मूंगफली की गर्मी वह अपने शरीर में सोख लेना चाहता था।
दो रुपये की पचास ग्राम मूंगफली बताने पर मैंने दो पैकेट ले लिये। हर पैकेट पचास ग्राम का था। वैसे यह ग्राहक की इच्छा के ऊपर था कि वह पहले से भरा हुआ पैकेट ले या अपने सामने तौलवा ले। मैं तौलवाने के पचड़े में नहीं पड़ता। बहुत होगा पांच-दस ग्राम कम दे देगा और क्या! जहां लोग देश को ही लूटे जा रहे हैं वहां उसे इतनी सी डांड़ी मारने मारने का हक तो होना चाहिये! पास ही बैठे अधेड़ हो चुके देहाती ने लडक़े से मूंगफली तौलने को कहा लेकिन जब लडक़े ने बताया कि उसके पास तराजू नहीं है तो अधेड़ ने चीखते हुए कहा कि ‘‘ देखा साब! यह सब धोखाधड़ी है, सारे मूंगफलीवाले तराजू लेकर चलते हैं तो फिर तुम क्यों नहीं लिये हो? ’’
बहरहाल थोड़ी सी झिक-झिक के बाद एक पैकेट मूंगफली उसने भी ले ली। लेकिन जब उसने पैकेट खोलकर देखा तो फिर चीखने लगा, ‘‘यह पचास ग्राम मूंगफली हो ही नहीं सकती …तीस ग्राम ही होगी..धोखा दे रहा है बदमाश..।’’
मैं हंसने लगा। कैसा आदमी है? दुनिया में हर तरफ इस बात की स्पद्र्धा चल रही है कि कौन किसको पहले और कितना ठग ले और यह महाशय कम मूंगफली का रोना लेकर बैठे हैं। वैसे भी आमतौर पर बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों के पास चीजें घटिया और अधिक दाम पर मिलती हैं, यह बात सभी जानते हैं-चाहे वह पुलिसवाला हो या न्यायाधीश। सभी भुक्तभोगी हैं और सभी अपने बच्चों से इन लोगों से सावधान रहने के लिए कहते हैं लेकिन व्यवस्था में बदलाव लाने का प्रयास कोई नहीं करता, क्यों? कौन लड़ेगा इनसे, किसके पास है वक्त, सबको अपनी मंजिल पर जाना है। कोई अन्याय और फरेब के खिलाफ जंग लडऩे के लिए तो घर से निकला नहीं है। जो हो रहा है होने दो, बस सावधान रहो अपने लिए-यही है मूलमंत्र हर पीढ़ी का। बहुत हुआ तो बस अपने को छोडक़र सबको दोषी ठहरा दो।
मुझे याद आया कि स्टेशन आते समय किराया तय किये बिना ही रिक्शे पर बैठ गया था और रिक्शेवाले ने पांच की जगह आठ रुपये ले लिये थे। उसने मेरी जेब में हाथ डालकर जबरदस्ती रुपये नहीं निकाले थे और न ही मैं उससे कमजोर था-सिवाय एक चीज में कि मैं सार्वजनिक रूप से अपनी प्रतिष्ठा गंवाने का इच्छुक नहीं था, वह भी रिक्शेवाले के हाथों मात्र तीन रुपयों के लिए। मुझे चौराहे पर रिक्शेवाले पर अपना पौरुष उड़ेलने से बेहतर उसके द्वारा लुट जाना लगा, अगर इसे आप लूट लिया जाना मानने को तैयार हों। अगर आप संवेदनशील हैं, शरीफ हैं, परोपकारी हैं, उदार हैं, क्षमाशील हैं तो उसकी कीमत चुकानी ही पड़ती है।
मैंने मूंगफली खानी शुरू ही की थी कि वह अधेड़ फिर चीखा,‘‘मूंगफली अच्छी नहीं है, बेस्वाद है… और नमक कहां है..? ला रे..नमक दे..। ’’
मैंने भी अपनी पुडिय़ा खोली तो उसमें नमक चुटकी भर ही था। मुझे लगा कि इस चुटकी भर नमक से ही मेरा काम चल जायेगा, इसलिए उस अधेड़ के चीखने पर मैं मुस्कराने लगा, ‘‘भई, यह कोई टाटा का नमक नहीं है जिसे खाने के बाद राष्ट्रभक्ति जन्म ले लेगी। फिलहाल यह नमक तो परिवारभक्ति ही कर रहा है यानी कि नमक बचाकर वह अपने परिवार को भूखों मरने से बचा रहा है।’’
वह लडक़ा अधेड़ की बातों को अनसुना करता हुआ खिडक़ी के किनारे एक खाली पड़ी सीट पर बैठ गया। उसके सामने की सीट पर बैठा हुआ व्यक्ति ठेठ देहाती लग रहा था। उस देहाती से लगने वाले यात्री ने स्वेटर के साथ जैकेट भी पहन रखी थी। उसने कान पर मफलर भी बांध रखा था और रह-रहकर अपने हाथों को रगडक़र गरमाने भी लगता था। संभवत: वह कहीं और बैठे अपने साथियों के बीच से उठकर यहां चला आया था क्योंकि वह बीच-बीच में पीछे मुडक़र देख लेता था। उसका मन अपने साथियों की बातचीत में ही लगा हुआ था। उसके साथियों ने पीछे से कोई बात कही थी तो उसने लगभग खीझते हुए जवाब दिया था, ‘‘यार, तुमका तो मालूम है कि हमका जाड़ा ज्यादा लगत है…अब का करी, कान न बांधी तो का करीं..बताओ?’’
उसके इस उत्तर के बाद अगर पूरे दृश्य पर गौर किया जाये तो बरबस ही हंसी छूट पड़ेगी। एक तरफ वह कह रहा था कि उसको जाड़ा ज्यादा लगता है और उससे बचने के लिए उसने कान पर मफलर बांध रखी थी। साथ ही पैरों को सिकोडक़र वह सीट पर उकड़ू होकर बैठा हुआ था। लेकिन दूसरी तरफ उसने पूरी खिडक़ी खोल रखी थी और उससे बाहर झांक रहा था। खिडक़ी से आने वाली ठंडी हवा कम्पार्टमेंट में मौजूद सारे लोगों को कंपा रही थी।
अधेड़ कुछ न कुछ बड़बड़ाये जा रहा था। मूंगफली का खराब स्वाद अभी भी उसे बेचैन किये जा रहा था। मेरी सामने वाली बर्थ के ऊपर वाली बर्थ पर एक फौजी लेटा हुआ कोई उपन्यास पढ़ रहा था। आमतौर पर ट्रेनों और बसों में लोग या तो अंग्रेजी के उपन्यास पढ़ते दिख जायेंगे या फिर हिन्दी के मोटे-मोटे उपन्यासों में डूबे दिखायी देंगे। ये मोटे उपन्यास कोई महाग्रंथ नहीं बल्कि सस्ते-
चलताऊ किस्म के उपन्यास होते हैं। एक प्रकाशक ने एक बार बताया था कि हिन्दी के पाठकों की पसन्द बिल्कुल विचित्र है। संभ्रान्त दिखने वाले पाठक तो सार्वजनिक स्थानों पर मातृभाषा हिन्दी की पुस्तकों को हाथ लगाना ही पसन्द नहीं करते। जो लोग हिन्दी के उपन्यासों पर हाथ लगाते हैं उनका ध्यान पृष्ठों की संख्या और उसकी कीमत पर एकसाथ रहता है। अगर एक प्रकाशक बीस रुपये में दो सौ पृष्ठ का उपन्यास छापता है तो पाठक बीस रुपये में दो सौ बीस पृष्ठों वाला उपन्यास तलाशते हैं। भले ही उस उपन्यास में एक पृष्ठ में पंक्तियों की संख्या कम हो और हर पंक्ति के बीच का फासला बढ़ता जा रहा हो।
लेकिन वह फौजी राही मासूम रजा का कोई उपन्यास पढ़ रहा था, जिसे देखकर अप्रत्याशित खुशी हुई। उपन्यास का नाम जानने की जिज्ञासा हुई लेकिन काफी कोशिशों के बावजूद दूर से नाम पढ़ नहीं पाया और झिझक के कारण नाम पूछने की हिम्मत भी जुटा नहीं पाया।
इस बीच उस अधेड़ के बार-बार चिल्लाने पर कि बिना नमक के मूंगफली का मजा नहीं है, नमक लाओ-नमक लाओ..की रट लगाये रहने पर उस लडक़े ने झोले के भीतर से एक छोटी सी पुडिय़ा निकाली और अधेड़ की तरफ बढ़ा दी। लडक़े ने मेरी तरफ भी एक पुडिय़ा बढ़ायी और आंखों के संकेत से पूछा कि क्या आपको भी चाहिये? मैंने भी संकेत से ही नमक न लेने का इशारा कर दिया।
‘‘क्यों ज्यादा नमक लेकर बरबाद किया जाये जबकि मेरा काम इतने से ही चल सकता है। ’’ न करके एक तरह से मैंने उस बच्चे का दिल जीतने की कोशिश ही की थी और यह जताने की कोशिश की थी कि मैं चाहता तो और भी नमक ले सकता था। अपनी उदारता के बारे में सोचकर मुझे खुद भी हंसी आने लगी, ‘‘चुटकी भर नमक की उदारता…वाह! ’’
मुझे याद आया कि एकबार पूरे शहर में अचानक नमक का संकट पैदा हो गया था और यह अफवाह फैल गयी थी कि गुजरात में नमक सौ रुपये किलो तक बिक रहा है। यही नहीं, नमक के दामों में यह वृद्धि राष्ट्रव्यापी थी और दिल्ली में भी नमक की कीमत बढक़र डेढ़ सौ रुपये किलो तक पंहुच गयी थी। इस अफवाह को इलेक्ट्रानिक मीडिया लगातार कवर कर रहा था इसलिए कोई सुनी-सुनाई कोरी गप जैसी बात नहीं थी। इस अफवाह की सत्यता को जांचने के लिए मैं बाजार में निकला तो देखा कि वास्तव में नमक के लिए लोग दूकानों में लाइन लगाकर खड़े हैं और कई जगह तो बेताब भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को लाठियां तक भांजनी पड़ रही थी। एक दूकान जो खाली सी लग रही थी, मैंने सोचा उस दूकानदार से मौजूदा हालात पर टिप्पणी ली जाये। मैंने ऐसे ही पूछ लिया कि नमक क्या भाव चल रहा है? दूकानदार द्वारा यह बताने पर कि नमक बीस रुपये किलो है, मेरे रोंगटे खड़े हो गये। इतना सस्ता! तपाक से मैंने दो किलो नमक खरीद लिया।
सस्ता नमक पाकर कुछ देर के लिए चैन तो आ गया लेकिन बीस रुपये किलो नमक खरीदने का मेरा फैसला सही था या गलत, यह जांचने के लिए मैं एक दूसरी दूकान में घुसा। उस दूकानदार ने जब नमक का दाम पच्चीस रुपये किलो बताया तो मुझे लगा कि अब तो यह पक्का हो गया है कि नमक का दाम बढ़ रहा है। मैंने सोचा कि पांच रुपये किलो मारा-मारा फिरने वाला नमक यदि पचास रुपये किलो बिकने लगे, जिसका पूरा अंदेशा लग रहा था और उस नमक को बीस रुपये में खरीद लिया जाये तो तीस रुपये किलो का सीधा फायदा! वाह, क्या बात है! वैसे भी नमक कोई उडऩे या सडऩे वाली चीज नहीं है और बिना नमक के भोजन बन ही नहीं सकता। पता नहीं घर में नमक है भी कि नहीं ? वैसे भी इन औरतों को दीन-दुनिया की खबर कहां रहती है? आदत तो ऐसी पड़ गयी है कि कोई सामान जब खत्म हो जाता है तब दूकान की तरफ भागती हैं। चूल्हे पर चाय चढ़ाने के बाद पता चलता है कि घर में एक चम्मच भी चीनी नहीं है। घर में मेहमान बैठे होंगे तो झोला थमाकर कहेंगी कि जल्दी से पांडे जी के यहां से एक किलो चीनी लेते आइये। कई बार तो इतना गुस्सा आता है कि कह दूं कि एक किलो चीनी क्यों ले आंऊ, छह चमम्मच चीनी ले आता हूं, काम चल जायेगा। तीन ही तो मेहमान हैं। एक मेहमान दो चम्मच से ज्यादा चीनी लेगा नहीं और एक मेहमान तो बुजुर्ग हैं, जरूर डायबिटिक होंगे। वह तो चाय में चीनी पीते नहीं होंगे…! लेकिन महिलाओं से कौन जीत पाया है। उनका बस चले तो घर के बगल में हर चीज की एक दूकान जरूर होनी चाहिये।
मैंने सोचा कि कि पांच सौ मीटर के फासले पर नमक के दाम में पांच रुपये का फर्क है और इसी गति से दाम बढ़ता रहा तो घर तक पंहुचते-पंहुचते दाम सौ रुपये किलो तक हो सकता है। हालांकि यह ख्याल अतिशयोक्तिपूर्ण था लेकिन नमक के दाम में जो वृद्धि दिख रही है वही कौन सी तार्किक है! मैंने तुरन्त अपनी स्कूटर स्टार्ट की और बीस रुपये किलो वाली दूकान की तरफ भागा। इस बीच यह निर्णय करने में मुझे मुश्किल हो रही थी कि मैं कितने किलो नमक खरीद लूं? दस-बीस या तीस किलो! दूकान पंहुचने तक मेरा तनाव बढ़ता ही जा रहा था। अन्तिम क्षण तक मैं निर्णय नहीं ले पा रहा था कि दूकान के काउंटर पर पंहुच गया। बिना कुछ सोचे-समझे मैंने पांच किलो नमक का आर्डर प्लेस कर जेब से नोट निकालकर यह अन्दाज लगाने लगा कि अगर जेब में सौ रुपये ज्यादा होंगे तो और भी नमक ले लेंगे। लेकिन उस समय मेरे हाथों के तोते उड़ गये जब दूकानदार ने कहा कि सारा नमक खत्म हो चुका है और वह खुद नमक की तलाश में निकल रहा है। मेरी निराशा का पारावार नहीं था।
पल भर में नमक को इस तरह गायब हो जाता देख मेरा तो हलक ही सूख गया। मैं पलटकर पच्चीस रुपये वाली दूकान की तरफ भागा और उसके सामने बीस किलो नमक की मांग रख दी। लेकिन वहां भी नमक नहीं था। दूकानदार ने कहा कि बस एक किलो नमक बचा है जिसे उसने अपने लिये रख लिया है।
अपनी ही बेवकूफी पर मुझे गुस्सा आने लगा था। जब बीस रुपये किलो मिल रहा था तब तो लिया नहीं और जब पच्चीस रुपये किलो हो गया तो भी आंखें नहीं खुलीं। फालतू में इधर से उधर दौड़ता रहा। अपनी ही गलती पर भुनभुनाता हुआ पूरे शहर में हर दूकान छान मारी लेकिन नमक कहीं नहीं मिला। दूकानों में नमक खत्म हो चुका था। जिन लोगों ने पचास रुपये में भी नमक खरीद लिया था वे अपने को सफल विश्लेषक, समय को देखकर चलने वाले और जागरूक मानकर गरदन टेढ़ी कर चल रहे थे। अगले हफ्ते जब नमक बाजार में दो-चार सौ रुपये किलो बिक रहा होगा उस समय वे पचास रुपये किलो वाले नमक का सेवन कर अपनी बुद्धिमानी पर इतरा रहे होंगे। उस समय की मेरी मानसिक स्थिति ऐसी थी कि अगर किसी दूकान में सौ रुपये किलो भी नमक मिल रहा होता तो मैं बेहिचक खरीद लेता।
खैर हारे हुए जुआरी की तरह मुंह लटकाये हुए लंच पर घर लौटा। स्कूटर की बास्केट से दो किलो नमक को मुर्गे की तरह टांगे हुए घर में प्रवेश किया तो मेरी पत्नी ने मुझपर कटाक्ष करते हुए कहा, ‘‘तो आप भी ले आये नमक! बड़ी अफवाह फैली हुई है कि दो-ढाई सौ रुपये किलो बिक रहा है नमक? आपको कितने में मिला?’’
दाम को लेकर बीबी की इस जानकारी से मेरी जान में जान आयी। धमनियों में जम रहा रक्त फिर से प्रवाहित होने लगा, झुकी हुई गरदन भी टेढ़ी होने लगी। कम से कम दाम को लेकर बीबी के सामने होने वाली शर्मिंदगी से मैं बच ही गया था। थोड़ा विजयी भाव से मैंने कहा, ‘‘बीस रुपये किलो। ’’
‘‘बीस रुपये किलो…!’’ बीबी की चीख निकल गयी। यह खुशी की चीख नहीं थी। मेरी बीबी कोई भी चीज एक पैसे ज्यादा देकर लेने में विश्वास नहीं करती है, भले ही कितनी दूकानें देखनी पड़ें या कितना ही वक्त जाया हो जाये। इसलिए पांच रुपये वाली चीज बीस रुपये में पाकर उसे निश्चित रूप से खुश नहीं होना था, भले ही वह सुनहरे पैकेट में मिल रहा हो। लेकिन वक्त की नजाकत देखकर उसने चीख को गले में दबाया और किचेन में चली गयी। वह समझ नहीं पा रही थी कि अपने गुस्से को तत्कान प्रगट कर दे या थोड़ा इन्तजार कर आसपास भी दरियाफ्त कर ले कि उसका गुस्सा कितना जायज है। मैं समझ गया कि आज खाना देर में मिलेगा और दाल में घी तो मिलेगा ही नहीं, कहेगी कि डाक्टर ने घी खाने को मना किया है। मेरी फिजूलखर्ची के लिए वह थाली में खाने की जगह नमक भी परस सकती है कि लो अपना कीमती नमक खुद ही खाओ।
अगले दिन अखबारों में खबर छपी कि किस तरह से दिनभर नमक का दाम बढ़ता रहा और लोग नमक के लिए लाठी तक खाते रहे। लेकिन दिन खत्म होते-होते नमक अपनी पुरानी कीमत पर सहजता से मिलने लगा-यानी पांच रुपये किलो! इसके बाद मुझे आज तक नहीं याद कि वह बीस रुपये किलो वाला नमक किस दिन के खाने में डाला गया था।
इसलिए जब चुटकी भर नमक के लिए सामने वाले की चीख-पुकार सुनी तो बरबस हंसी आ गयी। वह लडक़ा मूंगफलीवाले झोले को सीने से चिपकाये हुए बर्थ पर बैठा ठिठुर रहा था। उसी के ठीक सामने बैठा अधेड़ उसे नमक कम देने के लिए लगातार कोसे जा रहा था।
मैंने मूंगफली का एक पैकेट खत्मकर दूसरा पैकेट खोला। एक-दो मूंगफली खाने के बाद नमक की तलाश में पैकेट में उंगलियां अपने आप ही घूमने लगीं। थोड़ी सी घूम-टहल के बाद एक नन्हीं सी पुडिय़ा उगंलियों से टकरायी। दो उंगलियों की कैंची बनाकर एक पुरानी फिल्म की धुन गुनगुनाते हुए मैंने उसे किसी तरह से बाहर निकाला। फिर आहिस्ते से उसे खोलना शुरू किया ताकि उसका एक भी कण बिखरने न पाये। लेकिन यह क्या! पूरी पुडिय़ा खोलकर और फिर उसे पलटकर भी देखा लेकिन उसमें नमक का नामोनिशान तक नहीं था। मुझे झटका लगा। मुझसे भी धोखा! मन किया कि सामने मेमने की तरह बैठे नमक चोर की गरदन मरोड़ दूं। उस अधेड़ का गुस्सा भी मुझे सही लगने लगा। मैं ही कैसा मूर्ख था जो अधेड़ को गलत समझ रहा था। ऐसे लोगों से अगर सिधाई से पेश आया जाये तो अपना ही नुकसान होता है।
लेकिन फिर भी मैंने अपना मानसिक संतुलन नहीं खोया। मेरी जगह कोई और होता तो उसी अधेड़ की तरह चीखने लगता और तमाशा खड़ा कर देता। लेकिन अगर आप चीख नहीं रहे हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि आपको गुस्सा नहीं आ रहा है। विमल का एक विज्ञापन बहुत पहले पढ़ा था जिसमें लिखा था कि ‘अ वूमन एक्सप्रेसेस हरसेल्फ इन डिफरेंट वेज’। मेरा मानना था कि ‘एवरीबडी एक्सप्रेसेस वनसेल्फ इन डिफरेंट वेज ’।
गुस्से को काबू में रखते हुए मैंने सोचा कि हो जाता है, दुनिया है, व्यापार है, धोखा-फरेब तो है ही। जिसकी जितनी हैसियत है, जितने संस्कार हैं और जितनी मजबूरी है, उसी के हिसाब से अच्छा कर रहा है और बुरा भी। इस छोटी सी उम्र में अगर वह छल कर रहा है तो उसकी भी विवशता होगी। उसके लिए तो दो-चार पैसों की अहमियत है, भगवान की कृपा से मेरे लिए इनका कोई मूल्य नहीं है। मैं उसकी जगह होता तो क्या में भी वही न कर रहा होता? इस कठिन सवाल का जवाब मैं नहीं दे पाया लेकिन उसके छोटे से गुनाह को माफ करते हुए और स्वर में मुलायमियत लाते हुए मैंने उससे कहा, ‘‘लाओ, एक पुडिय़ा नमक दे दो ।’’
‘‘नमक नहीं है..! ’’
यह सुनते ही मेरा खून अचानक गर्म हो गया। मुझी से चतुराई! ‘‘वह जो पुडिय़ा मुझे दे रहे थे, वह कहां गयी? ’’
‘‘बगल वाले को दे दी। ’’
‘‘ यानी कि अब नमक नहीं है? ’’
‘‘नहीं…! ’’
‘‘ स्साले चोर…!’’ मन में हुआ कि उसपर चढ़ ही बैठूं, ‘‘पिद्दी न पिद्दी का शोरवा, मुझी को सिखा रहा है! ’’ लेकिन कह नहीं सका। अच्छा संस्कार बड़ी बुरी चीज है। और कुछ करे न करे लेकिन आपको सार्वजनिक रूप से कायर बना ही देता है।
वैसे भी मैं थोड़ा आत्मसंतोषी किस्म का जीव हूं। खाना बेस्वाद होने पर भी आम पुरुषों की तरह भौंहे टेढ़ी नहीं करता। सोचता हूं कि करोड़ों लोगों को तो यह भी मयस्सर नहीं है। वैसे भी अगर देखा जाये तो उसका क्या दोष है। बाल-मन इस तरह के आपराधिक षड्यंत्र नहीं कर सकता है। हो सकता है इस मामले में उसने किसी की नकल की हो। उसे भला अच्छे-बुरे की क्या पहचान। देखो तो जरा, कितना मासूम चेहरा है। गरीब है, पता नहीं किस मजबूरी में जाड़े की इस रात में अनजान लोगों के बीच अकेले मूंगफली बेचने की हिम्मत जुटा रखी है। मैं तो महाडरपोक, ऐसी मजबूरी में भी क्या ऐसी हिम्मत जुटा पाता? पता नहीं कैसे-कैसे गलत
निगाह रखने वाले लोग मिलते हैं इस सफर में। खासकर पुलिस वाले! भगवान ही बचाये इनसे। रेलवे पुलिसवालों को अकसर ऐसे भोले लडक़े मिल जाते हैं। उनकी क्या दुर्दशा होती है, यह तो वे ही जानते होंगे। किसी को बताने लायक नहीं रहते। पता नहीं अपने लडक़ों को भी ये लोग छोड़ते हैं कि नहीं। जेलों में जाकर देखिये कितना अत्याचार होता है उनपर। मानवाधिकार की बात जब भी होती है तो सिर्फ अपराधियों की होती है कि वे कैसे पुलिस के प्रकोप से वे बच सकें। जेल में बन्द कम उम्र के इन लडक़ों को कम ही समय में जवान बना देने वाले घृणित अपराध पर किसी की नजर जाती है?
मैंने एक बार अपने पत्रकार मित्र से कहा था कि खबर लिखने के अलावा भी कुछ करो। क्यों नहीं एक याचिका दायर कर देते कि जेलों में या तो कमसिन लडक़ों को रखा न जाये या फिर उन्हें सुरक्षित रखने की व्यवस्था की जाये। लेकिन वे न तो वोट बैंक होते हैं और न ही कोई इन बातों की सार्वजनिक रूप से चर्चा करके अपनी शेष जिन्दगी को शर्मनाक बनाना चाहता है। इसलिए यह निजी जख्म बनकर रह जाता है।
उस लडक़े की तरफ देखकर मेरे मन में घृणा की जगह दया का भाव जागृत हो गया। कैसे महफूज रख पाता होगा अपने आपको? बच तो पायेगा नहीं इन राक्षसों के चंगुल से, देखता भी होगा सबकुछ अपने सामने, पता नहीं क्या चल रहा होगा इसके मन में? अपने को बचाने के उपाय सोचता होगा, मिट्टी का लोंदा भर तो है, कुम्हार तो हम सब हैं। बिगाड़ेंगेे हम ही उसे और दोष देंगे उसको, जिन्दगीभर सजा भुगतेगा वह!
‘‘तो मूंगफली किससे खायें…? ’’ अनुत्तरित प्रश्न अभी मौजूद था।
‘‘…….! ’’
बदमाश! जवाब नहीं देता, गूंगा बना बैठा है। मूर्खता तो मेरी ही है। बड़ा ही दानवीर कर्ण बना फिर रहा था मैं। जब वह अपने आप पुडिय़ा दे रहा था तब बड़ी उदारता दिखा रहा था मैं कि मुझे नहीं चाहिये। अब भुगतो। बात यह नहीं है कि जरा सा नमक न होने से मूंगफली खायी नहीं जा सकती है। बहुत होगा, स्वाद नहीं आयेगा। ऐसी कितनी ही बेस्वाद चीजें हम पैसा देकर खाते रहते हैं और मुंह बिचकाने तक की हिमम्मत नहीं होती है। बात सिर्फ इतनी सी है कि मैं उसी से ठगा गया जिसकी मैं वकालत कर रहा था।
अचानक मुझे भी चालाकी सूझी,‘‘ऐसा करो, एक पैकेट मूंगफली और दो। ’’
वह गौर से मेरी तरफ देखने लगा। मेरे मन का भाव पढऩे की वह कोशिश कर रहा था। सोच रहा होगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं मूंगफली लेकर पैसे ही न दूं? या फिर उस पैकेट से नमक निकाल लूं! हालांकि मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था। एकदम से यह भी स्पष्ट नहीं था कि मैं क्या करना चाहता था? लेकिन उसे छलने का मेरा कोई मंतव्य नहीं था। उसे कुछ पल के लिए हैरान-परेशान करने का भाव जरूर निहित था। या फिर उसके साथ ठिठोली करने का मन था।
वह अनिर्णय की स्थिति में लग रहा था। मेरे मांगने पर भी जब उसकी उंगलियों में हरकत नहीं हुई तो मैंने खीझकर कहा,
‘‘अरे, तुमसे एक पैकेट मूंगफली मांग रहे हैं खाने के लिए और तुम तो गूंगा बनकर बैठ गये जैसे कि पैसा नहीं मिलेगा! पैसा न देना होता तो छीन न लेते?’’
उसे मेरी बात में दम लगा या घबरा गया था। उसने एक पैकेट मेरी तरफ बढ़ाया। मैंने पैकेट धीरे-धीरे खोलना शुरू किया। फिर उंगलियां अन्दर डालीं और उसे छकाने के भाव से कहा, ‘‘लगता है इसमें भी नमक नहीं है। क्यों रे! तुम बिना नमक के मूंगफली बेंचते हो? ’’
लडक़ा कुछ भयभीत नजर आने लगा था। उसके भीतर कितना डर समाया हुआ था और कितने सोये हुए भय अंगड़ाई लेने लगे थे, यह मुझे नहीं मालूम था। वह भी यह अन्दाजा लगाने की कोशिश कर रहा था कि आखिर मेरा इरादा क्या है? इतने में किसी ने पीछे से मूंगफली के लिए आवाज लगायी और वह बड़ी ही चपलता के साथ आवाज की दिशा की तरफ भागा। साफ लग रहा था कि वह मेरे सामने से उठने का बहाना तलाश रहा था। शायद उसे मेरे आक्रामक होने का भय था। वह अन्दाज नहीं लगा पा रहा था कि मैं उसे कितना नुकसान पंहुचा सकता हूं। कहने का मतलब मुझे ऐेसा लग रहा था कि मेरे बारे में वह अपने तक के अनुभवों के आधार पर वह किसी नतीजे पर नहीं पंहुच पा रहा था। शायद वह सोचने के लिए समय चाहता था। या जबतक कि वह किसी नतीजे पर न पंहुच जाये तब तक अपने को सुरक्षित रखना चाहता था।
वहां से भागने की जल्दीबाजी में वह मूंगफली के पैसे ले जाना भी भूल गया। मुझे उसका दो रुपये भूलकर वहां से जाना पता नहीं क्यों अच्छा लगने लगा। मैं उसका दो रुपया हड़पना नहीं चाहता था लेकिन एक भाव तो था ही कि हो सकता है कि मुझसे डरकर वह दो रुपया भूल ही गया हो! मैं खुश तो था ही लेकिन बहुत ज्यादा खुश नहीं क्योंकि मैंने ऐसा कई बार देखा है कि ट्रेन में सामान बेंचनेवाला कोई भी अपने पैसे नहीं भूलता है। थोड़ी देर बाद कहीं न कहीं से वह आ टपकता है और अपनी खुली हुई हथेली सामने फैला देता है। संभवत: वह भी दो-चार मिनटों में आ जाये!
इतना सब सोचते हुए मुझे याद आया कि बहुत देर से मेरी उंगलियां पैकेट के अन्दर नमक तलाश रही थीं। तो इस पैकेट में भी नमक नहीं है? मेरा गुस्सा फिर बढ़ गया। हालांकि मूंगफली के पैसे न देने के कारण गुस्सा ज्यादा बढ़ नहीं रहा था लेकिन यह कोई पक्का नहीं था कि पैसे नहीं देने हैं इसलिए गुस्सा अपनी जगह पर मौजूद था। एक और चीज जो मुझे खाये जा रही थी वह यह कि ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़े लोग इतने निष्ठुर और स्वार्थी क्यों होते जा रहे हैं? ग्रामीणों को लेकर बचपन से जो एक छवि दिमाग में बनी हुई थी कि वे भोले-भाले और निश्छल होते हैं लेकिन अपने अनुभवों से मैंने यह जाना है कि गांव की राजनीति, वहां के जातीय समीकरण, सामंतशाही, शोषण, अनवरत अत्याचार ने उन्हें कठोर और अवसरवादी बना दिया है। चुनावों ने गांवों की राजनीति को वोटों की जीत-हार से अलग जीवन-मरण से जोड़ दिया है जिससे उन्हें निश्छल समझना भूल ही होगी। बस की यात्रा के दौरान मैेने देखा है कि दो रुपये की मूंगफली से भरे पैकेट के बीच में खाली कागज के टुकड़े इस तरह से ठूंसे जाते हैं जिससे प्रथमदृष्टया उसका वजन ज्यादा लगे। मूंगफली का स्वाद लेते-लेते अचानक जब आपके हाथ में कागज के टुकड़े आ जायें तो आप किसपर कुढ़़ेंगे, किसको दोष देंगे?
मैंने सोचा कि कोई पहली बार तो ठगा नहीं गया हूं। एक बालक द्वारा ठगा जाना कोई बुरा नहीं है। आखिर क्या ले गया? वह कहता तो उसकी सारी मूंगफली खरीद लेता ताकि वह मुट्ठीभर पैसे लेकर घर जल्दी जाये, अपनी छोटी बहन के लिए टाफी भी खरीदकर ले जाये। अगर इस दुनिया में अपना अस्तित्व बचाये रखना है तो ये सब चीजें जल्दी ही सीख लेनी चाहिये। इन्हें देर से जानने पर अफसोस ही होता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें अवसर मिलने पर भी गलत न करने का अफसोस नहीं होता है लेकिन कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो ऐन्द्रिक सुख देने वाली हर वर्जित चीज का उपभोग करने में एक पल भी नहीं गंवाना चाहते। संभवत: ऐेसा संस्कारगत होता है लेकिन कुछ ऐसे लोगों को भी वह सब कुछ करते देखा है जो उनके मां-बाप ने करने की सोची तक नहीं होगी। इसका कोई नियम नहीं , ऐसा होता है, चाहे इसे अपवाद ही मान लिया जाये। जैसे कई पीढिय़ों से मधुमेह के रोगियों के परिवार में कोई न कोई ऐसा निकल ही आता है जो मधुमेह का शिकार होने से बच जाता है।
जब उस लडक़े को गये हुए कई मिनट बीत गये तो मेरे संस्कारों ने मुझे झकझोरा। कहीं कुछ गलत हो गया है! मैं तो थोड़ी ठिठोली करना चाहता था लेकिन अनजाने में लगता है कि मुझसे गलती हो गयी और उसका दो रुपया दबा लेने की गुस्ताखी कर बैठा। मेरा मन मुझे कचोटने लगा। मैं ऐसा करना तो नहींं चाहता था लेकिन सब कुछ मेरे सोचने पर तो होता नहीं है। गलती तो मेरी है, सरासर मेरी। कोई बहाना नहीं चलेगा कि मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था। मैंने ऐसा मजाक करने की कोशिश ही क्यों की? अपनी और उसकी उम्र का फासला नहीं देखा? क्या कोई इतने छोटे लडक़े के साथ मजाक करता है? अगर वह अपना पैसा भूल गया है या वास्तवमें मुझसे डर गया है तो मेरा फर्ज बनता है कि मैं उसे ढूंढ कर उसे उसका हक दूं वरना यह माना जायेगा कि मैंने उसका पैसा इरादतन हड़प लिया। ऐसा कितनी ही बार हो चुका है कि दूकानदार ने भूलवश अधिक पैसे लौटा दिये तो मैंने वे पैसे कहां दबाये? फौरन उसकी गलती बताकर उसे पैसे वापस कर दिये थे। यह तो बहुत सामान्य सी बात है। जब मैं पांचवी क्लास में पढ़ता था तो एक दूकानदार को मैंने दस रुपये दिये और उसने मुझे 92 रुपये लौटाये। उसने सोचा था कि मैंने उसे सौ की नोट दी थी। क्या मैं वे पैसे लेकर चुपचाप घर लौट आया था? मैंने तो वह पैसा हजम नहीं किया और आज चुटकी भर नमक के लिए मैं दो रुपये का अपराधी बन रहा हूं और वह भी एक बालक के सामने..छि:..!
मैं अपनी जगह से उठा और कम्पार्टमेंट में उसे तलाशने लगा। इसी बीच एक सूरदास मनोज कुमार की फिल्म का एक बहुत ही पुराना गाना गाते हुए उधर से गुजरे,‘‘नसीब में जिसके जो लिखा था..किसी के हिस्से में प्यास आयी किसी के हिस्से में जाम आया…। ’’ मैंने न जाने कितनी ट्रेनों में कितने सूरदासों को यही गाना गाते हुए सुना है। मैंने जेब में हाथ डाला और सोचा जो सबसे छोटा सिक्का पकड़ में आयेगा उसे सूरदास को दे दूंगा। जेब से उंगलियां जब बाहर निकलीं तो उनमें पांच का सिक्का फंसा हुआ था। एक आह के साथ वह सिक्का मैंने सूरदास की फै ली हुई हथेली पर रख दिया। कर भी क्या सकता था। जब सूरदास का नाम उस सिक्के पर लिख गया था तो फिर उस सिक्के को जेब में डालकर मैं दूसरा सिक्का क्यों निकालता..नसीब में जिसके जो लिखा था…!
पूरे कम्पार्टमेंट में वह नहीं दिखा। इत्तफाक से दूसरे कम्पार्टमेंट को जोडऩे वाला दरवाजा खुला हुआ था। लडक़े की तलाश में मैं उस कम्पार्टमेंट में चला गया। अपनी जगह छोडक़र दूसरे कम्पार्टमेंट में जाने पर डर सता रहा था कि कहीं कोई मेरा सामान ही न गायब कर दे। कहीं वह मासूम सा दिखने वाला लडक़ा ही पहले तड़ा न बैठा हो और मौके का फायदा उठा ले। शायद इसीलिए गायब हो कि मैं उठूं और वह काम लगा दे। या फिर कहीं सूरदास ही अपनी तीसरी आंख खोलकर इधर-उधर देखें और किसी को न पाकर हाथ साफ कर दे। कोई भरोसा नहीं, आंख पर चश्मा लाकर भीख मांगने वाले कई सूरदासों को देख चुका हूं।
दूसरे कम्पार्टमेंट में घुसते ही पहली बर्थ के पास वह बैठा हुआ दिख गया। बगल में दो-तीन लोग बैठे हुए गप मार रहे थे और वह उन्हें सुनने की कोशिश कर रहा था। मुझे देखते ही उसमें पहचानने या कुछ याद आने जैसा भाव पैदा नहींं हुआ। बस थोड़ा सा कुनमुनाकर रह गया।
तो यहां बैठा है स्साला और में वहां हैरान हो रहा हूं। नमक मारकर बहाने से भाग आया। देखो, किस तरह से मुझे देखकर मुंह उधर कर लिया कि कहीं नमक न मांग बैठें। जनाब ने यह नहीं सोचा कि कोई चुटकी भर नमक मारकर कोठी नहीं खड़ी कर लेगा। लेकिन जिस तरह से मुझे देखकर उसे कुछ याद नहीं आया उससे लगता है कि वह मूंगफली के पैसे के बारे में वास्तव में भूल गया है। जब मुझे देखकर भी उसे याद नहीं आ रहा है तो क्या मैं उसे झकझोर कर याद दिलाऊं कि तुम पैसा लेना भूल गये हो, यह लो। हां, मैं ऐसा कर सकता था अगर उसने मुझे नमक दिया होता या फिर चोर की तरह भाग न आया होता। कितना परेशान हुआ था उसके बारे में सोच-सोचकर। दर्द के मारे माथा फटा जा रहा है। कहीं ब्रेन हैमरेज वगैरह कुछ हो जाता तो? आजकल सिर्फ एक ही चीज का ठिकाना नहीं है और वह है जिन्दगी का। पता नहींं कब बोल जाये!
कोठी खड़ी कर लेने वाली अपनी ही बात पर मुझे मन ही मन हंसी भी आ गयी। एक बार रिक्शे से मैं गोदौलिया से लहुराबीर जा रहा था। आमतौर पर दो सवारी बैठने पर दो-ढाई रुपये ही देने पड़ते हैं। मैंने उसे पांच रुपये थमा दिये। वह कुछ देर तक मुझे देखता ही रह गया। उसी शाम को लौटते समय मैं अकेला ही गोदौलिया तक आया और रिक्शे को आंध्रा बैंक तक बढ़वा लिया। वहा पर उतरा तो उसे पांच रुपये थमाये। उसने दो रुपये और मांगे तो मैं यह कर आगे बढ़ गया कि इतना ही रोज देता हूं। इस पर रिक्शेवाला चीखने लगा था, ‘‘जाओ बाबू जाओ, गरीब का दो रुपया मारकर कोठी न खड़ी कर लेबो..! ’’
जब मैंं वापस आकर अपनी बर्थ पर बैठा तो राहत महसूस की। जैसे मैंने अपना फर्ज पूरा किया। अब लेनेवाला ही अपना पैसा न लेना चाहे तो मैं क्या कर सकता हूं! मैं तो दौडक़र वहां तक गया, उसे पैसे देने के लिए, क्या कोई ऐसा करता है? लेना हो तो ले जाओ, कोई पीछे-पीछे भागता है क्या?
लेकिन अगर कोई पूछे कि बाबा आखिर वह अपने पैसे क्यों नहीं ले रहा है? क्या वह मूंगफली मुफ्त की बांट रहा था या फिर मूंगफली देने से पहले उसने यह कहा था कि इसके पैसे नहीं लेंगे? तो मैं कहूंगा कि मैं क्या जानूं? लेकिन इतना कहकर अपना कंधा झाड़ लेने से काम नहीं चलेगा। इस जवाब में छल छिपा हुआ है। कोई मानेगा कि कोई गरीब मूंगफली वाला आपको मुफ्त में मूंगफली खिलाकर पिछले जन्म का कर्ज वापस कर रहा होगा? नहीं न! हो सकता है कि उसने सोचा हो कि मूंफली के साथ नमक नहीं दे पाया इसलिए इसके दाम क्यों लूं? कैसा लगा? बकवास ? इस जवाब में कोई दम नहीं है। तो छोडिय़े मैं इस सवाल -जवाब के पचड़े में ही क्यों पड़ूं? न कोई पूछ रहा है और न ही किसी को जवाब देना है। मैं बस इतना कर सकता हूं कि वह जब भी पैसे मांगेगा मैं ना-नुकुर किये बिना पैसे दे दूंगा, उसके पीछे-पीछे पुचकारता हुआ नहीं घूमूंगा कि मुन्ना अपने पैसे ले लो।
अचानक अंधेरे में ट्रेन रुकती हुई महसूस हुई। ब्रेक लगने की आवाज हुई। खिडक़ी से झांककर देखा कोई स्टेशन सा लगता था। कोई स्टापेज नहीं था क्योंकि ट्रेन प्लेटफार्म के दूसरी ओर खाली ट्रैक पर खड़ी थी। कम रोशनी के कारण प्लेटफार्म भी धूसर नजर आ रहा था। कुछ लोग जरूर उतर रहे थे क्योंकि पटरी के किनारे पड़ी बजरियों के दबने की आवाज आ रही थी।
मन ने कहा कि चलो देखें, वह लडक़ा क्या कर रहा है। कहींं यहीं पर न उतर जाये। हो सकता है उतरने समय ही पैसे मांगने की उसने पहले से सोच रखी हो। उस समय मैं नहीं होऊंगा तो कितना मन मसोसकर रह जायेगा! दो पैसे भी न कमा पाने का कितना अफसोस होगा। घर जाकर क्या बतायेगा कि एक सूट-बूट वाले भलेमानस मिले थे और उन्होंने मेरे दो रुपये मार लिये। अमीर आदमी को देखकर आदमी सोचता है कि इससे दो पैसे कमाये जा सकते हैं और यह आदमी तो हमसे भी अधिक नीच निकला। नमक न रखने की गलती किसी की भी हो लेकिन उसकी सजा तो पूरा परिवार भुगतेगा। हो सकता है कि उसकी छोटी बहन से भूल हो गयी हो। भूलेगी क्यों नहीं, नन्हीं सी जान होगी। गुडिय़ा खेलने की उम्र में मूंगफली गिनने के काम में लगा दिया गया होगा। या फिर उसके अंधे पिता से गलती हो गयी हो। अंधा है तो उसे क्या दिखेगा कि जिस पुडिय़ा को वह बंद कर रहा है उसमें नमक है भी कि नहीं? इसमें उसका क्या दोष? हे राम! लगता है कि मैं भी अंधा हो गया हूं जो मुझे यह सब दिखायी नहीं दे रहा और मैं उसके दो रुपये हड़पने के लिए लम्बी-लम्बी साजिशें किये जा रहा हूं। धिक्कार है मुझे! पता नहींं कहां चला गया होगा? अब जैसे ही दिखायी देगा बिना कुछ सोचे समझे उसके रुपये दे दूंगा, अगर वह मुस्कुराकर मेरी तरफ देखेगा तो दो पैकेट और लेकर उसे पांच रुपये और दे दूंगा। हालांकि मुझे मूंगफली खानी नहीं है लेकिन फिर भी दो पैकेट खरीद ही लूंगा। क्योंकि अगर बिना खरीदे उसे पैसे दिये तो हो सकता है उसके स्वाभिमान को ठेस पंहुचे। मैं उसके मन को दुखी नहीं करना चाहता। कम से कम मुझे इस पाप से मुक्ति तो मिलेी। बचपन में कितनी ही बार ट्रेन की पटरी पर दस और बीस पैसे के सिक्के रख देता था कि ट्रेन के गुजरने पर वे चुम्बक बन जायेंगे। लेकिन हर बार ट्रने के जाने के बाद जब पटरी पर देखा तो वह सिक्का या तो लम्बा होकर पतले टिन की तरह पचरी पर चिपका मिला। ऐसे तिने ही पैसे ल चुके हैं, दो-चार रुपये और गल जायेंगे, बस!
कोई कसर न रह जाये, इसलिए मैंने जेब से दो रुपये का सिक्का निकालकर हथेलियों में दबा लिया। पक्के इरादे के साथ दूसरे कम्पार्टमेंट में जाने के लिए निकला तो टायलेट के पास जब खुले गेट की तरफ नजर पड़ी तो देखा कि साहब जी फर्श पर बैठकर बाहर की तरफ झांक रहे थे। शायद दूसरी पटरी पर आ रही ट्रेन को देख रहे थे जिसके इंजन से निकल रही गोल-गोल रोशनी अंधेरे में लेटी पटरियों को चमकाकर जादुई दृश्य की रचनाकर रही थी।
तो मिल ही गये महाशय जी, अच्छा हुआ वरना इन दो रुपयों को जिन्दगी पर ढोना पड़ता। कुछ मिनटों में ही इस रुपये ने जिन्दगी हलकान कर दी थी। मन हल्का होते ही मैं चुहल करने के इरादे से उस लडक़े के ठीक पीछे जाकर खड़ा हो गया और यह देखने की कोशिश करने लगा कि वास्तव में वह क्या देख रहा है। एक तरह से उससे कुछ बातें कर मैं उसके मन को खुश करना चाहता था ताकि मेरे लिए उसके मन में कोई खटास आ गयी है तो वह दूर हो जाये। वह घर लौटे तो उसके मन में अपनी जीविका यात्रा की कोई मलिन स्मृति शेष न रह जाये।
मैं उसके इतना करीब आ गया था कि उसे अहसास हो गया कि उसके पीछे कोई है। उसने पलटकर देखा तो मेरी तरफ कुछ पलों के लिए देखता ही रह गया। शायद उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं वहां पर मौजूद होऊंगा इसलिए वह अपने रोम-रोम से यह तस्दीक कर लेना चाहता था कि वह मैं ही हूं न!
मुझे भी उसका इस तरह से अपनी तरफ देखना भीतर से हिला गया। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था और उसके आंखों की गहरी खामोशी मुझे विचलित किये जा रही थी। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि वह मुझे देखकर क्या सोच रहा है? भावना और रहस्य के इस जाल से निकलने के लिए और कहीं मेरा इरादा फिर न बदल जाये मैंने अपनी हथेली उठाकर सिक्का उसके सामने लहराना चाहा ताकि सिक्के पर उसकी नजर पड़ सके और उसे याद आ जाये कि उसका मेरे ऊपर कुछ बकाया है। बकाया या अचानक मिले धन से हर आदमी कुछ पलों के लिए खुश हो जाता है। लेकिन मेरे हवा में हाथ लहराते ही अचानक ही वह बड़ी फुर्ती के साथ ट्रेन से कूद पड़ा। पटरी पर पड़ी बजरी उसके धम्म से कूदने और फिर भागने से बजने लगीं। मेरे मन में भी कुछ बजने लगा। मुझे एकदम से उम्मीद नहीं थी कि वह यहां पर उतरेगा क्योंकि ट्रेन को वहां पर खड़े हुए दो-तीन मिनट हो चुके थे और उतरने वाले कब के उतर कर आंखों से ओझल तक हो चुके थे। निश्चित रूप से उसे यहां नहीं उतरना था, बस मुझे देखकर मेरे खौफ से वह वहां से उतर गया जैसे कि मैं उसके पीछे पड़ा था और वह मुझसे पीछा छुड़ाने को बेताब था। ऐसा कौन सा भय उसे सता रहा था? कहीं वह मुझे पुलिस वाला तो नहीं समझकर मुझसे खौफ खाये जा रहा था? कहीं पुलिस को लेकर उसके मन में कोई गांठ तो नहीं बन गयी है या उसके या उसके परिवार के साथ कुछ गुजरा तो नहीं है जिसके लिए वह पुलिस को जिम्मेदार मानता है!
चूंकि मैंने पहले से ही तय कर लिया था कि सिक्का उसके पीछे फेंक दूंगा, इसलिए मैंने अपना हाथ ऊपर उठाया ताकि सारा किस्सा खत्म हो और मेरा बोझ हल्का हो। मैं सिक्का फेंकने ही वाला था कि अचानक मैंने देखा कि पटरी पार करने से पहले उसने एक बार पलटकर मेरी तरफ देखा भी। जब वह मेरी तरफ देख रहा था तभी उस पटरी पर आ रही ट्रेन के इंजन की भरपूर रोशनी उसके चेहरे पर पड़ी। इससे पहले कि वह ट्रेन के गुजरने से पहले ही पटरी पार कर पाता कि मेरी तरफ देखने के कारण एक पल की देरी हो गयी और इंजन उसके ऊपर से गुजर गया। यह क्या हुआ! उसकी चीख तक सुनायी नहीं पड़ी। पटरियों पर फैला हुआ लाल खून दूर जाते इंजन की वजह से फैल रही कालिमा में तेजी से समाता जा रहा था। ट्रेन थी कि चलती ही चली जा रही थी और मेरे हाथ थे कि हवा में अभी भी फैले हुए-सिक्का फेंकने के लिए!
‘‘मूंगफली ले लो, दो रुपये की पचास ग्राम…चटनी के साथ… ’’ अचानक पीछे से आवाज गूंजी तो मैं चौंक पड़ा। पलटा तो देखा वह नहीं था…वह तो मेरे सामने ही….! कोई और लडक़ा था, मूंगफली लिये हुए।
‘‘हां बाबूजी मूंगफली दूं…गरम-गरम है..यह देखिये धनिया की चटनी के साथ.. दूं..? ’’ उसने मुझसे पूछा भर था लेकिन मेरे हाथ में दो का सिक्का देखकर जल्दी से एक पैकेट मेरी तरफ बढ़ा दिया।
‘‘नमक है? ’’ मैंने पूछा।
‘‘पैकेट में है ..चटनी भी है। ’’ यह कहते हुए उसने एक पुडिय़ा नमक और कागज के टुकड़े पर चटनी लपेटकर मुझे पकड़ा दी, ‘‘यह और ले लो.. ।’’ इसके साथ ही मूंगफली ले लो… की पुकार लगाता हुआ वह आगे निकल गया। धीरे-धीरे आवाज मद्धिम पड़ती गयी? टे्रन भी चलने लगी थी। मैंने हाथ में पकड़ रखे मूंगफली के पैकेट और चटनी की तरफ देखा और धीरे से उसे वाश बेसिन के पास रख दिया। वह कहानी खत्म हो चुकी थी। अब जब वह लडक़ा घर नहीं लौटेगा तो उसके मां-बाप और बहन उसका कितना इंतजार करेंगे, कहां तलाशेंगे उसे, कौन तलाशने जायेगा, घर का खर्च कौन चलायेगा…? नहीं, मैं इन सब सवालों के जवाब ढूंढने की कोशिश नहीं करूगा। मुझसे क्या मतलब..पता नहीं यह दुर्घटना थी या सिर्फ एक दिवा स्वप्न!
जब मैं अपनी बर्थ पर पंहुचा तो स्टेशन पीछे छूट चुका था और खिडक़ी के पार सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा था।
Sneh Madhur
क्या आत्महत्या करने वाले व्यक्ति के परिजनों को एक करोड़ रूपये देना और एक नौकरी देना आत्महत्या के लिए प्रेरित करने के समान नहीं है ? साथ में शहीद का दर्ज़ा देकर उसके नाम की सड़क बनाना किसी भी रूप में औचित्यपूर्ण प्रतीत होता है? क्या यह जंग लड़ते हुए मारे गए असली शहीदों का अपमान नहीं है ?
लेकिन इसका एक एंगल और भी है. अगर इस केजरीवाल की इस टुच्ची दयानतदारी से राजनीति हटाकर इसे वास्तव में क़ानून में बदल दिया जाए तो इस देश से लिजलिजे बुढ़ापे की समस्या ख़त्म हो जायेगी और देश में ओल्ड ऐज होमबनाने का का भी बड़ा संकट समाप्त हो जायेगा. साथ में हर घर में एक व्यक्ति सरकारी कर्मचारी बन जायेगा और हर परिवार करोडपति. पूरा देश खुशहाल हो जाएगा. पुराने दिन लौट आयेंगें जहां डाल-डाला पर सोने की चिड़िया करती थी सवेरा.. जिसे हमने में से किसी ने नहीं देखा होगा और न सोचा होगा. केजरीवाल का यह प्रयोग अभूतपूर्व है और इस पर मोदी सरकार को गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए.
हर घर में बुजुर्ग हैं जो परिवार द्वारा तिरस्कृत रहते हैं. इस तरह का कानून बन जाने से हर बुजुर्ग घर में सम्मानित हो जायेगा, उसको बूढा होते देख घर में अनजानी सी ख़ुशी की बयार बहने लगेगी और घर के जवान होते बच्चे के चेहरे पर खिलने वाली मुस्कान भी बढ़ने लगेगी. शादी करने वाले भी उस घर के चक्कर बार-बार लगाने लगेंगें जहाँ पर कोई बेरोजगार अपने वृद्ध होते पिता के साथ रहता हो. घर के जवान लोग अपने पिता का खूब ख़याल रखन लगेंगें और जरा सा नाक बहने पर ही बड़े से बड़े डॉक्टर के पास दौड़ने लगेंगे कि कंही बुढवा बीमारी से न मर जाए? जिस घर में कोई बूढा बिना आत्महत्या के मर जायेगा, लोग उस परिवार को दुर्भाग्यशाली कहेंगे. पहले लोग घर में पुत्र आने की मनोकामना करते थे और पुत्र न होने पर लड़का गोद ले आते थे, अब घरों में बुजुर्गों की मांग बढ़ जायेगी और बूढा गोद लेने के लिए दर-दर भटकते हुए भी नज़र आने लगेंगें. अभी तो लोग पडोसी के नौकर को भड़काते हैं और अपने यहाँ अच्छी तनख्वाह का लालच देते हैं, इस क़ानून के बन जाने के बाद लोग दूसरों के घरों के बुड्ढों को लालच भरी निगाहों से देखने लगेंगें. जब कोई पडोसी घर आएगा तो लोग अपने बुड्ढों को घर में छुपाने लगेंगें कि कहीं पडोसी की नज़र न लग जाए. इस क़ानून से बहुत सी समस्याओं का समापन हो जायेगा और सरकार अपना बुजुर्ग रख-रखाव कानून भी वापस ले सकती है.
भले ही केजरीवाल ने ऐसी घोषणा राजनीतिक दृष्टि से की हो लेकिन अगर इसे सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से देखा जाए तो इसमें लाभ ही लाभ है. बुजुर्गों का सम्मान बढेगा, जिंदगी भर कोई कुछ भी गलत काम करेगा तो कोई भी ऊँगली नहीं उठाएगा. बूढा होता आदमी ब्लू चिप कंपनी के शेयर की तरह समझा जायेगा. आत्महत्या करने के बाद लोग आँखों में ख़ुशी के आंसू भर-भर कर कहेंगें कि जिंदगी भर तो सिर्फ मटरगश्ती किये लेकिन परिवार के लिए जीवन समर्पित करने में पीछे नहीं रहे. मेरी मोदी सरकार से अपील है कि जनहित और देश हित में केजरीवाल के इस दो कौड़ी के विचार को फटाफट हथिया ले इससे पहले कि किसी और पार्टी की नज़र इस आईडिया पर पड़ जाए .साथ में इस पर कानून रुपी सोने का मुलम्मा चढ़ा कर देश की पारिवारिक संस्कृति में क्रांतिकारी बदलाव लाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दें.
( चार वर्ष पूर्व लिखा था, आज भी सामयिक प्रतीत होता है)
क्या पुलिस अंधी हो गई थी या न्याय अंधा है?: स्नेह मधुर
सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमई मौत की गुत्थी सुलझाने के लिए जांच की जिम्मेदारी सीबीआई को देने के सर्वोच्च न्यायालय की घोषणा ने आज एक इतिहास रच दिया है। यह पहला मौका होगा जब घटनास्थल की परवाह किए बिना न्याय के हित में बिहार सरकार के अनुरोध को स्वीकार कर सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार की उस अपील को खारिज कर दिया जिसके अनुसार घटनास्थल मुंबई होने की वजह से मामले की जांच का अधिकार मुंबई पुलिस को ही है। साथ ही सीबीआई से जांच की सिफारिश का अधिकार भी महाराष्ट्र सरकार को है, न कि किसी अन्य राज्य को। फैसले में सबसे खास बात यह भी रही कि इस फैसले को महाराष्ट्र सरकार चुनौती भी नहीं दे सकती है। यह न्यायिक इतिहास पहला मामला है जब किसी सिंगल जज की पीठ ने संविधान के आर्टिकल 142 के तहत अपनी असाधारण शक्तियों का प्रयोग किया हो।
ज्ञातव्य है कि आर्टिकल 142 संविधान द्वारा सुप्रीम कोर्ट को दिया गया विशेष अधिकार है। एकलपीठ ने इस संबंध में महाराष्ट्र सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी की आपत्ति को खारिज कर दिया। सिंघवी ने कहा था कि सिंगल जज वाली पीठ आर्टिकल 142 के तहत शक्तियों का प्रयोग नहीं कर सकती है। ऐसा करने के लिए बेंच में कम से कम दो जजों का होना जरूरी है।
सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस ऋषिकेश रॉय ने सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले में बिहार पुलिस की एफआईआर को सही माना और इस केस की सीबीआई जांच की मंजूरी दे दी। सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के आर्टिकल 142 का इस्तेमाल करते हुए यह फैसला सुनाया है। जस्टिस ऋषिकेश रॉय ने फैसला सुनाते हुए कहा है कि बेशक ये केस मुंबई पुलिस के अधिकार क्षेत्र में आता है, लेकिन इस मामले में सभी लोग सच जानना चाहते हैं, इसलिए कोर्ट ने विशेष शक्ति का प्रयोग करते हुए केस को सीबीआई के हाथों में सौंपने का फैसला किया है।
जस्टिस ऋषिकेश रॉय ने फैसला सुनाते हुए कहा कि जांच में जनता का विश्वास सुनिश्चित करने और मामले में पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने के लिए यह न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 142 द्वारा प्रदत्त विशेष शक्तियों को लागू करना उचित समझती है। जस्टिस ऋषिकेश रॉय ने कहा कि मुंबई पुलिस को इस मामले में जांच करने का अधिकार था, लेकिन, किसी भी तरह की असमंजस की स्थिति से बचने के लिए सीबीआई को केस सौंपा गया है।
महाराष्ट्र पुलिस और बिहार पुलिस में घटना की तफ्तीश करने के अधिकार को लेकर पिछले एक पखवार से एक आक्रामक जंग राष्ट्रीय स्तर पर जारी थी जिसको पूरी दुनिया देख रही थी। महाराष्ट्र पुलिस को अत्यंत पेशेवर बता कर उसे जांच करने देने मेें कहीं से कोई रुकावट नहीं थी लेकिन महाराष्ट्र पुलिस का इस दौरान बड़ा ही अजीब रवैया देखा गया जिसकी वजह से महाराष्ट्र पुलिस सन्देह के घेरे में आ गई थी। महाराष्ट्र पुलिस न तो खुद जांच कर रही थी और न ही बिहार पुलिस को करने दे रही थी। दो महीने बीत जाने के बाद और राष्ट्रीय स्तर पर इस मामले की चर्चा के बावजूद महाराष्ट्र पुलिस की कान पर जूं तक नहीं रेंगी। तमाम अनुरोधों के बावजूद मुंबई पुलिस ने औपचारिक रूप से एक एफआईआर तक दर्ज नहीं की। मुंबई पुलिस सिर्फ इस अकड़ में रह गई कि कानूनन मामले की जांच करने का अधिकार उसी का है, इसलिए लोग कितना ही शोर मचाते रहें, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है। यही महाराष्ट्र पुलिस का असंवेदनशील चेहरा था, जिसे अपनी नादानी से पूरे देश को दिखा दिया।
इस मामले में बिहार पुलिस ने महाराष्ट्र पुलिस को चारों खाने चित्त कर दिया। बिहार पुलिस ने न सिर्फ दूसरे राज्य की घटना की एफआईआर लिखी बल्कि कानूनी ढंग से उस जीरो नंबर की एफआईआर को महाराष्ट्र भेजने की जगह खुद ही जांच भी शुरू कर दी। निश्चित रूप से बिहार पुलिस ने सीआरपीसी के तमाम नियमों को धता बताते हुए एक ऐसा उदाहरण पेश कर दिया जिसने कानून के इतिहास में नई इबारत लिख दी है और जिसे देश की सर्वोच्च अदालत ने मान्यता भी दे दी। बिहार के डीजीपी गुप्तेश्वर पाण्डे ने भारतीय पुलिस के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय लिख दिया कि न्याय के हित में कानूनी प्रक्रिया बाधा नहीं बन सकती है। कानूनी प्रक्रिया का अनुपालन अपनी जगह है जिसका मकसद भी न्याय दिलाना होता है।
लेकिन मुंबई पुलिस इस बात पर अड़ी ही रही कि जब तक दूसरे पक्ष द्वारा एफआईआर नहीं लिखाई जाती है, तब तक विवेचना शुरू नहीं की जा सकती है जबकि दूसरे पक्ष की गैर मौजूदगी में पुलिस की तरफ से भी एफआईआर दर्ज कराए जाने का अधिकार पुलिस के पास सुरक्षित है।
कहा जाता है कि कानून अंधा होता है। लेकिन यहां तो मुंबई पुलिस ही अंधी निकल गई! मुंबई पुलिस के रवैए से तो सन्देह होता है कि क्या वास्तव में महाराष्ट्र की पुलिस पेशेवर है या फिर भी 1864 केे युग में ही जी रही है? सुशांत का मामला कोई जटिल मामला नहीं था। अगर सुशांत के नासमझ परिजनों को शुरू मेें ही आत्महत्या संदिग्ध नहीं लगी थी और उन्होंने कोई एफआईआर नहीं लिखाई थी, तो मुंबई की पेशेवर पुलिस ने भी जानबूझ कर आंखें क्यों बन्द कर ली थीं और मोटी- मोटी चीज़ें भी उनकी आंखों में नहीं गड़ रहीं थीं?
सुशांत सिंह राजपूत की मौत के 66 दिनों तक महाराष्ट्र पुलिस ने इस प्रकरण की जांच भी शुरू नहीं की थी, ऐसा सर्वोच्च न्यायालय ने माना है। साथ में यह भी कहा है कि महाराष्ट्र पुलिस ने जनता का विश्वास खो दिया है। बिहार में दर्ज जिस एफआईआर को महाराष्ट्र पुलिस ने रद्दी करार दिया था, उसी एफआईआर को सर्वोच्च न्यायालय ने सही माना है। साथ में यह भी कहा है कि अगर कोई और एफआईआर होती है तो उसकी भी जांच सीबीआई hi करेगी।
14 जून की इस घटना के मामले में महाराष्ट्र पुलिस की जांच का तरीका शुरू से संदेहास्पद दिख रहा था। बिना पोस्टमार्टम रिपोर्ट के ही महाराष्ट्र के गृह मंत्री ने सुशांत की मौत को आत्महत्या घोषित कर दिया था। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मृत्यु का समय नहीं लिखा गया था जो हैरत भरा था। हर पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मृत्यु का अनुमानित समय लिखना अनिवार्य होता है। पुलिस ने सुशांत के शव को पंखे से लटकता नहीं देखा था। सिर्फ इकलौता गवाह पठानी था जो ताला तोड़वाने के बाद और ताला तोड़ने वाले को घर से विदा करने के बाद कमरे में सबसे पहले गया था। उसके पीछे-पीछे गए तीन अन्य लोगों ने भी सुशांत को बिस्तर पर ही देखा था। कमरे में कोई स्टूल नहीं था जिस पर चढ़े बिना आत्महत्या कर पाना सम्भव नहीं था। घटनास्थल को लेकर कई तरह के विवाद हो सकते हैं, गवाहों केे बयान पुलिस ने लिए होगें लेकिन वे बयान सीआरपीसी की धारा 174 केे तहत लिए गए थे, जो विवेचना का हिस्सा नहीं हो सकते क्योंकि कोई एफआईआर ही नहीं हुई थी।
इस घटना को लेकर अब तक सामने आईं तमाम बातें अफवाहें भी ही सकती हैं, लेकिन मुंबई पुलिस ने बिहार पुलिस के साथ जैसा व्यवहार किया, वह भी संदेहास्पद रहा है। यहां तक कि बिहार के एक आईपीएस अफसर को क्वारेंटाइन केे बहाने मुंबई पुलिस ने हाउस अरेस्ट तक कर लिया गया था। आखिर क्यों मुंबई पुलिस ने अपनी सारी सीमाएं तोड़ दीं? उसी अहंकारी महाराष्ट्र की पुलिस को बिहार पुलिस के हाथों मुंह की खानी पड़ी। बिहार के डीजीपी गुप्तेश्वर पाण्डे कहते हैं कि बिहार में एफआईआर दर्ज करने का इकलौता कारण सुशांत के पिता थे जो पटना में रहते हैं। उनका इकलौते बेटे सुशांत का निधन हो गया और सुशांत की सम्पत्ति के वे उत्तराधिकारी हुए। मुंबई जाकर वह 74 वर्ष की उम्र में मुकदमा नहीं लड़ सकते थे। इसके बावजूद, अगर मुंबई की पुलिस पहले दिन ही मना कर देती कि उनके क्षेत्राधिकार में बिहार की पुलिस प्रवेश न करे तो उनकी पुलिस लौट आती। लेकिन मुंबई पुलिस ने उनकी बात सुनने की जगह उनके आईपीएस अधिकारी विनय तिवारी के साथ ऐसा व्यवहार किया जिसकी वह कल्पना ही नहीं कर सकते थे। आधी रात को कैदियों की तरह आईपीएस अफसर के हाथ में ठप्पा लगा कर उसे एक तरह से कैद कर लिया गया। अपमानित कर देने वाली इस घटना ने बिहार के डीजीपी गुप्तेश्वर पाण्डे को मोर्चा खोलने को मजबूर कर दिया।
एक तरह से सुशांत की मौत की घटना केे बहाने इस देश की पुलिस के चरित्र को बेनकाब कर दिया गया है। तीन राज्यों के आईपीएस अफसरों ने इस घटनाक्रम में भाग लिया। हरियाणा के आईपीएस अफसर ओपी सिंह ने मुंबई के डीसीपी को व्हाट्सएप किया था कि सुशांत की जान को खतरा है लेकिन डीसीपी ने इस सन्देश का संज्ञान नहीं लिया। इसके उलट ओपी सिंह की ही आलोचना कर दी डीसीपी ने! यानी डीसीपी ने यह सन्देश देने की कोशिश की कि आईपीएस अफसर को आईपीसी और सीआरपीसी की कोई जानकारी नहीं! मुंबई के पुलिस कमिश्नर ने भी इस मामले में अपनी किरकिरी करा ली। हालांकि सभी आईपीएस अफसरों का प्रशिक्षण एक साथ ही होता है लेकिन ऐसा लगता है कि उनके प्रशिक्षण मेें कोई कमी रह गई है। उन्हें ऐसा प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि आपस में समन्वय बना रहे, एक दूसरे का सम्मान करें और ऐसा सन्देश दें जिससे लोगों का पुलिस अफसरों पर विश्वास बना रहे। आम जनता नीचे के पुलिस कर्मचारियों से परेशान रहती है, जब ऊपर के अफसरों की नाक की लड़ाई भी सामने आ गई तो जनता कहां जायेगी?
सुशांत की मौत की गुत्थी सुलझाने में सफल रहे सीबीआई, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं है कि हर मामले में सीबीआई सफल ही रही है। सीबीआई में शर्लक होम्स ही नहीं होते। वे भी आम पुलिस वाले ही होते हैं। सुशांत की मौत का जो भी कारण निकले, हत्या या आत्महत्या, इस बारे में सच्चाई सामने आनी ही चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस ऋषिकेश राय ने अपने फैसले में कहा कि इस जांच से न सिर्फ उन लोगों को सांत्वना मिलेगी जो अकेले रह गए हैं, बल्कि सुशांत की आत्मा को भी शान्ति मिलेगी।
सर्वोच्च न्यायालय की यह उक्ति सोचने को मजबूर करती है कि “अगर सुशांत जिन्दा होते तो अपने पिता की चिता को अग्नि देते!” अगर इसी भावना के साथ पुलिस भी सोचे तो पुलिस की कोई आलोचना न करे।
वैसे न्यायिक क्षेत्र में एकल पीठ के इस फैसले को लेकर भी उंगलियां उठ रही हैं। न्यायाधीश ने जिस तरह से अनुच्छेद 142 मेें प्राप्त असीमित शक्तियों का इस्तेमाल किया है, उस पर प्रश्नचिन्ह लगाने की कोशिश की जा रही है। उच्चतम न्यायालय की ही व्यवस्था है कि अनुच्छेद 142 का प्रयोग किसी ऐसे कार्य को अप्रत्यक्ष रूप से करने में नहीं किया जा सकता, जिसको प्रत्यक्ष रूप से न किया जा सकता हो। क्या एकल पीठ ने अपने क्षेत्राधिकार का उल्लंघन किया है? क्या एकल पीठ न्याय के हित में तीन जजों के निर्णय को नहीं पलट सकती है?
साथ में यह भी सवाल उठ रहा है कि यह निर्णय रिया चक्रवर्ती की ट्रांसफर याचिका पर आया है, जिसमें बिहार में दर्ज एफआईआर को मुंबई ट्रान्सफर करने का अनुतोष मांगा गया था। क्या ट्रांसफर याचिका में भी अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग किया जा सकता है?
सवाल तो हर फैसले पर उठते ही हैं। हर बहस में दो पक्ष होते हैं और दोनों ही तकनीकी आधार पर अपने पक्ष को सही करार देते हैं। अंत में देखा यह जाता है कि न्यायाधीश ने न्याय के हित में किस पक्ष को सही माना और वही नजीर बन जाता है। यही कारण है कि सुशांत केस में यह फैसला नजीर बन गया क्योंकि किसी भी कानूनविद को यह उम्मीद नहीं थी कि बिहार पुलिस की जीत होगी। देखा जाए तो यह उन आम लोगों की विजय है जिनकी इच्छाओं और आवश्यकताओं को तकनीकी आधार पर हमेशा ख़ारिज कर दिया जाता है।
Sneh Madhur: क्या महाराष्ट्र की पुलिस अंधी हो गई थी या न्याय अंधा है?: स्नेह मधुर
“लॉक डाउन के दौरान अपराध तो घटे, लेकिन ‘जिस्म’ और ‘बदले‘ की आग” बुझाने मेें नहीं रहे लोग पीछे!!
यह मानना ही पड़ेगा कि सभ्य समाज में भी असभ्य लोग होते हैं, तभी तो पुलिस और अदालतों की जरूरत पड़ी। ये असभ्य लोग हमारे ही बीच से आते हैं और अपने कृत्यों से समाज को झकझोर कर रख देते हैं। लेकिन इन्हें पहचाना कैसे जाएं और सभ्य लोगों को इससे बचाया कैसे जाएं, यह विचार का विषय होना चाहिए। हम बिल्ली को देखकर कबूतर की तरह ” मूंदहु आंख कतहु कुछ नाही” की तर्ज पर बस अपनी आंखें बन्द कर लेते हैं और पुलिस के साथ सरकार की मजम्मत करने लगते हैं और न्यायपालिका की तरफ भी सकुचाते-सकुचाते इशारा कर देते हैं, वह भी भयवश कभी- कभी। लेकिन क्या वास्तव में पुलिस अपराध नियंत्रण के लिए सक्षम है? लॉक डाउन के दौरान जिस तरह से हत्या और दुराचार जैसी घटनाओं में कोई खास कमी नहीं आई है, वह सोचने को मजबूर करती है कि क्या पुलिस और न्यायपालिका से अपेक्षा रखने से पहले हमें अपने समाज को सुधारना होगा?
स्नेह मधुर
महंगाई की तरह क्यों बढ़ते जा रहे हैं अपराध?
भले ही पिछले पांच महीनों के दौरान सामाजिक और आर्थिक गतिविधियां आम दिनों की अपेक्षा न्यूनतम रही हों, लेकिन संज्ञेय अपराध करने वालों के हौसले नहीं कम पड़े। इस खालीपन में भी हत्याएं खूब हुईं और दुराचार तक की घटनाएं नहीं रुकीं! ऐसे समय जब सारे के सारे पुलिस वाले कोरोना वॉरियर्स बनकर लोगों को विभिन्न तरह की राहतें पहुंचा रहे थे, देवदूत बनकर भूखों को अपने पैसे से खाना पहुंचा रहे थे और कसम खाकर भी कहा जा सकता है कि लूट की कमाई शून्य तक पहुंचने का शताब्दियों पुराना रिकॉर्ड तोड़ रही थी तो भी अपराध का आंकड़ा आसमान की तरफ भाग रहा था, क्यों? क्या अपराधों केे नियंत्रण में पुलिस की वाकई कोई भूमिका नहीं होती है और अपराधी गाइड फिल्म के गाने की धुन पर पुलिस को चिढ़ाते हुए उड़न छू हो जायेगें, ” क्राइम करने वाले, क्राइम ही करेगें, रोकने वाले हमको जल – जल मरेगे..!”
अगर विश्वास न हो तो आंकड़े देखिए: वर्ष 2019 में जनवरी से जुलाई के बीच बलात्कार की 1526 घटनाएं हुईं थीं और इसी अवधि में इस वर्ष 2020 में 1095 घटनाएं हुईं। कहने को तो कहा जा सकता है कि बलात्कार की घटनाओं में 28% कमी आई है लेकिन असल में यह पुलिस की सतर्कता से नहीं हुआ है। चारों तरफ सन्नाटा ही सन्नाटा था, आने जाने भागने का कोई साधन नहीं, फिर भी बलात्कार हो ही गए, कैसे? विशेषज्ञ कहते हैं कि बलात्कार करने के लिए किसी वाहन की जरूरत नहीं होती और न ही शिकार की तलाश के लिए कहीं भटकना पड़ता है। सबकुछ आसपास ही तो होता है, अपनों के साथ ही तो होता है! और फिर लॉक डाउन तो शहरों में था जहां मात्र बीस प्रतिशत लोग रहते हैं। जहां 80% लोग रहते हैं, वहां तो सबकुछ खुला ही था! किसी तरह की कोई पाबंदी नहीं, न तो मास्क और न ही डिस्टेंसिंग!
अब हत्या की वारदातों को देखिए: इस वर्ष जनवरी से जुलाई के बीच 1856 हत्याएं हुई हैं जबकि पिछले वर्ष इस अवधि में 2019 हत्याएं हुई थीं। अब जब इस काल में पुलिस की चारों तरफ सतर्कता ही सतर्कता थी, फिर भी लोगों ने एक दूसरे की जान ले ही ली! यानी वही फार्मूला कि जिसने जो तय कर लिया, उसे करके ही दिखायेगा! जिस्म की आग और बदले की आग, बिना बुझाए नहीं मानती, चाहे जितने भी बंदिशें लगा लो! फिर क्यों है बदनाम पुलिस?
हाँ, लूट की घटनाओं में 43% तक कमी आई है। पिछले वर्ष सात महीनों में लूट की 1258 वारदातें हुईं थीं जो इस वर्ष मात्र 715 हैं। डकैतियों में भी 40% कमी आई है जो 57 से 34 तक आ गईं। यह बात दूसरी है कि 2018 में 87 डकैतियों हुईं थीं जो घटकर 2019 में 57 हो गई थीं। यानी प्रदेश में डकैती की वारदातें लगातार कम हो रही हैं। नकबजनी की घटनाएं भी इस अवधि में 32% कम हुई हैं और फिरौती के लिए अपहरण की घटनाएं भी 22 से मात्र 14 रह गई हैं, फिर लोग काहे को चीख रहे हैं कि अपराध बहुत बढ़ रहे हैं? यानी कौवा कान ले गया का शोर मचाए जा रहे हैं, अपना कान नहीं देखते!
मासिक आय, जनसंख्या, महंगाई और बहुमंजिली इमारतों की बढ़ती ऊँचाई के साथ कदम से कदम मिलाकर अगर अपने देश में अपराधों में भी वृद्धि होती भी है तो कोई चौंकाने वाली बात नहीं होनी चाहिए। यह सामान्य घटनाक्रम है और इस मामले में भ्रमित होने की कतई जरूरत नहीं है, उन लोगों को छोड़कर जिनका जीविकोपार्जन और कैरियर का ग्राफ ही इस बात पर निर्भर है कि पुलिस और सरकार के खिलाफ कितना चीख कर बोल सकते हैं और मीडिया में चलने वाली डिबेट को अपनी आवाज की ताकत से अपनी तरफ खींच लेने में समर्थ होते हैं। ये वे लोग होते हैं जो सरकार में न होने पर उसी तरह की आपराधिक घटनाओं पर मौजूदा सरकार से इस्तीफे मांगने लगते हैं जो उनकी सत्ता के दौरान भी घटित हुई होती हैं।
जिन अपराधों के लिए पुलिस या सरकार को दोषी ठहराया जाता है, वे अपराध न घटित हों, इसकी रणनीति बनाने की जिम्मेदारी सरकार की होती है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। अपराधों की रोकथाम में असफलता के पीछे पुलिस अधिकारियों की पर्यवेक्षण क्षमता में कमी, भ्रष्टाचार, कामचोरी, अप्रशिक्षित होना, पुलिस बल की कमी, राजनैतिक दबाव और व्यक्तिगत उद्दंडता भी कारक तत्व होते हैं। लेकिन क्या ये ही कारक तत्व अपराधों के लिए पूर्ण रूप से जिम्मेदार हैं, बस!
सबसे ताज़ा उदाहरण लीजिए, मंगलवार को उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर जिले में सुदीक्षा नामक बीस वर्षीय प्रतिभावान छात्रा की मार्ग दुर्घटना में मृत्यु हो गई। वह लगभग चार करोड़ के अमेरिकी वजीफे पर एम बी ए करने अमेरिका गई थी और अपने परिवार से मिलने पिछले महीने भारत आई थी, 20 अगस्त को ही उसे वापस लौटना था।
घटना इस तरह से है। सुदीक्षा अपने चचेरे छोटे भाई के साथ बाइक पर बैठकर मामा के पास जा रही थी। बताते हैं कि रास्ते में कुछ शोहदे उसका पीछा करने लगे और बाइक के आगे-पीछे स्टंट करने लगे। एक शोहदे ने अपनी बुलेट मोटर सायकिल बाइक के सामने लगा दी तो चचेरे भाई को अचानक ब्रेक लगाना पड़ा जिससे झटका खाकर सुदीक्षा पीछे की तरफ गिर पड़ी। जमीन से सिर टकरा जाने के कारण मौके पर ही उसकी मृत्यु हो गई।
इस प्रतिभाशाली छात्रा की दुखद मृत्यु पर लोगों ने और प्रशासन ने ज्यादा दुख जताते की जगह इस बात पर चर्चा ज्यादा की कि घटना शोहदों की वजह से हुई या अनुभवहीन ड्राइविंग की वजह से! शोहदों की उत्तेजनामय मूर्खताओं से भी इस तरह की दुर्घटनाएं हो जाना असम्भव जैसी बात नहीं है, लेकिन पूरे समाज का यही गैर जिम्मेदारनापूर्ण हाल है कि बच्चों को गाड़ी देकर और उसे लहराता देखना लोग अपनी शान समझते हैं। जिस तरह से सुदीक्षा का नाबालिग भाई बाइक चला रहा था, उसी तरह से शोहदे भी नाबालिग या गैर जिम्मेदार बाइकर रहे होगें! कौन किसको रोकेगा?
पुलिस को चाहिए कि इसी बहाने यातायात नियमों का कड़ाई से पालन कराने के लिए अभियान चला डाले और कम से कम स्टंटबाबाज बाइकर्स को ढूंढ ही निकाले! लेकिन पुलिस के लिए मजबूरी की बात यह है कि ऐसे अधिकतर लोगों के अभिभावक या तो रसूखदार होते हैं या धनाढ्य होते हैं जो पुलिस को जेब में रख लेने या फिर पूंछ हिलवाने तक की ताकत रखते हैं जिससे पुलिस का कहर ऐसे लोगों पर गिरता है जिनका कम से कोई दोष नहीं होता है। यानी पुलिस के अभियान का मकसद ही खत्म हो जाता है। पुलिस को विवाद पैदा करने की जगह अपनी नीयत को स्पष्ट करने की कोशिश करनी चाहिए। विवाद का समाधान करने की जगह पुलिस खुद सन्देह के घेरे में आने लगती है।
विवाद की बात यह है कि जिस बाइक पर सुदीक्षा बैठी थी, उसे कौन चला रहा था? उसके पास ड्राइविंग लाइसेंस था कि नहीं? क्या बिना ड्राइविंग लाइसेंस के बाइक चलाने से शोहदों द्वारा किया गया अपराध कम हो जाता है? अगर सुदीक्षा ने हेलमेट लगाया होता तो उसकी जान बच नहीं जाती? वैसे हेलमेट किसी ने भी नहीं लगा रखा था, पूरे जिले मेें और खासकर छोटे शहरों-कस्बों में तो कोई हेलमेट नहीं लगाता है। क्या यह अपराध नहीं है? नाबालिग भतीजा बाइक चला रहा था, वह भी कानून का उलंघन ही है। अगर बाइक चाचा चला रहे थे तो भतीजा क्यों कह रहा है कि बाइक वह खुद चला रहा था जो कि एक अपराध है जिसमें कई तरह की सजाएं हैं और नाबालिग के अभिभावक को भी जेल हो सकती है। इन जटिलताओं की वजह से मुद्दे की बात गायब हो गई कि शोहदों केे आतंक की वजह से सुदीक्षा की जान गई। न तो शोहदे स्टंट करते और न ही दुर्घटना घटती और न ही पुलिस की किरकिरी होती।
वैसे नाबालिग द्वारा गाड़ी चलाने पर गाड़ी मालिक और नाबालिग के अभिभावक दोनों दोषी माने जाएंगे। 25 हजार रुपए का जुर्माना और 3 साल की जेल की सजा है।नाबालिग की उम्र 25 साल होने तक उसे ड्राइविंग लाइसेंस नहीं दिया जाएगा। साल भर पहले तक नियम के उल्लंघन पर कोई कार्रवाई नहीं होती थी। लेकिन अब होनी चाहिए तभी घातक दुर्घटनाओं और अपराधों में कमी आ सकती है।
शोहदों को रोकना पुलिस का काम था, जो पुलिस ने नहीं किया। पुलिस का काम बिना हेलमेट केे चालक का चालान करना था लेकिन पुलिस ने नहीं किया। पुलिस का काम नाबालिग को गाड़ी चलाने से रोकना था, जागरूकता अभियान चलाना था, जो चलाया होगा, लेकिन जागरूकता नहीं फैल पायी। पुलिस बेवजह के विवाद में फंसकर अपनी छवि खराब कराने में लगी है। अगर किसी को आशंका है तो पुलिस को प्रमाण के साथ उसको संतुष्ट करना चाहिए, न कि अपराधियों को क्लीन चिट देकर संदिग्धों के पक्ष में खड़ा दिखना चाहिए? क्या बुलन्दशहर पुलिस दावे के साथ कह सकती है कि बुलन्दशहर में छेड़खानी की घटनाएं नहीं होती हैं? क्या महिलाओं से इस मामले की पुष्टि की गई है? क्या पुलिस दस महिलाओं के इंटरव्यू दिखा सकती है जिसमें वे दावे के साथ कहें कि बुलन्दशहर छेड़खानी मुक्त इलाका है? साल भर में कितने मजनुओं को पुलिस ने सलाखों के पीछे पहुंचाया है?
इस मामले में जितनी फुर्ती पुलिस ने यह साबित करने में लगाई कि दुर्घटना का कारण छेड़खानी नहीं थी, उतनी फुर्ती बिना हेलमेट केे बाइक चलाने वालों को रोकने में लगाती तो शायद एक जान बच जाती! लेकिन कहने वाले कहेंगे कि इस तरह के अभियान चलाकर पुलिस न जानें कितनी जानें बचा चुकी है और साथ में आलोचनाएं भी झेल चुकी है! अब क्या हर घर के सामने बैरीकेडिंग लगा दी जाए कि बिना हेलमेट, ड्राइविंग लाइसेंस, प्रदूषण प्रमाणपत्र और बीमा के कोई घर से ही नहीं निकलने पाएगा?
एक सवाल और उठता है कि मान लिया जाए कि वास्तव में शोहदों की कारगुज़ारी का दुष्परिणाम भुगता सुदीक्षा ने तो क्या बिना हेलमेट और ड्राइविंग लाइसेंस के गाड़ी चलाना वैधानिक हो जायेगा? असल में हम सारी गलतियों के लिए पुलिस को ही जिम्मेदार क्यों ठहराते हैं? पुलिस भी तो इसी समाज से है और अन्य भ्रष्ट, कामचोर, गैर जिम्मेदार, मुंहफट, कानून का उलंघन करने वाले लोगों के बीच से ही आई है। सिर्फ प्रशिक्षण भर से तो वह बदल नहीं जायेगी। जब स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती है, तो ट्रेनिंग कॉलेजों में भी तो राजनीतिज्ञों और अफसरों के सताए हुए लोग ही तो पोस्ट होते हैं! उन्हें क्या पड़ी है अच्छी ट्रेनिंग देने की? जब सुशिक्षित लोग जिम्मेदार नागरिक नहीं बन पाते हैं तो पुलिस वाले ही कैसे जिम्मेदार पुलिस बन सकते हैं?
यही कारण है कि थाने में एक विधायक के साथ दुर्व्यवहार हो जाता है और वह भी सत्ताधारी दल के विधायक से? निश्चित रूप से इसमें पुलिस की गलती होगी क्योंकि अभी तक तो हम यही सुनते आए हैं कि सत्ताधारी दल के विधायक ने थाने में पुलिस वालों को ही पीट दिया!
वैसे, विधायक भी इसी समाज से है और पुलिस के व्यवहार, अधिकार और विवशताओं केे बारे में अच्छी तरह से जानते हैं, फिर उनके साथ ऐसा क्यों हो गया? पुलिस भी विधायकों के अधिकारों और पैरवी की उनकी मजबूरियों के बारे में अच्छी तरह से भिज्ञ है, फिर ऐसा क्यों हुआ? यह भी समझने की जरूरत है।
असल में अपराधों को लेकर हमारे दिमाग में यह गलत धारणा बिठा दी गई है कि पुलिस के इकबाल से अपराध नहीं होते! अपराध तो होंगे ही, संख्या भी बढ़ेगी, भले ही चप्पे-चप्पे पर पुलिस का पहरा बिठा दें। पुलिस की भूमिका है अपराध नियंत्रित करने में, न कि उसे खत्म करने में। जनसंख्या के हिसाब से तो अपराधों की संख्या बढ़नी ही चाहिए।
अगर कोई हत्या की योजना बनाता है तो उसे कैसे रोक सकते हैं? ज्यादा से ज्यादा अपराध करने के दौरान या भागते समय या फिर बाद में कभी उसे गिरफ्तार कर लिया जाएगा। इसी तरह दुराचार की घटनाओं को रोकने में पुलिस की कोई भूमिका नहीं होती है। अधिकांश मामलों में लड़की के जानने वाले, रिश्तेदार या पड़ोसी ही इस जघन्य अपराध को अंजाम देते हैं। हम ऐसे समाज का निर्माण क्यों नहीं करते हैं कि हमारे परिवार के सदस्य ही यह कार्य न करें या फिर हमारे पड़ोसी अपनी काम भावनाओं को नियंत्रित कर सकें?
अकसर चैनलों पर अपराधों में बढ़ोत्तरी को लेकर पुलिस को आलोचना का शिकार होना पड़ता है। क्या आंकड़ों में दो चार की संख्या बढ़ जाने से अपराधों में बढ़ोत्तरी मानी जानी चाहिए? इसी धारणा की वजह से दशाब्दियों से अपराधों के पंजीकरण में कोताही बरती जाती है और यही पुलिस की पहचान बन गई है कि वह रिपोर्ट दर्ज नहीं करती, रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए सिफारिश करानी पड़ती है।
एक आईजी के पास एक एस पी भेंट करने पहुंचे। औपचारिकता के बाद उन्होंने शिकायत की कि गाज़ियाबाद में उनके सगे साले की कार चोरी हो गई थीं लेकिन मेरे कहने के बावजूद रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई। आईजी का जवाब था कि तुम भी तो यही करते हो, रिपोर्ट दर्ज नहीं करते!
दो दशक पूर्व 1999 में जब श्री राम अरुण उत्तर प्रदेश के डी जी पी थे, तो पुलिस की हर मीटिंग में पुलिस वालों से हर घटना की रिपोर्ट दर्ज करने के लिए समझाते थे। वह कहते थे कि तुम लोग यहां पर रिपोर्ट दर्ज नहीं करते हो और तुम्हारे अपने गांव में तुम्हारे परिवार में जब कोई घटना होती है तो वहां की पुलिस रिपोर्ट दर्ज नहीं करती। फायदा किसको हुआ?
मैंने उनसे कहा था कि रिपोर्ट दर्ज करने पर जब अपराधों का आंकड़ा बढ़ता है तो आप जैसे अफसर ही तो थानेदारों की मजम्मत करते हैं? उन्होंने कहा था कि इसीलिए तो लोगों को समझा रहा हूं कि अपराध बढ़ने पर मैं कोई सज़ा नहीं दूंगा।
मैंने उन्हें सलाह दी कि आप ऐसा क्यों नहीं करते कि जिस थाने में आंकड़ों में अपराध बढ़ेंगे, उसके थानेदार को आप पुरस्कृत करेगें क्योंकि इससे यह तो साबित हो जायेगा कि वह थानेदार सच्चा है! और जब ईमानदार और सच्चा व्यक्ति पुरस्कृत होगा तो हर कोई वैसा ही क्यों नहीं बनना चाहेगा? उन्होंने कहा कि यह मेरे हाथ में नहीं है। मैंने कहा कि फिर आपके भाषण से कौन प्रभावित होगा, हर कोई जानता है जब आप कुछ महीनों में चले जाओगे तो जो नया आयेगा, वह रिपोर्ट लिखने वालों को सज़ा देने लगेगा!
यही हकीकत है। लेकिन फिर भी अखबार, मीडिया इस तरह की खबरों से भरे रहते हैं कि पुलिस जनता की नहीं सुनती, नहीं दर्ज हो रही एफआईआर! और अधिकारियों के बयान छपते हैं कि पुलिस वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जायेगी! करेगा कौन और क्यों?
अरे, अफसर हो तो हर समस्या की जड़ हैं। एक आईजी ने तो मेरे सामने ही प्रेसनोट जारी करा दिया कि कोई भी एफआईआर बिना उनके स्टाफ की जांच के नहीं लिखी जायेगी। मैंने जब यह बात तत्कालीन डी जी बृजलाल को बताई थी तो उन्होंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि ऐसा नहीं हो सकता। उन्होंने मुझसे ही पूछ लिया कि क्या आप वह प्रेस नोट दिखा सकते हैं? मैंने कहा कि बिलकुल दिखा सकता हूं लेकिन देखने के बाद आप करेंगे क्या? अगर आपको विश्वास नहीं है तो मेरा नाम लेकर उन्हीं आईजी से सीधे क्यों नहीं पूंछ लेते? असल में सभी भेंड़ चाल से घिरे हुए हैं। अपनी नौकरी बचाने के लिए और अपने कार्यकाल को स्वर्णिम घोषित करने के लिए सभी अपराधों केे न्यूनतमीकरण की ही जंग में जूझे पड़े रहने को मजबूर होते हैं।
Sneh Madhur
भारतीय पुलिस की साख
भारतीय पुलिस सेवा के अफसर और पटना के एस पी सिटी विनय तिवारी आई पी एस, शुक्रवार की शाम अपनी ड्यूटी पर पटना वापस लौट आयेंगे। वह मुंबई से आयेंगे जहां पर पिछले पांच दिनों से क्वारंटाइन करने के बहाने उन्हें बंधक बना कर रखा था। उन्हें किसी दस्यु सम्राट ने किसी बीहड़ जंगल में नहीं बल्कि एक न्यायमूर्ति द्वारा विभूषित “वर्दी धारी संगठित गिरोह” ने कानूनी तौर पर सारी दुनिया के सामने बंधक बना कर रखा था और आड़ ली गई थी कि पैनाडेमिक कानून के दिशा निर्देशों के तहत बाहर से आने वाले व्यक्ति को 14 दिनों के लिए क्वारेंटाइन करना आवश्यक है। इन नियमों का हवाला देकर विनय तिवारी को बंधक बनाने वाले “कानूनविज्ञ अफसर” दूसरा कोई उदाहरण नहीं दे पाए जिसमें हवाई जहाज या ट्रेन से आए किसी व्यक्ति को क्वारेंटिन किया गया हो। एक तरह से आई पी एस विनय तिवारी के साथ को कुछ भी हुआ, वह इस देश की पुलिस की अनन्त कारगुज़ारियों की एक बानगी भर है कि इलाकाई पुलिस के चारागाह में जो भी कोई बाहरी आयेगा, उसका हश्र कुछ भी हो सकता है। आमतौर पर पुलिस यह व्यवहार थानास्तर पर बाहरी लोगों के साथ करती थी, लेकिन अपने ही विभाग के आई पी एस अफसर के साथ और वह भी आई पी एस अफसरों द्वारा डंके की चोट पर किया गया यह कृत्य बताता है कि मैला उतराने लगा है। पुलिस की दरिंदगी और गैर पेशेवर तौर तरीकों के लिए निचले स्तर की फोर्स ही जिम्मेदार नहीं है बल्कि उसके लिए अशोक की लाट लगाने वाले अफसर ज्यादा जिम्मेदार हैं जिनपर कोई ऊंगली उठाने का भी साहस नहीं कर सकता है।
कोई काल नहीं रहा है और कोई देश नहीं रहा है, अपवादों को छोड़कर, जो पुलिस से पीड़ित और प्रताड़ित नहीं रहा हो। सरकार के लिए पुलिस मतलब आई पी एस अफसर और जनता के लिए सिपाही+दरोगा+होमगार्ड। सरकार की मंशा पूरी करने के लिए क्रीमी लेयर वाले मात्र कुछ दर्जन अफसर और जनता को लठीयाने के लिए हजारों की संख्या में शोषितों और भुक्खड़ों की फौज जिसका काम ही अफसरों के इशारों पर मानवाधिकारों का उलंघन करना होता है सिर्फ इस लालच में खुश होकर उनके आका अपने जिन्न को मलाईदार पोस्टिंग दे देगें! कानून का पालन करने वाली पुलिस खुद कानून को ठेंगा दिखाने को मजबूत होने लगती है। जिम्मेदारी तो अफसर की होती है। जरूरत पड़ने पर वह उसे विभिन्न तरीकों से दिखावटी दंड दे देगा और फिर बढ़िया पोस्टिंग! हॉ, अगर आप अफसर की निगाहों से उतर गए तो पूरी ज़िन्दगी भुगतते रहिए। यानी चित भी मेरी और पट भी मेरी की तर्ज पर अफसरों की मौज ही रहती है, जनता गई भाड़ में!
इन अफसरों में अपना दबदबा बनाए रखने और मलाई लगातार खाते रहने की इतनी जबरदस्त भूख होती है कि वे किसी भी हद तक जा सकते हैं और किसी की भी बलि ले सकते हैं। वे अपने आपको कानून से ऊपर मानते हैं और वक्त जरूरत के अनुसार कानून की व्याख्या भी अपनी मनमर्जी से बदलते रहने में भी गुरेज नहीं करते हैं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण सुशांत सिंह राजपूत के केस में देखा जा सकता है। आई पी सी और सी आर पी सी पूरे देश में एक है, विवेचना के तरीके भी पूरे देश की पुलिस को एक ही किताब से पढ़ाये जाते हैं, लेकिन मनमुताबिक परिणाम पाने के लिए उन स्थापित तौर तरीकों में चुटकियों में बदलाव कर दिया जाता है।
मैंने एक वरिष्ठ अफसर से पूछा कि आखिर सीबीआई से लोग क्यों डरते हैं? आखिर मुंबई पुलिस को क्यों आपत्ति है सुशांत मामले की सीबीआई जांच पर? अफसर ने बताया की डर सिर्फ इतना ही है कि लूट के दावेदारों की संख्या बढ़ जायेगी और अपने जिन शुभेक्षुओं को मुंबई पुलिस बचाने की कोशिश कर रही होगी, वे सीबीआई का चारा बन जायेगें! उदाहरण के लिए जब पुलिस ज्यादती की जांच मजिस्ट्रेट को दी जाती है तो सम्बन्धित पुलिस कर्मचारी का खर्चा भी बढ़ जाता है। अगर जांच अधिकारी को प्रसाद नहीं चढ़ाया गया तो आरोप की पुष्टि होना पक्का है। इसी तरह से जो जांच जिस भी अधिकारी को दी जाती है, उसकी बांछे खिल जाती हैं। होते सभी पुलिस अफसर हैं लेकिन पंडों की तरह अपने अपने घाट पर जजमान का इंतजार करते रहते हैं, गिद्ध की तरह।
भले ही सुशांत ने आत्महत्या की लेकिन मुंबई पुलिस ने बिना किसी सूसाइड नोट के 15 मिनट के भीतर ही आत्महत्या की पुष्टि किस ज्ञान के आधार पर कर दी? समझदार लोग जानते हैं कि पुलिस कितनी भोली होती है क्राइम रेट घटाने के लिए पुलिस किसी भी तर्क को मान लेने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाती है। फिर, इस मामले में पुलिस के पास तो गवाह थे ही जिन्होंने उसे लटकते हुए देखा था, दरवाजा भीतर से बंद था। और क्या चाहिए? कोई हत्या का आरोप भी नहीं लगा रहा था। बाकी संदिग्ध चीजें जो पुलिस को अपनी आंखों से दिख रहीं थीं जिनसे इस आत्महत्या पर शक किया जा सकता था या आत्महत्या के लिए उकसाने वाले को कटघरे में खड़ा किया जा सकता था, लेकिन उन्हें पुलिस खामखाह क्यों देखे ? क्या उसे कुत्ते ने काटा है? या किसी ने उनका मीटर डाउन किया है या राजनैतिक दबाव आया हो इस गुत्थी को सही में सुलझाने का! फिल्म इंडस्ट्री की बड़ी लॉबी आत्महत्या की तरफ लगातार संकेत दे ही रही थी।
इसी को तो शायद प्रोफेशनलिज्म कहते हैं कि अपनी आंख को अर्जुन की आंख समझ लेना और मछली की आंख की तरफ केन्द्रित रहना। इस मामले में मछली की आंख प्रदेश सरकार थी जो इस मामले की सीबीआई जांच नहीं चाहती थी। आखिर कोई सरकार सिर्फ इसलिए ती सीबीआई जांच कराने कि मांग से इन्कार तो कर नहीं देगी क्योंकि उसकी पुलिस सर्वश्रेष्ठ है! कुछ और बार होगी! और यह हो सकता है कि यह राज सीबीआई भी न पाता लगा सके।
यह तो नीचे की बात हुई। ऊपर का हाल देखिए। बिहार का डी जी पी अपने से जूनियर मुंबई के पुलिस कमिश्नर को फोन कर रहा है, मैसेज भेज रहा है, कोई जवाब नहीं। बिहार का डी जी पी महाराष्ट्र के डी जी पी को फोन कर रहा है, कोई जवाब नहीं। हरियाणा के ए डी जी ओपी सिंह मुंबई के अपने जूनियर डी सी पी परमवीर सिंह को मैसेज कर रहा है, कोई कारवाई नहीं होती! यहां तक कि बाद में कहा जाता है कि लिखित सूचना नहीं दी गई थी। यानी ये सारे उच्च स्तर के अधिकारी ढपोरशंख ही हैं जिन्हें कुछ नहीं आता जाता! यहां तक उन्हें नहीं मालूम कि पुलिस की कार्रवाई के लिए लिखित शिकायत देना जरूरी होता है, वरना पुलिस नहीं हिलती।
यह थी मुंबई की सर्वश्रेष्ठ पुलिस जिसने बिहार से मुंबई पहुंची पुलिस को पुलिस धक्का खाने को मजबूर कर दिया। मुंबई पुलिस ने बिहार पुलिस की जैसे रैगिंग कर दी हो कि बेटा हमारे इलाके में आओगे तो धक्के मिलेंगे? मुंबई पुलिस कितनी पेशेवर है इसके प्रमाण पटना से मुंबई पहुंचे आइपी एस अफसर को भी हो जाता है जिसे जहाज़ से उतरते ही क्वारंटीन कर दिया जाता है यानि कि ऐलानिया हाउस अरेस्ट! जवाब यह मिलता है कि कोविद19 प्रोटोकॉल्स के अनुसार बाहर से आने वालों को 14 दिन तन्हाई में रहना जरूरी है। अब महाराष्ट्र की सरकार यह नहीं बता पा रही है कि कितने जहाजियों और यात्रियों को यह तन्हाई दी गई है?
साफ है कि कुर्सी पर आसीन अफसर कुछ भी कर सकते हैं, सामने वाला कोई भी ही, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है। यह बात जनता को जाननी चाहिए कि इलाके के दरोगा सिपाही से उलझने की कोशिश कितनी महंगी पड़ेगी, आपको इसका अंदाजा भी नहीं हो सकता है! पूछिए, मुंबई में तन्हाई में बंद रखे गये उस आई पी एस अफसर से जिसको उनका डी जी पी भी नहीं छुड़ा पा रहा है। सारे देश में इसकी चर्चा हो रही है लेकिन मुंबई के अफसरों के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही है।
लेकिन बिहार ने दिखा दिया कि भले ही वे पिछड़े प्रदेश से आते हों लेकिन दिमाग उनका चाचा चौधरी जैसा है। बिहार के डीजीपी गुप्तेश्वर पाण्डे ने महाराष्ट्र की प्रोफेशनल पुलिस की जम कर जग हंसाई करा ही दी और साथ में पटना में एफआईआर दर्ज करा के उसकी सीबीआई जांच तक करा दी। महाराष्ट्र पुलिस लगातार कहती रह गई की यह गलत है लेकिन जब बिहार के आई पी एस अफसर को आपने डंके की चोट पर बंधक बना लिया था तो क्या आपने सोचा था कि बिहार पुलिस हाथ में चूड़ी पहनकर बैठी रहेगी?
बहरहाल, पुलिस पर इल्ज़ाम लगाने से पहले सोचना चाहिए कि पुलिस खुद अपने कितने झंझावातों और विरोधाभासों से गुजरती रहती है और ऐसे में नियमों के तहत आम आदमी की मदद कर पाना, उसके लिए कितना दुरूह कार्य है!
“कौन चाहता है पुलिस में बदलाव?”: स्नेह मधुर
इस महीने की सिर्फ चार घटनाएं देश की पुलिस के आजादी के बाद से “प्रशिक्षित और प्रोफेशनल” चरित्र का बखान करने के लिए काफी हैं। इनमें से तीन घटनाएं कानपुर की हैं। विकास दुबे द्वारा आठ पुलिसकर्मियों की हत्या, विकास दुबे का पुलिस मुठभेड़ में मारा जाना, कानपुर में एक युवक का अपहरण होने के बाद पुलिस के निर्देश पर ही तीस लाख रुपए की फिरौती देने के बाद मुकर जाना और फिर उसकी हत्या हो जाना तथा गाजियाबाद में पत्रकार की सरे आम हत्या होना। इन सारी घटनाओं के लिए मैं किसी को भी जिम्मेदार ठहराना नहीं चाहता क्योंकि इस तरह की अनेक घटनाएं देश के हर इलाके में पहले भी होती रही हैं, आज भी बदस्तूर जारी हैं। जनता इन्हें जानती और भोगती है लेकिन उच्च पदों पर आसीन आई पी एस अफसरों के जनता को दुलराने व बहलाने और भविष्य में ऐसा नहीं होगा, कोई बख्शा नहीं जाएगा जैसे अखबारों में छपे बयान और बाइट्स लोगों को लगातार भ्रमित भी करते रहते हैं। असल में पुलिस में जिसे फोर्स कहा जाता है, वह फोर्स मदमस्त हाथी की तरह से बुरी तरह से बेकाबू हो चुकी है और उसे नियंत्रित करने वाले महावत रूपी आई पी एस अफसर सिर्फ अपनी मालदार पोस्टिंग के फेर में ही पड़े रहते हैं क्योंकि वे खुद नहीं जानते हैं कि इस हाथी का उन्हें करना क्या है? उन्हें तो बस नौकरी के दौरान लगतार हाथी बदलते ही रहना है।
अब समय आ गया है यह तय करने का, कि क्या पुलिस में सुपरवाइजर की कोई भूमिका होती है? अगर पुलिस में हाथियों को हांकने वालों की कोई ज़िम्मेदारी होती तो कानपुर के सारे बड़े पुलिस अफसर कभी के बर्खास्त कर दिए गए होते। यह बात दूसरी है कि पुलिस की अक्षमता और कमीनगी की पोल खुल जाने के बाद ए एस पी और नीचे के कुछ लोग जरूर निलंबित किए गए हैं लेकिन एस एस पी, डी आई जी और आई जी जैसे अफसरों पर सरकार की गाज़ न गिरना बताता है कि इन जैसे अफसरों से पूरा महकमा भरा पड़ा है, किस-किसको बदलेगें? यह सभी मानते हैं ट्रांसफर को गाज गिरना नहीं कहा जाएगा।
उत्तर प्रदेश में डी जी पी रहे ओ पी सिंह ने एक बार मुझसे कहा था कि 80 प्रतिशत से अधिक बड़े पुलिस अफसर एक प्रतिशत भी काम नहीं करते और मेरा वश चलेगा तो उनमें से दस प्रतिशत को तो मैं बर्खास्त करा ही दूंगा। हालांकि जो भी मजबूरी रही है, ओ पी सिंह अपनी इच्छा पूरी नहीं कर सके लेकिन उनके जैसे अनेक अफसर समय-समय पर अपने कैडर को लेकर निराशा व्यक्त करते देखे जाते हैं। अफसर लोग साफ-साफ कहते हैं कि पुलिस में नीचे से लेकर ऊपर तक जो नई पौध आयी है, एक तो वह विधिवत प्रशिक्षित नहीं है और दूसरे उनके भीतर सिर्फ कमाई करने का ही जज़्बा है और इसके लिए वे हर तिकड़म करने को तैयार हैं।
सवाल यह नहीं है कि पुलिस को खराब क्यों कहा जाता है? पुलिस तो हमेशा से सरकार के हाथ का डंडा रही है। हां, कभी-कभी ताकतवर के हाथ का भी डंडा बन जाती है। ताकतवर तो वहीं होता है जिसको सरकार का संरक्षण प्राप्त होता है। ऐसे में अगर पुलिस दबंगों के हाथ की कठपुतली बन जाती है तो उसमें उसका क्या दोष? यह तो उसकी विवशता है!
अब सवाल यह उठता है कि क्या इस समय पुलिस ज्यादा बेलगाम हो गई है या ज्यादा काहिल हो गई है, किसी की नहीं सुनती है? पुलिस पर दोनों तरह के आरोप लगते हैं: काम न करे तो काहिल और काम करे तो बेलगाम! जहां तक भ्रष्टाचार की बात है, व तो हर विभाग में है। अन्य विभागों में रजामंदी से और मिल-जुल कर लूट मचाई जाती है जिसका जनता से कोई लेना-देना नहीं होता, जबकि पुलिस का भ्रष्टाचार और अत्याचार सीधे जनता से और पीड़ित व्यक्ति से जुड़ा होता है। पुलिस का भ्रष्टाचार भय जनित होता है जो टीस पैदा करता है। पुलिस की नालायकी और कमीनगी सड़क पर दिखाई देती है जबकि अन्य विभागों के ये सब गुण अदृश्य ही रह जाते हैं। इसलिए पुलिस फोर्स अन्य नौकरियों से अलग है, लोगों की अपेक्षाएं भी पुलिस फोर्स से ज्यादा है। सबसे अधिक सुविधाएं पुलिस के अफसरों को मिलती हैं लेकिन उनका निलंबन और बर्खास्तगी फोर्स की तुलना में शून्य के बराबर है। फलतः फोर्स का गुस्सा जनता पर ही फूटता है।
कानपुर में अपहरण के बाद हत्या के मामले में महीने भर तक जिस तरह पुलिस ने लापरवाही बरती और उनके अफसरों ने जिस तरह से घटनाक्रम और पुलिस की तफ्तीश का पर्यवेक्षण नहीं किया, उससे इतना बड़ा नुकसान हुआ, एक व्यक्ति संजीत यादव को अपनी जान गंवानी पड़ी। आश्चर्य की बात यह है कि इस साइबर युग में जब कोई मोबाइल इस्तेमाल करता है तो उसकी लोकेशन पता लगा लेना पुलिस के लिए बहुत ही आसान काम है लेकिन संजीत यादव के अपहरण के बाद अपहरणकर्ताओं ने 17 बार मोबाइल का इस्तेमाल किया और विकास दुबे ने भी भागने के बाद कई बार मोबाइल का इस्तेमाल किया, लेकिन पुलिस के हाथ खाली के खाली ही रहे। अब पुलिस की यह सफाई कि लोकेशन नहीं मिल पाती हर बार, एक तरह से उस दरोगा या सी ओ के कार्य में शिथिलता पर पर्दा डालना ही होगा।
विकास दुबे एनकाउंटर ने पूरी दुनिया में तो नहीं लेकिन मीडिया और राजनैतिक दलों के बीच एक ऐसा झंझावात पैदा कर दिया है जिससे ऐसा लगता है मानवता के इतिहास में कोई निर्दोष पुलिस के हाथों और पहली बार मारा गया है। विकास के मारे जाने के ठीक एक दिन पहले उसका अवयस्क साथी भी ठीक इसी ढंग से मारा गया था तो उसके लिए न तो उस समय और न ही आज तक कोई खास शोर मचाया गया है। सारा शोर विकास के मारे जाने को लेकर है क्योंकि वह धनाढ्य था और राजनीतिक रसूख वाला था जिससे टी आर पी बढ़ती है, जो प्रतिस्पर्धा के इस युग में आज की सबसे बड़ी दरकार है।
कई साल पहले जब दिल्ली में एक लड़की के साथ बस में वीभत्स तरीके से दुराचार करने के बाद उसे फेंक दिया गया था तो भी मीडिया ने पूरे देश में भूचाल ला दिया था। हालांकि इस तरह की वह पहली घटना नहीं थी और न ही बाद में इस तरह की घटनाओं में कमी आई है लेकिन तूफान ऐसा मचा था कि यह पहली और आखिरी घटना थी। हाहाकार मचाने वाले समूह के एक जांबाज़ संपादक से मैंने यह पूछा था कि अगर जौनपुर, उरई, अतर्रा, सागर, दिल्ली या सिरसा में इस तरह की घटना की जानकारी मिलेगी तो आप किस खबर को प्रमुखता के साथ प्रथम पृष्ठ पर छापेगें तो उनका जवाब था कि दिल्ली की घटना को। अगर सागर में किसी मंत्री की बेटी अगवा कर ली जाती है और उसी दिन दिल्ली में एक महरिन की लड़की भी अगवा की जाती है तो फिर किसको प्रथम पृष्ठ पर स्थान देगें? उनके जवाब था सागर की घटना को। स्पष्ट है कि मीडिया सिर्फ ग्लैमर तलाशता है।
पुलिस के हाथों विकास की मौत के बाद यह भी चर्चा उठी थी कि ऐसे हालात में पुलिस का मनोबल बढ़ाने की जरूरत है। खासकर डी जी रहे सूर्य कुमार शुक्ला चीख-चीख कर कह रहे थे कि विकास की मौत के बाद पुलिस का मनोबल बढ़ाने की बहुत जरूरत है। किस लिए? ताकि वे अपनी मनमानी कर सकें? उनका मनोबल गिराता कौन है? उन्हीं के ही तो अफसर जो अपनी मौज के लिए अपने अधीनस्थों से गलत-सही काम कराते हैं और फिर उनको वेदी पर चढ़ा देते हैं। अगर जिले की पुलिस का मनोबल गिरता है तो क्यों नहीं उस जनपद के कप्तान को ही बर्खास्त कर दिया जाए? कप्तान की उपयोगिता ही क्या है? इतने डी आई जी और आईजी किसलिए बनाए गए हैं? सिर्फ वसूली के लिए?
पुलिस अफसरों की कमाई को कौन नहीं जानता? कानपुर में आठ पुलिस वालों के मारे जाने के बाद कितने अफसरों पर गाज़ गिरी है? एक भी नहीं। और उसी कानपुर की पुलिस एक अपहृत युवक संजीत यादव को ढूंढ़ पाने की जगह तीस लाख रुपयों से भरा सूटकेस पुल से फेंकवाती है। अपहृत युवक जिंदा वापस नहीं मिला जबकि अपहरणकर्ता मोबाइल का बेधड़क इस्तेमाल करते रहे। पुलिस की पोल खुल जाने पर कानपुर के एस एस पी किसी असंलिप्त व्यक्ति की तरह जवाब दे रहे थे कि मामले की जांच की जाएगी।
ऊपर के सारे अधिकारी मौन हैं। क्यों? क्योंकि ये सब खाकी वर्दी धारी जरूर हैं लेकिन भीतर से गैर पेशेवर हैं। उनकी नीयत सिर्फ पैसे कमाने की ही है। पहले कहा जाता था कि सिस्टम नीचे वालों को भ्रष्ट बना देता है। ऊपर से जब पैसे की मांग आती है तो नीचे वालों को लूटना पड़ता है। इसमें सच्चाई भी है लेकिन इस समय पुलिस मुखिया के पद पर बैठे हितेश अवस्थी तो पाई-पाई के ईमानदार है और फिर भी जिलों में लोग वसूली में लगे हैं और मनोबल बढ़ाए जाने की मांग कर रहे हैं! क्या ईमानदार मुखिया नाकारा होता है? उसे मुखिया बनाया जाना क्या सरकार की ब्रांडिंग भर होती है? यानी उसकी कुछ नहीं चलती? वरना क्या मजबूरी थी कि आठ पुलिस वालों के मारे जाने और अपहरणकर्ताओं तक सूटकेस पंहुचाने वाली कानपुर के एक भी आला अफसरों पर डी जी पी का कहर नहीं बरपा है?
पहला सवाल यह है कि विकास को किसने बनाया? राजनीतिज्ञों का संरक्षण तो होता ही है लेकिन बनाती तो पुलिस ही है। बीहड़ों में जो गैंग घूमते रहे हैं, वे भी तो पुलिस की ही देन हैं। देश भर में इस तरह के सैकड़ों विकास अभी भी मौजूद हैं। कौन नहीं जानता कि पुलिस में पोस्टिंग की सारी लड़ाई लूट के माल के लिए ही होती है। मैंने अपनी ज़िन्दगी में मेहनत करके पुलिस को कभी केस वर्कआउट करते नहीं देखा। जो अपने आप झोली में गिर गया, उसी को गुड वर्क बना लिया। असली मुठभेड़ ही तो कानपुर जैसा हाल होता है।
कोई यह सवाल नहीं उठा रहा है कि रात में पुलिस दबिश देने क्यों गई थी? क्या मजबूरी थीं? किसने फोन करके विकास को पकड़ने का आदेश दिया था? फिर पूरी तैयारी के साथ पुलिस क्यों नहीं गईं? बुलेट प्रूफ जैकेट क्यों नहीं पहने थे? हाथ में लाइट पिस्टल क्यों नहीं थी? हेलमेट क्यों नहीं लगाए थे? ये चीजें थाने में पड़ी सड़ती रहती हैं लेकिन पुलिस जब दुर्दांत अपराधी की तलाश में जाती है तो हाथ हिलाते हुए जाती है। यह सोचकर की कोई न कोई पकड़ कर दे देगा और बाद में डील कर लेगें! यही पुलिस कि मानसिकता है। अपने से बड़ा मिला तो उसकी जूती पर अपना सिर और अगर लावारिस मिल गया तो पूरे विभाग की जूतियां उसके सिर पर! खतरा तो पुलिस के शब्दकोश में होता ही नहीं है। खतरा लोगों को पुलिस से होता है, ऐसी ही धारणा सदियों से बनी हुई है।
मैंने जब क्राइम रिपोर्टिंग शुरू की थी, चार दशक पूर्व तो मुझे दो नई चीजें मालूम हुईं थीं कि पुलिस और पत्रकारिता का चोली- दामन का साथ होता है। यानी मीडिया का काम पुलिस की इज्जत को ढंक के रखना होता है। मुझे बाद में समझ में आया कि पुलिस की कोई इज्जत नहीं होती, सिर्फ इकबाल होता है और मीडिया का उससे संबंध चोली दामन का नहीं बल्कि गटर और मेनहोल के ढक्कन जैसा होता है। ढक्कन हटा नहीं कि गटर की सड़ांध बाहर आ जाएगी।
इसी सड़ांध ने गाजियाबाद के उस पत्रकार की सरे आम जान ले ली। लोग पत्रकारों से भिड़ने से इसलिए बचते हैं कि वे अफसरों के संपर्क में रहते हैं और बात ऊपर तक जा सकती है। लेकिन जो लोग समाज में तरह-तरह के जरायम करते रहते हैं, उनके असली मां-बाप तो पुलिस वाले ही होते हैं, वे ही पुलिस के मुखबिर भी होते हैं। इसलिए पुलिस की पहली प्राथमिकता तो अपने मुखबिरों की सुरक्षा ही होती है। इसी वजह से पुलिस पत्रकार को नहीं बचा पाई।
जो लोग चैनलों पर पुलिस के खत्म हो रहे इकबाल की बात करते हैं, वे यह नहीं बता पायेगें की यह इकबाल बुलंद होता कैसे है? असल में जब निर्दोष लोगों को पुलिस सरे आम चौराहे पर पीटती है, उनके बाल मुंडवाती है, थर्ड डिग्री करती है, अनजाने में या मूर्खता में किसी दबंग से भिड़ जाती है तो जो कुछ मोहल्ले में बुलंद होता है, वही पुलिस का इकबाल होता है। पुलिस का यह रवैया देखकर बदमाश पुलिस से दोस्ती के बहाने ढूंढ़ते हैं, उनका बेगार करते हैं और रेट बढ़ाते हैं, वही इकबाल होता है। पुलिस के पास कोई अलादीन का चिराग नहीं होता जिससे वह अपराधियों को ढूंढ़ लाए। यही जरायम करने वाले उसके सेवक ही उनकी चिलम फूंकते रहते हैं।
मेरे एक मित्र जो एक जिले में एस एस पी थे, वे हर रोज एक बदमाश का पैर तोड़वाते रहते थे। जब कोई विधायक फोन करता कि उसके एक आदमी को पुलिस उठा ले गई है तो एस एस पी तुरंत थाने में वायरलेस करते कि विधायक जी के पहुंचने से पहले टांग टूट जानी चाहिए। अपने कार्यकाल में उन्होंने लगभग दो सौ लोगों के पैर तोड़े थे। वह कहते थे कि यह मेरी मजबूरी है। किसी दफा में इन्हें जेल भेज दिया जाएगा तो दो-तीन महीने में जमानत कराके वापस आ जाएंगे। ऐसे तो पैर ठीक होने में साल-छह महीने लग जाएंगे और पुलिस के डर से जमानत भी नहीं कराएगें, तब तक मेरा कार्यकाल शांति से पूरा हो जाएगा। पुलिस का इकबाल भी बुलंद हो जाएगा।
मैंने एक डी जी पी से एक इंस्पेक्टर के ट्रांसफर की सिफारिश की। डीजीपी ने उसे नियमानुसार ड्यूटी करने का आदेश दिया। बाद में उसी इंस्पेक्टर ने एक विधायक को पैसे देकर अपना ट्रांसफर करवा लिया। अब वह अपने विधायक का चेला हो गया। उन्हीं डी जी पी ने एक दिन मुझसे अपनी फोर्स की शिकायत करते हुए कहा कि ये लोग अपने अफसरों की नहीं सुनते बल्कि विधायकों की ज्यादा सुनते हैं, आखिर क्यों? मैंने कहा कि आप उनके है कौन? आप उनकी परेशानियों की सुनने की जगह रौब झाड़ते हैं, नसीहत देते हैं और खुद तो समझौता करते फिरते हैं। क्या आप इस बात का खंडन कर सकने की कूवत रखते हैं कि आपके अधीनस्थ फोर्स से पैसे नहीं लेते? डी जी पी कार्यालय तक में खुले आम पैसे किए जाते हैं कि नहीं? उन्होंने माना कि यही सच्चाई है।
अगर कानपुर की घटना को नमूने के रूप में किया जाए तो क्या सिर्फ वह थानेदार ही ज़िम्मेदार था जिसने विकास को दबिश की सूचना दे दी थी? क्या आमतौर पर ऐसा होता नहीं है? क्या पुलिस वाले नहीं जानते थे कि कहीं से भी मुखबिरी हो सकती है? क्या वे प्रोफेशनली तैयार होकर गए थे? नहीं, तो फिर कानपुर के सारे अफसर इस घटना के लिए ज़िम्मेदार नहीं माने जायेगें?
विकास दुबे से किसी को भी सहानुभूति नहीं है। उसकी वैधानिक या अवैधानिक मौत से भी किसी फर्क नहीं पड़ता। आलोचक कहते हैं कि इससे पुलिस का मन बढ़ जाएगा और पैसे लेकर हत्याएं करने लगेगी। मैंने कहा कि क्या अभी नहीं होती? उन्होंने कहा कि जंगल राज हो जाएगा। मैंने पूछा कि क्या अभी नहीं है? क्या निर्दोष लोग नहीं मारे जा रहे हैं, किसकी सुनी जा रही है? अगर आप अफसर नहीं हैं, जनप्रतिनिधि नहीं है या पत्रकार नहीं हैं तो कौन सिपाही या थानेदार आप की तरफ मुंह उठाकर देखेगा? वैसे इन तीनों श्रेणी के लोगों की भी आमतौर पर नहीं सुनी जाती है। हां, दलाल हों तो सुने जाने की गारंटी है। मैंने बताया कि मैं तो कई डीजीपी को जानता हूं लेकिन फिर भी किसी मदद क्यों नहीं कर पाता क्योंकि डीजीपी की ही कोई रुचि नहीं होती किसी की मदद करने की तो दरोगा ही क्यों रुचि ले? इन बड़े अफसरों ने ही अपने नीचे के अफसरों को अपना चाकर और जनता का दुश्मन बना रखा है।
पुलिस में लोग कहते हैं कि पुलिस में भीड़ बढ़ने के कारण नीचे का स्टाफ अप्रशिक्षित रह गया है। बहुत से लोग पैसे देकर नौकरी में आए तो वे कमाने की जल्दी में दिखते हैं। ऐसे लोगों से में पूछता हूं कि उस आई पी एस के प्रशिक्षण के बारे में क्या कहेंगे जो कानपुर में बताती है कि सूटकेस में तीस लाख रुपए नहीं थे, कुछ पुराने कपड़े थे। क्या कोई अपने बेटे को बचाने के लिए मांगी गई फिरौती देने की जगह कपड़े भेजेगा ताकि उसकी हत्या कर दी जाए? आई पी एस अफसर बताती हैं कि सूटकेस फेंकने के बाद पुलिस सूटकेस उठाने वालों को इसलिए नहीं पकड़ पाई क्योंकि वह स्थान डेढ़ किलोमीटर दूर था। तो यही थी पुलिस की रणनीति? उस अफसर को पुल से नीचे जाने का रास्ता ही नहीं दिखता। असल में इन अफसरों की दिक्कत यह है कि उन्हें नीचे से जो पढ़ा दिया जाता है, उसके आगे उनका दिमाग है काम नहीं करता है। फलतः गलतियां होंगी ही।
यूपी के पूर्व डी जी सूर्य कुमार शुक्ला कहते हैं कि ऐसे समय में पुलिस का मनोबल बढ़ाए जाने की कोशिश की जानी चाहिए क्योंकि आठ पुलिस वाले मारे गए हैं। तब तो जेल में बंद थानेदार को भी रिहा कर देना चाहिए? ऐसे पुलिसवालों की तलाश नहीं की जानी चाहिए जो अपराधियों के मुखबिर बन कर जरायम कराते हैं? असल में पूरी नौकरी ऐश करने वाले ये अफसर अपने अधीनस्थों की परेशानियों के समाधान में ज़रा भी रुचि नहीं लेते हैं जिससे ये स्थितियां उत्पन्न हो गई है। मीडिया भी ज़मीनी हकीकत से वाकिफ नहीं है जिसकी वजह से वह उन चर्चाओं में डूब जाती है कि अगर विकास ज़िंदा होता तो अपराधियों और राजनीतिज्ञों के गठजोड़ का पर्दाफाश हो जाता। इस नापाक गठजोड़ के बारे में कौन नहीं जानता या कौन जानने को इच्छुक है? यह जानने की ज्यादा जरूरत है कि पुलिस अपना काम पेशेवर ढंग से क्यों नहीं कर पा रही है? क्या ईमानदार डीजीपी और मुख्यमंत्री मिलकर बेईमानों का सूपड़ा साफ करने में अक्षम हैं? यही सही वक्त है सही और कड़े फैसले लेने का जिसकी गूंज देर तक दूर-दूर तक सुनाई पड़ती रहनी चाहिए वरना इस फोर्स को प्रोफेशनल बनाने के लिए सभी को नया जन्म लेना पड़ेगा।
वैसे पूरा घटनाक्रम पुलिस के इर्द-गिर्द ही केन्द्रित है लेकिन कुछ पुलिस अधिकारी अपने बचाव में राजनीतिज्ञों को इन स्थितियों के लिए ज़िम्मेदार मानकर अपना ठीकरा उनके सिर फोड़ने की कोशिश करते दिखते हैं, लेकिन वह यह नहीं बता पाते कि आखिर वे नेताओं की बात मानने के लिए मजबूत क्यों ही जाते हैं? अपना निहित स्वार्थ वे छिपा जाते हैं। मुलायम सिंह ने इन अफसरों के ही एक कार्यक्रम में एक बार कहा भी था कि मलाईदार पोस्टिंग के लिए क्यों ये अफसर हमारे तलवे चाटते हैं?
उत्तर प्रदेश के प्रथम आईजी (उस समय डी जी पी नहीं होते थे) श्री लाहिड़ी जी ने मुझे अपना एक अनुभव बताता था कि जब गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी ने एक जिले के एस पी के लिए अपनी एक सिफारिश की थी जिसे उन्होंने मानने से इंकार कर दिया था। लाहिड़ी जी ने गृह मंत्री से कहा था कि यह आपका विषय नहीं है। शास्त्री जी ने दो बार उनसे सिफारिश की और पूछा कि आखिर मैं उस एस पी को क्या जवाब दूं? इस पर लाहिड़ी जी ने कहा था कि मैं उत्तर प्रदेश के दौरे पर निकल जाता हूं और आप उससे कह दीजिए कि संपर्क नहीं हो पा रहा है।
अगर आज ऐसी कोई सिफारिश आती तो कोई भी डी जी पी न सिर्फ उस सिफारिश को सर माथे पर लगाता बल्कि उस एस पी की ही जू-हुजूरी में लग जाता। मैंने अपनी आंखों से देखा है कि मुख्यमंत्री के निर्देश पर नियुक्तियां होती हैं, चाहे वह कितना ही भ्रष्ट क्यों न हो। डीजीपी गर्व से इस बात को बताते भी हैं इस आशय के साथ कि उस जिले में क्राइम बढ़ रहा है तो मैं क्या करूं, वह तो सीएम से जुड़ा है। यानी प्रदेश को सही सलामत चलाने के लिए कोई डीजीपी नहीं बनता है बल्कि प्रभावशाली राजनीतिज्ञों का चाटुकार बनने के लिए! आखिर क्यों?
मैंने अपनी आंखों से पुलिस मुखिया को निकृष्ट राजनीतिज्ञों की जी-हुजूरी करते देखा है ताकि उनकी नौकरी चलती रहे। किसी एसएसपी या डीजीपी को अपने ज़मीर के लिए अपनी कुर्सी छोड़ते नहीं देखा। लेकिन इन्हीं लोगों को सार्वजनिक मंचों पर अपने अधीनस्थों को नैतिकता का पाठ पढ़ाते देखा जा सकता है।
मैंने खुद देखा है तीस चालीस बरस पहले जब पुलिस वाले अपने नए ए एस पी को खुश करने के लिए चुपके से उनके ड्रॉअर में सिगरेट के पैकेट रख देते थे, चाय नाश्ता मंगा देते थे। आज तो बाकायदा महीना मांगा जाता है। पहले भ्रष्ट सिस्टम में शामिल होने में समय लगता था लेकिन आज ए एस पी पहले दिन से ही शुरू हो जाते हैं। जब कुएं में भांग पड़ जाए तो कोई क्या कर सकता है?
विकास के एनकाऊंटर के डिफेंस में दो पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह और एके जैन मैदान में उतरे हैं लेकिन छह महीने पहले डीजीपी रहे ओपी सिंह खामोश हैं। लेकिन अपनी नौकरी के दौरान उन्होंने कई बार मुझसे पुलिस की कार्यप्रणाली को लेकर चिंता व्यक्त की थी। उन्होंने कहा था कि जिसने रिश्वत देकर नौकरी हासिल की है, वह तो लूट मचाएगा ही। वह कहते थे कि इतनी बड़ी फोर्स को अंकुश में रखने के लिए लंबे समय के लिए अच्छे नेतृत्व की जरूरत रहेगी। हालांकि ओपी सिंह के मुख्यमंत्री से निकट के संबंध थे लेकिन उन्होंने इसका लाभ लेकर सेवा विस्तार हासिल करने की कोई कोशिश नहीं की थी जिसका जिक्र मुख्यमंत्री भी कर चुके हैं और जो एक मिसाल बन गई है। ओपी सिंह ने मुख्यमंत्री की निकटता का लाभ लेकर डंके कि चोट पर नौकरी की और नई इबारत लिखने की कोशिश की। जाते जाते पुलिस कमिश्नरेट प्रणाली लागू कर उन्होंने पुलिस विभाग की जय जयकार भी करा दी जिसके लिए पूरा पुलिस विभाग उनके लिए अहसानमंद ही गया है। एक तरह से उन्होंने इतिहास रचा है लेकिन इसकी सार्थकता तभी है जब पुलिस कमिश्नर के पदों पर कोई ईमानदार बैठे और ओपी सिंह की डी गई मशाल को रिले रेस की तरह आगे बढ़ाए। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि अपनी नौकरी की शुरुवात में ओपी सिंह ने अपने एक इंस्पेक्टर के खिलाफ खुद एफआईआर लिखवाई थी जिसने उन्हें रिश्वत के रूप में बीस हजार रुपए की रिश्वत एक लिफाफे में भरकर दी थी। बाद में उस इंस्पेक्टर ने पुलिस की नौकरी ही छोड़ दी थी।
मुख्यमंत्री ने वरीयता के आधार पर हितेश अवस्थी जैसे पाई-पाई के ईमानदार अफसर को डीजीपी बनाकर भी एक मिसाल कायम की है। देखना है कि इन दो ईमानदार शिखर पुरुषों की जोड़ी पुलिस विभाग में कोई बदलाव ला सकने में समर्थ होती है कि नहीं? या अनुभवहीनता इन्हें धराशाई कर देगी क्योंकि इनका मुकाबला घड़ियालों से नहीं बल्कि खूंखार भेड़ियों से है जिन्हें देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त है कि न दिन में, न रात में, न इंसान, न जानवर, न किसी शस्त्र से इनका विनाश किया जा सकता है। सवाल यह है कि कौन लेगा नरसिंह का अवतार?
स्नेह मधुर
वैसे तो अपने देश में कई भाषाएं हैं, भाषा के आधार पर ही राज्य बने हैं और हर सौ कोस पर बोली तक बदल जाती है। लेकिन इसके बावजूद विविध जातियों, धर्मों एवं भाषाओं वाले इस देश को एकता के सूत्र में पिरोने का काम हिन्दी ही करती है। अपने देश में प्रतिवर्ष 14 सितम्बर का दिन हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। 14 सितम्बर 1949 के दिन संविधान में हिन्दी को राजभाषा घोषित करने वाली धारा स्वीकृत की गयी थी। इसलिए राजभाषा होने के देश की राष्ट्रभाषा होने का गौरव भी प्राप्त है।
विश्व की एक प्राचीन, समृद्ध, सरल एवं सुगम भाषा होने के साथ ही हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है। इस राष्ट्र भाषा को समृद्ध बनाना, इसे संरक्षित करना और इसका विस्तार करना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है। इसी कर्तव्य के निर्वाह हेतु 14 सितम्बर का दिन ‘हिन्दी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
स्वतंत्रता के बाद 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिंदी (खड़ी बोली) ही भारत की राजभाषा होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिंदी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के अनुरोध पर 1953 से संपूर्ण भारत में 14 सितंबर को प्रतिवर्ष ‘हिंदी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
इस दिन विभिन्न शासकीय, अशासकीय कार्यालयों, शिक्षा संस्थाओं आदि में विविध गोष्ठियों, सम्मेलनों, प्रतियोगिताओं तथा अन्य कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। कहीं-कहीं ‘हिंदी पखवाड़ा’ तथा ‘राजभाषा सप्ताह’ भी मनाए जाते हैं।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में 13 सितंबर, 1949 के दिन बहस में भाग लेते हुए कहा था, “किसी विदेशी भाषा से कोई राष्ट्र महान नहीं हो सकता। कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती। भारत के हित में, भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, ऐसा राष्ट्र बनाने के हित में जो अपनी आत्मा को पहचाने, जिसे आत्मविश्वास हो, जो संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिंदी को अपनाना चाहिए।”
यह बहस 12 सितंबर 1949 को शाम चार बजे से शुरू हुई और 14 सितंबर, 1949 के दिन समाप्त हुई थी। 14 सितंबर की शाम बहस के समापन के बाद भाषा संबंधी संविधान के तत्कालीन भाग 14 (क) और वर्तमान भाग 17 में हिंदी का उल्लेख है।
संविधान सभा की भाषा विषयक बहस लगभग 278 पृष्ठों में मुद्रित हुई। इसमें डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और गोपाल स्वामी आयंगार की महत्वपूर्ण भूमिका रही। बहस के बाद यह सहमति बनी कि संघ की भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। देवनागरी में लिखे जाने वाले अंकों और अंग्रेजी में लिखे जाने वाले अंकों को लेकर बहस हुई और अंतत: आयंगार-मुंशी फार्मूला भारी बहुमत से स्वीकार कर लिया गया।
स्वतंत्र भारत की राजभाषा के प्रश्न पर काफी विचार-विमर्श के बाद जो निर्णय लिया गया, वह भारतीय संविधान के अध्याय 17 के अनुच्छेद 343 (1) में इस प्रकार वर्णित है : संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय ही होगा।
राजभाषा के प्रश्न से अलग हिंदी की अपनी एक विशाल परंपरा है। साहित्य और संचार के क्षेत्र में भी हिंदी का दबदबा देखने को मिलता है। तकनीक की क्रांति ने हिंदी को बल दिया है तो इसे सीमा के बाहर भी फैलने का अवसर प्रदान किया है।
हम हर वर्ष 14 सितंबर को परंपरा के रूप में हिंदी दिवस मनाते हैं लेकिन असल में हिंदी दिवस या हिंदी पखवाड़ा मनाने वाले लोग भी हिंदी के उतने अनुरागी नहीं होते। उनके परिजन और प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चों को भी अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में अनिवार्य रूप से भेजने की कोशिश होती है। अंग्रेजी माध्यम वाले विद्यालयों में पढ़ाने का फैशन इतना बढ़ गया है कि घर में झाड़ू-बुहारू करने या सड़क की सफाई करने वाला भी अपने बच्चों को भी अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में भेजना चाहता है। हमें इस जमीनी हकीकत को स्वीकार करना चाहिए और एसी योजनाएं बनानी चाहिए जिससे वास्तव में हिंदी का उत्थान हो और हिंदी को लेकर हम किसी हीनभावना से ग्रस्त न हो जायें। अंग्रेजी के प्रति लोगों में आकर्षण को बढ़ाने के लिए तमाम पत्र-पत्रिकाएं भी हिंग्लिश को बढ़ावा देने लगी हैं। बाहरी भाषा के शब्दों को हिंदी में शामिल किये जाने से नहीं रोका जा सकता है लेकिन इसकी आड़ में हिंदी को समाप्त करने की साजिश करना भी गलत है।
नयी पीढ़ी में अंग्रेजी भाषा के प्रयोग के फैशन के सामने हिंदी केवल उन लोगों की ही भाषा बन गयी है जिनको या तो अंग्रेज़ी आती नहीं या फिर कुछ पढ़े-लिखे लोग जिनको हिंदी से कुछ ज़्यादा ही मोह है|हिंदी गरीबों की भाषा बनती जा रही है जो निश्चित रूप से चिंतनीय है। सरकार भी हिंदी भाषा को सम्मान देने के लिए आज के दिन राजभाषा नीति का कार्यान्वयन, व्यवसायिक क्षेत्र के विषयों में मौलिक हिंदी पुस्तक लेखन, विज्ञान और प्रौद्योगिकी सहित समकालीन रुचि से जुड़े वैज्ञानिक और तकनीकी विषयों पर हिंदी पुस्तक लेखन जैसे विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्ट पुरस्कार प्रदान करने जैसी औपचारिकता प्रतिवर्ष अपनी जिम्मेदारी के तौर पर पूरी करती है लेकिन संसद के भीतर की अधिकतम कार्रवाई, अभिभाषण और बहस मुख्यतः अंग्रेजी भाषा में ही होते है| इसके इतर देश की नौकरशाही भी हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी का प्रयोग करना बेहतर समझती है|
स्नेह मधुर
हिन्दी दिवस: “प्लीज मम्मी, डोंट गो. . . . !”: स्नेह मधुर
स्नेह मधुर
अपने एक मित्र के साथ उनके एक ब्रिगेडियर दोस्त के घर जाने का सौभाग्य मिला। ब्रिगेडियर दोस्त की नियुक्ति कहीं बाहर है और उनकी पत्नी अपने बच्चों के साथ इसी शहर में रहती हैं।
जब उनके घर हम पंहुचे तो ब्रिगेडियर की पत्नी कहीं जाने की जल्दी में थीं और तैयार हो रही थीं। बाल संवारना, पफ करना, नौकर को हिदायत देना, उतरे हुए कपड़े इधर से उधर फेंकना, तीन साल की बच्ची पिंकी को नाश्ता वक्त पर करने का निर्देश देना, आठ साल के बच्चे सुदर्शन के स्कूल से लौटने पर उसे क्या नाश्ता देना है इसके बारे में नौकर को समझाना, ढेर सारी कापी-किताबों को समेटना, टामी को गोद में लेकर दुलराना, हमारा हालचाल पूछना और कुछ याद करते हुए कोल्ड ड्रिंक्स लाने के लिए नौकर को फिर पुकारना। बिजली के बिल, कार में आयी खराबी और टुल्लू जल जाने से लेकर हिंदी के एक समाचार पत्र के संपादक के साथ हुई भेंट का जिक्र करना और खुशवंत सिंह के स्तंभ ‘सरदार इन बल्ब‘ की प्रशंसा करना आदि सब कुछ एकसाथ चल रहा था। ऐसा लग रहा था कि घर में फुल वाल्यूम में टेलीविजन चल रहा है, रेडियो बज रहा है, टेपरिकार्डर भी चल रहा है, कूलर के साथ एयर कंडीशनर की आवाज मिल गयी है और छत पर लटके पंखे भी वाल बेयरिंग कट जाने के कारण जोर से घड़घड़ा रहे हैं। इतनी ढेर सारी आवाजों के बीच ऐसा लगता था कि जैसे घर के सारे नल भी खुले हों और बाल्टियों में पानी गिरने की आवाज के साथ टेलीफोन पर जोर-जोर से बात करने की आवाज भी उसी में घुसी जा रही हो। हे भगवान! रसोई में आमलेट जलने की गंध मिलना भर बाकी रह गया था।
शटल काक की तरह एक कमरे से दूसरे कमरे में नाचती हुई अन्तत: जब वह कंधे पर पर्स और हाथों में कापियों का ढेर उठाये और पैर में सैंडिल डालने की बार-बार कोशिश करती हुई सामने स्थिर हो गयीं तो लगा जैसे भूकंप की तबाही के बाद की शान्ति हो। मित्र ने पूछा, ‘भाभी जी कहीं जा रही हैं क्या? कहीं यूनिवर्सिटी में रिसर्च तो शुरू नहीं कर दिया है ?‘
‘नहीं यार, आय एम नाट सो लकी। मन तो बहौत करता है, बट यू नो, देयर इज नो टाइम । घर की रिसपांसिबिलिटी से फ्री हों तो कुछ करें भी। सारी लाइफ स्पवायल हो गयी। बस एक स्कूल ज्वाइन किया है, वहीं पढ़ाने जा रही हूं‘।‘
‘स्कूल में पढ़ाना तो फुलटाइम जाब है, कैसे मैनेज करती हैं? इंटर सेक्शन में हैं कि हाई स्कूल में?‘
‘अरे मजाक मत करिये, कहां हाई स्कूल और कहां इंटरमाडिएट? पास में बच्चों का एक स्कूल है-नर्सरी, उसी में टाइम पास करती हूं।‘
‘नर्सरी स्कूल में पढ़ाती हैं आप? कितने पैसे देते होंगे? सात-आठ सौ रुपये बस न, या कुछ और?‘
‘नहीं यार, इतने भी नहीं। बट यू नो, मनी इज नो कंसीडरेशन फार मी। हसबैंड को ही फाइव फीगर मिल जाता है। पैसे की भूख नहीं है। आय एम नाट रनिंग आफटर मनी। आय वांट टु वर्क फार माय सैटिसफैक्शन, फार सम काज। बच्चों की हेल्प हो जाती है और मेरा टाइम भी पास हो जाता है। आखिर एक इंसान को जिस्मानी जरूरतों के अलावा अपनी मानसिक खूराक के बारे में भी तो कुछ सोचना चाहिए। अदरवाइज व्हाट इंज डिफरेंस बिटवीन अ मैन ऐंड ऐन एनीमल? स्कूल में तो अच्छा-खासा टाइम पास हो जाता है, यू नो, पढ़ाई कि पढ़ाई और आउटिंग कि आउटिंग ! घर के मोनोटोनस एंड डिप्रेसिंग एटमासफियर से कुछ देर के लिए छुट्टी मिल जाती है। घर में बैठे-बैठे बोर हो जाते हैं। सारी एजूकेशन बेकार हो गयी। यू नो, वन शुड डू समथिंग क्रि येटिव। स्कूल में दीज लोअर क्लास टीचर्स से भी इंटरैक्शन हो जाता है। दे आर वेरी क्रि येटिव एंड इमोशनल। दे मिस देअर फेमिली व्हेन दे वर्क आउटसाइड। एक्चुअली, इंसपाइट आफ फाइनेंशियल क्र ाइसेस एंड हैविंग गुड नालेज, दे डोंट वांट टु वर्कं, बट आयरनी इज दैट दे आर फोस्र्ड टु वर्क.. आय रियली इंंजवाय देयर कंपनी …. इट्स क्वाइट थ्रिलिंग फार मी टु शेयर देयर एक्सपीरियेंसेज। मेरे क्लास की और लेडीज तो दिन भर किटी पार्टीज में लगी रहती हैं ..आय हेट दीज किटी पार्टीज। बस साड़ी-गहनों की बात करो। आय एम फेडअप विद दीज थिंग्स…।‘
‘कितने दिनों से पढ़ा रही हैं?‘
‘अभी तो तीन महीने ही हुए हैं और यू नो, पूरे स्कूल के बच्चे मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि मैडम आपकी क्लास में पढ़ूंगा..। सारे बच्चे अपनी कापी मुझसे ही करेक्ट $कराते हैं। एक दिन मैनेजर से मेरा झगड़ा भी हो गया। मैंने तो कह भी दिया कि मैं काम नहीं करूंगी। बट यू नो, व्हाट हैपेंड? सारे बच्चों ने मुझे कार्ड्स लिखकर दिये ..प्लीज मैडम ,डोंट लीव अस … सो स्वीट आफ देम। आय स्टार्टेड क्राइंग..। बच्चे लव्ज मी वेरी मच। मैनेजर ने मुझे तीन-तीन क्लासेज दे रखी हैं। मैं तो काम के मारे मरी जा रही हूं। घर पर लाकर कापियां करेक्ट करनी पड़ती हैं-रात-रातभर जागकर। लाइफ हैज बिकम हेल। अदर टीर्चस तो दिन-भर में चार-पांच पीरियड पढ़ाकर चली जाती हैं, सबसे अधिक मुझे ही खटना पड़ता है …नोबडी गिव्ज देम कार्ड्स… दे आर नाट पापुलर अमंज्स चिल्ड्रेन।‘
इसी बीच पिंकी आकर मैडम की साड़ी पकडक़र खड़ी हो गयी और रह-रहकर साड़ी को अपनी तरफ खींचती जा रही थी। मैडम बात करने में इतनी मशगूल थीं कि पिंकी की रूआंसी आवाज मम्मी के कानों तक नहीं पंहुच पा रही थी। साड़ी को खींचते हुए पिंकी बस एक ही चीज रटे जा रही थी, ‘ मम्मी, प्लीज डोंट गो …मम्मी प्लीज डोंट गो मम्मी !‘
मैडम को अचानक अहसास हुआ कि पिंकी उनकी साड़ी से लिपटी खड़ी है। उन्होंने पिंकी की करुण पुकार को अनसुना करते हुए एक झाड़ लगायी, ‘पिंकी, गो टु योर बेड …आय सेड गो टु योर बेड।‘ मम्मी की घूरती आंखों को देखकर वह सहम सी गयी और बेमन से अपने कमरे की तरफ चली गयी।
‘यू नो, शी इज पिंकी, माय पुअर चाइल्ड। शी हैज गाट फीवर, परसों से चढ़ा है, 102..103 डिग्री के आस-पास ही रहता है, उतरता ही नहीं। अरे हां, याद आया, वुड यू प्लीज हेल्प मी? आय हैव रिटेन सम पोएम्स, गुड पोएम्स, आय वांट देम टु बी पब्लिश्ड इन सम पेपर, कैन यू ट्राय फार मी इन योर पेपर?‘
‘आप इंगलिश में लिखती हैं और हमारा पेपर हिंदी में निकलता है। अंग्रेजी की किसी पत्रिका में कोशिश करिये।‘
‘अरे नहीं, आय मीन यू मिसअंडरस्टुड मी …आय राइट इन हिंदी ओनली। हिंदी इज माय मदर टंग। मेरा पूरा एक्सप्रेशन हिंदी में है। आय लव टु एक्सप्रेस मायसेल्फ इन हिंदी …! आय आलसो फील फुल कांफीडेंस इन राइटिंग इन हिंदी… मेरी पोएम्स का कलेक्शन बुक फार्म में निकलने जा रहा है। उससे पहले, आय मीन, इन द मीन टाइम मैं चाहती हूं कि कुछ पोएम्स पेपर में निकल जाये तो अच्छा रहेगा …!‘
‘आपने अपने संपादक मित्र से अनुरोध नहीं किया?‘
‘आय हैव ट्रायड हिम। ही विल डेफिनेटली गिव, बट आपके पेपर में भी निकल जाये तो यू नो थोड़ा सा स्टेटस पर फर्क पड़ता है, है न।‘
‘सो तो है।‘
‘प्लीज डू ट्राय…। आपकी डाटर किस स्कूल में पढ़ती है?‘
‘ग्रीन लान नर्सरी में।‘
‘ओह कैसी रेपुटेशन है स्कूल की?‘
‘अच्छी है। क्या पिंकी का एडमिशन कराना है?‘
‘अरे नहीं, इन सडिय़ल स्कूलों में पिंकी को नहीं डालूंगी। दे आर राटेन कैसे-कैसे गंदले बच्चे आते हैं, कैसी-कैसी फूहड़ टीचर्स आती हैं पढ़ाने? घर में पकायेंगी रोटी, करेंगी झाड़ू-पोंछा और फिर होठों पर लिपिस्टिक लगाकर पंहुच जायेंगी स्कूल में । आय हेट देम !‘
‘फिर किस लिए पूछ रही हैं ग्रीन लांस के बारे में ?‘
‘बुलाया है मुझे..! एक्चुअली दे आर आफरिंग मी नाइन हंडेड रूपीज..! मैंने भी कहला दिया है कि राउंड फीगर की बात करो वन थाउजेंड। बट यू नो ? मनी इज नो कंसीडरेशन-इट डज नाट मैटर। द ओनली थिंग इज दैट कि इट्स ऐन अपार्चयूनिटी। मुझे तो तीन ही महीने हुए हैं पढ़ाना शुरू किये हुए और आय एम गेटिंज्ज आफर्स! कितने सालों से पढ़ाने वाली टीचर्स भी हैं, बट दे नेवर गाट एनी आफर फाम एनी व्हेयर। आय वांट टु अवेल दिस अपाच्र्यूनिटी। बट यू नो चिल्डे्रन विल डेफिनेटली मिस मी … आय एम वेरी इमोशनल… आय कांट हर्ट देम। प्लीज टेल मी कि मैं क्या करूं मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है कि वहाट टु डू…. प्लीज हेल्प मी ।‘
इसी बीच एक बार फिर पिंकी कमरे से बाहर निकल आयी थी लेकिन परदे की ओट में इस तरह से छिपी थी कि मम्मी की नजर उस पर न पडऩे पाये। वह लगातार रोये जा रही थी लेकिन अपनी आवाज को दबाने के लिए उसने परदे को मुंह में ठूंस लिया था। अब न तो उसकी आवाज उसकी मम्मी के कानों तक पंहुचेगी और न ही आंसू उसकी मम्मी देख पायेगीं।
(यह व्यंग्य वर्ष 1987 मेें मैंने लिखा था जो तब इलाहाबाद और लखनऊ से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र अमृत प्रभात में घूमता आईना स्त मेें प्रकाशित हुआ था)
जन्माष्टमी के दिन उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अनौपचारिक रूप से पत्रकारों से मुलाकात करके राज्य मुख्यालय पर मान्यताप्राप्त पत्रकारों को रियायती दर पर आवास देने का वायदा किया था। खुद ही पूछा था कि कितने वक्त में इस आदेश को अमली जामा पहना दिया जाये? और खुद ही कह दिया था कि 15 दिन के अंदर इसकी नीति बनाकर आधिकारिक घोषणा कर दी जायेगी। पत्रकार बड़े खुश हुए थे। हालांकि चार साल चली सरकार के रवैये और मुख्यमंत्री द्वारा कई बार अपना वायदा पूरा न करने के अनुभवों को देखते हुए जल्दी घोषणा की उम्मीद कम ही थी।
हम लोगों ने अपनी आँखों से देखा है कि चार साल पहले पीजीआई में इलाज की सुविधा के लिए मुख्मंत्री बार-बार आश्वासन देते थे लेकिन हर अगली प्रेस कांफ्रेंस में पत्रकारों के नेता हेमंत तिवारी जी जब खड़े होकर इस सवाल को उठाते थे तो मुख्यमंत्री खुद ही उनको बैठने को कहते हुए चीफ सेक्रेटरी से पूछते थे कि क्या हुआ उस वायदे का? फिर अगली डेट दे दी जाती थी और अगली प्रेस कांफ्रेंस में फिर वही नाटक दोहराया जाता । हम लोग भी समझ गए थे कि यह हेमंत तिवारी जी और अखिलेश यादव जी की आपसी केमिष्ट्री का मामला है। कई अनुभवी पत्रकार तो यह भी कहने लगे थे कि मुख्यमंत्री हेमंत तिवारी को पसंद नहीं करते हैं, इसलिए वह इस मामले में रूचि नहीं ले रहे हैं। लेकिन हेमंत तिवारी जी की लगन काम आ ही गयी और पीजीआई में इलाज का रास्ता साफ़ हो गया। लेकिन लग गए थे कई बरस।
वैसा ही कुछ फिर दोहराया जाता दिख रहा । मुख्यमंत्री के वायदे के 14 दिन पूरे होने पर कुछ पत्रकारों ने बताया कि मुख्यमंत्री ने एक हफ्ते का वक्त और मांग लिया है। कोई बात नहीं, एक हफ्ता क्या है, चार हफ्ते और भी ले लेंगे तो कोई हर्ज नहीं है। लाभ पूरे प्रदेश के पत्रकारों को तो मिलना नहीं है, सिर्फ लखनऊ के ही कुछ सौ पत्रकारों को मिलेगा। वैसे भी विज्ञापनों की बरसात करके सरकार अपनी छवि चमका ही रही है। वैसे ही, जैसे डालीबाग के टूटे-फूटे मकानों को भीतर से दुरुस्त न करके बाहर से रंग दिया जा रहा है। बाहर से देखो तो स्वर्ग, भीतर जाओ तो नरक। यहां तक कि सरकार ने आनलाइन जनसुनवाई जो शुरू की है, वह भी झूठ का पहाड़ ही निकला। शिकायतों का निस्तारण किये बिना ही फाइल क्लोज कर दी जाती है और एसएमएस आ जाता है कि आपकी समस्याओं का निवारण कर दिया गया। यह आनलाइन चारसौबीसी खुद सरकार द्वारा ही करायी जा रही है। इसलिए ऐसी परिस्थितियों में संभव है कि कुछ दिनों बाद सरकार घोषणा कर दे कि पत्रकार मकान के लिए पंजीकरण करा लें लेकिन मिलेगा अगली बार सरकार वापस आने पर..होशियार हो जाइये और ज्यादा सपने मत बुनिये..यह चुनावी घोषणाओं का दौर चल रहा है। अगर सरकार ही नहीं वापस आयेगी तो आपका खुश करने से सरकार को क्या लाभ? बिना लाभ के क्या सरकार जनहित का कोई काम करती है?
‘तारणहार’
15 साल की एक लड़की
साइकिल चलाती हुई
सड़क पर गुजर रही है
बुजुर्ग उसे देख रहे हैं हसरत भरी निगाह से
युवाओं के मन में लाल गुलाब की कंटीली झाड़ियां उग रही हैं
और दिमाग साजिशों से भर-भर कर उफान मार रहा है
और यकबयक किशोरों के दबे हुए दांतों के बीच से फूटने लगती हैं सिसकारियां और बेचैन जीभ तलाशने लगती है निकास मार्ग
बज उठती है चारों तरफ सीटियां
किसी के तृप्त होने की खुशी में
तो किसी के अपनी बारी के इंतज़ार में ।
सभ्य लोगों के होंठ सिले रहते हैं और आंखें बंद
क्योंकि उनके घरों में भी लड़के होते हैं जिनके आधी रात में आने पर खुल जाते हैं द्वार और लड़कियों के लिए गोधूलि के बाद घर से बाहर निकलने के दरवाजे हो जाते हैं बंद
आखिर शिकारियों को तो अंधेरे में बाहर निकलना ही पड़ता है।
अगले दिन जब घर में रोना मचा होता है तो भीड़ निकल पड़ती है बिना टिकट का सिनेमा देखने
और टीवी डिबेट में बैठे पेशेवर लोग बिफर पड़ते हैं।
अवांछित लोगों पर काबू रखने के लिए डंडा लेकर चलने वाली पुलिस की जीडी नहीं भरती इन घटनाओं से
कोरी ही रह जाती है हर बार
क्योंकि यह तो हर सड़क, हर गांव और हर गली और हर पगडंडी की कहानी है।
हमारे यहां लड़कियां ऐसे ही होती हैं जवान और
ब्याही जाती हैं
आखिर यही सब देख-देखकर तो लोग बनते है हाकिम और पेशेवर
और फिर भोले बनकर बताते हैं दुनिया को
कि यह सब पाश्चात्य सभ्यता का परिणाम है
लड़कियों को ढंकना चाहिए अपने को
ताकि उनके पालतू खूंखार भेड़िए नहीं ढूंढ़ पाएं कोई सुराख
और वे बच जाएं अपने चेहरे से इंसान का मास्क उतारने से
और लोग न जान पाएं कि वे ही हैं इंसान के वेश में दरिंदे।
और हां, निंदा के बस दो शब्द ही तो बोलने हैं
कैंडल ही तो जलानी हैं
लड़कियां तो होती ही हैं आक्सीजन
जीवन नहीं है पुरुषों का उनके बिना
मर्दानगी का दिमागी हाइड्रोजन मिलते ही
‘आक्सीजन’ बन जाता है पानी
और बहने लगता है
कभी लार बनकर तो कभी गंदले नाले के रूप में
जो बुझाता है इन दरिंदों की प्यास
जहां पर जानवर भी नहीं जाते प्यास बुझाने।
15 साल की एक लड़की
साइकिल के कैरियर पर अपने बीमार पिता को बिठाकर
जब 1200 किलोमीटर के सफर पर निकलती है
तो उसे डर नहीं लगता उन ‘गंदले’ लोगों की निगाहों से
उसे डर नहीं लगता मर्दों की कभी न बुझने वाली प्यास से
क्योंकि उसकी माई-दादी-नानी सभी तपी हैं उन भट्ठियों में।
सबने सी रखे थे अपने होंठ
वे जानती थी कि यह पारिवारिक संस्कार की तरह ही है
जिसका दंश युगों-युगों तक हर पीढ़ी को झेलना ही होगा।
पिता को साइकिल के कैरियर पर बिठाकर
अनंत की यात्रा पर निकली 15 साल की लड़की भयभीत है तो
एक विषाक्त कॉरोना वायरस की वजह से
पत्थर के शहर में तपने वाली भूख और प्यास से ।
किसी यूनिवर्सिटी में न पढ़ी
15 साल की लड़की भी भांप लेती है कि आने वाले दिनों में
एमएनसी वाले इस शहर में उसके पिता तरस जायेगें दो बूंद पानी के लिए
और अपने पिता को उस ज्वालामुखी के भीतर
का लावा फूटने से पहले ही निकाल लेना चाहती है वह 15 साल की लड़की
और पहुंचा देना चाहती है
फूस की उस झोपड़ी में
जहां बाहर की दुनिया का वैभव तो नहीं है
है तो इतना नीम अंधेरा
कि बाहर के उजालों का कोई खौफ नहीं रहता।
15 साल की एक लड़की
जब अपने पिता को साइकिल के कैरियर पर बिठाकर मुंह-अंधेरे एक लंबे सफर के लिए निकल पड़ती है
जिसकी कोई मिसाल गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में भी नहीं है।
गुरुग्राम से बिहार के दरभंगा तक के लॉकडाउन के दौरान के इस पहले नायाब सफर की वहीं कोलंबस थी
आज भले ही लोग कुछ सोच रहे हों लेकिन उस समय उसने कुछ नहीं सोचा था कि कितनी कठिनाइयों भरा सफर होगा
इन निर्जीव और सन्नाटा भारी सड़कों पर
भक्षकों से कौन करेगा उसकी रक्षा
पिता तो साथ में थे लेकिन वह संबल नहीं थे
लेकिन शायद उस अनपढ़
15 साल की लड़की को लगा होगा कि डूबते को तिनके का सहारा
या फिर गांव की रामलीला में उसने देखा होगा कि
रावण से भी सीता को सिर्फ एक तिनके ने ही तो बचाया था।
उसने किसी प्रोफ़ेशनल इंस्टीट्यूट में भारी फीस देकर लक्ष्य संधान करने की तकनीक का ज्ञान प्राप्त नहीं किया था
कौन उस 15 साल की लड़की से पूछे कि पिता को घर पहुंचाने का जो लक्ष्य उसने खुद निर्धारित किया था
क्या उसके पीछे मछली की आंख पर ही निगाह रखने की
अर्जुन की प्रेरणा थी जिससे उसे रास्ते के अनजान संकटों से भयभीत होने से बचा लिया?
रोजी की तलाश में ‘अपनों’ को छोड़कर निकले भटके हुए एक पिता को फिर ‘अपनों’ के बीच पहुंचाने का यह लक्ष्य तो किसी काल में किसी ग्रह में किसी 15 साल की लड़की ने कभी तय नहीं किया होगा!
1200 किलोमीटर के लंबे थकाऊ और ऊबाऊ सफर पर निकली 15 साल की लड़की की सलवार या कुर्ती में कोई जेब नहीं है जिसमें वह रख लेती कुछ तुड़े-मुड़े नोट
पिता के गंदले फटे कपड़ों में भी नहीं थी कोई साबुत जेब जिसमें रखे जा सकते थे कुछ सिक्के
जिनकी खनखनाहट कर देती आश्वस्त कि चना-चबेना से भी काम चला लेगें
लेकिन शायद जिनके पास नहीं होते पैसे
उन्हें जेब सिलवाने का खयाल भी नहीं आता,
उन्हें रास्ते में कोई दूकान भी नहीं दिखती
उनके सामने होता है वह लक्ष्य
जो होता है अदृश्य।
मृग मरीचिका के पीछे तो भागते हैं लालायित और
महत्वाकांक्षी
जिनकी झोपड़ियों में नहीं होती खिड़कियां
जिनसे देखे जा सकें सपने
उन्हें तो यकीन होता है सिर्फ अपने पसीनों पर
जिन्हें पोंछने वाला कोई नहीं होता
उनकी आंखों से भी नहीं झरते आंसू
आंसू तो तब निकलते हैं जब टूटता है कोई स्वप्न
दरकती हैं उम्मीदें!
15 साल की उस लड़की की आंखों में क्या नहीं रहा होगा किशोरावस्था का कोई ख्वाब?
उसने ख्वाबों के उस कागजी महल को दिखा दी होगी माचिस
उसकी आंखों में थी तो अपने अपंग पिता के लिए सुरक्षित पनाह
जिस उम्र में पिता अपनी बेटी के लिए वर तलाशता है और उसे अपने नए घर के लिए विदा करता है
15 साल की वह लड़की उस उम्र में पिता के लिए तलाश रही थी ठौरगाह
ताकि दूसरों के लिए ताजमहल बनाने वाले उसके पिता की मौत उस संगमरमर के मजार में भूख और प्यास से न हो जाए।
कोरॉना ने करोड़ों श्रमिकों को बता दिया है कि जिस रोटी की तलाश में वे महानगरों की तरफ जाते हैं
वहां उनके हिस्से में आती हैं पथरीली रोटियां
जो भर देती हैं पेट को गड्ढे की तरह
लेकिन नहीं मिटा पातीं हैं भूख
घर की।
उन्हें लगता है कि महानगर एक सपना है जो उनके होठों को भर देगा मुस्कान से
लेकिन अब उन्हें लग रहा है कि
वे सपनों की तलाश में नहीं
सपनों से दूर भागे थे
घर छोड़कर।
अब हर कोई बोलता है
घर जाना है
जो वर्षों से भटकता हुए भूल गया था घर का रास्ता
वह भी कहता है कि घर जाना है।
कहते हैं कि जब कोई भूकंप आने को होता है तो सबसे पहले पशुओं को होता है इसका अहसास
ज़मीन से जुड़े इन मजदूरों को भी हो गया था बड़ी मुसीबत का अहसास
और वे चल निकले अपने घोंसलों की तरफ
जैसे शाम होने से पहले पक्षी भी लौट जाते हैं अपनी नीड़ में।
घर में मां-बाप हैं
भाई-भौजाई देवर-नंद हैं
जिनसे होता था हर रोज झगड़ा
घर पक्का नहीं है, जगह भी ज्यादा नहीं है इतने लोगों को समेटने के लिए
लेकिन आज वही कच्चा घर इस आफत में
हो गया है सबसे अधिक सुरक्षित
सेना के बंकरों की तरह
कुछ कुछ ट्रंप के ‘सेफ हाउस’ की तरह!
15 साल की लड़की
जब कर रही थी अपना सफर पूरा
रास्ते से गुजरी होंगी कितनी ही मर्सिडीज फॉर्च्यूनर गाड़ियां
पुलिस की सायरन लगी गाड़ियां।
दरभंगा के एक गांव में रहने वाली वह 15 साल की लड़की
कितने ही गांवों से गुजरी होगी भूखी-प्यासी
कुछ गांवों में खाने को मिला होगा तो किसी गाड़ी वाले ने चलते हुए पकड़ा दिया होगा पैकेट
लेकिन किसी ने उसे मंज़िल तक नहीं पहुंचाया
क्योंकि मंज़िल हमेशा अपने पैरों पर चल कर ही पाई जाती है
किसी के कंधे पर सवार होकर नहीं।
मैं प्रणाम करता हूं उस 15 साल की लड़की को
और उन सारे श्रमिकों को जो सड़क मार्ग से
नदी-नालों और पहाड़ों के बीच से राह तलाश कर
लौट रहे हैं अपने घर
उनसे मुझे कोई सहानुभूति नहीं है
वे श्रमवीर हैं, विकास के योद्धा हैं
उन्होंने अपने जांगर और अपनी जीवटता का प्रदर्शन किया।
उनका यह पौरुष बताता है कि हमारा देश सिर्फ बाबुओं को देश नहीं है
जिसे हर वर्ष अपनी महंगाई की ही चिंता सताती है
यह देश उन श्रमवीरों से है
जिनके काम के घंटे तय नहीं, मेहनताना तय नहीं, स्वास्थ्य सुविधाएं तय नहीं, बच्चों के लिए शिक्षा तय नहीं
मीडिया भी बेरोजगार ग्रेजुएट को मानता है
उनमें श्रमिकों की गिनती नहीं होती
इन मेहनतकश लोगों पर कोई करेगा दया तो
देश में सारा निर्माण कार्य रुक जाएगा।
जब आठ महीने की गर्भवती महिला सिर के ऊपर दस ईंट लेकर पांच मंजिला इमारत में जेठ की दोपहरी में चढ़ती उतरती है पचास बार
तो कोई नहीं करता दया
सबको अपने मकान के जल्दी बनने की चिंता सताती है।
वही औरत पांच सौ किलोमीटर पैदल चलकर पेड़ के नीचे बच्चे को देती है जन्म
और दो घंटे के विश्राम के बाद फिर निकल पड़ती है तीन सौ किलोमीटर की यात्रा पर
अरे, उस पर दया करने की जगह खुद को भी मजबूत बनाओ।
टीवी की डिबेट में ऐसा लगता है कि पहली बार मजदूर के पैरों में छाले निकले हों
जिस इमारत में चल रही होती है डिबेट
उस इमारत के निर्माण के समय क्या मालिक ने इतनी संवेदना दिखाई थी?
जो आज दिखा रहा है सड़क पर
वह रोज होता है इंडिया के हर शहर में हर रोड पर।
मैं प्रणाम करता हूं
उस 15 साल की लड़की को
जब वह क्वारांटाइन सेंटर पहुंच गई
और बड़े-बड़े लोग उससे मिलने आने लगे
उसकी हिम्मत की दाद देने लगे
और पूछने लगे,’बताओ, तुम्हारे लिए क्या कर दें, तुम्हें क्या चाहिए?’
उस 15 साल की लड़की ने यह कहकर सबको निरुत्तर कर दिया कि उसे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए,
उसे बस इतना चाहिए कि उसके पिता का इलाज हो जाए।
सामने खड़े हों कृष्ण और सुदामा सिर्फ अपने पिता की खैरियत मागें!
मैं प्रणाम करता हूं उस 15 साल की लड़की को और उसकी साइकिल को
लड़की के पास हौसला था
और उस साइकिल ने लड़की के हौसले को धोखा नहीं दिया
अनजान राहों वाली लंबी सी सड़क पर एक लड़कियों वाली एक साइकिल
पिता की पीछे बिठाकर उसे चलाती 15 साल की अवयस्क लड़की
सहारा सिर्फ उस साइकिल का
तिनके का सहारा भी कितना मजबूत होता है!
वह लड़की है
सैकड़ों सालों से हम सिर्फ श्रवण कुमार का ही किस्सा सुनते आए हैं
15 साल की दरभंगा की ज्योति ने बता दिया है कि अपने पिता के लिए वह वास्तव में न सिर्फ आंखें बनीं
बल्कि उनका कंधा भी बनी।
जब कभी छुटपन में लाड़ में ज्योति को उसके पिता ने कंधे पर बिठाकर कुछ दौड़ लगाई होगी
और कंधे पर उछलते हुए ज्योति खिलखिलाई होगी
इतने वर्षों के बाद ज्योति ने
अपने पिता के चेहरे पर न सिर्फ सुकून की मुस्कान ला दी
बल्कि पूरे गांव, शहर और दुनिया के सामने सीना चौड़ा करके खड़ा कर दिया,
‘बेटी हो तो ज्योति जैसी’।
तारणहार सिर्फ लड़के ही नहीं हो सकते
लड़कियां भी होती हैं तारणहार!!!
अहसास
सूराखों से घुस आती है हवा
खिड़की-दरवाजों से बेधड़क आती-जाती है रोशनी
छत की मुंडेर पर बैठकर जब-तब झांक जाता है कौवा
गेट खोलकर खुद ही आ जाते हैं मेहमान
और मुसीबतों की आहट से मकान की नींव तक लगती है हिलने
लेकिन तुम्हें मुझ तक पंहुचने के लिए
कोई रास्ता ही नहीं सूझा ?
तुम आ सकते थे मेरे पास
लिफाफे पर चिपके डाक-टिकट की तरह
तुम आ सकते थे मेरे पास मेहमानों के पैरों में कसे जूते की तरह
कौवे की टोंट से गिरी मछली की तरह
हवा के साथ उड़ आयी धूल की तरह
और रोशनी के साथ आयी पारदर्शी गरमाहट की तरह।
तुम्हें शायद नहीं मालूम कि किसी दिल में किसी रेल मार्ग से नहीं जाया जा सकता
किसी की रगों में बहते लहू की गरमाहट को महसूस करने के लिए
उसके जिस्म के किसी अंग को काटना नहीं जरूरी
और किसी के मन की गहराइयों में उतरने लिए
नहीं काम आतीं पनडुब्बियां।
रोशनी को तोक लेता है कागज का एक टुकड़ा
हवा को रोक लेती है दीवार
मेहमानों को रोक लेते हैं मौसम और मुसीबत भी कभी-कभी रास्ता भटक कर दूसरे के घर में ले लेती है शरण।
लेकिन
खुशी और गम के अहसास
कैसे कर लते हैं अपनी यात्राएं पूरी
निर्विघ्न ?
जो तुम्हारी आंखों से बहा होता
तुम्हारी आंखों में
ठहर गया आंसू
बह गया मेरी आंखों से
मेरी आंखों से
बह गया आंसू
बन गया पहाड़
तुम्हारी आंखों से
जो बहा होता
तो बन जाता एक झील
तुम्हारा आंसू
जो बन जाता एक झील
तो समा लेता मेरे पहाड़ को अपने भीतर
तुम्हारी झील
जो आत्मसात कर लेती मेरे पहाड़ को
तो पहाड़ के शीर्ष पर खिल उठता एक गुलाब
एक गुलाब झील के बीच
जो सिर्फ झील का होता
एक झील गुलाब के बाहर
जो सिर्फ गुलाब की होती।
रिश्तों की गांठ
रिश्तों की गांठ
जीवन में
दर्द एक नहीं है
कभी भया, कभी त्रास, कभी कुंठा
कभी खुद को झुठलाने वाला एक नया सपना.
जीवन एक चादर है
जिसमें भरा है गर्द-ओ–गुबार
कुछ अपना कुछ दूसरों का सामान
कुछ काम का
बाकी बेकार.
सब कुछ समेटकर
चादर में लगा दी जाती है गांठ
रिश्तों-संबंधों की गांठ
ढोने के लिए
उम्र भर.
एक छोटा सा कमजोर धागा
वजन पड़ने पर
नहीं संभाल पाता है खुद को
और बन जाता है
चादर में छेद.
चादर से हर रोज गिरता है
एक-एक सामान
अंत में रह जाती है
सिर्फ एक गांठ.
कपड़ा
कितना ही कमजोर क्यों न हो
मुश्किल है तो सिर्फ
एक गांठ को
खोल पाना।
(4) निर्दिष्ट भविष्य
हाथ से
फेंके गये पत्थर का लक्ष्य
होता है
पूर्व निर्धारित.
जिन हाथों से
भरी जाती है पत्थर में गति
वे ही कर देते हैं उसकी दिशा निश्चित.
लक्ष्य तक न पंहुच पाने वाला
किसी के मस्तक को
न फोड़ पाने वाला पत्थर
नहीं होता है
कमजोर.
जन्म ही कर देता है
निर्दिष्ट भविष्य..।
(5) ठोकर
लोग कहते हैं
एक दीपक
सारे संसार के अंधकार को
दूर नहीं कर सकता है.
मैं इससे असहमत नहीं हूं.
एक दीपक
फिर भी मैंने
रखा है अपनी ड्योढ़ी पर
भटके हुए लोगों को
राह दिखाने के लिए.
मेरी लड़ाई
अंधेरे के खिलाफ नहीं
रास्तों पर उग आयी
ठोकर के खिलाफ है।
(6) पत्थर का मिट जाना
पत्थर से जब
मेरे जिस्म का कोई अंग कुचला
तो मैंने जाना
गलतियां
पत्थर भी कर बैठते हैं.
जब दिखा पत्थर पर खिला कोई फूल
तो जाना
पत्थर भी होते हैं दिल-फेंक.
जब गौरैया का फुदकना देखा
पत्थर पर
तो जाना
पत्थर भी होते हैं सहिष्णु.
और जब
नदी में बह आयी रेत को
मु्ट्ठी में बंद कर उठाया
तो जाना
पत्थर भी जानते हैं मिट जाना।
(7) इतवार
जब मैं
खुली धूप के नीचे
आईने के सामने खड़ा होकर
दाढ़ी बना रहा था
सिल-लोढ़े पर दाल पीसती मेरी मां ने
चश्मे के भीतर से झांककर
एकटक मुझे देखा और कहा
हर दिन इतवार नहीं होता बेटा
इसलिए रोज सवेरे दाढ़ी बना लिया करो.
मैं चौंक पड़ा
क्या यह सच है ?
क्या हर रोज
मैं इतवार की तरह नहीं बिताता हूं?
इतवार मायने
नींद, थकान, आलस, ढेर सारे अखबार
टीवी पर चैनेल बदलते रहना
बढ़ी हुई दाढ़ी, बेतरतीब बिस्तर, बच्चों का शोर
पड़ोसियों के साथ गप-ठहाके सैर-सपाटा
ढेर सारा भोजन उदरस्थ करना
अंदर बिस्तर पर लुढ़क जाना.
जब हर रोज बीतता है मेरा इस तरह से
तो इतवार ही क्यों नहीं बन जाता
सप्ताह का कोई अन्य दिन.
मेरी मां के होंठों पर हल्की सी थिरकन
चलते रहते हैं उस के हाथ
इसका जवाब तो तेरे पास है बेटा
इतवार पुरुषों ने बनाया
स्त्रियों के लिए तो
हर दिन
होता है
एक जैसा ….।
(8) प्रतिरोध
इतनी गहरी नींद में
मत सोओ कि
तुम्हारे सपनों पर रेंगने लगें चीटियां
और चूहे बना लें बिल.
उठो
और करो प्रतिरोध.
अगर तुम्हें लगता है कि
तुम्हारा अहिंसक होना
कायरता को देता है नये संदर्भ
तो डालियों पर मत करो वार
पेड़ को ही उखाड़ फेंको.
जब लगता है
पेड़ सूखने
तो शाखाओं और पत्तियों को भी
नहीं मिलता मौका
स्वयं को
स्थानापन्न करने का…।
(9) पत्थर पर पत्थर
धरती के रोष ने
पहाड़ के अहंकार को चूर-चूर कर दिया
साथ में मारा गया
धरती का आदमी
जैसे गेंहू के साथ पिसता है घुन.
पहाड़ पर आयी विपदा में
पहाड़ ने क्या खोया?
क्या पहाड़ का शीष झुका?
सिर्फ कुछ पत्थर
इधर से हो गये उधर.
पत्थर को
फिर मिल गया पत्थर
नदी को
फिर मिल गयी नदी
सोतों को
फिर मिल गयी ढलान
उड़ती हुऊ धूल को
फिर मिल गयी जमीन.
खो गयी
तो बस एक सड़क
जो आदमी को
जोड़ती थी आदमी से
एक घर को
जोड़ती थी दूसरे घर से
खेतों को
जोड़ती थी बाजार से
और प्यासे को
जोड़ती थी पानी से.
टूटे पहाड़ के नीचे
धंसा मकान
उसके सामने एक पत्थऱ पर बैठा बूढ़ा
बिलकुल शून्य-बेजान
जैसे
पत्थर के ऊपर
रखा हो पत्थर.
इस उलट-फेर में
यह समझ में नहीं आया
आदमी और पत्थर में क्या होता है भेद
पत्थर लेते हैं सांस कि
आदमी होता है बेजान
कब हो जाते हैं पत्थर वाचाल
और आदमी
संज्ञाशून्य…।
(10) एक मौन
तुम्हारा स्पर्श
जैसे
जल में उतर आया हो वसंत
भीग गयी हों नौकायें
और कोहरा गया हो
समुद्र.
तुम्हारा स्पर्श
जैसे
पंख लग गये हों चप्पुओं में
शंख बजाने लगी हों सीपियां
मछलियां
करने लगी हों नृत्य
और दिशाओं को
मिल गया हो विस्तार.
तुम्हारा स्पर्श
जैसे खुल गये हों
स्वर्ग के द्वार
आकाश करता हो नमन
और देवदूत
कर रहे हों मंत्राचार.
तुम्हारा स्पर्श
जैसे लजा गयी हो सांझ
और हवाओं ने
रच दिया हो छंद.
तुम्हारा स्पर्श
जैसे
डूब गये हों भंवर में
पल.
तुम्हारा स्पर्श
बस
एक मौन…।
(11) ख्वाहिश
तुम्हारे भीतर का ज्वालामुखी
काश!
मेरी बगिया में आ बहता
तो महकने लगते
आम के बौर.
तुम्हारे भीतर का सागर
गर आ सकता इस ऊसर तक
तो मेरी नाव को
मिल जाता
ठौर.
तुम्हारे देह का आकर्षण
अगर खींच लेता मुझे
तो मैं भी हो जाता
गुरुत्वाकर्षण से
मुक्त.
तुम्हारी ख्वाहिशों में
गर मैं हो जाता शुमार
तो लौट चलता मैं भी
घर की ओर….।
स्नेह मधुर
स्नेह मधुर एक ऐसा नाम है, जिसने 1978 से 2018 तक की अपनी पत्रकारिता की यात्रा में बहुत ही ऊबड़-खाबड़ रास्ते से चलते हुए दैनिक अखबार, मासिक-साप्ताहिक पत्रिका, न्यूज चैनेल और फिल्मी दुनिया तक के अनुभव को स्वयं में समेटा है। वर्तमान में इतने अर्से बाद अब वह महसूस करते हैं कि पत्रकारिता अब वह नहीं है, जब हमें खुलकर सच्चाई को लिखने की आजादी थी और ऐसा लिखते हुए हमें संपादक का संरक्षण मिलता था। वह खुलकर कहते हैं, ‘अब तो आग्रहों एवं पूर्वाग्रहों से भरी पड़ी है पत्रकारिता। मीडिया में संपादक की भूमिका समाप्त कर दिए जाने के कारण ही यह स्थिति उत्पन्न हुई है। अब अख़बार मात्र एक उत्पाद हैं और पत्रकार उसके सेल्समैन।‘
बहरहाल, स्नेह मधुर ने 1978 में इलाहाबाद में दैनिक जागरण ज्वाइन किया और 1980 में माया पत्रिका में आ गये। उस समय माया पत्रिका की तूती बोला करती थीं।
स्नेह मधुर प्रोफ़ेशनल फोटोग्राफर के रूप में भी काम कर चुके हैं। अमृत प्रभात के लिए फ्रीलांस फोटोग्राफी करने के साथ मनोरमा पत्रिका के लिए मॉडलिंग फोटोग्राफी भी करते थे। वह इलाहाबाद के पहले प्रोफ़ेशनल फोटोग्राफर थे जो उस ज़माने में ट्रांसपेरेंसी वाली फोटो खींचते थे जो बॉम्बे से डेवलप होकर आती थी। जब अमिताभ बच्चन चुनाव लड़ रहे थे तो उस दौरान अमृत प्रभात में नौकरी करते हुए भी उन्होंने माया के लिए अमिताभ बच्चन बनाम बहुगुणा सब्जेक्ट पर कई फोटो खींची थी जिसको लेकर माया ने एक विशेष अंक निकाला था।
अमिताभ बच्चन से निकटता हो जाने के कारण बोफोर्स विवाद के दौरान उन्होंने इलाहाबाद के करीब एक दर्जन पत्रकारों को दिल्ली ले जाकर अमिताभ बच्चन से वन टू वन मुलाकात कराई थी। पत्रकारों के कल्याण के लिए स्नेह मधुर ने एक फंड बनाने का भी प्रयास किया था। इस योजना के तहत बेरोजगार हो जाने वाले पत्रकार को साल भर तक वेतन मिलता रहेगा। अमिताभ बच्चन ने इस फंड में पांच लाख रुपए के अंशदान का वायदा किया था। लेकिन इलाहाबाद के कुछ पत्रकारों ने इस योजना का बहिष्कार कर दिया था और नारे लगाए थे कि आधी रोटी खाएंगे लेकिन अमिताभ बच्चन से मदद नहीं लेंगे।
जब अमिताभ बच्चन ने सांसद पद से इस्तीफा दिया था तो इलाहाबाद में गुस्साए लोगों ने अपना आक्रोश व्यक्त किया था। उस दौरान एक अखबार ने यह खबर छापी थी दुकानें बंद कराने में स्नेह मधुर की भी भूमिका है।
पत्रकारों के लिए अपने रसूख से स्नेह मधुर ने सिविल लाइंस थाने के बगल में 12 रुपए सालाना के किराए पर एक इमारत आबंटित करा दी थी। लेकिन कुछ स्थानीय पत्रकारों ने ईर्ष्या वश विरोध कर दिया तो उसको भी स्नेह मधुर ने छोड़ दिया था। आज वहां पर एक मार्केट है।
माया छोड़कर स्नेह मधुर 1983 में रिपोर्टर के रूप में अमृत प्रभात से जुड़ गये, और मेरे साथ ही बैठने लगे। अमृत प्रभात ज्वाइन करने के पहले से वह विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख तथा फीचर आदि भी लिखते रहे, जिनमें धर्मयुग, सारिका, कथायात्रा, माया, मनोरमा, सूर्या, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादम्बिनी, हिंदी एक्सप्रेस, नवभारत टाइम्स, रविवार, श्रीवर्षा, हिंदुस्तान समाचार पत्र आदि शामिल हैं।
रिपोर्टर रूम में उनके पहले दिन के पहले कुछ क्षण यादगार बन गये। मुझे तो याद नहीं, लेकिन स्नेह मधुर को याद है कि कमरे में उनके आने पर पहले मैं उन्हें परिसर से बाहर ले गया और ठेले से अंडा खिलाया। फिर एक छोटा सा समाचार दिया कि इसे संक्षिप्त में तीन-चार लाइनों में बना दें। लेकिन मधुर जी मनोहर कहानियां के पैटर्न पर कल्पना की उड़ान भर कर तीन पेज में बना दिया। हमने उनकी ओर देखा और फिर दोनों मुस्कुरा दिये। बाद में क्राइम रिपोर्टर के रूप में स्नेह मधुर ने अमृत प्रभात में एक लंबी पारी खेली और अपनी खबरों के माध्यम से अपराध जगत में खलबली तो मचा ही दी, पुलिस विभाग तक को भी त्वरित सूचनाओं के मामले में पछाड़ दिया। स्थिति यह हो गई थी कि अपराध होने पर मौके पर पहले स्नेह मधुर पहुंचते थे और पुलिस बाद में।
स्नेह मधुर ने अमृत प्रभात में लगभग 15 वर्ष गुजारे तथा अखबार में समय-समय पर आने वाले उतार-चढ़ाव को देखते, उनसे निपटते हुए सकुशल 1996 में इलाहाबाद में ही हिन्दुस्तान अखबार ज्वाइन कर लिया। लगभग 12 वर्ष तक हिन्दुस्तान में रहते हुए कभी इलाहाबाद और कभी बनारस में काम करते रहे। 2010 में वह लखनऊ में नई दुनिया के विशेष संवाददाता बनकर चले गये। वह ऐसा दौर था, जब अखबार मालिक पत्रकारों को स्थायी तौर पर न रखकर कांट्रैक्ट बेसिस पर रखने लगे थे। जो पत्रकार बाहर बहुत शान से रहता था, अखबार के भीतर प्रबंधतंत्र के उत्पीड़न का प्रायः शिकार होता था। वह या तो लड़े या छोड़कर चला जाय।
स्नेह मधुर हिन्दुस्तान में रहते हुए ‘वायस आफ अमेरिका, वाशिंगटन डी.सी.‘ के लिए भी चयनित कर लिए गए थे। प्रिंट मीडिया के साथ रेडियो मीडिया में भी काम करना एक बड़ी चुनौती थी जिसे उन्होंने अपने अनुभव क्षेत्र का विस्तार करने के लिए स्वीकार किया। इस मीडिया में खास बात यह थी कि सम्पूर्ण भारत से संबंधित किसी भी क्षेत्र की खबर पर उनकी टिप्पणी का live प्रसारण होता था। आजकल यह आम बात हो गई है लेकिन दो दशक पूर्व ऐसा नहीं था।
1995 में इलाहाबाद से प्रकाशित एक साप्ताहिक पत्रिका गंगा यमुना प्रकाशित होती थी जिसके संपादक मशहूर साहित्यकार श्री रवीन्द्र कालिया जी थे। इस पत्रिका ने इस वर्ष के लिए ‘टॉप टेन पर्सनैलिटीज ऑफ इलाहाबाद’ का सर्वे कराया था। इलाहाबाद के कुल दस चर्चित हस्तियों में स्नेह मधुर का भी नाम छठे स्थान पर था।
वर्ष 2005 में पूरे देश से दस पत्रकारों को स्वीडन में एक वर्कशॉप के लिए चुना गया था जिसमें स्नेह मधुर भी एक थे। स्नेह मधुर उत्तर प्रदेश के इकलौते पत्रकार थे जिनका नाम उस सूची में था। लेकिन हिंदुस्तान की संपादिका मृणाल पांडे ने उन्हें जाने की अनुमति नहीं प्रदान की जिसका जिक्र उस समिति ने किया था कि दस में से सिर्फ नौ पत्रकार जा सके।
1999 में वह भारत सरकार के हरिश्चंद्र पत्रकारिता पुरस्कार समिति के सदस्य भी रहे। दो अन्य सदस्यों में श्रीमती ममता कालिया और श्रीमती चित्रा मुद्गल भी थीं।
2015 के आस-पास नई दुनिया के बंद हो जाने के बाद, दिल्ली से ही निकलने वाले नेशनल दुनिया के विशेष संवाददाता के रूप में लखनऊ में ही बने रहे। इस अखबार में साल भर रहे, लेकिन कार्य से संतुष्टि नहीं मिली तो 2016 में एक साल के लिए ‘के.न्यूज’ चैनल में राजनीतिक संपादक के रूप में जुड़े रहे। उनकी मंशा पत्रकारिता के हर क्षेत्र के बारे में जानकारी रखने की थी।
और फिर एक दिन आया जब स्नेह मधुर लखनऊ में ही हिन्दी ‘पायनियर’ में संपादक हो गये, जहाँ दो वर्षों तक अपनी सेवाएं देने के बाद 2018 में अवकाश ग्रहण कर लिया।
स्नेह मधुर वैसे तो बहुमुखी प्रतिभा के धनी रहे हैं। शुरू से ही उनकी रुचि फिल्मी दुनिया में थी, इसलिए प्रायः मुम्बई का चक्कर लगाते रहते। कई फिल्मों में विभिन्न रूपों में उन्होंने काम किया है। फिल्म लेखन, अभिनय, गीत लेखन के साथ निर्माता और वितरक का भी काम किया। एक वक्त था जब वह शहर में कर्फ्यू नामक फिल्म बना रहे थे जिसके वह निर्माता थे और फिल्म के निर्देशक गुलज़ार थे। लेकिन पारिवारिक कारणों से मुंबई छोड़कर वापस इलाहाबाद लौटने के कारण फिल्म अधूरी रह गई। बाद में एक टेली फिल्म अर्धांगिनी बनाई जिसे दूरदर्शन ने प्रसारित भी की थी। उन्होंने एक इंग्लिश फिल्म Little Box of Sweets में भी अभिनय किया है।
फिल्मी दुनिया में उनकी पहुँच का अंदाज इसी से लगा सकते हैं कि 2007 में जयपुर में आयोजित ‘इंटरनेशनल शार्ट फिल्म फेस्टिवल’ में वह जूरी सदस्य के रूप में जुड़े रहे। उनके साथ कई फिल्मी हस्तियां भी जूरी सदस्य थीं और बसु चटर्जी जूरी हेड थे। शशि कपूर ने फेस्टिवल का उद्घाटन किया था।
We want Sneh Madhur
वैसे तो स्नेह मधुर रिपोर्टर के रूप में काम करते हुए कई उतार-चढ़ाव से गुजरे हैं, लेकिन 1995 में इलाहाबाद में एक दिन अमर उजाला में एक छोटा सा समाचार छपा कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय की कुछ छात्राएं वेश्यावृत्ति करते हुए पकड़ी गयीं। उन दिनों एस के दुबे संपादक बनकर पत्रिका में पुनः लौट आये थे। उन्होंने स्नेह मधुर को बुलाकर कहा, ‘इतना महत्वपूर्ण समाचार कैसे छूट गया ? हमें यह समाचार विस्तार से चाहिए।’
स्नेह मधुर ने कहा, ‘ यह ऐसा समाचार है, जिसे मैंने यदि लिख दिया तो पत्रिका में आग लग जायेगी। अमर उजाला ने बचते -बचाते अर्ध्य सत्य ही लिखा है। मैं छात्राओं को वेश्या नहीं लिख सकता, हकीकत कुछ और है, उनसे ज़बरदस्ती यह काम करवाया जा रहा है।’
दुबे जी ने कहा, ‘आप हमें समाचार दीजिए, छपेगा।‘
बहरहाल, दो दिन बाद स्नेह मधुर ने विस्तार से उस समाचार को लिखकर दिया, जिसने पूरे इलाहाबाद को हिला दिया। लम्बा-चौड़ा यह समाचार अमृत प्रभात मे बाई लाइन छपा।
इस समाचार का छपना था कि सचमुच आग लग गयी, तहलका मच गया। अधीक्षिका के नेतृत्व में सैकड़ों की संख्या में विश्वविद्यालय की छात्राओं ने पत्रिका को घेर लिया। प्रदर्शनकारियों के साथ सिटी मजिस्ट्रेट भी मौजूद रहे। नारे लगाती हुईं ये छात्रायें जैसे ही अमृत प्रभात प्रेस के मुख्य गेट पर पहुँचीं, गेट को बंद कर दिया गया।
प्रदर्शनकारी छात्राएं स्नेह मधुर से बात करना चाहती थीं, क्योंकि उन्होंने ही समाचार लिखा था। स्थिति को देखते हुए, पत्रिका के प्रबंधतंत्र ने स्नेह मधुर को एक कमरे में बंद कर दिया और संपादक के.बी.माथुर तथा प्रबंधक संतोष तिवारी को गेट पर छात्राओं से बात करने के लिए भेजा। लेकिन लड़कियाँ और अधीक्षिका उनसे बात करने को तैयार नहीं थीं। उनका बार-बार समझाना सब बेकार।
तभी दो-तीन लड़कियाँ एकाएक गेट पर चढ़कर परिसर में घुस आयीं और ‘ वी वान्ट स्नेह मधुर ‘ नारे परिसर में घूम-घूमकर लगाने लगीं। उनके पीछे-पीछे सैकड़ों लड़कियां प्रेस परिसर में घुस गईं और नारेबाज़ी करने लगीं।
स्थिति को काफी तनावपूर्ण होते देखकर प्रबंधतंत्र ने जिलाधिकारी से संपर्क किया लेकिन उन्होंने कोई मदद नहीं की। प्रदेश के किसी मंत्री ने भी टेलीफोन पर संपर्क करने पर कोई कारवाई नहीं की। अंत में प्रबंधतंत्र ने केन्द्रीय गृहमंत्री को फोन करके स्थिति की जानकारी दी। गृहमंत्री ने उत्तर प्रदेश के राज्यपाल को बोला और तब राज्यपाल ने हस्तक्षेप किया। परिणामस्वरूप, तब बड़ी संख्या में पुलिस आयी और प्रदर्शनकारियों को मौके से हटाया। अधीक्षिका और लड़कियों ने वापस जाते-जाते कहा, ‘कल हम लोग फिर आयेंगे।’
दूसरे दिन अमृत प्रभात में प्रथम पृष्ठ पर इस संदर्भ में संपादकीय छपा कि ‘हम झुकेंगे नहीं’।
बताया जाता है कि जिस समय छात्राएँ पत्रिका परिसर के गेट पर प्रदर्शन कर रहीं थीं, इसकी जानकारी शहर में दूर-दूर तक लोगों को हो गयी और सैकड़ों की संख्या में तमाशबीन वहाँ इकट्ठा हो गये।
दो दिन बाद पत्रिका के प्रबंध निदेशक तमाल कांति घोष, स्नेह मधुर को लेकर दिल्ली चले गये और गृहमंत्री आदि से मिलकर लखनऊ होते हुए एक सप्ताह बाद लौटे। तब तक स्थिति काफी कुछ शांत हो चुकी थी। बताया जाता है कि बाद में अधीक्षिका ने स्नेह मधुर से मिलकर प्रदर्शन के लिए खेद व्यक्त किया था।
स्नेह मधुर की व्यंग्य पर भी अच्छी पकड़ है। यही कारण है कि काफी पहले ही ‘घूमता आईना’ नाम से उनकी पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है, जिसमें समय-समय का समाज पूरे व्यंग्य और हास्य के साथ दिखाई देता है। ये मंचीय कवि तो नहीं हैं, लेकिन समय -समय पर इनकी लेखनी कुछ अच्छी कविताएँ भी लिख देती हैं। इनकी दो पुस्तकें पहाड़ खामोश है और किसी के लिए ठहर जाना भी प्रकाशित हो चुकी हैं। स्नेह मधुर भारत के Cultural Ambassador के रूप में 1998 में सीरिया की यात्रा भी कर चुके हैं।
स्नेह मधुर के जीवन से जुड़ी एक महत्वपूर्ण बात बतानी जरूरी है जो उनकी विराट सोच को दर्शाती है। जिस समय उन्होंने विवाह किया, वह लोकप्रियता के शिखर पर थे। हर कोई उनके समारोह में शामिल होने को इच्छुक था। उस समय अमृत प्रभात बंद चल रहा था, लोगों को महीनों से वेतन नहीं मिल रहा था। ऐसे समय में उन्होंने विवाह के बाद प्रीति भोज आयोजित करने से मना कर दिया। उनके परिवार ने बहुत दबाव बनाया कि शादी जीवन में एक बार होती है, खुशी का यह अवसर फिर नहीं आयेगा। लेकिन स्नेह मधुर ने कहा कि जिस पत्रकार कॉलोनी में स्यापा छाया हुआ है, वहां पर इतना बड़ा आयोजन करना लोगों के घावों पर नमक छिड़कने के समान है। अंततः उन्होंने प्रीतिभोज नहीं होने दिया। क्या ऐसा कोई उदाहरण मिलेगा?
एक लडक़ी की गुजारिश
चुटकी भर नमक
0स्नेह मधुर
ट्रेन के प्लेटफार्म से हिलते ही लगा कि अन्तत: यात्रा शुरू हो गयी है। यह जीवन की कोई अन्तिम यात्रा की शुरुआत नहीं थी लेकिन जीवन के पिछले दो दशक जब एक ही तरह से यानी कि स्थायित्व के भाव से काट दिये गये हों तो घर और दफ्तर के तीन किलोमीटर के फासले से अधिक और अलग दिशा में की गयी यात्रा मेरे लिए सफर जैसी ही थी। सफर यानी कष्ट भी। कहने वाले कहेंगे कि एक सौ बीस किलोमीटर की दूरी कोई दूरी होती है! इतनी दूरी तो रोज ही तय की जा सकती है। जरूर की जा सकती होगी मेरे भाई! मैंने भी बीस-पच्चीस बरस की उम्र में भूखे-प्यासे रहकर कितने एडवेंचर कर डाले हैं जिनके बारे में आज सोचकर भी आश्चर्य ही होता है और कभी-कभी तो खुद को च्यूंटी काटकर भी देख लेता हूं कि यह जो वन पीस में यहां मौजूद खड़े-खड़े भुट्टे उदरस्थ किये जा रहा है क्या वही है जो बस को ओवरटेक करती ट्रक के बांये और बस के बीच में से अपनी पुरानी मोटरसाइकिल निकाल कर ले जाता था! बिना इस बात की परवाह किये कि ट्रक ड्राइवर और बस में बैठी सवारियों तक चीख-चीखकर कह रही हैं कि मरेगा स्साला..! इस लफ्ज को न जाने कितनी बार सुनने के बाद उन्हीं की तरफ मुस्कराते हुए पलटकर देखना भी नहीं भूलता था कि देखो, आखिर मरने नहीं पाया स्साला…! राहगीर तक उसको सरकस का कोई जांबाज मान लेते थे। लेकिन दो दशक बाद और पहले में उतना ही अन्तर है जितना कि सिक्के दो पहलुओं में कि दोनों एक जैसे नहीं हो सकते। आज जब किसी की गाड़ी में बैठता हूं तो पहला निर्देश यही देता हूं कि जरा धीरे चलना, मुझे कोई जल्दी नहीं है। अब कोई खतरा कम से कम मोल तो नहीं लेना चाहता हूं।
ट्रेन जैसे-जैसे गति पकड़ती जा रही थी, खिडक़ी से बाहर से गुजर रहे दृश्यों के विपरीत दिशा में भागने की गति भी बढ़ती जा रही थी। दूर की चीजें तो तैरती हुईं सी आंखों के सामने से इस तरह से गुजरती थीं जैसे कोई लम्बी सी नदी ड्राइंग रूम की दीवार से लगे फ्रेम में से निकलती जा रही है। खिडक़ी के सबसे करीब की चीजें जो अपने स्थूल रूप में अपनी तमाम विकृतियों के साथ मौजूद रहती हैं, वे इतनी तेजी से गुजर जाती थीं कि उनकी विकृतियां अपना प्रभाव मन में जगह बना नहीं पाती थीं।
ट्रेन में ज्यादा मुसाफिर न होना पता नहीं क्यों मुझे सुकून देता है। बैठने की सुविधा तो रहती ही है, मन करे तो बर्थ पर लेटा भी जा सकता है। लेटना जरूरी नहीं होता है लेकिन मन में यह तो रहता ही है कि जब जी चाहे लेट तो सकते ही हैं, सो भी सकते हैं या फिर कुछ नहींं तो ऊपर की बर्थ पर लेटकर ट्रेन के अपने भीतरी और बाहरी शोर के बीच चुपके से कोई गीत भी गुनगुनाया जा सकता है, कोई सपना भी देखा जा सकता है-दिवास्वप्न!
सपने ही देख रहा था जब ‘गरम मूंगफली ले लो…’ की आवाज गूंजी । लो, अभी सोच ही रहा था कि इन चार घंटों का सफर कैसे कटेगा और अमरूद खाने से शुरुआत ही की थी कि मूंगफलीवाला भी आ गया! यानी कि सफर में खाने-पीने की तकलीफ नहीं होगी और सफर अच्छा कटेगा। वैसे तो मैं सफर के दौरान अजनबियों से बात करना बिलकुल पसन्द नहीं करता हूं लेकिन अपने अन्तरंग लोगोंं से भी महिलाओं की तरह देर तक बात करने की कल्पना मात्र से मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। बचपन से ही दब्बू स्वभाव का होने के कारण और बात-बात पर कडक़ बाप की ज्यादा बात न करने की चेतावनी ने भी न बोलने की रही-सही कसर पूरी कर दी थी। फलत: दब्बू के साथ-साथ घोंघा भी घोषित हो गया था। इसलिए सफर में मैं हमेशा कई पत्रिकायें और किताबें रखता हूं ताकि अगर एक किताब से बोर होने लगूं तो दूसरी में मन लगा लूं। इसी तरह से बैग में पानी की बोतल के साथ बिस्कुट के पैकेट, टिफिन,फल और यहां तक कि टाफी भी रखता हूं। आप कहेंगे कि थोड़े से सफर के लिए इतना लम्बा इन्तजाम! कैसा अस्थिर चित्त और भयभीत प्रकृति वाला इंसान है। बात भी सही है। मैंने कई बार इस बारे में सोचा है और उन लोगों के लिए मन में ईष्र्या का भाव भी पैदा हुआ है जो अचानक ही किसी सफर के लिए मस्ती के साथ खाली हाथ ही निकल पड़ते हैं। और एक मैं हूं कि जब यह अच्छी तरह से मालूम है कि जीवन की अन्तिम यात्रा अचानक और बिना किसी तैयारी के शुरू हो जायेगी तो भी बीच की छोटी यात्राओं में आने वाले कष्टों से बचने के लिए कितना पुख्ता इन्तजाम रखने की कोशिश करता हूं।
मेरे हाथ में आधा खाया हुआ अमरूद था तो उसके हाथ में मूगफलीभरा झोला। 12-13 साल का लडक़ा लगता था। गोरी रंगत होने के साथ ही गालों पर चकत्ते से पड़ गये थे। शायद किसी विटामिन की कमी की वजह से ऐसा हो गया हो। सर्दियों की शुरुआत भर थी। ठीक से जाड़ा पडऩा शुरू नहीं हुआ था लेकिन एहतियातन मैंने जैकेट पहन रखी थी। उस लडक़े ने पायजामे के ऊपर एक कमीज भर। मंूगफलीवाले झोले को सीने से इस तरह से चिपकाये हुए वह खड़ा था जैसे मूंगफली की गर्मी वह अपने शरीर में सोख लेना चाहता था।
दो रुपये की पचास ग्राम मूंगफली बताने पर मैंने दो पैकेट ले लिये। हर पैकेट पचास ग्राम का था। वैसे यह ग्राहक की इच्छा के ऊपर था कि वह पहले से भरा हुआ पैकेट ले या अपने सामने तौलवा ले। मैं तौलवाने के पचड़े में नहीं पड़ता। बहुत होगा पांच-दस ग्राम कम दे देगा और क्या! जहां लोग देश को ही लूटे जा रहे हैं वहां उसे इतनी सी डांड़ी मारने मारने का हक तो होना चाहिये! पास ही बैठे अधेड़ हो चुके देहाती ने लडक़े से मूंगफली तौलने को कहा लेकिन जब लडक़े ने बताया कि उसके पास तराजू नहीं है तो अधेड़ ने चीखते हुए कहा कि ‘‘ देखा साब! यह सब धोखाधड़ी है, सारे मूंगफलीवाले तराजू लेकर चलते हैं तो फिर तुम क्यों नहीं लिये हो? ’’
बहरहाल थोड़ी सी झिक-झिक के बाद एक पैकेट मूंगफली उसने भी ले ली। लेकिन जब उसने पैकेट खोलकर देखा तो फिर चीखने लगा, ‘‘यह पचास ग्राम मूंगफली हो ही नहीं सकती …तीस ग्राम ही होगी..धोखा दे रहा है बदमाश..।’’
मैं हंसने लगा। कैसा आदमी है? दुनिया में हर तरफ इस बात की स्पद्र्धा चल रही है कि कौन किसको पहले और कितना ठग ले और यह महाशय कम मूंगफली का रोना लेकर बैठे हैं। वैसे भी आमतौर पर बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों के पास चीजें घटिया और अधिक दाम पर मिलती हैं, यह बात सभी जानते हैं-चाहे वह पुलिसवाला हो या न्यायाधीश। सभी भुक्तभोगी हैं और सभी अपने बच्चों से इन लोगों से सावधान रहने के लिए कहते हैं लेकिन व्यवस्था में बदलाव लाने का प्रयास कोई नहीं करता, क्यों? कौन लड़ेगा इनसे, किसके पास है वक्त, सबको अपनी मंजिल पर जाना है। कोई अन्याय और फरेब के खिलाफ जंग लडऩे के लिए तो घर से निकला नहीं है। जो हो रहा है होने दो, बस सावधान रहो अपने लिए-यही है मूलमंत्र हर पीढ़ी का। बहुत हुआ तो बस अपने को छोडक़र सबको दोषी ठहरा दो।
मुझे याद आया कि स्टेशन आते समय किराया तय किये बिना ही रिक्शे पर बैठ गया था और रिक्शेवाले ने पांच की जगह आठ रुपये ले लिये थे। उसने मेरी जेब में हाथ डालकर जबरदस्ती रुपये नहीं निकाले थे और न ही मैं उससे कमजोर था-सिवाय एक चीज में कि मैं सार्वजनिक रूप से अपनी प्रतिष्ठा गंवाने का इच्छुक नहीं था, वह भी रिक्शेवाले के हाथों मात्र तीन रुपयों के लिए। मुझे चौराहे पर रिक्शेवाले पर अपना पौरुष उड़ेलने से बेहतर उसके द्वारा लुट जाना लगा, अगर इसे आप लूट लिया जाना मानने को तैयार हों। अगर आप संवेदनशील हैं, शरीफ हैं, परोपकारी हैं, उदार हैं, क्षमाशील हैं तो उसकी कीमत चुकानी ही पड़ती है।
मैंने मूंगफली खानी शुरू ही की थी कि वह अधेड़ फिर चीखा,‘‘मूंगफली अच्छी नहीं है, बेस्वाद है… और नमक कहां है..? ला रे..नमक दे..। ’’
मैंने भी अपनी पुडिय़ा खोली तो उसमें नमक चुटकी भर ही था। मुझे लगा कि इस चुटकी भर नमक से ही मेरा काम चल जायेगा, इसलिए उस अधेड़ के चीखने पर मैं मुस्कराने लगा, ‘‘भई, यह कोई टाटा का नमक नहीं है जिसे खाने के बाद राष्ट्रभक्ति जन्म ले लेगी। फिलहाल यह नमक तो परिवारभक्ति ही कर रहा है यानी कि नमक बचाकर वह अपने परिवार को भूखों मरने से बचा रहा है।’’
वह लडक़ा अधेड़ की बातों को अनसुना करता हुआ खिडक़ी के किनारे एक खाली पड़ी सीट पर बैठ गया। उसके सामने की सीट पर बैठा हुआ व्यक्ति ठेठ देहाती लग रहा था। उस देहाती से लगने वाले यात्री ने स्वेटर के साथ जैकेट भी पहन रखी थी। उसने कान पर मफलर भी बांध रखा था और रह-रहकर अपने हाथों को रगडक़र गरमाने भी लगता था। संभवत: वह कहीं और बैठे अपने साथियों के बीच से उठकर यहां चला आया था क्योंकि वह बीच-बीच में पीछे मुडक़र देख लेता था। उसका मन अपने साथियों की बातचीत में ही लगा हुआ था। उसके साथियों ने पीछे से कोई बात कही थी तो उसने लगभग खीझते हुए जवाब दिया था, ‘‘यार, तुमका तो मालूम है कि हमका जाड़ा ज्यादा लगत है…अब का करी, कान न बांधी तो का करीं..बताओ?’’
उसके इस उत्तर के बाद अगर पूरे दृश्य पर गौर किया जाये तो बरबस ही हंसी छूट पड़ेगी। एक तरफ वह कह रहा था कि उसको जाड़ा ज्यादा लगता है और उससे बचने के लिए उसने कान पर मफलर बांध रखी थी। साथ ही पैरों को सिकोडक़र वह सीट पर उकड़ू होकर बैठा हुआ था। लेकिन दूसरी तरफ उसने पूरी खिडक़ी खोल रखी थी और उससे बाहर झांक रहा था। खिडक़ी से आने वाली ठंडी हवा कम्पार्टमेंट में मौजूद सारे लोगों को कंपा रही थी।
अधेड़ कुछ न कुछ बड़बड़ाये जा रहा था। मूंगफली का खराब स्वाद अभी भी उसे बेचैन किये जा रहा था। मेरी सामने वाली बर्थ के ऊपर वाली बर्थ पर एक फौजी लेटा हुआ कोई उपन्यास पढ़ रहा था। आमतौर पर ट्रेनों और बसों में लोग या तो अंग्रेजी के उपन्यास पढ़ते दिख जायेंगे या फिर हिन्दी के मोटे-मोटे उपन्यासों में डूबे दिखायी देंगे। ये मोटे उपन्यास कोई महाग्रंथ नहीं बल्कि सस्ते-
चलताऊ किस्म के उपन्यास होते हैं। एक प्रकाशक ने एक बार बताया था कि हिन्दी के पाठकों की पसन्द बिल्कुल विचित्र है। संभ्रान्त दिखने वाले पाठक तो सार्वजनिक स्थानों पर मातृभाषा हिन्दी की पुस्तकों को हाथ लगाना ही पसन्द नहीं करते। जो लोग हिन्दी के उपन्यासों पर हाथ लगाते हैं उनका ध्यान पृष्ठों की संख्या और उसकी कीमत पर एकसाथ रहता है। अगर एक प्रकाशक बीस रुपये में दो सौ पृष्ठ का उपन्यास छापता है तो पाठक बीस रुपये में दो सौ बीस पृष्ठों वाला उपन्यास तलाशते हैं। भले ही उस उपन्यास में एक पृष्ठ में पंक्तियों की संख्या कम हो और हर पंक्ति के बीच का फासला बढ़ता जा रहा हो।
लेकिन वह फौजी राही मासूम रजा का कोई उपन्यास पढ़ रहा था, जिसे देखकर अप्रत्याशित खुशी हुई। उपन्यास का नाम जानने की जिज्ञासा हुई लेकिन काफी कोशिशों के बावजूद दूर से नाम पढ़ नहीं पाया और झिझक के कारण नाम पूछने की हिम्मत भी जुटा नहीं पाया।
इस बीच उस अधेड़ के बार-बार चिल्लाने पर कि बिना नमक के मूंगफली का मजा नहीं है, नमक लाओ-नमक लाओ..की रट लगाये रहने पर उस लडक़े ने झोले के भीतर से एक छोटी सी पुडिय़ा निकाली और अधेड़ की तरफ बढ़ा दी। लडक़े ने मेरी तरफ भी एक पुडिय़ा बढ़ायी और आंखों के संकेत से पूछा कि क्या आपको भी चाहिये? मैंने भी संकेत से ही नमक न लेने का इशारा कर दिया।
‘‘क्यों ज्यादा नमक लेकर बरबाद किया जाये जबकि मेरा काम इतने से ही चल सकता है। ’’ न करके एक तरह से मैंने उस बच्चे का दिल जीतने की कोशिश ही की थी और यह जताने की कोशिश की थी कि मैं चाहता तो और भी नमक ले सकता था। अपनी उदारता के बारे में सोचकर मुझे खुद भी हंसी आने लगी, ‘‘चुटकी भर नमक की उदारता…वाह! ’’
मुझे याद आया कि एकबार पूरे शहर में अचानक नमक का संकट पैदा हो गया था और यह अफवाह फैल गयी थी कि गुजरात में नमक सौ रुपये किलो तक बिक रहा है। यही नहीं, नमक के दामों में यह वृद्धि राष्ट्रव्यापी थी और दिल्ली में भी नमक की कीमत बढक़र डेढ़ सौ रुपये किलो तक पंहुच गयी थी। इस अफवाह को इलेक्ट्रानिक मीडिया लगातार कवर कर रहा था इसलिए कोई सुनी-सुनाई कोरी गप जैसी बात नहीं थी। इस अफवाह की सत्यता को जांचने के लिए मैं बाजार में निकला तो देखा कि वास्तव में नमक के लिए लोग दूकानों में लाइन लगाकर खड़े हैं और कई जगह तो बेताब भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को लाठियां तक भांजनी पड़ रही थी। एक दूकान जो खाली सी लग रही थी, मैंने सोचा उस दूकानदार से मौजूदा हालात पर टिप्पणी ली जाये। मैंने ऐसे ही पूछ लिया कि नमक क्या भाव चल रहा है? दूकानदार द्वारा यह बताने पर कि नमक बीस रुपये किलो है, मेरे रोंगटे खड़े हो गये। इतना सस्ता! तपाक से मैंने दो किलो नमक खरीद लिया।
सस्ता नमक पाकर कुछ देर के लिए चैन तो आ गया लेकिन बीस रुपये किलो नमक खरीदने का मेरा फैसला सही था या गलत, यह जांचने के लिए मैं एक दूसरी दूकान में घुसा। उस दूकानदार ने जब नमक का दाम पच्चीस रुपये किलो बताया तो मुझे लगा कि अब तो यह पक्का हो गया है कि नमक का दाम बढ़ रहा है। मैंने सोचा कि पांच रुपये किलो मारा-मारा फिरने वाला नमक यदि पचास रुपये किलो बिकने लगे, जिसका पूरा अंदेशा लग रहा था और उस नमक को बीस रुपये में खरीद लिया जाये तो तीस रुपये किलो का सीधा फायदा! वाह, क्या बात है! वैसे भी नमक कोई उडऩे या सडऩे वाली चीज नहीं है और बिना नमक के भोजन बन ही नहीं सकता। पता नहीं घर में नमक है भी कि नहीं ? वैसे भी इन औरतों को दीन-दुनिया की खबर कहां रहती है? आदत तो ऐसी पड़ गयी है कि कोई सामान जब खत्म हो जाता है तब दूकान की तरफ भागती हैं। चूल्हे पर चाय चढ़ाने के बाद पता चलता है कि घर में एक चम्मच भी चीनी नहीं है। घर में मेहमान बैठे होंगे तो झोला थमाकर कहेंगी कि जल्दी से पांडे जी के यहां से एक किलो चीनी लेते आइये। कई बार तो इतना गुस्सा आता है कि कह दूं कि एक किलो चीनी क्यों ले आंऊ, छह चमम्मच चीनी ले आता हूं, काम चल जायेगा। तीन ही तो मेहमान हैं। एक मेहमान दो चम्मच से ज्यादा चीनी लेगा नहीं और एक मेहमान तो बुजुर्ग हैं, जरूर डायबिटिक होंगे। वह तो चाय में चीनी पीते नहीं होंगे…! लेकिन महिलाओं से कौन जीत पाया है। उनका बस चले तो घर के बगल में हर चीज की एक दूकान जरूर होनी चाहिये।
मैंने सोचा कि कि पांच सौ मीटर के फासले पर नमक के दाम में पांच रुपये का फर्क है और इसी गति से दाम बढ़ता रहा तो घर तक पंहुचते-पंहुचते दाम सौ रुपये किलो तक हो सकता है। हालांकि यह ख्याल अतिशयोक्तिपूर्ण था लेकिन नमक के दाम में जो वृद्धि दिख रही है वही कौन सी तार्किक है! मैंने तुरन्त अपनी स्कूटर स्टार्ट की और बीस रुपये किलो वाली दूकान की तरफ भागा। इस बीच यह निर्णय करने में मुझे मुश्किल हो रही थी कि मैं कितने किलो नमक खरीद लूं? दस-बीस या तीस किलो! दूकान पंहुचने तक मेरा तनाव बढ़ता ही जा रहा था। अन्तिम क्षण तक मैं निर्णय नहीं ले पा रहा था कि दूकान के काउंटर पर पंहुच गया। बिना कुछ सोचे-समझे मैंने पांच किलो नमक का आर्डर प्लेस कर जेब से नोट निकालकर यह अन्दाज लगाने लगा कि अगर जेब में सौ रुपये ज्यादा होंगे तो और भी नमक ले लेंगे। लेकिन उस समय मेरे हाथों के तोते उड़ गये जब दूकानदार ने कहा कि सारा नमक खत्म हो चुका है और वह खुद नमक की तलाश में निकल रहा है। मेरी निराशा का पारावार नहीं था।
पल भर में नमक को इस तरह गायब हो जाता देख मेरा तो हलक ही सूख गया। मैं पलटकर पच्चीस रुपये वाली दूकान की तरफ भागा और उसके सामने बीस किलो नमक की मांग रख दी। लेकिन वहां भी नमक नहीं था। दूकानदार ने कहा कि बस एक किलो नमक बचा है जिसे उसने अपने लिये रख लिया है।
अपनी ही बेवकूफी पर मुझे गुस्सा आने लगा था। जब बीस रुपये किलो मिल रहा था तब तो लिया नहीं और जब पच्चीस रुपये किलो हो गया तो भी आंखें नहीं खुलीं। फालतू में इधर से उधर दौड़ता रहा। अपनी ही गलती पर भुनभुनाता हुआ पूरे शहर में हर दूकान छान मारी लेकिन नमक कहीं नहीं मिला। दूकानों में नमक खत्म हो चुका था। जिन लोगों ने पचास रुपये में भी नमक खरीद लिया था वे अपने को सफल विश्लेषक, समय को देखकर चलने वाले और जागरूक मानकर गरदन टेढ़ी कर चल रहे थे। अगले हफ्ते जब नमक बाजार में दो-चार सौ रुपये किलो बिक रहा होगा उस समय वे पचास रुपये किलो वाले नमक का सेवन कर अपनी बुद्धिमानी पर इतरा रहे होंगे। उस समय की मेरी मानसिक स्थिति ऐसी थी कि अगर किसी दूकान में सौ रुपये किलो भी नमक मिल रहा होता तो मैं बेहिचक खरीद लेता।
खैर हारे हुए जुआरी की तरह मुंह लटकाये हुए लंच पर घर लौटा। स्कूटर की बास्केट से दो किलो नमक को मुर्गे की तरह टांगे हुए घर में प्रवेश किया तो मेरी पत्नी ने मुझपर कटाक्ष करते हुए कहा, ‘‘तो आप भी ले आये नमक! बड़ी अफवाह फैली हुई है कि दो-ढाई सौ रुपये किलो बिक रहा है नमक? आपको कितने में मिला?’’
दाम को लेकर बीबी की इस जानकारी से मेरी जान में जान आयी। धमनियों में जम रहा रक्त फिर से प्रवाहित होने लगा, झुकी हुई गरदन भी टेढ़ी होने लगी। कम से कम दाम को लेकर बीबी के सामने होने वाली शर्मिंदगी से मैं बच ही गया था। थोड़ा विजयी भाव से मैंने कहा, ‘‘बीस रुपये किलो। ’’
‘‘बीस रुपये किलो…!’’ बीबी की चीख निकल गयी। यह खुशी की चीख नहीं थी। मेरी बीबी कोई भी चीज एक पैसे ज्यादा देकर लेने में विश्वास नहीं करती है, भले ही कितनी दूकानें देखनी पड़ें या कितना ही वक्त जाया हो जाये। इसलिए पांच रुपये वाली चीज बीस रुपये में पाकर उसे निश्चित रूप से खुश नहीं होना था, भले ही वह सुनहरे पैकेट में मिल रहा हो। लेकिन वक्त की नजाकत देखकर उसने चीख को गले में दबाया और किचेन में चली गयी। वह समझ नहीं पा रही थी कि अपने गुस्से को तत्कान प्रगट कर दे या थोड़ा इन्तजार कर आसपास भी दरियाफ्त कर ले कि उसका गुस्सा कितना जायज है। मैं समझ गया कि आज खाना देर में मिलेगा और दाल में घी तो मिलेगा ही नहीं, कहेगी कि डाक्टर ने घी खाने को मना किया है। मेरी फिजूलखर्ची के लिए वह थाली में खाने की जगह नमक भी परस सकती है कि लो अपना कीमती नमक खुद ही खाओ।
अगले दिन अखबारों में खबर छपी कि किस तरह से दिनभर नमक का दाम बढ़ता रहा और लोग नमक के लिए लाठी तक खाते रहे। लेकिन दिन खत्म होते-होते नमक अपनी पुरानी कीमत पर सहजता से मिलने लगा-यानी पांच रुपये किलो! इसके बाद मुझे आज तक नहीं याद कि वह बीस रुपये किलो वाला नमक किस दिन के खाने में डाला गया था।
इसलिए जब चुटकी भर नमक के लिए सामने वाले की चीख-पुकार सुनी तो बरबस हंसी आ गयी। वह लडक़ा मूंगफलीवाले झोले को सीने से चिपकाये हुए बर्थ पर बैठा ठिठुर रहा था। उसी के ठीक सामने बैठा अधेड़ उसे नमक कम देने के लिए लगातार कोसे जा रहा था।
मैंने मूंगफली का एक पैकेट खत्मकर दूसरा पैकेट खोला। एक-दो मूंगफली खाने के बाद नमक की तलाश में पैकेट में उंगलियां अपने आप ही घूमने लगीं। थोड़ी सी घूम-टहल के बाद एक नन्हीं सी पुडिय़ा उगंलियों से टकरायी। दो उंगलियों की कैंची बनाकर एक पुरानी फिल्म की धुन गुनगुनाते हुए मैंने उसे किसी तरह से बाहर निकाला। फिर आहिस्ते से उसे खोलना शुरू किया ताकि उसका एक भी कण बिखरने न पाये। लेकिन यह क्या! पूरी पुडिय़ा खोलकर और फिर उसे पलटकर भी देखा लेकिन उसमें नमक का नामोनिशान तक नहीं था। मुझे झटका लगा। मुझसे भी धोखा! मन किया कि सामने मेमने की तरह बैठे नमक चोर की गरदन मरोड़ दूं। उस अधेड़ का गुस्सा भी मुझे सही लगने लगा। मैं ही कैसा मूर्ख था जो अधेड़ को गलत समझ रहा था। ऐसे लोगों से अगर सिधाई से पेश आया जाये तो अपना ही नुकसान होता है।
लेकिन फिर भी मैंने अपना मानसिक संतुलन नहीं खोया। मेरी जगह कोई और होता तो उसी अधेड़ की तरह चीखने लगता और तमाशा खड़ा कर देता। लेकिन अगर आप चीख नहीं रहे हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि आपको गुस्सा नहीं आ रहा है। विमल का एक विज्ञापन बहुत पहले पढ़ा था जिसमें लिखा था कि ‘अ वूमन एक्सप्रेसेस हरसेल्फ इन डिफरेंट वेज’। मेरा मानना था कि ‘एवरीबडी एक्सप्रेसेस वनसेल्फ इन डिफरेंट वेज ’।
गुस्से को काबू में रखते हुए मैंने सोचा कि हो जाता है, दुनिया है, व्यापार है, धोखा-फरेब तो है ही। जिसकी जितनी हैसियत है, जितने संस्कार हैं और जितनी मजबूरी है, उसी के हिसाब से अच्छा कर रहा है और बुरा भी। इस छोटी सी उम्र में अगर वह छल कर रहा है तो उसकी भी विवशता होगी। उसके लिए तो दो-चार पैसों की अहमियत है, भगवान की कृपा से मेरे लिए इनका कोई मूल्य नहीं है। मैं उसकी जगह होता तो क्या में भी वही न कर रहा होता? इस कठिन सवाल का जवाब मैं नहीं दे पाया लेकिन उसके छोटे से गुनाह को माफ करते हुए और स्वर में मुलायमियत लाते हुए मैंने उससे कहा, ‘‘लाओ, एक पुडिय़ा नमक दे दो ।’’
‘‘नमक नहीं है..! ’’
यह सुनते ही मेरा खून अचानक गर्म हो गया। मुझी से चतुराई! ‘‘वह जो पुडिय़ा मुझे दे रहे थे, वह कहां गयी? ’’
‘‘बगल वाले को दे दी। ’’
‘‘ यानी कि अब नमक नहीं है? ’’
‘‘नहीं…! ’’
‘‘ स्साले चोर…!’’ मन में हुआ कि उसपर चढ़ ही बैठूं, ‘‘पिद्दी न पिद्दी का शोरवा, मुझी को सिखा रहा है! ’’ लेकिन कह नहीं सका। अच्छा संस्कार बड़ी बुरी चीज है। और कुछ करे न करे लेकिन आपको सार्वजनिक रूप से कायर बना ही देता है।
वैसे भी मैं थोड़ा आत्मसंतोषी किस्म का जीव हूं। खाना बेस्वाद होने पर भी आम पुरुषों की तरह भौंहे टेढ़ी नहीं करता। सोचता हूं कि करोड़ों लोगों को तो यह भी मयस्सर नहीं है। वैसे भी अगर देखा जाये तो उसका क्या दोष है। बाल-मन इस तरह के आपराधिक षड्यंत्र नहीं कर सकता है। हो सकता है इस मामले में उसने किसी की नकल की हो। उसे भला अच्छे-बुरे की क्या पहचान। देखो तो जरा, कितना मासूम चेहरा है। गरीब है, पता नहीं किस मजबूरी में जाड़े की इस रात में अनजान लोगों के बीच अकेले मूंगफली बेचने की हिम्मत जुटा रखी है। मैं तो महाडरपोक, ऐसी मजबूरी में भी क्या ऐसी हिम्मत जुटा पाता? पता नहीं कैसे-कैसे गलत
निगाह रखने वाले लोग मिलते हैं इस सफर में। खासकर पुलिस वाले! भगवान ही बचाये इनसे। रेलवे पुलिसवालों को अकसर ऐसे भोले लडक़े मिल जाते हैं। उनकी क्या दुर्दशा होती है, यह तो वे ही जानते होंगे। किसी को बताने लायक नहीं रहते। पता नहीं अपने लडक़ों को भी ये लोग छोड़ते हैं कि नहीं। जेलों में जाकर देखिये कितना अत्याचार होता है उनपर। मानवाधिकार की बात जब भी होती है तो सिर्फ अपराधियों की होती है कि वे कैसे पुलिस के प्रकोप से वे बच सकें। जेल में बन्द कम उम्र के इन लडक़ों को कम ही समय में जवान बना देने वाले घृणित अपराध पर किसी की नजर जाती है?
मैंने एक बार अपने पत्रकार मित्र से कहा था कि खबर लिखने के अलावा भी कुछ करो। क्यों नहीं एक याचिका दायर कर देते कि जेलों में या तो कमसिन लडक़ों को रखा न जाये या फिर उन्हें सुरक्षित रखने की व्यवस्था की जाये। लेकिन वे न तो वोट बैंक होते हैं और न ही कोई इन बातों की सार्वजनिक रूप से चर्चा करके अपनी शेष जिन्दगी को शर्मनाक बनाना चाहता है। इसलिए यह निजी जख्म बनकर रह जाता है।
उस लडक़े की तरफ देखकर मेरे मन में घृणा की जगह दया का भाव जागृत हो गया। कैसे महफूज रख पाता होगा अपने आपको? बच तो पायेगा नहीं इन राक्षसों के चंगुल से, देखता भी होगा सबकुछ अपने सामने, पता नहीं क्या चल रहा होगा इसके मन में? अपने को बचाने के उपाय सोचता होगा, मिट्टी का लोंदा भर तो है, कुम्हार तो हम सब हैं। बिगाड़ेंगेे हम ही उसे और दोष देंगे उसको, जिन्दगीभर सजा भुगतेगा वह!
‘‘तो मूंगफली किससे खायें…? ’’ अनुत्तरित प्रश्न अभी मौजूद था।
‘‘…….! ’’
बदमाश! जवाब नहीं देता, गूंगा बना बैठा है। मूर्खता तो मेरी ही है। बड़ा ही दानवीर कर्ण बना फिर रहा था मैं। जब वह अपने आप पुडिय़ा दे रहा था तब बड़ी उदारता दिखा रहा था मैं कि मुझे नहीं चाहिये। अब भुगतो। बात यह नहीं है कि जरा सा नमक न होने से मूंगफली खायी नहीं जा सकती है। बहुत होगा, स्वाद नहीं आयेगा। ऐसी कितनी ही बेस्वाद चीजें हम पैसा देकर खाते रहते हैं और मुंह बिचकाने तक की हिमम्मत नहीं होती है। बात सिर्फ इतनी सी है कि मैं उसी से ठगा गया जिसकी मैं वकालत कर रहा था।
अचानक मुझे भी चालाकी सूझी,‘‘ऐसा करो, एक पैकेट मूंगफली और दो। ’’
वह गौर से मेरी तरफ देखने लगा। मेरे मन का भाव पढऩे की वह कोशिश कर रहा था। सोच रहा होगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं मूंगफली लेकर पैसे ही न दूं? या फिर उस पैकेट से नमक निकाल लूं! हालांकि मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था। एकदम से यह भी स्पष्ट नहीं था कि मैं क्या करना चाहता था? लेकिन उसे छलने का मेरा कोई मंतव्य नहीं था। उसे कुछ पल के लिए हैरान-परेशान करने का भाव जरूर निहित था। या फिर उसके साथ ठिठोली करने का मन था।
वह अनिर्णय की स्थिति में लग रहा था। मेरे मांगने पर भी जब उसकी उंगलियों में हरकत नहीं हुई तो मैंने खीझकर कहा,
‘‘अरे, तुमसे एक पैकेट मूंगफली मांग रहे हैं खाने के लिए और तुम तो गूंगा बनकर बैठ गये जैसे कि पैसा नहीं मिलेगा! पैसा न देना होता तो छीन न लेते?’’
उसे मेरी बात में दम लगा या घबरा गया था। उसने एक पैकेट मेरी तरफ बढ़ाया। मैंने पैकेट धीरे-धीरे खोलना शुरू किया। फिर उंगलियां अन्दर डालीं और उसे छकाने के भाव से कहा, ‘‘लगता है इसमें भी नमक नहीं है। क्यों रे! तुम बिना नमक के मूंगफली बेंचते हो? ’’
लडक़ा कुछ भयभीत नजर आने लगा था। उसके भीतर कितना डर समाया हुआ था और कितने सोये हुए भय अंगड़ाई लेने लगे थे, यह मुझे नहीं मालूम था। वह भी यह अन्दाजा लगाने की कोशिश कर रहा था कि आखिर मेरा इरादा क्या है? इतने में किसी ने पीछे से मूंगफली के लिए आवाज लगायी और वह बड़ी ही चपलता के साथ आवाज की दिशा की तरफ भागा। साफ लग रहा था कि वह मेरे सामने से उठने का बहाना तलाश रहा था। शायद उसे मेरे आक्रामक होने का भय था। वह अन्दाज नहीं लगा पा रहा था कि मैं उसे कितना नुकसान पंहुचा सकता हूं। कहने का मतलब मुझे ऐेसा लग रहा था कि मेरे बारे में वह अपने तक के अनुभवों के आधार पर वह किसी नतीजे पर नहीं पंहुच पा रहा था। शायद वह सोचने के लिए समय चाहता था। या जबतक कि वह किसी नतीजे पर न पंहुच जाये तब तक अपने को सुरक्षित रखना चाहता था।
वहां से भागने की जल्दीबाजी में वह मूंगफली के पैसे ले जाना भी भूल गया। मुझे उसका दो रुपये भूलकर वहां से जाना पता नहीं क्यों अच्छा लगने लगा। मैं उसका दो रुपया हड़पना नहीं चाहता था लेकिन एक भाव तो था ही कि हो सकता है कि मुझसे डरकर वह दो रुपया भूल ही गया हो! मैं खुश तो था ही लेकिन बहुत ज्यादा खुश नहीं क्योंकि मैंने ऐसा कई बार देखा है कि ट्रेन में सामान बेंचनेवाला कोई भी अपने पैसे नहीं भूलता है। थोड़ी देर बाद कहीं न कहीं से वह आ टपकता है और अपनी खुली हुई हथेली सामने फैला देता है। संभवत: वह भी दो-चार मिनटों में आ जाये!
इतना सब सोचते हुए मुझे याद आया कि बहुत देर से मेरी उंगलियां पैकेट के अन्दर नमक तलाश रही थीं। तो इस पैकेट में भी नमक नहीं है? मेरा गुस्सा फिर बढ़ गया। हालांकि मूंगफली के पैसे न देने के कारण गुस्सा ज्यादा बढ़ नहीं रहा था लेकिन यह कोई पक्का नहीं था कि पैसे नहीं देने हैं इसलिए गुस्सा अपनी जगह पर मौजूद था। एक और चीज जो मुझे खाये जा रही थी वह यह कि ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़े लोग इतने निष्ठुर और स्वार्थी क्यों होते जा रहे हैं? ग्रामीणों को लेकर बचपन से जो एक छवि दिमाग में बनी हुई थी कि वे भोले-भाले और निश्छल होते हैं लेकिन अपने अनुभवों से मैंने यह जाना है कि गांव की राजनीति, वहां के जातीय समीकरण, सामंतशाही, शोषण, अनवरत अत्याचार ने उन्हें कठोर और अवसरवादी बना दिया है। चुनावों ने गांवों की राजनीति को वोटों की जीत-हार से अलग जीवन-मरण से जोड़ दिया है जिससे उन्हें निश्छल समझना भूल ही होगी। बस की यात्रा के दौरान मैेने देखा है कि दो रुपये की मूंगफली से भरे पैकेट के बीच में खाली कागज के टुकड़े इस तरह से ठूंसे जाते हैं जिससे प्रथमदृष्टया उसका वजन ज्यादा लगे। मूंगफली का स्वाद लेते-लेते अचानक जब आपके हाथ में कागज के टुकड़े आ जायें तो आप किसपर कुढ़़ेंगे, किसको दोष देंगे?
मैंने सोचा कि कोई पहली बार तो ठगा नहीं गया हूं। एक बालक द्वारा ठगा जाना कोई बुरा नहीं है। आखिर क्या ले गया? वह कहता तो उसकी सारी मूंगफली खरीद लेता ताकि वह मुट्ठीभर पैसे लेकर घर जल्दी जाये, अपनी छोटी बहन के लिए टाफी भी खरीदकर ले जाये। अगर इस दुनिया में अपना अस्तित्व बचाये रखना है तो ये सब चीजें जल्दी ही सीख लेनी चाहिये। इन्हें देर से जानने पर अफसोस ही होता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें अवसर मिलने पर भी गलत न करने का अफसोस नहीं होता है लेकिन कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो ऐन्द्रिक सुख देने वाली हर वर्जित चीज का उपभोग करने में एक पल भी नहीं गंवाना चाहते। संभवत: ऐेसा संस्कारगत होता है लेकिन कुछ ऐसे लोगों को भी वह सब कुछ करते देखा है जो उनके मां-बाप ने करने की सोची तक नहीं होगी। इसका कोई नियम नहीं , ऐसा होता है, चाहे इसे अपवाद ही मान लिया जाये। जैसे कई पीढिय़ों से मधुमेह के रोगियों के परिवार में कोई न कोई ऐसा निकल ही आता है जो मधुमेह का शिकार होने से बच जाता है।
जब उस लडक़े को गये हुए कई मिनट बीत गये तो मेरे संस्कारों ने मुझे झकझोरा। कहीं कुछ गलत हो गया है! मैं तो थोड़ी ठिठोली करना चाहता था लेकिन अनजाने में लगता है कि मुझसे गलती हो गयी और उसका दो रुपया दबा लेने की गुस्ताखी कर बैठा। मेरा मन मुझे कचोटने लगा। मैं ऐसा करना तो नहींं चाहता था लेकिन सब कुछ मेरे सोचने पर तो होता नहीं है। गलती तो मेरी है, सरासर मेरी। कोई बहाना नहीं चलेगा कि मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था। मैंने ऐसा मजाक करने की कोशिश ही क्यों की? अपनी और उसकी उम्र का फासला नहीं देखा? क्या कोई इतने छोटे लडक़े के साथ मजाक करता है? अगर वह अपना पैसा भूल गया है या वास्तवमें मुझसे डर गया है तो मेरा फर्ज बनता है कि मैं उसे ढूंढ कर उसे उसका हक दूं वरना यह माना जायेगा कि मैंने उसका पैसा इरादतन हड़प लिया। ऐसा कितनी ही बार हो चुका है कि दूकानदार ने भूलवश अधिक पैसे लौटा दिये तो मैंने वे पैसे कहां दबाये? फौरन उसकी गलती बताकर उसे पैसे वापस कर दिये थे। यह तो बहुत सामान्य सी बात है। जब मैं पांचवी क्लास में पढ़ता था तो एक दूकानदार को मैंने दस रुपये दिये और उसने मुझे 92 रुपये लौटाये। उसने सोचा था कि मैंने उसे सौ की नोट दी थी। क्या मैं वे पैसे लेकर चुपचाप घर लौट आया था? मैंने तो वह पैसा हजम नहीं किया और आज चुटकी भर नमक के लिए मैं दो रुपये का अपराधी बन रहा हूं और वह भी एक बालक के सामने..छि:..!
मैं अपनी जगह से उठा और कम्पार्टमेंट में उसे तलाशने लगा। इसी बीच एक सूरदास मनोज कुमार की फिल्म का एक बहुत ही पुराना गाना गाते हुए उधर से गुजरे,‘‘नसीब में जिसके जो लिखा था..किसी के हिस्से में प्यास आयी किसी के हिस्से में जाम आया…। ’’ मैंने न जाने कितनी ट्रेनों में कितने सूरदासों को यही गाना गाते हुए सुना है। मैंने जेब में हाथ डाला और सोचा जो सबसे छोटा सिक्का पकड़ में आयेगा उसे सूरदास को दे दूंगा। जेब से उंगलियां जब बाहर निकलीं तो उनमें पांच का सिक्का फंसा हुआ था। एक आह के साथ वह सिक्का मैंने सूरदास की फै ली हुई हथेली पर रख दिया। कर भी क्या सकता था। जब सूरदास का नाम उस सिक्के पर लिख गया था तो फिर उस सिक्के को जेब में डालकर मैं दूसरा सिक्का क्यों निकालता..नसीब में जिसके जो लिखा था…!
पूरे कम्पार्टमेंट में वह नहीं दिखा। इत्तफाक से दूसरे कम्पार्टमेंट को जोडऩे वाला दरवाजा खुला हुआ था। लडक़े की तलाश में मैं उस कम्पार्टमेंट में चला गया। अपनी जगह छोडक़र दूसरे कम्पार्टमेंट में जाने पर डर सता रहा था कि कहीं कोई मेरा सामान ही न गायब कर दे। कहीं वह मासूम सा दिखने वाला लडक़ा ही पहले तड़ा न बैठा हो और मौके का फायदा उठा ले। शायद इसीलिए गायब हो कि मैं उठूं और वह काम लगा दे। या फिर कहीं सूरदास ही अपनी तीसरी आंख खोलकर इधर-उधर देखें और किसी को न पाकर हाथ साफ कर दे। कोई भरोसा नहीं, आंख पर चश्मा लाकर भीख मांगने वाले कई सूरदासों को देख चुका हूं।
दूसरे कम्पार्टमेंट में घुसते ही पहली बर्थ के पास वह बैठा हुआ दिख गया। बगल में दो-तीन लोग बैठे हुए गप मार रहे थे और वह उन्हें सुनने की कोशिश कर रहा था। मुझे देखते ही उसमें पहचानने या कुछ याद आने जैसा भाव पैदा नहींं हुआ। बस थोड़ा सा कुनमुनाकर रह गया।
तो यहां बैठा है स्साला और में वहां हैरान हो रहा हूं। नमक मारकर बहाने से भाग आया। देखो, किस तरह से मुझे देखकर मुंह उधर कर लिया कि कहीं नमक न मांग बैठें। जनाब ने यह नहीं सोचा कि कोई चुटकी भर नमक मारकर कोठी नहीं खड़ी कर लेगा। लेकिन जिस तरह से मुझे देखकर उसे कुछ याद नहीं आया उससे लगता है कि वह मूंगफली के पैसे के बारे में वास्तव में भूल गया है। जब मुझे देखकर भी उसे याद नहीं आ रहा है तो क्या मैं उसे झकझोर कर याद दिलाऊं कि तुम पैसा लेना भूल गये हो, यह लो। हां, मैं ऐसा कर सकता था अगर उसने मुझे नमक दिया होता या फिर चोर की तरह भाग न आया होता। कितना परेशान हुआ था उसके बारे में सोच-सोचकर। दर्द के मारे माथा फटा जा रहा है। कहीं ब्रेन हैमरेज वगैरह कुछ हो जाता तो? आजकल सिर्फ एक ही चीज का ठिकाना नहीं है और वह है जिन्दगी का। पता नहींं कब बोल जाये!
कोठी खड़ी कर लेने वाली अपनी ही बात पर मुझे मन ही मन हंसी भी आ गयी। एक बार रिक्शे से मैं गोदौलिया से लहुराबीर जा रहा था। आमतौर पर दो सवारी बैठने पर दो-ढाई रुपये ही देने पड़ते हैं। मैंने उसे पांच रुपये थमा दिये। वह कुछ देर तक मुझे देखता ही रह गया। उसी शाम को लौटते समय मैं अकेला ही गोदौलिया तक आया और रिक्शे को आंध्रा बैंक तक बढ़वा लिया। वहा पर उतरा तो उसे पांच रुपये थमाये। उसने दो रुपये और मांगे तो मैं यह कर आगे बढ़ गया कि इतना ही रोज देता हूं। इस पर रिक्शेवाला चीखने लगा था, ‘‘जाओ बाबू जाओ, गरीब का दो रुपया मारकर कोठी न खड़ी कर लेबो..! ’’
जब मैंं वापस आकर अपनी बर्थ पर बैठा तो राहत महसूस की। जैसे मैंने अपना फर्ज पूरा किया। अब लेनेवाला ही अपना पैसा न लेना चाहे तो मैं क्या कर सकता हूं! मैं तो दौडक़र वहां तक गया, उसे पैसे देने के लिए, क्या कोई ऐसा करता है? लेना हो तो ले जाओ, कोई पीछे-पीछे भागता है क्या?
लेकिन अगर कोई पूछे कि बाबा आखिर वह अपने पैसे क्यों नहीं ले रहा है? क्या वह मूंगफली मुफ्त की बांट रहा था या फिर मूंगफली देने से पहले उसने यह कहा था कि इसके पैसे नहीं लेंगे? तो मैं कहूंगा कि मैं क्या जानूं? लेकिन इतना कहकर अपना कंधा झाड़ लेने से काम नहीं चलेगा। इस जवाब में छल छिपा हुआ है। कोई मानेगा कि कोई गरीब मूंगफली वाला आपको मुफ्त में मूंगफली खिलाकर पिछले जन्म का कर्ज वापस कर रहा होगा? नहीं न! हो सकता है कि उसने सोचा हो कि मूंफली के साथ नमक नहीं दे पाया इसलिए इसके दाम क्यों लूं? कैसा लगा? बकवास ? इस जवाब में कोई दम नहीं है। तो छोडिय़े मैं इस सवाल -जवाब के पचड़े में ही क्यों पड़ूं? न कोई पूछ रहा है और न ही किसी को जवाब देना है। मैं बस इतना कर सकता हूं कि वह जब भी पैसे मांगेगा मैं ना-नुकुर किये बिना पैसे दे दूंगा, उसके पीछे-पीछे पुचकारता हुआ नहीं घूमूंगा कि मुन्ना अपने पैसे ले लो।
अचानक अंधेरे में ट्रेन रुकती हुई महसूस हुई। ब्रेक लगने की आवाज हुई। खिडक़ी से झांककर देखा कोई स्टेशन सा लगता था। कोई स्टापेज नहीं था क्योंकि ट्रेन प्लेटफार्म के दूसरी ओर खाली ट्रैक पर खड़ी थी। कम रोशनी के कारण प्लेटफार्म भी धूसर नजर आ रहा था। कुछ लोग जरूर उतर रहे थे क्योंकि पटरी के किनारे पड़ी बजरियों के दबने की आवाज आ रही थी।
मन ने कहा कि चलो देखें, वह लडक़ा क्या कर रहा है। कहींं यहीं पर न उतर जाये। हो सकता है उतरने समय ही पैसे मांगने की उसने पहले से सोच रखी हो। उस समय मैं नहीं होऊंगा तो कितना मन मसोसकर रह जायेगा! दो पैसे भी न कमा पाने का कितना अफसोस होगा। घर जाकर क्या बतायेगा कि एक सूट-बूट वाले भलेमानस मिले थे और उन्होंने मेरे दो रुपये मार लिये। अमीर आदमी को देखकर आदमी सोचता है कि इससे दो पैसे कमाये जा सकते हैं और यह आदमी तो हमसे भी अधिक नीच निकला। नमक न रखने की गलती किसी की भी हो लेकिन उसकी सजा तो पूरा परिवार भुगतेगा। हो सकता है कि उसकी छोटी बहन से भूल हो गयी हो। भूलेगी क्यों नहीं, नन्हीं सी जान होगी। गुडिय़ा खेलने की उम्र में मूंगफली गिनने के काम में लगा दिया गया होगा। या फिर उसके अंधे पिता से गलती हो गयी हो। अंधा है तो उसे क्या दिखेगा कि जिस पुडिय़ा को वह बंद कर रहा है उसमें नमक है भी कि नहीं? इसमें उसका क्या दोष? हे राम! लगता है कि मैं भी अंधा हो गया हूं जो मुझे यह सब दिखायी नहीं दे रहा और मैं उसके दो रुपये हड़पने के लिए लम्बी-लम्बी साजिशें किये जा रहा हूं। धिक्कार है मुझे! पता नहींं कहां चला गया होगा? अब जैसे ही दिखायी देगा बिना कुछ सोचे समझे उसके रुपये दे दूंगा, अगर वह मुस्कुराकर मेरी तरफ देखेगा तो दो पैकेट और लेकर उसे पांच रुपये और दे दूंगा। हालांकि मुझे मूंगफली खानी नहीं है लेकिन फिर भी दो पैकेट खरीद ही लूंगा। क्योंकि अगर बिना खरीदे उसे पैसे दिये तो हो सकता है उसके स्वाभिमान को ठेस पंहुचे। मैं उसके मन को दुखी नहीं करना चाहता। कम से कम मुझे इस पाप से मुक्ति तो मिलेी। बचपन में कितनी ही बार ट्रेन की पटरी पर दस और बीस पैसे के सिक्के रख देता था कि ट्रेन के गुजरने पर वे चुम्बक बन जायेंगे। लेकिन हर बार ट्रने के जाने के बाद जब पटरी पर देखा तो वह सिक्का या तो लम्बा होकर पतले टिन की तरह पचरी पर चिपका मिला। ऐसे तिने ही पैसे ल चुके हैं, दो-चार रुपये और गल जायेंगे, बस!
कोई कसर न रह जाये, इसलिए मैंने जेब से दो रुपये का सिक्का निकालकर हथेलियों में दबा लिया। पक्के इरादे के साथ दूसरे कम्पार्टमेंट में जाने के लिए निकला तो टायलेट के पास जब खुले गेट की तरफ नजर पड़ी तो देखा कि साहब जी फर्श पर बैठकर बाहर की तरफ झांक रहे थे। शायद दूसरी पटरी पर आ रही ट्रेन को देख रहे थे जिसके इंजन से निकल रही गोल-गोल रोशनी अंधेरे में लेटी पटरियों को चमकाकर जादुई दृश्य की रचनाकर रही थी।
तो मिल ही गये महाशय जी, अच्छा हुआ वरना इन दो रुपयों को जिन्दगी पर ढोना पड़ता। कुछ मिनटों में ही इस रुपये ने जिन्दगी हलकान कर दी थी। मन हल्का होते ही मैं चुहल करने के इरादे से उस लडक़े के ठीक पीछे जाकर खड़ा हो गया और यह देखने की कोशिश करने लगा कि वास्तव में वह क्या देख रहा है। एक तरह से उससे कुछ बातें कर मैं उसके मन को खुश करना चाहता था ताकि मेरे लिए उसके मन में कोई खटास आ गयी है तो वह दूर हो जाये। वह घर लौटे तो उसके मन में अपनी जीविका यात्रा की कोई मलिन स्मृति शेष न रह जाये।
मैं उसके इतना करीब आ गया था कि उसे अहसास हो गया कि उसके पीछे कोई है। उसने पलटकर देखा तो मेरी तरफ कुछ पलों के लिए देखता ही रह गया। शायद उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं वहां पर मौजूद होऊंगा इसलिए वह अपने रोम-रोम से यह तस्दीक कर लेना चाहता था कि वह मैं ही हूं न!
मुझे भी उसका इस तरह से अपनी तरफ देखना भीतर से हिला गया। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था और उसके आंखों की गहरी खामोशी मुझे विचलित किये जा रही थी। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि वह मुझे देखकर क्या सोच रहा है? भावना और रहस्य के इस जाल से निकलने के लिए और कहीं मेरा इरादा फिर न बदल जाये मैंने अपनी हथेली उठाकर सिक्का उसके सामने लहराना चाहा ताकि सिक्के पर उसकी नजर पड़ सके और उसे याद आ जाये कि उसका मेरे ऊपर कुछ बकाया है। बकाया या अचानक मिले धन से हर आदमी कुछ पलों के लिए खुश हो जाता है। लेकिन मेरे हवा में हाथ लहराते ही अचानक ही वह बड़ी फुर्ती के साथ ट्रेन से कूद पड़ा। पटरी पर पड़ी बजरी उसके धम्म से कूदने और फिर भागने से बजने लगीं। मेरे मन में भी कुछ बजने लगा। मुझे एकदम से उम्मीद नहीं थी कि वह यहां पर उतरेगा क्योंकि ट्रेन को वहां पर खड़े हुए दो-तीन मिनट हो चुके थे और उतरने वाले कब के उतर कर आंखों से ओझल तक हो चुके थे। निश्चित रूप से उसे यहां नहीं उतरना था, बस मुझे देखकर मेरे खौफ से वह वहां से उतर गया जैसे कि मैं उसके पीछे पड़ा था और वह मुझसे पीछा छुड़ाने को बेताब था। ऐसा कौन सा भय उसे सता रहा था? कहीं वह मुझे पुलिस वाला तो नहीं समझकर मुझसे खौफ खाये जा रहा था? कहीं पुलिस को लेकर उसके मन में कोई गांठ तो नहीं बन गयी है या उसके या उसके परिवार के साथ कुछ गुजरा तो नहीं है जिसके लिए वह पुलिस को जिम्मेदार मानता है!
चूंकि मैंने पहले से ही तय कर लिया था कि सिक्का उसके पीछे फेंक दूंगा, इसलिए मैंने अपना हाथ ऊपर उठाया ताकि सारा किस्सा खत्म हो और मेरा बोझ हल्का हो। मैं सिक्का फेंकने ही वाला था कि अचानक मैंने देखा कि पटरी पार करने से पहले उसने एक बार पलटकर मेरी तरफ देखा भी। जब वह मेरी तरफ देख रहा था तभी उस पटरी पर आ रही ट्रेन के इंजन की भरपूर रोशनी उसके चेहरे पर पड़ी। इससे पहले कि वह ट्रेन के गुजरने से पहले ही पटरी पार कर पाता कि मेरी तरफ देखने के कारण एक पल की देरी हो गयी और इंजन उसके ऊपर से गुजर गया। यह क्या हुआ! उसकी चीख तक सुनायी नहीं पड़ी। पटरियों पर फैला हुआ लाल खून दूर जाते इंजन की वजह से फैल रही कालिमा में तेजी से समाता जा रहा था। ट्रेन थी कि चलती ही चली जा रही थी और मेरे हाथ थे कि हवा में अभी भी फैले हुए-सिक्का फेंकने के लिए!
‘‘मूंगफली ले लो, दो रुपये की पचास ग्राम…चटनी के साथ… ’’ अचानक पीछे से आवाज गूंजी तो मैं चौंक पड़ा। पलटा तो देखा वह नहीं था…वह तो मेरे सामने ही….! कोई और लडक़ा था, मूंगफली लिये हुए।
‘‘हां बाबूजी मूंगफली दूं…गरम-गरम है..यह देखिये धनिया की चटनी के साथ.. दूं..? ’’ उसने मुझसे पूछा भर था लेकिन मेरे हाथ में दो का सिक्का देखकर जल्दी से एक पैकेट मेरी तरफ बढ़ा दिया।
‘‘नमक है? ’’ मैंने पूछा।
‘‘पैकेट में है ..चटनी भी है। ’’ यह कहते हुए उसने एक पुडिय़ा नमक और कागज के टुकड़े पर चटनी लपेटकर मुझे पकड़ा दी, ‘‘यह और ले लो.. ।’’ इसके साथ ही मूंगफली ले लो… की पुकार लगाता हुआ वह आगे निकल गया। धीरे-धीरे आवाज मद्धिम पड़ती गयी? टे्रन भी चलने लगी थी। मैंने हाथ में पकड़ रखे मूंगफली के पैकेट और चटनी की तरफ देखा और धीरे से उसे वाश बेसिन के पास रख दिया। वह कहानी खत्म हो चुकी थी। अब जब वह लडक़ा घर नहीं लौटेगा तो उसके मां-बाप और बहन उसका कितना इंतजार करेंगे, कहां तलाशेंगे उसे, कौन तलाशने जायेगा, घर का खर्च कौन चलायेगा…? नहीं, मैं इन सब सवालों के जवाब ढूंढने की कोशिश नहीं करूगा। मुझसे क्या मतलब..पता नहीं यह दुर्घटना थी या सिर्फ एक दिवा स्वप्न!
जब मैं अपनी बर्थ पर पंहुचा तो स्टेशन पीछे छूट चुका था और खिडक़ी के पार सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा था।
लेकिन इसका एक एंगल और भी है. अगर इस केजरीवाल की इस टुच्ची दयानतदारी से राजनीति हटाकर इसे वास्तव में क़ानून में बदल दिया जाए तो इस देश से लिजलिजे बुढ़ापे की समस्या ख़त्म हो जायेगी और देश में ओल्ड ऐज होमबनाने का का भी बड़ा संकट समाप्त हो जायेगा. साथ में हर घर में एक व्यक्ति सरकारी कर्मचारी बन जायेगा और हर परिवार करोडपति. पूरा देश खुशहाल हो जाएगा. पुराने दिन लौट आयेंगें जहां डाल-डाला पर सोने की चिड़िया करती थी सवेरा.. जिसे हमने में से किसी ने नहीं देखा होगा और न सोचा होगा. केजरीवाल का यह प्रयोग अभूतपूर्व है और इस पर मोदी सरकार को गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए.
हर घर में बुजुर्ग हैं जो परिवार द्वारा तिरस्कृत रहते हैं. इस तरह का कानून बन जाने से हर बुजुर्ग घर में सम्मानित हो जायेगा, उसको बूढा होते देख घर में अनजानी सी ख़ुशी की बयार बहने लगेगी और घर के जवान होते बच्चे के चेहरे पर खिलने वाली मुस्कान भी बढ़ने लगेगी. शादी करने वाले भी उस घर के चक्कर बार-बार लगाने लगेंगें जहाँ पर कोई बेरोजगार अपने वृद्ध होते पिता के साथ रहता हो. घर के जवान लोग अपने पिता का खूब ख़याल रखन लगेंगें और जरा सा नाक बहने पर ही बड़े से बड़े डॉक्टर के पास दौड़ने लगेंगे कि कंही बुढवा बीमारी से न मर जाए? जिस घर में कोई बूढा बिना आत्महत्या के मर जायेगा, लोग उस परिवार को दुर्भाग्यशाली कहेंगे. पहले लोग घर में पुत्र आने की मनोकामना करते थे और पुत्र न होने पर लड़का गोद ले आते थे, अब घरों में बुजुर्गों की मांग बढ़ जायेगी और बूढा गोद लेने के लिए दर-दर भटकते हुए भी नज़र आने लगेंगें. अभी तो लोग पडोसी के नौकर को भड़काते हैं और अपने यहाँ अच्छी तनख्वाह का लालच देते हैं, इस क़ानून के बन जाने के बाद लोग दूसरों के घरों के बुड्ढों को लालच भरी निगाहों से देखने लगेंगें. जब कोई पडोसी घर आएगा तो लोग अपने बुड्ढों को घर में छुपाने लगेंगें कि कहीं पडोसी की नज़र न लग जाए. इस क़ानून से बहुत सी समस्याओं का समापन हो जायेगा और सरकार अपना बुजुर्ग रख-रखाव कानून भी वापस ले सकती है.
भले ही केजरीवाल ने ऐसी घोषणा राजनीतिक दृष्टि से की हो लेकिन अगर इसे सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से देखा जाए तो इसमें लाभ ही लाभ है. बुजुर्गों का सम्मान बढेगा, जिंदगी भर कोई कुछ भी गलत काम करेगा तो कोई भी ऊँगली नहीं उठाएगा. बूढा होता आदमी ब्लू चिप कंपनी के शेयर की तरह समझा जायेगा. आत्महत्या करने के बाद लोग आँखों में ख़ुशी के आंसू भर-भर कर कहेंगें कि जिंदगी भर तो सिर्फ मटरगश्ती किये लेकिन परिवार के लिए जीवन समर्पित करने में पीछे नहीं रहे. मेरी मोदी सरकार से अपील है कि जनहित और देश हित में केजरीवाल के इस दो कौड़ी के विचार को फटाफट हथिया ले इससे पहले कि किसी और पार्टी की नज़र इस आईडिया पर पड़ जाए .साथ में इस पर कानून रुपी सोने का मुलम्मा चढ़ा कर देश की पारिवारिक संस्कृति में क्रांतिकारी बदलाव लाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दें.
( चार वर्ष पूर्व लिखा था, आज भी सामयिक प्रतीत होता है)
क्या पुलिस अंधी हो गई थी या न्याय अंधा है?: स्नेह मधुर
सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमई मौत की गुत्थी सुलझाने के लिए जांच की जिम्मेदारी सीबीआई को देने के सर्वोच्च न्यायालय की घोषणा ने आज एक इतिहास रच दिया है। यह पहला मौका होगा जब घटनास्थल की परवाह किए बिना न्याय के हित में बिहार सरकार के अनुरोध को स्वीकार कर सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार की उस अपील को खारिज कर दिया जिसके अनुसार घटनास्थल मुंबई होने की वजह से मामले की जांच का अधिकार मुंबई पुलिस को ही है। साथ ही सीबीआई से जांच की सिफारिश का अधिकार भी महाराष्ट्र सरकार को है, न कि किसी अन्य राज्य को। फैसले में सबसे खास बात यह भी रही कि इस फैसले को महाराष्ट्र सरकार चुनौती भी नहीं दे सकती है। यह न्यायिक इतिहास पहला मामला है जब किसी सिंगल जज की पीठ ने संविधान के आर्टिकल 142 के तहत अपनी असाधारण शक्तियों का प्रयोग किया हो।
ज्ञातव्य है कि आर्टिकल 142 संविधान द्वारा सुप्रीम कोर्ट को दिया गया विशेष अधिकार है। एकलपीठ ने इस संबंध में महाराष्ट्र सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी की आपत्ति को खारिज कर दिया। सिंघवी ने कहा था कि सिंगल जज वाली पीठ आर्टिकल 142 के तहत शक्तियों का प्रयोग नहीं कर सकती है। ऐसा करने के लिए बेंच में कम से कम दो जजों का होना जरूरी है।
सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस ऋषिकेश रॉय ने सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले में बिहार पुलिस की एफआईआर को सही माना और इस केस की सीबीआई जांच की मंजूरी दे दी। सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के आर्टिकल 142 का इस्तेमाल करते हुए यह फैसला सुनाया है। जस्टिस ऋषिकेश रॉय ने फैसला सुनाते हुए कहा है कि बेशक ये केस मुंबई पुलिस के अधिकार क्षेत्र में आता है, लेकिन इस मामले में सभी लोग सच जानना चाहते हैं, इसलिए कोर्ट ने विशेष शक्ति का प्रयोग करते हुए केस को सीबीआई के हाथों में सौंपने का फैसला किया है।
जस्टिस ऋषिकेश रॉय ने फैसला सुनाते हुए कहा कि जांच में जनता का विश्वास सुनिश्चित करने और मामले में पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने के लिए यह न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 142 द्वारा प्रदत्त विशेष शक्तियों को लागू करना उचित समझती है। जस्टिस ऋषिकेश रॉय ने कहा कि मुंबई पुलिस को इस मामले में जांच करने का अधिकार था, लेकिन, किसी भी तरह की असमंजस की स्थिति से बचने के लिए सीबीआई को केस सौंपा गया है।
महाराष्ट्र पुलिस और बिहार पुलिस में घटना की तफ्तीश करने के अधिकार को लेकर पिछले एक पखवार से एक आक्रामक जंग राष्ट्रीय स्तर पर जारी थी जिसको पूरी दुनिया देख रही थी। महाराष्ट्र पुलिस को अत्यंत पेशेवर बता कर उसे जांच करने देने मेें कहीं से कोई रुकावट नहीं थी लेकिन महाराष्ट्र पुलिस का इस दौरान बड़ा ही अजीब रवैया देखा गया जिसकी वजह से महाराष्ट्र पुलिस सन्देह के घेरे में आ गई थी। महाराष्ट्र पुलिस न तो खुद जांच कर रही थी और न ही बिहार पुलिस को करने दे रही थी। दो महीने बीत जाने के बाद और राष्ट्रीय स्तर पर इस मामले की चर्चा के बावजूद महाराष्ट्र पुलिस की कान पर जूं तक नहीं रेंगी। तमाम अनुरोधों के बावजूद मुंबई पुलिस ने औपचारिक रूप से एक एफआईआर तक दर्ज नहीं की। मुंबई पुलिस सिर्फ इस अकड़ में रह गई कि कानूनन मामले की जांच करने का अधिकार उसी का है, इसलिए लोग कितना ही शोर मचाते रहें, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है। यही महाराष्ट्र पुलिस का असंवेदनशील चेहरा था, जिसे अपनी नादानी से पूरे देश को दिखा दिया।
इस मामले में बिहार पुलिस ने महाराष्ट्र पुलिस को चारों खाने चित्त कर दिया। बिहार पुलिस ने न सिर्फ दूसरे राज्य की घटना की एफआईआर लिखी बल्कि कानूनी ढंग से उस जीरो नंबर की एफआईआर को महाराष्ट्र भेजने की जगह खुद ही जांच भी शुरू कर दी। निश्चित रूप से बिहार पुलिस ने सीआरपीसी के तमाम नियमों को धता बताते हुए एक ऐसा उदाहरण पेश कर दिया जिसने कानून के इतिहास में नई इबारत लिख दी है और जिसे देश की सर्वोच्च अदालत ने मान्यता भी दे दी। बिहार के डीजीपी गुप्तेश्वर पाण्डे ने भारतीय पुलिस के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय लिख दिया कि न्याय के हित में कानूनी प्रक्रिया बाधा नहीं बन सकती है। कानूनी प्रक्रिया का अनुपालन अपनी जगह है जिसका मकसद भी न्याय दिलाना होता है।
लेकिन मुंबई पुलिस इस बात पर अड़ी ही रही कि जब तक दूसरे पक्ष द्वारा एफआईआर नहीं लिखाई जाती है, तब तक विवेचना शुरू नहीं की जा सकती है जबकि दूसरे पक्ष की गैर मौजूदगी में पुलिस की तरफ से भी एफआईआर दर्ज कराए जाने का अधिकार पुलिस के पास सुरक्षित है।
कहा जाता है कि कानून अंधा होता है। लेकिन यहां तो मुंबई पुलिस ही अंधी निकल गई! मुंबई पुलिस के रवैए से तो सन्देह होता है कि क्या वास्तव में महाराष्ट्र की पुलिस पेशेवर है या फिर भी 1864 केे युग में ही जी रही है? सुशांत का मामला कोई जटिल मामला नहीं था। अगर सुशांत के नासमझ परिजनों को शुरू मेें ही आत्महत्या संदिग्ध नहीं लगी थी और उन्होंने कोई एफआईआर नहीं लिखाई थी, तो मुंबई की पेशेवर पुलिस ने भी जानबूझ कर आंखें क्यों बन्द कर ली थीं और मोटी- मोटी चीज़ें भी उनकी आंखों में नहीं गड़ रहीं थीं?
सुशांत सिंह राजपूत की मौत के 66 दिनों तक महाराष्ट्र पुलिस ने इस प्रकरण की जांच भी शुरू नहीं की थी, ऐसा सर्वोच्च न्यायालय ने माना है। साथ में यह भी कहा है कि महाराष्ट्र पुलिस ने जनता का विश्वास खो दिया है। बिहार में दर्ज जिस एफआईआर को महाराष्ट्र पुलिस ने रद्दी करार दिया था, उसी एफआईआर को सर्वोच्च न्यायालय ने सही माना है। साथ में यह भी कहा है कि अगर कोई और एफआईआर होती है तो उसकी भी जांच सीबीआई hi करेगी।
14 जून की इस घटना के मामले में महाराष्ट्र पुलिस की जांच का तरीका शुरू से संदेहास्पद दिख रहा था। बिना पोस्टमार्टम रिपोर्ट के ही महाराष्ट्र के गृह मंत्री ने सुशांत की मौत को आत्महत्या घोषित कर दिया था। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मृत्यु का समय नहीं लिखा गया था जो हैरत भरा था। हर पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मृत्यु का अनुमानित समय लिखना अनिवार्य होता है। पुलिस ने सुशांत के शव को पंखे से लटकता नहीं देखा था। सिर्फ इकलौता गवाह पठानी था जो ताला तोड़वाने के बाद और ताला तोड़ने वाले को घर से विदा करने के बाद कमरे में सबसे पहले गया था। उसके पीछे-पीछे गए तीन अन्य लोगों ने भी सुशांत को बिस्तर पर ही देखा था। कमरे में कोई स्टूल नहीं था जिस पर चढ़े बिना आत्महत्या कर पाना सम्भव नहीं था। घटनास्थल को लेकर कई तरह के विवाद हो सकते हैं, गवाहों केे बयान पुलिस ने लिए होगें लेकिन वे बयान सीआरपीसी की धारा 174 केे तहत लिए गए थे, जो विवेचना का हिस्सा नहीं हो सकते क्योंकि कोई एफआईआर ही नहीं हुई थी।
इस घटना को लेकर अब तक सामने आईं तमाम बातें अफवाहें भी ही सकती हैं, लेकिन मुंबई पुलिस ने बिहार पुलिस के साथ जैसा व्यवहार किया, वह भी संदेहास्पद रहा है। यहां तक कि बिहार के एक आईपीएस अफसर को क्वारेंटाइन केे बहाने मुंबई पुलिस ने हाउस अरेस्ट तक कर लिया गया था। आखिर क्यों मुंबई पुलिस ने अपनी सारी सीमाएं तोड़ दीं? उसी अहंकारी महाराष्ट्र की पुलिस को बिहार पुलिस के हाथों मुंह की खानी पड़ी। बिहार के डीजीपी गुप्तेश्वर पाण्डे कहते हैं कि बिहार में एफआईआर दर्ज करने का इकलौता कारण सुशांत के पिता थे जो पटना में रहते हैं। उनका इकलौते बेटे सुशांत का निधन हो गया और सुशांत की सम्पत्ति के वे उत्तराधिकारी हुए। मुंबई जाकर वह 74 वर्ष की उम्र में मुकदमा नहीं लड़ सकते थे। इसके बावजूद, अगर मुंबई की पुलिस पहले दिन ही मना कर देती कि उनके क्षेत्राधिकार में बिहार की पुलिस प्रवेश न करे तो उनकी पुलिस लौट आती। लेकिन मुंबई पुलिस ने उनकी बात सुनने की जगह उनके आईपीएस अधिकारी विनय तिवारी के साथ ऐसा व्यवहार किया जिसकी वह कल्पना ही नहीं कर सकते थे। आधी रात को कैदियों की तरह आईपीएस अफसर के हाथ में ठप्पा लगा कर उसे एक तरह से कैद कर लिया गया। अपमानित कर देने वाली इस घटना ने बिहार के डीजीपी गुप्तेश्वर पाण्डे को मोर्चा खोलने को मजबूर कर दिया।
एक तरह से सुशांत की मौत की घटना केे बहाने इस देश की पुलिस के चरित्र को बेनकाब कर दिया गया है। तीन राज्यों के आईपीएस अफसरों ने इस घटनाक्रम में भाग लिया। हरियाणा के आईपीएस अफसर ओपी सिंह ने मुंबई के डीसीपी को व्हाट्सएप किया था कि सुशांत की जान को खतरा है लेकिन डीसीपी ने इस सन्देश का संज्ञान नहीं लिया। इसके उलट ओपी सिंह की ही आलोचना कर दी डीसीपी ने! यानी डीसीपी ने यह सन्देश देने की कोशिश की कि आईपीएस अफसर को आईपीसी और सीआरपीसी की कोई जानकारी नहीं! मुंबई के पुलिस कमिश्नर ने भी इस मामले में अपनी किरकिरी करा ली। हालांकि सभी आईपीएस अफसरों का प्रशिक्षण एक साथ ही होता है लेकिन ऐसा लगता है कि उनके प्रशिक्षण मेें कोई कमी रह गई है। उन्हें ऐसा प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि आपस में समन्वय बना रहे, एक दूसरे का सम्मान करें और ऐसा सन्देश दें जिससे लोगों का पुलिस अफसरों पर विश्वास बना रहे। आम जनता नीचे के पुलिस कर्मचारियों से परेशान रहती है, जब ऊपर के अफसरों की नाक की लड़ाई भी सामने आ गई तो जनता कहां जायेगी?
सुशांत की मौत की गुत्थी सुलझाने में सफल रहे सीबीआई, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं है कि हर मामले में सीबीआई सफल ही रही है। सीबीआई में शर्लक होम्स ही नहीं होते। वे भी आम पुलिस वाले ही होते हैं। सुशांत की मौत का जो भी कारण निकले, हत्या या आत्महत्या, इस बारे में सच्चाई सामने आनी ही चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस ऋषिकेश राय ने अपने फैसले में कहा कि इस जांच से न सिर्फ उन लोगों को सांत्वना मिलेगी जो अकेले रह गए हैं, बल्कि सुशांत की आत्मा को भी शान्ति मिलेगी।
सर्वोच्च न्यायालय की यह उक्ति सोचने को मजबूर करती है कि “अगर सुशांत जिन्दा होते तो अपने पिता की चिता को अग्नि देते!” अगर इसी भावना के साथ पुलिस भी सोचे तो पुलिस की कोई आलोचना न करे।
वैसे न्यायिक क्षेत्र में एकल पीठ के इस फैसले को लेकर भी उंगलियां उठ रही हैं। न्यायाधीश ने जिस तरह से अनुच्छेद 142 मेें प्राप्त असीमित शक्तियों का इस्तेमाल किया है, उस पर प्रश्नचिन्ह लगाने की कोशिश की जा रही है। उच्चतम न्यायालय की ही व्यवस्था है कि अनुच्छेद 142 का प्रयोग किसी ऐसे कार्य को अप्रत्यक्ष रूप से करने में नहीं किया जा सकता, जिसको प्रत्यक्ष रूप से न किया जा सकता हो। क्या एकल पीठ ने अपने क्षेत्राधिकार का उल्लंघन किया है? क्या एकल पीठ न्याय के हित में तीन जजों के निर्णय को नहीं पलट सकती है?
साथ में यह भी सवाल उठ रहा है कि यह निर्णय रिया चक्रवर्ती की ट्रांसफर याचिका पर आया है, जिसमें बिहार में दर्ज एफआईआर को मुंबई ट्रान्सफर करने का अनुतोष मांगा गया था। क्या ट्रांसफर याचिका में भी अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग किया जा सकता है?
सवाल तो हर फैसले पर उठते ही हैं। हर बहस में दो पक्ष होते हैं और दोनों ही तकनीकी आधार पर अपने पक्ष को सही करार देते हैं। अंत में देखा यह जाता है कि न्यायाधीश ने न्याय के हित में किस पक्ष को सही माना और वही नजीर बन जाता है। यही कारण है कि सुशांत केस में यह फैसला नजीर बन गया क्योंकि किसी भी कानूनविद को यह उम्मीद नहीं थी कि बिहार पुलिस की जीत होगी। देखा जाए तो यह उन आम लोगों की विजय है जिनकी इच्छाओं और आवश्यकताओं को तकनीकी आधार पर हमेशा ख़ारिज कर दिया जाता है।
Sneh Madhur: क्या महाराष्ट्र की पुलिस अंधी हो गई थी या न्याय अंधा है?: स्नेह मधुर
“लॉक डाउन के दौरान अपराध तो घटे, लेकिन ‘जिस्म’ और ‘बदले‘ की आग” बुझाने मेें नहीं रहे लोग पीछे!!
यह मानना ही पड़ेगा कि सभ्य समाज में भी असभ्य लोग होते हैं, तभी तो पुलिस और अदालतों की जरूरत पड़ी। ये असभ्य लोग हमारे ही बीच से आते हैं और अपने कृत्यों से समाज को झकझोर कर रख देते हैं। लेकिन इन्हें पहचाना कैसे जाएं और सभ्य लोगों को इससे बचाया कैसे जाएं, यह विचार का विषय होना चाहिए। हम बिल्ली को देखकर कबूतर की तरह ” मूंदहु आंख कतहु कुछ नाही” की तर्ज पर बस अपनी आंखें बन्द कर लेते हैं और पुलिस के साथ सरकार की मजम्मत करने लगते हैं और न्यायपालिका की तरफ भी सकुचाते-सकुचाते इशारा कर देते हैं, वह भी भयवश कभी- कभी। लेकिन क्या वास्तव में पुलिस अपराध नियंत्रण के लिए सक्षम है? लॉक डाउन के दौरान जिस तरह से हत्या और दुराचार जैसी घटनाओं में कोई खास कमी नहीं आई है, वह सोचने को मजबूर करती है कि क्या पुलिस और न्यायपालिका से अपेक्षा रखने से पहले हमें अपने समाज को सुधारना होगा?
स्नेह मधुर
महंगाई की तरह क्यों बढ़ते जा रहे हैं अपराध?





भारतीय पुलिस की साख
“कौन चाहता है पुलिस में बदलाव?”: स्नेह मधुर
इस महीने की सिर्फ चार घटनाएं देश की पुलिस के आजादी के बाद से “प्रशिक्षित और प्रोफेशनल” चरित्र का बखान करने के लिए काफी हैं। इनमें से तीन घटनाएं कानपुर की हैं। विकास दुबे द्वारा आठ पुलिसकर्मियों की हत्या, विकास दुबे का पुलिस मुठभेड़ में मारा जाना, कानपुर में एक युवक का अपहरण होने के बाद पुलिस के निर्देश पर ही तीस लाख रुपए की फिरौती देने के बाद मुकर जाना और फिर उसकी हत्या हो जाना तथा गाजियाबाद में पत्रकार की सरे आम हत्या होना। इन सारी घटनाओं के लिए मैं किसी को भी जिम्मेदार ठहराना नहीं चाहता क्योंकि इस तरह की अनेक घटनाएं देश के हर इलाके में पहले भी होती रही हैं, आज भी बदस्तूर जारी हैं। जनता इन्हें जानती और भोगती है लेकिन उच्च पदों पर आसीन आई पी एस अफसरों के जनता को दुलराने व बहलाने और भविष्य में ऐसा नहीं होगा, कोई बख्शा नहीं जाएगा जैसे अखबारों में छपे बयान और बाइट्स लोगों को लगातार भ्रमित भी करते रहते हैं। असल में पुलिस में जिसे फोर्स कहा जाता है, वह फोर्स मदमस्त हाथी की तरह से बुरी तरह से बेकाबू हो चुकी है और उसे नियंत्रित करने वाले महावत रूपी आई पी एस अफसर सिर्फ अपनी मालदार पोस्टिंग के फेर में ही पड़े रहते हैं क्योंकि वे खुद नहीं जानते हैं कि इस हाथी का उन्हें करना क्या है? उन्हें तो बस नौकरी के दौरान लगतार हाथी बदलते ही रहना है।
अब समय आ गया है यह तय करने का, कि क्या पुलिस में सुपरवाइजर की कोई भूमिका होती है? अगर पुलिस में हाथियों को हांकने वालों की कोई ज़िम्मेदारी होती तो कानपुर के सारे बड़े पुलिस अफसर कभी के बर्खास्त कर दिए गए होते। यह बात दूसरी है कि पुलिस की अक्षमता और कमीनगी की पोल खुल जाने के बाद ए एस पी और नीचे के कुछ लोग जरूर निलंबित किए गए हैं लेकिन एस एस पी, डी आई जी और आई जी जैसे अफसरों पर सरकार की गाज़ न गिरना बताता है कि इन जैसे अफसरों से पूरा महकमा भरा पड़ा है, किस-किसको बदलेगें? यह सभी मानते हैं ट्रांसफर को गाज गिरना नहीं कहा जाएगा।
उत्तर प्रदेश में डी जी पी रहे ओ पी सिंह ने एक बार मुझसे कहा था कि 80 प्रतिशत से अधिक बड़े पुलिस अफसर एक प्रतिशत भी काम नहीं करते और मेरा वश चलेगा तो उनमें से दस प्रतिशत को तो मैं बर्खास्त करा ही दूंगा। हालांकि जो भी मजबूरी रही है, ओ पी सिंह अपनी इच्छा पूरी नहीं कर सके लेकिन उनके जैसे अनेक अफसर समय-समय पर अपने कैडर को लेकर निराशा व्यक्त करते देखे जाते हैं। अफसर लोग साफ-साफ कहते हैं कि पुलिस में नीचे से लेकर ऊपर तक जो नई पौध आयी है, एक तो वह विधिवत प्रशिक्षित नहीं है और दूसरे उनके भीतर सिर्फ कमाई करने का ही जज़्बा है और इसके लिए वे हर तिकड़म करने को तैयार हैं।
सवाल यह नहीं है कि पुलिस को खराब क्यों कहा जाता है? पुलिस तो हमेशा से सरकार के हाथ का डंडा रही है। हां, कभी-कभी ताकतवर के हाथ का भी डंडा बन जाती है। ताकतवर तो वहीं होता है जिसको सरकार का संरक्षण प्राप्त होता है। ऐसे में अगर पुलिस दबंगों के हाथ की कठपुतली बन जाती है तो उसमें उसका क्या दोष? यह तो उसकी विवशता है!
अब सवाल यह उठता है कि क्या इस समय पुलिस ज्यादा बेलगाम हो गई है या ज्यादा काहिल हो गई है, किसी की नहीं सुनती है? पुलिस पर दोनों तरह के आरोप लगते हैं: काम न करे तो काहिल और काम करे तो बेलगाम! जहां तक भ्रष्टाचार की बात है, व तो हर विभाग में है। अन्य विभागों में रजामंदी से और मिल-जुल कर लूट मचाई जाती है जिसका जनता से कोई लेना-देना नहीं होता, जबकि पुलिस का भ्रष्टाचार और अत्याचार सीधे जनता से और पीड़ित व्यक्ति से जुड़ा होता है। पुलिस का भ्रष्टाचार भय जनित होता है जो टीस पैदा करता है। पुलिस की नालायकी और कमीनगी सड़क पर दिखाई देती है जबकि अन्य विभागों के ये सब गुण अदृश्य ही रह जाते हैं। इसलिए पुलिस फोर्स अन्य नौकरियों से अलग है, लोगों की अपेक्षाएं भी पुलिस फोर्स से ज्यादा है। सबसे अधिक सुविधाएं पुलिस के अफसरों को मिलती हैं लेकिन उनका निलंबन और बर्खास्तगी फोर्स की तुलना में शून्य के बराबर है। फलतः फोर्स का गुस्सा जनता पर ही फूटता है।
कानपुर में अपहरण के बाद हत्या के मामले में महीने भर तक जिस तरह पुलिस ने लापरवाही बरती और उनके अफसरों ने जिस तरह से घटनाक्रम और पुलिस की तफ्तीश का पर्यवेक्षण नहीं किया, उससे इतना बड़ा नुकसान हुआ, एक व्यक्ति संजीत यादव को अपनी जान गंवानी पड़ी। आश्चर्य की बात यह है कि इस साइबर युग में जब कोई मोबाइल इस्तेमाल करता है तो उसकी लोकेशन पता लगा लेना पुलिस के लिए बहुत ही आसान काम है लेकिन संजीत यादव के अपहरण के बाद अपहरणकर्ताओं ने 17 बार मोबाइल का इस्तेमाल किया और विकास दुबे ने भी भागने के बाद कई बार मोबाइल का इस्तेमाल किया, लेकिन पुलिस के हाथ खाली के खाली ही रहे। अब पुलिस की यह सफाई कि लोकेशन नहीं मिल पाती हर बार, एक तरह से उस दरोगा या सी ओ के कार्य में शिथिलता पर पर्दा डालना ही होगा।
विकास दुबे एनकाउंटर ने पूरी दुनिया में तो नहीं लेकिन मीडिया और राजनैतिक दलों के बीच एक ऐसा झंझावात पैदा कर दिया है जिससे ऐसा लगता है मानवता के इतिहास में कोई निर्दोष पुलिस के हाथों और पहली बार मारा गया है। विकास के मारे जाने के ठीक एक दिन पहले उसका अवयस्क साथी भी ठीक इसी ढंग से मारा गया था तो उसके लिए न तो उस समय और न ही आज तक कोई खास शोर मचाया गया है। सारा शोर विकास के मारे जाने को लेकर है क्योंकि वह धनाढ्य था और राजनीतिक रसूख वाला था जिससे टी आर पी बढ़ती है, जो प्रतिस्पर्धा के इस युग में आज की सबसे बड़ी दरकार है।
कई साल पहले जब दिल्ली में एक लड़की के साथ बस में वीभत्स तरीके से दुराचार करने के बाद उसे फेंक दिया गया था तो भी मीडिया ने पूरे देश में भूचाल ला दिया था। हालांकि इस तरह की वह पहली घटना नहीं थी और न ही बाद में इस तरह की घटनाओं में कमी आई है लेकिन तूफान ऐसा मचा था कि यह पहली और आखिरी घटना थी। हाहाकार मचाने वाले समूह के एक जांबाज़ संपादक से मैंने यह पूछा था कि अगर जौनपुर, उरई, अतर्रा, सागर, दिल्ली या सिरसा में इस तरह की घटना की जानकारी मिलेगी तो आप किस खबर को प्रमुखता के साथ प्रथम पृष्ठ पर छापेगें तो उनका जवाब था कि दिल्ली की घटना को। अगर सागर में किसी मंत्री की बेटी अगवा कर ली जाती है और उसी दिन दिल्ली में एक महरिन की लड़की भी अगवा की जाती है तो फिर किसको प्रथम पृष्ठ पर स्थान देगें? उनके जवाब था सागर की घटना को। स्पष्ट है कि मीडिया सिर्फ ग्लैमर तलाशता है।
पुलिस के हाथों विकास की मौत के बाद यह भी चर्चा उठी थी कि ऐसे हालात में पुलिस का मनोबल बढ़ाने की जरूरत है। खासकर डी जी रहे सूर्य कुमार शुक्ला चीख-चीख कर कह रहे थे कि विकास की मौत के बाद पुलिस का मनोबल बढ़ाने की बहुत जरूरत है। किस लिए? ताकि वे अपनी मनमानी कर सकें? उनका मनोबल गिराता कौन है? उन्हीं के ही तो अफसर जो अपनी मौज के लिए अपने अधीनस्थों से गलत-सही काम कराते हैं और फिर उनको वेदी पर चढ़ा देते हैं। अगर जिले की पुलिस का मनोबल गिरता है तो क्यों नहीं उस जनपद के कप्तान को ही बर्खास्त कर दिया जाए? कप्तान की उपयोगिता ही क्या है? इतने डी आई जी और आईजी किसलिए बनाए गए हैं? सिर्फ वसूली के लिए?
पुलिस अफसरों की कमाई को कौन नहीं जानता? कानपुर में आठ पुलिस वालों के मारे जाने के बाद कितने अफसरों पर गाज़ गिरी है? एक भी नहीं। और उसी कानपुर की पुलिस एक अपहृत युवक संजीत यादव को ढूंढ़ पाने की जगह तीस लाख रुपयों से भरा सूटकेस पुल से फेंकवाती है। अपहृत युवक जिंदा वापस नहीं मिला जबकि अपहरणकर्ता मोबाइल का बेधड़क इस्तेमाल करते रहे। पुलिस की पोल खुल जाने पर कानपुर के एस एस पी किसी असंलिप्त व्यक्ति की तरह जवाब दे रहे थे कि मामले की जांच की जाएगी।
ऊपर के सारे अधिकारी मौन हैं। क्यों? क्योंकि ये सब खाकी वर्दी धारी जरूर हैं लेकिन भीतर से गैर पेशेवर हैं। उनकी नीयत सिर्फ पैसे कमाने की ही है। पहले कहा जाता था कि सिस्टम नीचे वालों को भ्रष्ट बना देता है। ऊपर से जब पैसे की मांग आती है तो नीचे वालों को लूटना पड़ता है। इसमें सच्चाई भी है लेकिन इस समय पुलिस मुखिया के पद पर बैठे हितेश अवस्थी तो पाई-पाई के ईमानदार है और फिर भी जिलों में लोग वसूली में लगे हैं और मनोबल बढ़ाए जाने की मांग कर रहे हैं! क्या ईमानदार मुखिया नाकारा होता है? उसे मुखिया बनाया जाना क्या सरकार की ब्रांडिंग भर होती है? यानी उसकी कुछ नहीं चलती? वरना क्या मजबूरी थी कि आठ पुलिस वालों के मारे जाने और अपहरणकर्ताओं तक सूटकेस पंहुचाने वाली कानपुर के एक भी आला अफसरों पर डी जी पी का कहर नहीं बरपा है?
पहला सवाल यह है कि विकास को किसने बनाया? राजनीतिज्ञों का संरक्षण तो होता ही है लेकिन बनाती तो पुलिस ही है। बीहड़ों में जो गैंग घूमते रहे हैं, वे भी तो पुलिस की ही देन हैं। देश भर में इस तरह के सैकड़ों विकास अभी भी मौजूद हैं। कौन नहीं जानता कि पुलिस में पोस्टिंग की सारी लड़ाई लूट के माल के लिए ही होती है। मैंने अपनी ज़िन्दगी में मेहनत करके पुलिस को कभी केस वर्कआउट करते नहीं देखा। जो अपने आप झोली में गिर गया, उसी को गुड वर्क बना लिया। असली मुठभेड़ ही तो कानपुर जैसा हाल होता है।
कोई यह सवाल नहीं उठा रहा है कि रात में पुलिस दबिश देने क्यों गई थी? क्या मजबूरी थीं? किसने फोन करके विकास को पकड़ने का आदेश दिया था? फिर पूरी तैयारी के साथ पुलिस क्यों नहीं गईं? बुलेट प्रूफ जैकेट क्यों नहीं पहने थे? हाथ में लाइट पिस्टल क्यों नहीं थी? हेलमेट क्यों नहीं लगाए थे? ये चीजें थाने में पड़ी सड़ती रहती हैं लेकिन पुलिस जब दुर्दांत अपराधी की तलाश में जाती है तो हाथ हिलाते हुए जाती है। यह सोचकर की कोई न कोई पकड़ कर दे देगा और बाद में डील कर लेगें! यही पुलिस कि मानसिकता है। अपने से बड़ा मिला तो उसकी जूती पर अपना सिर और अगर लावारिस मिल गया तो पूरे विभाग की जूतियां उसके सिर पर! खतरा तो पुलिस के शब्दकोश में होता ही नहीं है। खतरा लोगों को पुलिस से होता है, ऐसी ही धारणा सदियों से बनी हुई है।
मैंने जब क्राइम रिपोर्टिंग शुरू की थी, चार दशक पूर्व तो मुझे दो नई चीजें मालूम हुईं थीं कि पुलिस और पत्रकारिता का चोली- दामन का साथ होता है। यानी मीडिया का काम पुलिस की इज्जत को ढंक के रखना होता है। मुझे बाद में समझ में आया कि पुलिस की कोई इज्जत नहीं होती, सिर्फ इकबाल होता है और मीडिया का उससे संबंध चोली दामन का नहीं बल्कि गटर और मेनहोल के ढक्कन जैसा होता है। ढक्कन हटा नहीं कि गटर की सड़ांध बाहर आ जाएगी।
इसी सड़ांध ने गाजियाबाद के उस पत्रकार की सरे आम जान ले ली। लोग पत्रकारों से भिड़ने से इसलिए बचते हैं कि वे अफसरों के संपर्क में रहते हैं और बात ऊपर तक जा सकती है। लेकिन जो लोग समाज में तरह-तरह के जरायम करते रहते हैं, उनके असली मां-बाप तो पुलिस वाले ही होते हैं, वे ही पुलिस के मुखबिर भी होते हैं। इसलिए पुलिस की पहली प्राथमिकता तो अपने मुखबिरों की सुरक्षा ही होती है। इसी वजह से पुलिस पत्रकार को नहीं बचा पाई।
जो लोग चैनलों पर पुलिस के खत्म हो रहे इकबाल की बात करते हैं, वे यह नहीं बता पायेगें की यह इकबाल बुलंद होता कैसे है? असल में जब निर्दोष लोगों को पुलिस सरे आम चौराहे पर पीटती है, उनके बाल मुंडवाती है, थर्ड डिग्री करती है, अनजाने में या मूर्खता में किसी दबंग से भिड़ जाती है तो जो कुछ मोहल्ले में बुलंद होता है, वही पुलिस का इकबाल होता है। पुलिस का यह रवैया देखकर बदमाश पुलिस से दोस्ती के बहाने ढूंढ़ते हैं, उनका बेगार करते हैं और रेट बढ़ाते हैं, वही इकबाल होता है। पुलिस के पास कोई अलादीन का चिराग नहीं होता जिससे वह अपराधियों को ढूंढ़ लाए। यही जरायम करने वाले उसके सेवक ही उनकी चिलम फूंकते रहते हैं।
मेरे एक मित्र जो एक जिले में एस एस पी थे, वे हर रोज एक बदमाश का पैर तोड़वाते रहते थे। जब कोई विधायक फोन करता कि उसके एक आदमी को पुलिस उठा ले गई है तो एस एस पी तुरंत थाने में वायरलेस करते कि विधायक जी के पहुंचने से पहले टांग टूट जानी चाहिए। अपने कार्यकाल में उन्होंने लगभग दो सौ लोगों के पैर तोड़े थे। वह कहते थे कि यह मेरी मजबूरी है। किसी दफा में इन्हें जेल भेज दिया जाएगा तो दो-तीन महीने में जमानत कराके वापस आ जाएंगे। ऐसे तो पैर ठीक होने में साल-छह महीने लग जाएंगे और पुलिस के डर से जमानत भी नहीं कराएगें, तब तक मेरा कार्यकाल शांति से पूरा हो जाएगा। पुलिस का इकबाल भी बुलंद हो जाएगा।
मैंने एक डी जी पी से एक इंस्पेक्टर के ट्रांसफर की सिफारिश की। डीजीपी ने उसे नियमानुसार ड्यूटी करने का आदेश दिया। बाद में उसी इंस्पेक्टर ने एक विधायक को पैसे देकर अपना ट्रांसफर करवा लिया। अब वह अपने विधायक का चेला हो गया। उन्हीं डी जी पी ने एक दिन मुझसे अपनी फोर्स की शिकायत करते हुए कहा कि ये लोग अपने अफसरों की नहीं सुनते बल्कि विधायकों की ज्यादा सुनते हैं, आखिर क्यों? मैंने कहा कि आप उनके है कौन? आप उनकी परेशानियों की सुनने की जगह रौब झाड़ते हैं, नसीहत देते हैं और खुद तो समझौता करते फिरते हैं। क्या आप इस बात का खंडन कर सकने की कूवत रखते हैं कि आपके अधीनस्थ फोर्स से पैसे नहीं लेते? डी जी पी कार्यालय तक में खुले आम पैसे किए जाते हैं कि नहीं? उन्होंने माना कि यही सच्चाई है।
अगर कानपुर की घटना को नमूने के रूप में किया जाए तो क्या सिर्फ वह थानेदार ही ज़िम्मेदार था जिसने विकास को दबिश की सूचना दे दी थी? क्या आमतौर पर ऐसा होता नहीं है? क्या पुलिस वाले नहीं जानते थे कि कहीं से भी मुखबिरी हो सकती है? क्या वे प्रोफेशनली तैयार होकर गए थे? नहीं, तो फिर कानपुर के सारे अफसर इस घटना के लिए ज़िम्मेदार नहीं माने जायेगें?
विकास दुबे से किसी को भी सहानुभूति नहीं है। उसकी वैधानिक या अवैधानिक मौत से भी किसी फर्क नहीं पड़ता। आलोचक कहते हैं कि इससे पुलिस का मन बढ़ जाएगा और पैसे लेकर हत्याएं करने लगेगी। मैंने कहा कि क्या अभी नहीं होती? उन्होंने कहा कि जंगल राज हो जाएगा। मैंने पूछा कि क्या अभी नहीं है? क्या निर्दोष लोग नहीं मारे जा रहे हैं, किसकी सुनी जा रही है? अगर आप अफसर नहीं हैं, जनप्रतिनिधि नहीं है या पत्रकार नहीं हैं तो कौन सिपाही या थानेदार आप की तरफ मुंह उठाकर देखेगा? वैसे इन तीनों श्रेणी के लोगों की भी आमतौर पर नहीं सुनी जाती है। हां, दलाल हों तो सुने जाने की गारंटी है। मैंने बताया कि मैं तो कई डीजीपी को जानता हूं लेकिन फिर भी किसी मदद क्यों नहीं कर पाता क्योंकि डीजीपी की ही कोई रुचि नहीं होती किसी की मदद करने की तो दरोगा ही क्यों रुचि ले? इन बड़े अफसरों ने ही अपने नीचे के अफसरों को अपना चाकर और जनता का दुश्मन बना रखा है।
पुलिस में लोग कहते हैं कि पुलिस में भीड़ बढ़ने के कारण नीचे का स्टाफ अप्रशिक्षित रह गया है। बहुत से लोग पैसे देकर नौकरी में आए तो वे कमाने की जल्दी में दिखते हैं। ऐसे लोगों से में पूछता हूं कि उस आई पी एस के प्रशिक्षण के बारे में क्या कहेंगे जो कानपुर में बताती है कि सूटकेस में तीस लाख रुपए नहीं थे, कुछ पुराने कपड़े थे। क्या कोई अपने बेटे को बचाने के लिए मांगी गई फिरौती देने की जगह कपड़े भेजेगा ताकि उसकी हत्या कर दी जाए? आई पी एस अफसर बताती हैं कि सूटकेस फेंकने के बाद पुलिस सूटकेस उठाने वालों को इसलिए नहीं पकड़ पाई क्योंकि वह स्थान डेढ़ किलोमीटर दूर था। तो यही थी पुलिस की रणनीति? उस अफसर को पुल से नीचे जाने का रास्ता ही नहीं दिखता। असल में इन अफसरों की दिक्कत यह है कि उन्हें नीचे से जो पढ़ा दिया जाता है, उसके आगे उनका दिमाग है काम नहीं करता है। फलतः गलतियां होंगी ही।
यूपी के पूर्व डी जी सूर्य कुमार शुक्ला कहते हैं कि ऐसे समय में पुलिस का मनोबल बढ़ाए जाने की कोशिश की जानी चाहिए क्योंकि आठ पुलिस वाले मारे गए हैं। तब तो जेल में बंद थानेदार को भी रिहा कर देना चाहिए? ऐसे पुलिसवालों की तलाश नहीं की जानी चाहिए जो अपराधियों के मुखबिर बन कर जरायम कराते हैं? असल में पूरी नौकरी ऐश करने वाले ये अफसर अपने अधीनस्थों की परेशानियों के समाधान में ज़रा भी रुचि नहीं लेते हैं जिससे ये स्थितियां उत्पन्न हो गई है। मीडिया भी ज़मीनी हकीकत से वाकिफ नहीं है जिसकी वजह से वह उन चर्चाओं में डूब जाती है कि अगर विकास ज़िंदा होता तो अपराधियों और राजनीतिज्ञों के गठजोड़ का पर्दाफाश हो जाता। इस नापाक गठजोड़ के बारे में कौन नहीं जानता या कौन जानने को इच्छुक है? यह जानने की ज्यादा जरूरत है कि पुलिस अपना काम पेशेवर ढंग से क्यों नहीं कर पा रही है? क्या ईमानदार डीजीपी और मुख्यमंत्री मिलकर बेईमानों का सूपड़ा साफ करने में अक्षम हैं? यही सही वक्त है सही और कड़े फैसले लेने का जिसकी गूंज देर तक दूर-दूर तक सुनाई पड़ती रहनी चाहिए वरना इस फोर्स को प्रोफेशनल बनाने के लिए सभी को नया जन्म लेना पड़ेगा।
वैसे पूरा घटनाक्रम पुलिस के इर्द-गिर्द ही केन्द्रित है लेकिन कुछ पुलिस अधिकारी अपने बचाव में राजनीतिज्ञों को इन स्थितियों के लिए ज़िम्मेदार मानकर अपना ठीकरा उनके सिर फोड़ने की कोशिश करते दिखते हैं, लेकिन वह यह नहीं बता पाते कि आखिर वे नेताओं की बात मानने के लिए मजबूत क्यों ही जाते हैं? अपना निहित स्वार्थ वे छिपा जाते हैं। मुलायम सिंह ने इन अफसरों के ही एक कार्यक्रम में एक बार कहा भी था कि मलाईदार पोस्टिंग के लिए क्यों ये अफसर हमारे तलवे चाटते हैं?
उत्तर प्रदेश के प्रथम आईजी (उस समय डी जी पी नहीं होते थे) श्री लाहिड़ी जी ने मुझे अपना एक अनुभव बताता था कि जब गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी ने एक जिले के एस पी के लिए अपनी एक सिफारिश की थी जिसे उन्होंने मानने से इंकार कर दिया था। लाहिड़ी जी ने गृह मंत्री से कहा था कि यह आपका विषय नहीं है। शास्त्री जी ने दो बार उनसे सिफारिश की और पूछा कि आखिर मैं उस एस पी को क्या जवाब दूं? इस पर लाहिड़ी जी ने कहा था कि मैं उत्तर प्रदेश के दौरे पर निकल जाता हूं और आप उससे कह दीजिए कि संपर्क नहीं हो पा रहा है।
अगर आज ऐसी कोई सिफारिश आती तो कोई भी डी जी पी न सिर्फ उस सिफारिश को सर माथे पर लगाता बल्कि उस एस पी की ही जू-हुजूरी में लग जाता। मैंने अपनी आंखों से देखा है कि मुख्यमंत्री के निर्देश पर नियुक्तियां होती हैं, चाहे वह कितना ही भ्रष्ट क्यों न हो। डीजीपी गर्व से इस बात को बताते भी हैं इस आशय के साथ कि उस जिले में क्राइम बढ़ रहा है तो मैं क्या करूं, वह तो सीएम से जुड़ा है। यानी प्रदेश को सही सलामत चलाने के लिए कोई डीजीपी नहीं बनता है बल्कि प्रभावशाली राजनीतिज्ञों का चाटुकार बनने के लिए! आखिर क्यों?
मैंने अपनी आंखों से पुलिस मुखिया को निकृष्ट राजनीतिज्ञों की जी-हुजूरी करते देखा है ताकि उनकी नौकरी चलती रहे। किसी एसएसपी या डीजीपी को अपने ज़मीर के लिए अपनी कुर्सी छोड़ते नहीं देखा। लेकिन इन्हीं लोगों को सार्वजनिक मंचों पर अपने अधीनस्थों को नैतिकता का पाठ पढ़ाते देखा जा सकता है।
मैंने खुद देखा है तीस चालीस बरस पहले जब पुलिस वाले अपने नए ए एस पी को खुश करने के लिए चुपके से उनके ड्रॉअर में सिगरेट के पैकेट रख देते थे, चाय नाश्ता मंगा देते थे। आज तो बाकायदा महीना मांगा जाता है। पहले भ्रष्ट सिस्टम में शामिल होने में समय लगता था लेकिन आज ए एस पी पहले दिन से ही शुरू हो जाते हैं। जब कुएं में भांग पड़ जाए तो कोई क्या कर सकता है?
विकास के एनकाऊंटर के डिफेंस में दो पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह और एके जैन मैदान में उतरे हैं लेकिन छह महीने पहले डीजीपी रहे ओपी सिंह खामोश हैं। लेकिन अपनी नौकरी के दौरान उन्होंने कई बार मुझसे पुलिस की कार्यप्रणाली को लेकर चिंता व्यक्त की थी। उन्होंने कहा था कि जिसने रिश्वत देकर नौकरी हासिल की है, वह तो लूट मचाएगा ही। वह कहते थे कि इतनी बड़ी फोर्स को अंकुश में रखने के लिए लंबे समय के लिए अच्छे नेतृत्व की जरूरत रहेगी। हालांकि ओपी सिंह के मुख्यमंत्री से निकट के संबंध थे लेकिन उन्होंने इसका लाभ लेकर सेवा विस्तार हासिल करने की कोई कोशिश नहीं की थी जिसका जिक्र मुख्यमंत्री भी कर चुके हैं और जो एक मिसाल बन गई है। ओपी सिंह ने मुख्यमंत्री की निकटता का लाभ लेकर डंके कि चोट पर नौकरी की और नई इबारत लिखने की कोशिश की। जाते जाते पुलिस कमिश्नरेट प्रणाली लागू कर उन्होंने पुलिस विभाग की जय जयकार भी करा दी जिसके लिए पूरा पुलिस विभाग उनके लिए अहसानमंद ही गया है। एक तरह से उन्होंने इतिहास रचा है लेकिन इसकी सार्थकता तभी है जब पुलिस कमिश्नर के पदों पर कोई ईमानदार बैठे और ओपी सिंह की डी गई मशाल को रिले रेस की तरह आगे बढ़ाए। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि अपनी नौकरी की शुरुवात में ओपी सिंह ने अपने एक इंस्पेक्टर के खिलाफ खुद एफआईआर लिखवाई थी जिसने उन्हें रिश्वत के रूप में बीस हजार रुपए की रिश्वत एक लिफाफे में भरकर दी थी। बाद में उस इंस्पेक्टर ने पुलिस की नौकरी ही छोड़ दी थी।
मुख्यमंत्री ने वरीयता के आधार पर हितेश अवस्थी जैसे पाई-पाई के ईमानदार अफसर को डीजीपी बनाकर भी एक मिसाल कायम की है। देखना है कि इन दो ईमानदार शिखर पुरुषों की जोड़ी पुलिस विभाग में कोई बदलाव ला सकने में समर्थ होती है कि नहीं? या अनुभवहीनता इन्हें धराशाई कर देगी क्योंकि इनका मुकाबला घड़ियालों से नहीं बल्कि खूंखार भेड़ियों से है जिन्हें देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त है कि न दिन में, न रात में, न इंसान, न जानवर, न किसी शस्त्र से इनका विनाश किया जा सकता है। सवाल यह है कि कौन लेगा नरसिंह का अवतार?
स्नेह मधुर
वैसे तो अपने देश में कई भाषाएं हैं, भाषा के आधार पर ही राज्य बने हैं और हर सौ कोस पर बोली तक बदल जाती है। लेकिन इसके बावजूद विविध जातियों, धर्मों एवं भाषाओं वाले इस देश को एकता के सूत्र में पिरोने का काम हिन्दी ही करती है। अपने देश में प्रतिवर्ष 14 सितम्बर का दिन हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। 14 सितम्बर 1949 के दिन संविधान में हिन्दी को राजभाषा घोषित करने वाली धारा स्वीकृत की गयी थी। इसलिए राजभाषा होने के देश की राष्ट्रभाषा होने का गौरव भी प्राप्त है।
विश्व की एक प्राचीन, समृद्ध, सरल एवं सुगम भाषा होने के साथ ही हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है। इस राष्ट्र भाषा को समृद्ध बनाना, इसे संरक्षित करना और इसका विस्तार करना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है। इसी कर्तव्य के निर्वाह हेतु 14 सितम्बर का दिन ‘हिन्दी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
स्वतंत्रता के बाद 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिंदी (खड़ी बोली) ही भारत की राजभाषा होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिंदी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के अनुरोध पर 1953 से संपूर्ण भारत में 14 सितंबर को प्रतिवर्ष ‘हिंदी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
इस दिन विभिन्न शासकीय, अशासकीय कार्यालयों, शिक्षा संस्थाओं आदि में विविध गोष्ठियों, सम्मेलनों, प्रतियोगिताओं तथा अन्य कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। कहीं-कहीं ‘हिंदी पखवाड़ा’ तथा ‘राजभाषा सप्ताह’ भी मनाए जाते हैं।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में 13 सितंबर, 1949 के दिन बहस में भाग लेते हुए कहा था, “किसी विदेशी भाषा से कोई राष्ट्र महान नहीं हो सकता। कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती। भारत के हित में, भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, ऐसा राष्ट्र बनाने के हित में जो अपनी आत्मा को पहचाने, जिसे आत्मविश्वास हो, जो संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिंदी को अपनाना चाहिए।”
यह बहस 12 सितंबर 1949 को शाम चार बजे से शुरू हुई और 14 सितंबर, 1949 के दिन समाप्त हुई थी। 14 सितंबर की शाम बहस के समापन के बाद भाषा संबंधी संविधान के तत्कालीन भाग 14 (क) और वर्तमान भाग 17 में हिंदी का उल्लेख है।
संविधान सभा की भाषा विषयक बहस लगभग 278 पृष्ठों में मुद्रित हुई। इसमें डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और गोपाल स्वामी आयंगार की महत्वपूर्ण भूमिका रही। बहस के बाद यह सहमति बनी कि संघ की भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। देवनागरी में लिखे जाने वाले अंकों और अंग्रेजी में लिखे जाने वाले अंकों को लेकर बहस हुई और अंतत: आयंगार-मुंशी फार्मूला भारी बहुमत से स्वीकार कर लिया गया।
स्वतंत्र भारत की राजभाषा के प्रश्न पर काफी विचार-विमर्श के बाद जो निर्णय लिया गया, वह भारतीय संविधान के अध्याय 17 के अनुच्छेद 343 (1) में इस प्रकार वर्णित है : संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय ही होगा।
राजभाषा के प्रश्न से अलग हिंदी की अपनी एक विशाल परंपरा है। साहित्य और संचार के क्षेत्र में भी हिंदी का दबदबा देखने को मिलता है। तकनीक की क्रांति ने हिंदी को बल दिया है तो इसे सीमा के बाहर भी फैलने का अवसर प्रदान किया है।
हम हर वर्ष 14 सितंबर को परंपरा के रूप में हिंदी दिवस मनाते हैं लेकिन असल में हिंदी दिवस या हिंदी पखवाड़ा मनाने वाले लोग भी हिंदी के उतने अनुरागी नहीं होते। उनके परिजन और प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चों को भी अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में अनिवार्य रूप से भेजने की कोशिश होती है। अंग्रेजी माध्यम वाले विद्यालयों में पढ़ाने का फैशन इतना बढ़ गया है कि घर में झाड़ू-बुहारू करने या सड़क की सफाई करने वाला भी अपने बच्चों को भी अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में भेजना चाहता है। हमें इस जमीनी हकीकत को स्वीकार करना चाहिए और एसी योजनाएं बनानी चाहिए जिससे वास्तव में हिंदी का उत्थान हो और हिंदी को लेकर हम किसी हीनभावना से ग्रस्त न हो जायें। अंग्रेजी के प्रति लोगों में आकर्षण को बढ़ाने के लिए तमाम पत्र-पत्रिकाएं भी हिंग्लिश को बढ़ावा देने लगी हैं। बाहरी भाषा के शब्दों को हिंदी में शामिल किये जाने से नहीं रोका जा सकता है लेकिन इसकी आड़ में हिंदी को समाप्त करने की साजिश करना भी गलत है।
नयी पीढ़ी में अंग्रेजी भाषा के प्रयोग के फैशन के सामने हिंदी केवल उन लोगों की ही भाषा बन गयी है जिनको या तो अंग्रेज़ी आती नहीं या फिर कुछ पढ़े-लिखे लोग जिनको हिंदी से कुछ ज़्यादा ही मोह है|हिंदी गरीबों की भाषा बनती जा रही है जो निश्चित रूप से चिंतनीय है। सरकार भी हिंदी भाषा को सम्मान देने के लिए आज के दिन राजभाषा नीति का कार्यान्वयन, व्यवसायिक क्षेत्र के विषयों में मौलिक हिंदी पुस्तक लेखन, विज्ञान और प्रौद्योगिकी सहित समकालीन रुचि से जुड़े वैज्ञानिक और तकनीकी विषयों पर हिंदी पुस्तक लेखन जैसे विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्ट पुरस्कार प्रदान करने जैसी औपचारिकता प्रतिवर्ष अपनी जिम्मेदारी के तौर पर पूरी करती है लेकिन संसद के भीतर की अधिकतम कार्रवाई, अभिभाषण और बहस मुख्यतः अंग्रेजी भाषा में ही होते है| इसके इतर देश की नौकरशाही भी हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी का प्रयोग करना बेहतर समझती है|
स्नेह मधुर
हिन्दी दिवस: “प्लीज मम्मी, डोंट गो. . . . !”: स्नेह मधुर
स्नेह मधुर
अपने एक मित्र के साथ उनके एक ब्रिगेडियर दोस्त के घर जाने का सौभाग्य मिला। ब्रिगेडियर दोस्त की नियुक्ति कहीं बाहर है और उनकी पत्नी अपने बच्चों के साथ इसी शहर में रहती हैं।
जब उनके घर हम पंहुचे तो ब्रिगेडियर की पत्नी कहीं जाने की जल्दी में थीं और तैयार हो रही थीं। बाल संवारना, पफ करना, नौकर को हिदायत देना, उतरे हुए कपड़े इधर से उधर फेंकना, तीन साल की बच्ची पिंकी को नाश्ता वक्त पर करने का निर्देश देना, आठ साल के बच्चे सुदर्शन के स्कूल से लौटने पर उसे क्या नाश्ता देना है इसके बारे में नौकर को समझाना, ढेर सारी कापी-किताबों को समेटना, टामी को गोद में लेकर दुलराना, हमारा हालचाल पूछना और कुछ याद करते हुए कोल्ड ड्रिंक्स लाने के लिए नौकर को फिर पुकारना। बिजली के बिल, कार में आयी खराबी और टुल्लू जल जाने से लेकर हिंदी के एक समाचार पत्र के संपादक के साथ हुई भेंट का जिक्र करना और खुशवंत सिंह के स्तंभ ‘सरदार इन बल्ब‘ की प्रशंसा करना आदि सब कुछ एकसाथ चल रहा था। ऐसा लग रहा था कि घर में फुल वाल्यूम में टेलीविजन चल रहा है, रेडियो बज रहा है, टेपरिकार्डर भी चल रहा है, कूलर के साथ एयर कंडीशनर की आवाज मिल गयी है और छत पर लटके पंखे भी वाल बेयरिंग कट जाने के कारण जोर से घड़घड़ा रहे हैं। इतनी ढेर सारी आवाजों के बीच ऐसा लगता था कि जैसे घर के सारे नल भी खुले हों और बाल्टियों में पानी गिरने की आवाज के साथ टेलीफोन पर जोर-जोर से बात करने की आवाज भी उसी में घुसी जा रही हो। हे भगवान! रसोई में आमलेट जलने की गंध मिलना भर बाकी रह गया था।
शटल काक की तरह एक कमरे से दूसरे कमरे में नाचती हुई अन्तत: जब वह कंधे पर पर्स और हाथों में कापियों का ढेर उठाये और पैर में सैंडिल डालने की बार-बार कोशिश करती हुई सामने स्थिर हो गयीं तो लगा जैसे भूकंप की तबाही के बाद की शान्ति हो। मित्र ने पूछा, ‘भाभी जी कहीं जा रही हैं क्या? कहीं यूनिवर्सिटी में रिसर्च तो शुरू नहीं कर दिया है ?‘
‘नहीं यार, आय एम नाट सो लकी। मन तो बहौत करता है, बट यू नो, देयर इज नो टाइम । घर की रिसपांसिबिलिटी से फ्री हों तो कुछ करें भी। सारी लाइफ स्पवायल हो गयी। बस एक स्कूल ज्वाइन किया है, वहीं पढ़ाने जा रही हूं‘।‘
‘स्कूल में पढ़ाना तो फुलटाइम जाब है, कैसे मैनेज करती हैं? इंटर सेक्शन में हैं कि हाई स्कूल में?‘
‘अरे मजाक मत करिये, कहां हाई स्कूल और कहां इंटरमाडिएट? पास में बच्चों का एक स्कूल है-नर्सरी, उसी में टाइम पास करती हूं।‘
‘नर्सरी स्कूल में पढ़ाती हैं आप? कितने पैसे देते होंगे? सात-आठ सौ रुपये बस न, या कुछ और?‘
‘नहीं यार, इतने भी नहीं। बट यू नो, मनी इज नो कंसीडरेशन फार मी। हसबैंड को ही फाइव फीगर मिल जाता है। पैसे की भूख नहीं है। आय एम नाट रनिंग आफटर मनी। आय वांट टु वर्क फार माय सैटिसफैक्शन, फार सम काज। बच्चों की हेल्प हो जाती है और मेरा टाइम भी पास हो जाता है। आखिर एक इंसान को जिस्मानी जरूरतों के अलावा अपनी मानसिक खूराक के बारे में भी तो कुछ सोचना चाहिए। अदरवाइज व्हाट इंज डिफरेंस बिटवीन अ मैन ऐंड ऐन एनीमल? स्कूल में तो अच्छा-खासा टाइम पास हो जाता है, यू नो, पढ़ाई कि पढ़ाई और आउटिंग कि आउटिंग ! घर के मोनोटोनस एंड डिप्रेसिंग एटमासफियर से कुछ देर के लिए छुट्टी मिल जाती है। घर में बैठे-बैठे बोर हो जाते हैं। सारी एजूकेशन बेकार हो गयी। यू नो, वन शुड डू समथिंग क्रि येटिव। स्कूल में दीज लोअर क्लास टीचर्स से भी इंटरैक्शन हो जाता है। दे आर वेरी क्रि येटिव एंड इमोशनल। दे मिस देअर फेमिली व्हेन दे वर्क आउटसाइड। एक्चुअली, इंसपाइट आफ फाइनेंशियल क्र ाइसेस एंड हैविंग गुड नालेज, दे डोंट वांट टु वर्कं, बट आयरनी इज दैट दे आर फोस्र्ड टु वर्क.. आय रियली इंंजवाय देयर कंपनी …. इट्स क्वाइट थ्रिलिंग फार मी टु शेयर देयर एक्सपीरियेंसेज। मेरे क्लास की और लेडीज तो दिन भर किटी पार्टीज में लगी रहती हैं ..आय हेट दीज किटी पार्टीज। बस साड़ी-गहनों की बात करो। आय एम फेडअप विद दीज थिंग्स…।‘
‘कितने दिनों से पढ़ा रही हैं?‘
‘अभी तो तीन महीने ही हुए हैं और यू नो, पूरे स्कूल के बच्चे मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि मैडम आपकी क्लास में पढ़ूंगा..। सारे बच्चे अपनी कापी मुझसे ही करेक्ट $कराते हैं। एक दिन मैनेजर से मेरा झगड़ा भी हो गया। मैंने तो कह भी दिया कि मैं काम नहीं करूंगी। बट यू नो, व्हाट हैपेंड? सारे बच्चों ने मुझे कार्ड्स लिखकर दिये ..प्लीज मैडम ,डोंट लीव अस … सो स्वीट आफ देम। आय स्टार्टेड क्राइंग..। बच्चे लव्ज मी वेरी मच। मैनेजर ने मुझे तीन-तीन क्लासेज दे रखी हैं। मैं तो काम के मारे मरी जा रही हूं। घर पर लाकर कापियां करेक्ट करनी पड़ती हैं-रात-रातभर जागकर। लाइफ हैज बिकम हेल। अदर टीर्चस तो दिन-भर में चार-पांच पीरियड पढ़ाकर चली जाती हैं, सबसे अधिक मुझे ही खटना पड़ता है …नोबडी गिव्ज देम कार्ड्स… दे आर नाट पापुलर अमंज्स चिल्ड्रेन।‘
इसी बीच पिंकी आकर मैडम की साड़ी पकडक़र खड़ी हो गयी और रह-रहकर साड़ी को अपनी तरफ खींचती जा रही थी। मैडम बात करने में इतनी मशगूल थीं कि पिंकी की रूआंसी आवाज मम्मी के कानों तक नहीं पंहुच पा रही थी। साड़ी को खींचते हुए पिंकी बस एक ही चीज रटे जा रही थी, ‘ मम्मी, प्लीज डोंट गो …मम्मी प्लीज डोंट गो मम्मी !‘
मैडम को अचानक अहसास हुआ कि पिंकी उनकी साड़ी से लिपटी खड़ी है। उन्होंने पिंकी की करुण पुकार को अनसुना करते हुए एक झाड़ लगायी, ‘पिंकी, गो टु योर बेड …आय सेड गो टु योर बेड।‘ मम्मी की घूरती आंखों को देखकर वह सहम सी गयी और बेमन से अपने कमरे की तरफ चली गयी।
‘यू नो, शी इज पिंकी, माय पुअर चाइल्ड। शी हैज गाट फीवर, परसों से चढ़ा है, 102..103 डिग्री के आस-पास ही रहता है, उतरता ही नहीं। अरे हां, याद आया, वुड यू प्लीज हेल्प मी? आय हैव रिटेन सम पोएम्स, गुड पोएम्स, आय वांट देम टु बी पब्लिश्ड इन सम पेपर, कैन यू ट्राय फार मी इन योर पेपर?‘
‘आप इंगलिश में लिखती हैं और हमारा पेपर हिंदी में निकलता है। अंग्रेजी की किसी पत्रिका में कोशिश करिये।‘
‘अरे नहीं, आय मीन यू मिसअंडरस्टुड मी …आय राइट इन हिंदी ओनली। हिंदी इज माय मदर टंग। मेरा पूरा एक्सप्रेशन हिंदी में है। आय लव टु एक्सप्रेस मायसेल्फ इन हिंदी …! आय आलसो फील फुल कांफीडेंस इन राइटिंग इन हिंदी… मेरी पोएम्स का कलेक्शन बुक फार्म में निकलने जा रहा है। उससे पहले, आय मीन, इन द मीन टाइम मैं चाहती हूं कि कुछ पोएम्स पेपर में निकल जाये तो अच्छा रहेगा …!‘
‘आपने अपने संपादक मित्र से अनुरोध नहीं किया?‘
‘आय हैव ट्रायड हिम। ही विल डेफिनेटली गिव, बट आपके पेपर में भी निकल जाये तो यू नो थोड़ा सा स्टेटस पर फर्क पड़ता है, है न।‘
‘सो तो है।‘
‘प्लीज डू ट्राय…। आपकी डाटर किस स्कूल में पढ़ती है?‘
‘ग्रीन लान नर्सरी में।‘
‘ओह कैसी रेपुटेशन है स्कूल की?‘
‘अच्छी है। क्या पिंकी का एडमिशन कराना है?‘
‘अरे नहीं, इन सडिय़ल स्कूलों में पिंकी को नहीं डालूंगी। दे आर राटेन कैसे-कैसे गंदले बच्चे आते हैं, कैसी-कैसी फूहड़ टीचर्स आती हैं पढ़ाने? घर में पकायेंगी रोटी, करेंगी झाड़ू-पोंछा और फिर होठों पर लिपिस्टिक लगाकर पंहुच जायेंगी स्कूल में । आय हेट देम !‘
‘फिर किस लिए पूछ रही हैं ग्रीन लांस के बारे में ?‘
‘बुलाया है मुझे..! एक्चुअली दे आर आफरिंग मी नाइन हंडेड रूपीज..! मैंने भी कहला दिया है कि राउंड फीगर की बात करो वन थाउजेंड। बट यू नो ? मनी इज नो कंसीडरेशन-इट डज नाट मैटर। द ओनली थिंग इज दैट कि इट्स ऐन अपार्चयूनिटी। मुझे तो तीन ही महीने हुए हैं पढ़ाना शुरू किये हुए और आय एम गेटिंज्ज आफर्स! कितने सालों से पढ़ाने वाली टीचर्स भी हैं, बट दे नेवर गाट एनी आफर फाम एनी व्हेयर। आय वांट टु अवेल दिस अपाच्र्यूनिटी। बट यू नो चिल्डे्रन विल डेफिनेटली मिस मी … आय एम वेरी इमोशनल… आय कांट हर्ट देम। प्लीज टेल मी कि मैं क्या करूं मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है कि वहाट टु डू…. प्लीज हेल्प मी ।‘
इसी बीच एक बार फिर पिंकी कमरे से बाहर निकल आयी थी लेकिन परदे की ओट में इस तरह से छिपी थी कि मम्मी की नजर उस पर न पडऩे पाये। वह लगातार रोये जा रही थी लेकिन अपनी आवाज को दबाने के लिए उसने परदे को मुंह में ठूंस लिया था। अब न तो उसकी आवाज उसकी मम्मी के कानों तक पंहुचेगी और न ही आंसू उसकी मम्मी देख पायेगीं।
(यह व्यंग्य वर्ष 1987 मेें मैंने लिखा था जो तब इलाहाबाद और लखनऊ से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र अमृत प्रभात में घूमता आईना स्त मेें प्रकाशित हुआ था)
जन्माष्टमी के दिन उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अनौपचारिक रूप से पत्रकारों से मुलाकात करके राज्य मुख्यालय पर मान्यताप्राप्त पत्रकारों को रियायती दर पर आवास देने का वायदा किया था। खुद ही पूछा था कि कितने वक्त में इस आदेश को अमली जामा पहना दिया जाये? और खुद ही कह दिया था कि 15 दिन के अंदर इसकी नीति बनाकर आधिकारिक घोषणा कर दी जायेगी। पत्रकार बड़े खुश हुए थे। हालांकि चार साल चली सरकार के रवैये और मुख्यमंत्री द्वारा कई बार अपना वायदा पूरा न करने के अनुभवों को देखते हुए जल्दी घोषणा की उम्मीद कम ही थी।
हम लोगों ने अपनी आँखों से देखा है कि चार साल पहले पीजीआई में इलाज की सुविधा के लिए मुख्मंत्री बार-बार आश्वासन देते थे लेकिन हर अगली प्रेस कांफ्रेंस में पत्रकारों के नेता हेमंत तिवारी जी जब खड़े होकर इस सवाल को उठाते थे तो मुख्यमंत्री खुद ही उनको बैठने को कहते हुए चीफ सेक्रेटरी से पूछते थे कि क्या हुआ उस वायदे का? फिर अगली डेट दे दी जाती थी और अगली प्रेस कांफ्रेंस में फिर वही नाटक दोहराया जाता । हम लोग भी समझ गए थे कि यह हेमंत तिवारी जी और अखिलेश यादव जी की आपसी केमिष्ट्री का मामला है। कई अनुभवी पत्रकार तो यह भी कहने लगे थे कि मुख्यमंत्री हेमंत तिवारी को पसंद नहीं करते हैं, इसलिए वह इस मामले में रूचि नहीं ले रहे हैं। लेकिन हेमंत तिवारी जी की लगन काम आ ही गयी और पीजीआई में इलाज का रास्ता साफ़ हो गया। लेकिन लग गए थे कई बरस।
वैसा ही कुछ फिर दोहराया जाता दिख रहा । मुख्यमंत्री के वायदे के 14 दिन पूरे होने पर कुछ पत्रकारों ने बताया कि मुख्यमंत्री ने एक हफ्ते का वक्त और मांग लिया है। कोई बात नहीं, एक हफ्ता क्या है, चार हफ्ते और भी ले लेंगे तो कोई हर्ज नहीं है। लाभ पूरे प्रदेश के पत्रकारों को तो मिलना नहीं है, सिर्फ लखनऊ के ही कुछ सौ पत्रकारों को मिलेगा। वैसे भी विज्ञापनों की बरसात करके सरकार अपनी छवि चमका ही रही है। वैसे ही, जैसे डालीबाग के टूटे-फूटे मकानों को भीतर से दुरुस्त न करके बाहर से रंग दिया जा रहा है। बाहर से देखो तो स्वर्ग, भीतर जाओ तो नरक। यहां तक कि सरकार ने आनलाइन जनसुनवाई जो शुरू की है, वह भी झूठ का पहाड़ ही निकला। शिकायतों का निस्तारण किये बिना ही फाइल क्लोज कर दी जाती है और एसएमएस आ जाता है कि आपकी समस्याओं का निवारण कर दिया गया। यह आनलाइन चारसौबीसी खुद सरकार द्वारा ही करायी जा रही है। इसलिए ऐसी परिस्थितियों में संभव है कि कुछ दिनों बाद सरकार घोषणा कर दे कि पत्रकार मकान के लिए पंजीकरण करा लें लेकिन मिलेगा अगली बार सरकार वापस आने पर..होशियार हो जाइये और ज्यादा सपने मत बुनिये..यह चुनावी घोषणाओं का दौर चल रहा है। अगर सरकार ही नहीं वापस आयेगी तो आपका खुश करने से सरकार को क्या लाभ? बिना लाभ के क्या सरकार जनहित का कोई काम करती है?
‘तारणहार’
15 साल की एक लड़की
साइकिल चलाती हुई
सड़क पर गुजर रही है
बुजुर्ग उसे देख रहे हैं हसरत भरी निगाह से
युवाओं के मन में लाल गुलाब की कंटीली झाड़ियां उग रही हैं
और दिमाग साजिशों से भर-भर कर उफान मार रहा है
और यकबयक किशोरों के दबे हुए दांतों के बीच से फूटने लगती हैं सिसकारियां और बेचैन जीभ तलाशने लगती है निकास मार्ग
बज उठती है चारों तरफ सीटियां
किसी के तृप्त होने की खुशी में
तो किसी के अपनी बारी के इंतज़ार में ।
सभ्य लोगों के होंठ सिले रहते हैं और आंखें बंद
क्योंकि उनके घरों में भी लड़के होते हैं जिनके आधी रात में आने पर खुल जाते हैं द्वार और लड़कियों के लिए गोधूलि के बाद घर से बाहर निकलने के दरवाजे हो जाते हैं बंद
आखिर शिकारियों को तो अंधेरे में बाहर निकलना ही पड़ता है।
अगले दिन जब घर में रोना मचा होता है तो भीड़ निकल पड़ती है बिना टिकट का सिनेमा देखने
और टीवी डिबेट में बैठे पेशेवर लोग बिफर पड़ते हैं।
अवांछित लोगों पर काबू रखने के लिए डंडा लेकर चलने वाली पुलिस की जीडी नहीं भरती इन घटनाओं से
कोरी ही रह जाती है हर बार
क्योंकि यह तो हर सड़क, हर गांव और हर गली और हर पगडंडी की कहानी है।
हमारे यहां लड़कियां ऐसे ही होती हैं जवान और
ब्याही जाती हैं
आखिर यही सब देख-देखकर तो लोग बनते है हाकिम और पेशेवर
और फिर भोले बनकर बताते हैं दुनिया को
कि यह सब पाश्चात्य सभ्यता का परिणाम है
लड़कियों को ढंकना चाहिए अपने को
ताकि उनके पालतू खूंखार भेड़िए नहीं ढूंढ़ पाएं कोई सुराख
और वे बच जाएं अपने चेहरे से इंसान का मास्क उतारने से
और लोग न जान पाएं कि वे ही हैं इंसान के वेश में दरिंदे।
और हां, निंदा के बस दो शब्द ही तो बोलने हैं
कैंडल ही तो जलानी हैं
लड़कियां तो होती ही हैं आक्सीजन
जीवन नहीं है पुरुषों का उनके बिना
मर्दानगी का दिमागी हाइड्रोजन मिलते ही
‘आक्सीजन’ बन जाता है पानी
और बहने लगता है
कभी लार बनकर तो कभी गंदले नाले के रूप में
जो बुझाता है इन दरिंदों की प्यास
जहां पर जानवर भी नहीं जाते प्यास बुझाने।
15 साल की एक लड़की
साइकिल के कैरियर पर अपने बीमार पिता को बिठाकर
जब 1200 किलोमीटर के सफर पर निकलती है
तो उसे डर नहीं लगता उन ‘गंदले’ लोगों की निगाहों से
उसे डर नहीं लगता मर्दों की कभी न बुझने वाली प्यास से
क्योंकि उसकी माई-दादी-नानी सभी तपी हैं उन भट्ठियों में।
सबने सी रखे थे अपने होंठ
वे जानती थी कि यह पारिवारिक संस्कार की तरह ही है
जिसका दंश युगों-युगों तक हर पीढ़ी को झेलना ही होगा।
पिता को साइकिल के कैरियर पर बिठाकर
अनंत की यात्रा पर निकली 15 साल की लड़की भयभीत है तो
एक विषाक्त कॉरोना वायरस की वजह से
पत्थर के शहर में तपने वाली भूख और प्यास से ।
किसी यूनिवर्सिटी में न पढ़ी
15 साल की लड़की भी भांप लेती है कि आने वाले दिनों में
एमएनसी वाले इस शहर में उसके पिता तरस जायेगें दो बूंद पानी के लिए
और अपने पिता को उस ज्वालामुखी के भीतर
का लावा फूटने से पहले ही निकाल लेना चाहती है वह 15 साल की लड़की
और पहुंचा देना चाहती है
फूस की उस झोपड़ी में
जहां बाहर की दुनिया का वैभव तो नहीं है
है तो इतना नीम अंधेरा
कि बाहर के उजालों का कोई खौफ नहीं रहता।
15 साल की एक लड़की
जब अपने पिता को साइकिल के कैरियर पर बिठाकर मुंह-अंधेरे एक लंबे सफर के लिए निकल पड़ती है
जिसकी कोई मिसाल गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में भी नहीं है।
गुरुग्राम से बिहार के दरभंगा तक के लॉकडाउन के दौरान के इस पहले नायाब सफर की वहीं कोलंबस थी
आज भले ही लोग कुछ सोच रहे हों लेकिन उस समय उसने कुछ नहीं सोचा था कि कितनी कठिनाइयों भरा सफर होगा
इन निर्जीव और सन्नाटा भारी सड़कों पर
भक्षकों से कौन करेगा उसकी रक्षा
पिता तो साथ में थे लेकिन वह संबल नहीं थे
लेकिन शायद उस अनपढ़
15 साल की लड़की को लगा होगा कि डूबते को तिनके का सहारा
या फिर गांव की रामलीला में उसने देखा होगा कि
रावण से भी सीता को सिर्फ एक तिनके ने ही तो बचाया था।
उसने किसी प्रोफ़ेशनल इंस्टीट्यूट में भारी फीस देकर लक्ष्य संधान करने की तकनीक का ज्ञान प्राप्त नहीं किया था
कौन उस 15 साल की लड़की से पूछे कि पिता को घर पहुंचाने का जो लक्ष्य उसने खुद निर्धारित किया था
क्या उसके पीछे मछली की आंख पर ही निगाह रखने की
अर्जुन की प्रेरणा थी जिससे उसे रास्ते के अनजान संकटों से भयभीत होने से बचा लिया?
रोजी की तलाश में ‘अपनों’ को छोड़कर निकले भटके हुए एक पिता को फिर ‘अपनों’ के बीच पहुंचाने का यह लक्ष्य तो किसी काल में किसी ग्रह में किसी 15 साल की लड़की ने कभी तय नहीं किया होगा!
1200 किलोमीटर के लंबे थकाऊ और ऊबाऊ सफर पर निकली 15 साल की लड़की की सलवार या कुर्ती में कोई जेब नहीं है जिसमें वह रख लेती कुछ तुड़े-मुड़े नोट
पिता के गंदले फटे कपड़ों में भी नहीं थी कोई साबुत जेब जिसमें रखे जा सकते थे कुछ सिक्के
जिनकी खनखनाहट कर देती आश्वस्त कि चना-चबेना से भी काम चला लेगें
लेकिन शायद जिनके पास नहीं होते पैसे
उन्हें जेब सिलवाने का खयाल भी नहीं आता,
उन्हें रास्ते में कोई दूकान भी नहीं दिखती
उनके सामने होता है वह लक्ष्य
जो होता है अदृश्य।
मृग मरीचिका के पीछे तो भागते हैं लालायित और
महत्वाकांक्षी
जिनकी झोपड़ियों में नहीं होती खिड़कियां
जिनसे देखे जा सकें सपने
उन्हें तो यकीन होता है सिर्फ अपने पसीनों पर
जिन्हें पोंछने वाला कोई नहीं होता
उनकी आंखों से भी नहीं झरते आंसू
आंसू तो तब निकलते हैं जब टूटता है कोई स्वप्न
दरकती हैं उम्मीदें!
15 साल की उस लड़की की आंखों में क्या नहीं रहा होगा किशोरावस्था का कोई ख्वाब?
उसने ख्वाबों के उस कागजी महल को दिखा दी होगी माचिस
उसकी आंखों में थी तो अपने अपंग पिता के लिए सुरक्षित पनाह
जिस उम्र में पिता अपनी बेटी के लिए वर तलाशता है और उसे अपने नए घर के लिए विदा करता है
15 साल की वह लड़की उस उम्र में पिता के लिए तलाश रही थी ठौरगाह
ताकि दूसरों के लिए ताजमहल बनाने वाले उसके पिता की मौत उस संगमरमर के मजार में भूख और प्यास से न हो जाए।
कोरॉना ने करोड़ों श्रमिकों को बता दिया है कि जिस रोटी की तलाश में वे महानगरों की तरफ जाते हैं
वहां उनके हिस्से में आती हैं पथरीली रोटियां
जो भर देती हैं पेट को गड्ढे की तरह
लेकिन नहीं मिटा पातीं हैं भूख
घर की।
उन्हें लगता है कि महानगर एक सपना है जो उनके होठों को भर देगा मुस्कान से
लेकिन अब उन्हें लग रहा है कि
वे सपनों की तलाश में नहीं
सपनों से दूर भागे थे
घर छोड़कर।
अब हर कोई बोलता है
घर जाना है
जो वर्षों से भटकता हुए भूल गया था घर का रास्ता
वह भी कहता है कि घर जाना है।
कहते हैं कि जब कोई भूकंप आने को होता है तो सबसे पहले पशुओं को होता है इसका अहसास
ज़मीन से जुड़े इन मजदूरों को भी हो गया था बड़ी मुसीबत का अहसास
और वे चल निकले अपने घोंसलों की तरफ
जैसे शाम होने से पहले पक्षी भी लौट जाते हैं अपनी नीड़ में।
घर में मां-बाप हैं
भाई-भौजाई देवर-नंद हैं
जिनसे होता था हर रोज झगड़ा
घर पक्का नहीं है, जगह भी ज्यादा नहीं है इतने लोगों को समेटने के लिए
लेकिन आज वही कच्चा घर इस आफत में
हो गया है सबसे अधिक सुरक्षित
सेना के बंकरों की तरह
कुछ कुछ ट्रंप के ‘सेफ हाउस’ की तरह!
15 साल की लड़की
जब कर रही थी अपना सफर पूरा
रास्ते से गुजरी होंगी कितनी ही मर्सिडीज फॉर्च्यूनर गाड़ियां
पुलिस की सायरन लगी गाड़ियां।
दरभंगा के एक गांव में रहने वाली वह 15 साल की लड़की
कितने ही गांवों से गुजरी होगी भूखी-प्यासी
कुछ गांवों में खाने को मिला होगा तो किसी गाड़ी वाले ने चलते हुए पकड़ा दिया होगा पैकेट
लेकिन किसी ने उसे मंज़िल तक नहीं पहुंचाया
क्योंकि मंज़िल हमेशा अपने पैरों पर चल कर ही पाई जाती है
किसी के कंधे पर सवार होकर नहीं।
मैं प्रणाम करता हूं उस 15 साल की लड़की को
और उन सारे श्रमिकों को जो सड़क मार्ग से
नदी-नालों और पहाड़ों के बीच से राह तलाश कर
लौट रहे हैं अपने घर
उनसे मुझे कोई सहानुभूति नहीं है
वे श्रमवीर हैं, विकास के योद्धा हैं
उन्होंने अपने जांगर और अपनी जीवटता का प्रदर्शन किया।
उनका यह पौरुष बताता है कि हमारा देश सिर्फ बाबुओं को देश नहीं है
जिसे हर वर्ष अपनी महंगाई की ही चिंता सताती है
यह देश उन श्रमवीरों से है
जिनके काम के घंटे तय नहीं, मेहनताना तय नहीं, स्वास्थ्य सुविधाएं तय नहीं, बच्चों के लिए शिक्षा तय नहीं
मीडिया भी बेरोजगार ग्रेजुएट को मानता है
उनमें श्रमिकों की गिनती नहीं होती
इन मेहनतकश लोगों पर कोई करेगा दया तो
देश में सारा निर्माण कार्य रुक जाएगा।
जब आठ महीने की गर्भवती महिला सिर के ऊपर दस ईंट लेकर पांच मंजिला इमारत में जेठ की दोपहरी में चढ़ती उतरती है पचास बार
तो कोई नहीं करता दया
सबको अपने मकान के जल्दी बनने की चिंता सताती है।
वही औरत पांच सौ किलोमीटर पैदल चलकर पेड़ के नीचे बच्चे को देती है जन्म
और दो घंटे के विश्राम के बाद फिर निकल पड़ती है तीन सौ किलोमीटर की यात्रा पर
अरे, उस पर दया करने की जगह खुद को भी मजबूत बनाओ।
टीवी की डिबेट में ऐसा लगता है कि पहली बार मजदूर के पैरों में छाले निकले हों
जिस इमारत में चल रही होती है डिबेट
उस इमारत के निर्माण के समय क्या मालिक ने इतनी संवेदना दिखाई थी?
जो आज दिखा रहा है सड़क पर
वह रोज होता है इंडिया के हर शहर में हर रोड पर।
मैं प्रणाम करता हूं
उस 15 साल की लड़की को
जब वह क्वारांटाइन सेंटर पहुंच गई
और बड़े-बड़े लोग उससे मिलने आने लगे
उसकी हिम्मत की दाद देने लगे
और पूछने लगे,’बताओ, तुम्हारे लिए क्या कर दें, तुम्हें क्या चाहिए?’
उस 15 साल की लड़की ने यह कहकर सबको निरुत्तर कर दिया कि उसे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए,
उसे बस इतना चाहिए कि उसके पिता का इलाज हो जाए।
सामने खड़े हों कृष्ण और सुदामा सिर्फ अपने पिता की खैरियत मागें!
मैं प्रणाम करता हूं उस 15 साल की लड़की को और उसकी साइकिल को
लड़की के पास हौसला था
और उस साइकिल ने लड़की के हौसले को धोखा नहीं दिया
अनजान राहों वाली लंबी सी सड़क पर एक लड़कियों वाली एक साइकिल
पिता की पीछे बिठाकर उसे चलाती 15 साल की अवयस्क लड़की
सहारा सिर्फ उस साइकिल का
तिनके का सहारा भी कितना मजबूत होता है!
वह लड़की है
सैकड़ों सालों से हम सिर्फ श्रवण कुमार का ही किस्सा सुनते आए हैं
15 साल की दरभंगा की ज्योति ने बता दिया है कि अपने पिता के लिए वह वास्तव में न सिर्फ आंखें बनीं
बल्कि उनका कंधा भी बनी।
जब कभी छुटपन में लाड़ में ज्योति को उसके पिता ने कंधे पर बिठाकर कुछ दौड़ लगाई होगी
और कंधे पर उछलते हुए ज्योति खिलखिलाई होगी
इतने वर्षों के बाद ज्योति ने
अपने पिता के चेहरे पर न सिर्फ सुकून की मुस्कान ला दी
बल्कि पूरे गांव, शहर और दुनिया के सामने सीना चौड़ा करके खड़ा कर दिया,
‘बेटी हो तो ज्योति जैसी’।
तारणहार सिर्फ लड़के ही नहीं हो सकते
लड़कियां भी होती हैं तारणहार!!!
अहसास
सूराखों से घुस आती है हवा
खिड़की-दरवाजों से बेधड़क आती-जाती है रोशनी
छत की मुंडेर पर बैठकर जब-तब झांक जाता है कौवा
गेट खोलकर खुद ही आ जाते हैं मेहमान
और मुसीबतों की आहट से मकान की नींव तक लगती है हिलने
लेकिन तुम्हें मुझ तक पंहुचने के लिए
कोई रास्ता ही नहीं सूझा ?
तुम आ सकते थे मेरे पास
लिफाफे पर चिपके डाक-टिकट की तरह
तुम आ सकते थे मेरे पास मेहमानों के पैरों में कसे जूते की तरह
कौवे की टोंट से गिरी मछली की तरह
हवा के साथ उड़ आयी धूल की तरह
और रोशनी के साथ आयी पारदर्शी गरमाहट की तरह।
तुम्हें शायद नहीं मालूम कि किसी दिल में किसी रेल मार्ग से नहीं जाया जा सकता
किसी की रगों में बहते लहू की गरमाहट को महसूस करने के लिए
उसके जिस्म के किसी अंग को काटना नहीं जरूरी
और किसी के मन की गहराइयों में उतरने लिए
नहीं काम आतीं पनडुब्बियां।
रोशनी को तोक लेता है कागज का एक टुकड़ा
हवा को रोक लेती है दीवार
मेहमानों को रोक लेते हैं मौसम और मुसीबत भी कभी-कभी रास्ता भटक कर दूसरे के घर में ले लेती है शरण।
लेकिन
खुशी और गम के अहसास
कैसे कर लते हैं अपनी यात्राएं पूरी
निर्विघ्न ?
“मैं तुम्हें बहुत याद करता हूं” : स्नेह मधुर
जब तुम
दिन भर की संघर्ष यात्रा के लिए तैयार होकर
कंधे पर खड़ी का झोला टांगकर
अपने कमरे के दरवाजे पर रखी चप्पल
पैरों में कर डालकर
देहरी डांकती हो
मैं अपनी खिड़की के बाहर
दफ्तर जाने वालों को देख देखकर
तुम्हें याद करता हूं…।
जब तुम
बस की प्रतीक्षा में छटपटाने लगती हो
और भीड़ भरी बस में
पुरुषों से होड़ लगाकर
उनके हाथों, सांसों, आंखों
और उनकी हरकतों को नजरंदाज कर देती हो
सिर्फ इसलिए ताकि
दो रूपये बच सकें
मैं
पेट्रोल पंप के पास खड़ा
तुम्हें
याद करता हूं…।
जब तुम
लिफ्ट खराब होने पर
साठ सीढियां पैदल चढ़ती हो
और मुलाकात न होने पर
दूसरी यात्रा शुरू करने से पहले
अपनी उठती गिरती छाती को
सामान्य करने
और सूखते गले को तर करने के लिए
दस पैसे का पानी पीकर “थैंक गॉड” कहती हो
मैं
उद्योग विभाग के बगल की
उजड़ी दुकान को देख देखकर
तुम्हें याद करता हूं…।
जब तुम
सजी धजी, जगमगाती दुकानों
बहुमंजिली इमारती के नीचे खरीदारों को भीड़ में
सफेद पायजामा और रंगीन सफेद कुर्ता पहनकर
होंठों के ऊपर जगमगाते स्वेद बिंदुओं के बिखरने की परवाह न करते हुए
लगातार चलती जाती हो
मैं
कम्पनीबाग के सामने
चुपचाप स्कूटर पर बैठा
तुम्हें याद करता हूं…।
जब तुम
स्लिप अंदर भिजवाने के बाद
गोद में झोला रखकर
कागजों के पुलंदों में
कुछ खोजने लगती हो
और ऊबकर
आसपास बैठे लोगों से
जबरन गुफ्तगू करने लगती हो
और उस समय सिगरेट पीते
किसी व्यक्ति को देखकर
एक पल के लिए रुक जाती हो
मैं
हथेली में माचिस दबाए हुए
तुम्हें याद करता हूं…।
जब तुम
दिन भर की थकान और निराशा को
अपनी पलकों में भरे हुए
किसी बस की खिड़की से
सिर टिका देती हो
और किसी उद्यान की बगल से गुजरते हुए
अचानक सड़क के किनारे
गुलमोहर और अमलतास के
लाल पीले फूल दिख जाते ही
तुम्हारी आंखों की चमक
वापस आ जाती है
सच मानो
उस समय
मैं
तुम्हें बहुत याद करता हूं…!!!
(अगस्त प्रथम, 1991, में मनोरमा में प्रकाशित)
जो तुम्हारी आंखों से बहा होता
तुम्हारी आंखों में
ठहर गया आंसू
बह गया मेरी आंखों से
मेरी आंखों से
बह गया आंसू
बन गया पहाड़
तुम्हारी आंखों से
जो बहा होता
तो बन जाता एक झील
तुम्हारा आंसू
जो बन जाता एक झील
तो समा लेता मेरे पहाड़ को अपने भीतर
तुम्हारी झील
जो आत्मसात कर लेती मेरे पहाड़ को
तो पहाड़ के शीर्ष पर खिल उठता एक गुलाब
एक गुलाब झील के बीच
जो सिर्फ झील का होता
एक झील गुलाब के बाहर
जो सिर्फ गुलाब की होती।
रिश्तों की गांठ
रिश्तों की गांठ
जीवन में
दर्द एक नहीं है
कभी भया, कभी त्रास, कभी कुंठा
कभी खुद को झुठलाने वाला एक नया सपना.
जीवन एक चादर है
जिसमें भरा है गर्द-ओ–गुबार
कुछ अपना कुछ दूसरों का सामान
कुछ काम का
बाकी बेकार.
सब कुछ समेटकर
चादर में लगा दी जाती है गांठ
रिश्तों-संबंधों की गांठ
ढोने के लिए
उम्र भर.
एक छोटा सा कमजोर धागा
वजन पड़ने पर
नहीं संभाल पाता है खुद को
और बन जाता है
चादर में छेद.
चादर से हर रोज गिरता है
एक-एक सामान
अंत में रह जाती है
सिर्फ एक गांठ.
कपड़ा
कितना ही कमजोर क्यों न हो
मुश्किल है तो सिर्फ
एक गांठ को
खोल पाना।
(4) निर्दिष्ट भविष्य
हाथ से
फेंके गये पत्थर का लक्ष्य
होता है
पूर्व निर्धारित.
जिन हाथों से
भरी जाती है पत्थर में गति
वे ही कर देते हैं उसकी दिशा निश्चित.
लक्ष्य तक न पंहुच पाने वाला
किसी के मस्तक को
न फोड़ पाने वाला पत्थर
नहीं होता है
कमजोर.
जन्म ही कर देता है
निर्दिष्ट भविष्य..।
(5) ठोकर
लोग कहते हैं
एक दीपक
सारे संसार के अंधकार को
दूर नहीं कर सकता है.
मैं इससे असहमत नहीं हूं.
एक दीपक
फिर भी मैंने
रखा है अपनी ड्योढ़ी पर
भटके हुए लोगों को
राह दिखाने के लिए.
मेरी लड़ाई
अंधेरे के खिलाफ नहीं
रास्तों पर उग आयी
ठोकर के खिलाफ है।
(6) पत्थर का मिट जाना
पत्थर से जब
मेरे जिस्म का कोई अंग कुचला
तो मैंने जाना
गलतियां
पत्थर भी कर बैठते हैं.
जब दिखा पत्थर पर खिला कोई फूल
तो जाना
पत्थर भी होते हैं दिल-फेंक.
जब गौरैया का फुदकना देखा
पत्थर पर
तो जाना
पत्थर भी होते हैं सहिष्णु.
और जब
नदी में बह आयी रेत को
मु्ट्ठी में बंद कर उठाया
तो जाना
पत्थर भी जानते हैं मिट जाना।
(7) इतवार
जब मैं
खुली धूप के नीचे
आईने के सामने खड़ा होकर
दाढ़ी बना रहा था
सिल-लोढ़े पर दाल पीसती मेरी मां ने
चश्मे के भीतर से झांककर
एकटक मुझे देखा और कहा
हर दिन इतवार नहीं होता बेटा
इसलिए रोज सवेरे दाढ़ी बना लिया करो.
मैं चौंक पड़ा
क्या यह सच है ?
क्या हर रोज
मैं इतवार की तरह नहीं बिताता हूं?
इतवार मायने
नींद, थकान, आलस, ढेर सारे अखबार
टीवी पर चैनेल बदलते रहना
बढ़ी हुई दाढ़ी, बेतरतीब बिस्तर, बच्चों का शोर
पड़ोसियों के साथ गप-ठहाके सैर-सपाटा
ढेर सारा भोजन उदरस्थ करना
अंदर बिस्तर पर लुढ़क जाना.
जब हर रोज बीतता है मेरा इस तरह से
तो इतवार ही क्यों नहीं बन जाता
सप्ताह का कोई अन्य दिन.
मेरी मां के होंठों पर हल्की सी थिरकन
चलते रहते हैं उस के हाथ
इसका जवाब तो तेरे पास है बेटा
इतवार पुरुषों ने बनाया
स्त्रियों के लिए तो
हर दिन
होता है
एक जैसा ….।
(8) प्रतिरोध
इतनी गहरी नींद में
मत सोओ कि
तुम्हारे सपनों पर रेंगने लगें चीटियां
और चूहे बना लें बिल.
उठो
और करो प्रतिरोध.
अगर तुम्हें लगता है कि
तुम्हारा अहिंसक होना
कायरता को देता है नये संदर्भ
तो डालियों पर मत करो वार
पेड़ को ही उखाड़ फेंको.
जब लगता है
पेड़ सूखने
तो शाखाओं और पत्तियों को भी
नहीं मिलता मौका
स्वयं को
स्थानापन्न करने का…।
(9) पत्थर पर पत्थर
धरती के रोष ने
पहाड़ के अहंकार को चूर-चूर कर दिया
साथ में मारा गया
धरती का आदमी
जैसे गेंहू के साथ पिसता है घुन.
पहाड़ पर आयी विपदा में
पहाड़ ने क्या खोया?
क्या पहाड़ का शीष झुका?
सिर्फ कुछ पत्थर
इधर से हो गये उधर.
पत्थर को
फिर मिल गया पत्थर
नदी को
फिर मिल गयी नदी
सोतों को
फिर मिल गयी ढलान
उड़ती हुऊ धूल को
फिर मिल गयी जमीन.
खो गयी
तो बस एक सड़क
जो आदमी को
जोड़ती थी आदमी से
एक घर को
जोड़ती थी दूसरे घर से
खेतों को
जोड़ती थी बाजार से
और प्यासे को
जोड़ती थी पानी से.
टूटे पहाड़ के नीचे
धंसा मकान
उसके सामने एक पत्थऱ पर बैठा बूढ़ा
बिलकुल शून्य-बेजान
जैसे
पत्थर के ऊपर
रखा हो पत्थर.
इस उलट-फेर में
यह समझ में नहीं आया
आदमी और पत्थर में क्या होता है भेद
पत्थर लेते हैं सांस कि
आदमी होता है बेजान
कब हो जाते हैं पत्थर वाचाल
और आदमी
संज्ञाशून्य…।
(10) एक मौन
तुम्हारा स्पर्श
जैसे
जल में उतर आया हो वसंत
भीग गयी हों नौकायें
और कोहरा गया हो
समुद्र.
तुम्हारा स्पर्श
जैसे
पंख लग गये हों चप्पुओं में
शंख बजाने लगी हों सीपियां
मछलियां
करने लगी हों नृत्य
और दिशाओं को
मिल गया हो विस्तार.
तुम्हारा स्पर्श
जैसे खुल गये हों
स्वर्ग के द्वार
आकाश करता हो नमन
और देवदूत
कर रहे हों मंत्राचार.
तुम्हारा स्पर्श
जैसे लजा गयी हो सांझ
और हवाओं ने
रच दिया हो छंद.
तुम्हारा स्पर्श
जैसे
डूब गये हों भंवर में
पल.
तुम्हारा स्पर्श
बस
एक मौन…।
(11) ख्वाहिश
तुम्हारे भीतर का ज्वालामुखी
काश!
मेरी बगिया में आ बहता
तो महकने लगते
आम के बौर.
तुम्हारे भीतर का सागर
गर आ सकता इस ऊसर तक
तो मेरी नाव को
मिल जाता
ठौर.
तुम्हारे देह का आकर्षण
अगर खींच लेता मुझे
तो मैं भी हो जाता
गुरुत्वाकर्षण से
मुक्त.
तुम्हारी ख्वाहिशों में
गर मैं हो जाता शुमार
तो लौट चलता मैं भी
घर की ओर….।
स्नेह मधुर
स्नेह मधुर एक ऐसा नाम है, जिसने 1978 से 2018 तक की अपनी पत्रकारिता की यात्रा में बहुत ही ऊबड़-खाबड़ रास्ते से चलते हुए दैनिक अखबार, मासिक-साप्ताहिक पत्रिका, न्यूज चैनेल और फिल्मी दुनिया तक के अनुभव को स्वयं में समेटा है। वर्तमान में इतने अर्से बाद अब वह महसूस करते हैं कि पत्रकारिता अब वह नहीं है, जब हमें खुलकर सच्चाई को लिखने की आजादी थी और ऐसा लिखते हुए हमें संपादक का संरक्षण मिलता था। वह खुलकर कहते हैं, ‘अब तो आग्रहों एवं पूर्वाग्रहों से भरी पड़ी है पत्रकारिता। मीडिया में संपादक की भूमिका समाप्त कर दिए जाने के कारण ही यह स्थिति उत्पन्न हुई है। अब अख़बार मात्र एक उत्पाद हैं और पत्रकार उसके सेल्समैन।‘
बहरहाल, स्नेह मधुर ने 1978 में इलाहाबाद में दैनिक जागरण ज्वाइन किया और 1980 में माया पत्रिका में आ गये। उस समय माया पत्रिका की तूती बोला करती थीं।
स्नेह मधुर प्रोफ़ेशनल फोटोग्राफर के रूप में भी काम कर चुके हैं। अमृत प्रभात के लिए फ्रीलांस फोटोग्राफी करने के साथ मनोरमा पत्रिका के लिए मॉडलिंग फोटोग्राफी भी करते थे। वह इलाहाबाद के पहले प्रोफ़ेशनल फोटोग्राफर थे जो उस ज़माने में ट्रांसपेरेंसी वाली फोटो खींचते थे जो बॉम्बे से डेवलप होकर आती थी। जब अमिताभ बच्चन चुनाव लड़ रहे थे तो उस दौरान अमृत प्रभात में नौकरी करते हुए भी उन्होंने माया के लिए अमिताभ बच्चन बनाम बहुगुणा सब्जेक्ट पर कई फोटो खींची थी जिसको लेकर माया ने एक विशेष अंक निकाला था।
अमिताभ बच्चन से निकटता हो जाने के कारण बोफोर्स विवाद के दौरान उन्होंने इलाहाबाद के करीब एक दर्जन पत्रकारों को दिल्ली ले जाकर अमिताभ बच्चन से वन टू वन मुलाकात कराई थी। पत्रकारों के कल्याण के लिए स्नेह मधुर ने एक फंड बनाने का भी प्रयास किया था। इस योजना के तहत बेरोजगार हो जाने वाले पत्रकार को साल भर तक वेतन मिलता रहेगा। अमिताभ बच्चन ने इस फंड में पांच लाख रुपए के अंशदान का वायदा किया था। लेकिन इलाहाबाद के कुछ पत्रकारों ने इस योजना का बहिष्कार कर दिया था और नारे लगाए थे कि आधी रोटी खाएंगे लेकिन अमिताभ बच्चन से मदद नहीं लेंगे।
जब अमिताभ बच्चन ने सांसद पद से इस्तीफा दिया था तो इलाहाबाद में गुस्साए लोगों ने अपना आक्रोश व्यक्त किया था। उस दौरान एक अखबार ने यह खबर छापी थी दुकानें बंद कराने में स्नेह मधुर की भी भूमिका है।
पत्रकारों के लिए अपने रसूख से स्नेह मधुर ने सिविल लाइंस थाने के बगल में 12 रुपए सालाना के किराए पर एक इमारत आबंटित करा दी थी। लेकिन कुछ स्थानीय पत्रकारों ने ईर्ष्या वश विरोध कर दिया तो उसको भी स्नेह मधुर ने छोड़ दिया था। आज वहां पर एक मार्केट है।
माया छोड़कर स्नेह मधुर 1983 में रिपोर्टर के रूप में अमृत प्रभात से जुड़ गये, और मेरे साथ ही बैठने लगे। अमृत प्रभात ज्वाइन करने के पहले से वह विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख तथा फीचर आदि भी लिखते रहे, जिनमें धर्मयुग, सारिका, कथायात्रा, माया, मनोरमा, सूर्या, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादम्बिनी, हिंदी एक्सप्रेस, नवभारत टाइम्स, रविवार, श्रीवर्षा, हिंदुस्तान समाचार पत्र आदि शामिल हैं।
रिपोर्टर रूम में उनके पहले दिन के पहले कुछ क्षण यादगार बन गये। मुझे तो याद नहीं, लेकिन स्नेह मधुर को याद है कि कमरे में उनके आने पर पहले मैं उन्हें परिसर से बाहर ले गया और ठेले से अंडा खिलाया। फिर एक छोटा सा समाचार दिया कि इसे संक्षिप्त में तीन-चार लाइनों में बना दें। लेकिन मधुर जी मनोहर कहानियां के पैटर्न पर कल्पना की उड़ान भर कर तीन पेज में बना दिया। हमने उनकी ओर देखा और फिर दोनों मुस्कुरा दिये। बाद में क्राइम रिपोर्टर के रूप में स्नेह मधुर ने अमृत प्रभात में एक लंबी पारी खेली और अपनी खबरों के माध्यम से अपराध जगत में खलबली तो मचा ही दी, पुलिस विभाग तक को भी त्वरित सूचनाओं के मामले में पछाड़ दिया। स्थिति यह हो गई थी कि अपराध होने पर मौके पर पहले स्नेह मधुर पहुंचते थे और पुलिस बाद में।
स्नेह मधुर ने अमृत प्रभात में लगभग 15 वर्ष गुजारे तथा अखबार में समय-समय पर आने वाले उतार-चढ़ाव को देखते, उनसे निपटते हुए सकुशल 1996 में इलाहाबाद में ही हिन्दुस्तान अखबार ज्वाइन कर लिया। लगभग 12 वर्ष तक हिन्दुस्तान में रहते हुए कभी इलाहाबाद और कभी बनारस में काम करते रहे। 2010 में वह लखनऊ में नई दुनिया के विशेष संवाददाता बनकर चले गये। वह ऐसा दौर था, जब अखबार मालिक पत्रकारों को स्थायी तौर पर न रखकर कांट्रैक्ट बेसिस पर रखने लगे थे। जो पत्रकार बाहर बहुत शान से रहता था, अखबार के भीतर प्रबंधतंत्र के उत्पीड़न का प्रायः शिकार होता था। वह या तो लड़े या छोड़कर चला जाय।
स्नेह मधुर हिन्दुस्तान में रहते हुए ‘वायस आफ अमेरिका, वाशिंगटन डी.सी.‘ के लिए भी चयनित कर लिए गए थे। प्रिंट मीडिया के साथ रेडियो मीडिया में भी काम करना एक बड़ी चुनौती थी जिसे उन्होंने अपने अनुभव क्षेत्र का विस्तार करने के लिए स्वीकार किया। इस मीडिया में खास बात यह थी कि सम्पूर्ण भारत से संबंधित किसी भी क्षेत्र की खबर पर उनकी टिप्पणी का live प्रसारण होता था। आजकल यह आम बात हो गई है लेकिन दो दशक पूर्व ऐसा नहीं था।
1995 में इलाहाबाद से प्रकाशित एक साप्ताहिक पत्रिका गंगा यमुना प्रकाशित होती थी जिसके संपादक मशहूर साहित्यकार श्री रवीन्द्र कालिया जी थे। इस पत्रिका ने इस वर्ष के लिए ‘टॉप टेन पर्सनैलिटीज ऑफ इलाहाबाद’ का सर्वे कराया था। इलाहाबाद के कुल दस चर्चित हस्तियों में स्नेह मधुर का भी नाम छठे स्थान पर था।
वर्ष 2005 में पूरे देश से दस पत्रकारों को स्वीडन में एक वर्कशॉप के लिए चुना गया था जिसमें स्नेह मधुर भी एक थे। स्नेह मधुर उत्तर प्रदेश के इकलौते पत्रकार थे जिनका नाम उस सूची में था। लेकिन हिंदुस्तान की संपादिका मृणाल पांडे ने उन्हें जाने की अनुमति नहीं प्रदान की जिसका जिक्र उस समिति ने किया था कि दस में से सिर्फ नौ पत्रकार जा सके।
1999 में वह भारत सरकार के हरिश्चंद्र पत्रकारिता पुरस्कार समिति के सदस्य भी रहे। दो अन्य सदस्यों में श्रीमती ममता कालिया और श्रीमती चित्रा मुद्गल भी थीं।
2015 के आस-पास नई दुनिया के बंद हो जाने के बाद, दिल्ली से ही निकलने वाले नेशनल दुनिया के विशेष संवाददाता के रूप में लखनऊ में ही बने रहे। इस अखबार में साल भर रहे, लेकिन कार्य से संतुष्टि नहीं मिली तो 2016 में एक साल के लिए ‘के.न्यूज’ चैनल में राजनीतिक संपादक के रूप में जुड़े रहे। उनकी मंशा पत्रकारिता के हर क्षेत्र के बारे में जानकारी रखने की थी।
और फिर एक दिन आया जब स्नेह मधुर लखनऊ में ही हिन्दी ‘पायनियर’ में संपादक हो गये, जहाँ दो वर्षों तक अपनी सेवाएं देने के बाद 2018 में अवकाश ग्रहण कर लिया।
स्नेह मधुर वैसे तो बहुमुखी प्रतिभा के धनी रहे हैं। शुरू से ही उनकी रुचि फिल्मी दुनिया में थी, इसलिए प्रायः मुम्बई का चक्कर लगाते रहते। कई फिल्मों में विभिन्न रूपों में उन्होंने काम किया है। फिल्म लेखन, अभिनय, गीत लेखन के साथ निर्माता और वितरक का भी काम किया। एक वक्त था जब वह शहर में कर्फ्यू नामक फिल्म बना रहे थे जिसके वह निर्माता थे और फिल्म के निर्देशक गुलज़ार थे। लेकिन पारिवारिक कारणों से मुंबई छोड़कर वापस इलाहाबाद लौटने के कारण फिल्म अधूरी रह गई। बाद में एक टेली फिल्म अर्धांगिनी बनाई जिसे दूरदर्शन ने प्रसारित भी की थी। उन्होंने एक इंग्लिश फिल्म Little Box of Sweets में भी अभिनय किया है।
फिल्मी दुनिया में उनकी पहुँच का अंदाज इसी से लगा सकते हैं कि 2007 में जयपुर में आयोजित ‘इंटरनेशनल शार्ट फिल्म फेस्टिवल’ में वह जूरी सदस्य के रूप में जुड़े रहे। उनके साथ कई फिल्मी हस्तियां भी जूरी सदस्य थीं और बसु चटर्जी जूरी हेड थे। शशि कपूर ने फेस्टिवल का उद्घाटन किया था।
We want Sneh Madhur
वैसे तो स्नेह मधुर रिपोर्टर के रूप में काम करते हुए कई उतार-चढ़ाव से गुजरे हैं, लेकिन 1995 में इलाहाबाद में एक दिन अमर उजाला में एक छोटा सा समाचार छपा कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय की कुछ छात्राएं वेश्यावृत्ति करते हुए पकड़ी गयीं। उन दिनों एस के दुबे संपादक बनकर पत्रिका में पुनः लौट आये थे। उन्होंने स्नेह मधुर को बुलाकर कहा, ‘इतना महत्वपूर्ण समाचार कैसे छूट गया ? हमें यह समाचार विस्तार से चाहिए।’
स्नेह मधुर ने कहा, ‘ यह ऐसा समाचार है, जिसे मैंने यदि लिख दिया तो पत्रिका में आग लग जायेगी। अमर उजाला ने बचते -बचाते अर्ध्य सत्य ही लिखा है। मैं छात्राओं को वेश्या नहीं लिख सकता, हकीकत कुछ और है, उनसे ज़बरदस्ती यह काम करवाया जा रहा है।’
दुबे जी ने कहा, ‘आप हमें समाचार दीजिए, छपेगा।‘
बहरहाल, दो दिन बाद स्नेह मधुर ने विस्तार से उस समाचार को लिखकर दिया, जिसने पूरे इलाहाबाद को हिला दिया। लम्बा-चौड़ा यह समाचार अमृत प्रभात मे बाई लाइन छपा।
इस समाचार का छपना था कि सचमुच आग लग गयी, तहलका मच गया। अधीक्षिका के नेतृत्व में सैकड़ों की संख्या में विश्वविद्यालय की छात्राओं ने पत्रिका को घेर लिया। प्रदर्शनकारियों के साथ सिटी मजिस्ट्रेट भी मौजूद रहे। नारे लगाती हुईं ये छात्रायें जैसे ही अमृत प्रभात प्रेस के मुख्य गेट पर पहुँचीं, गेट को बंद कर दिया गया।
प्रदर्शनकारी छात्राएं स्नेह मधुर से बात करना चाहती थीं, क्योंकि उन्होंने ही समाचार लिखा था। स्थिति को देखते हुए, पत्रिका के प्रबंधतंत्र ने स्नेह मधुर को एक कमरे में बंद कर दिया और संपादक के.बी.माथुर तथा प्रबंधक संतोष तिवारी को गेट पर छात्राओं से बात करने के लिए भेजा। लेकिन लड़कियाँ और अधीक्षिका उनसे बात करने को तैयार नहीं थीं। उनका बार-बार समझाना सब बेकार।
तभी दो-तीन लड़कियाँ एकाएक गेट पर चढ़कर परिसर में घुस आयीं और ‘ वी वान्ट स्नेह मधुर ‘ नारे परिसर में घूम-घूमकर लगाने लगीं। उनके पीछे-पीछे सैकड़ों लड़कियां प्रेस परिसर में घुस गईं और नारेबाज़ी करने लगीं।
स्थिति को काफी तनावपूर्ण होते देखकर प्रबंधतंत्र ने जिलाधिकारी से संपर्क किया लेकिन उन्होंने कोई मदद नहीं की। प्रदेश के किसी मंत्री ने भी टेलीफोन पर संपर्क करने पर कोई कारवाई नहीं की। अंत में प्रबंधतंत्र ने केन्द्रीय गृहमंत्री को फोन करके स्थिति की जानकारी दी। गृहमंत्री ने उत्तर प्रदेश के राज्यपाल को बोला और तब राज्यपाल ने हस्तक्षेप किया। परिणामस्वरूप, तब बड़ी संख्या में पुलिस आयी और प्रदर्शनकारियों को मौके से हटाया। अधीक्षिका और लड़कियों ने वापस जाते-जाते कहा, ‘कल हम लोग फिर आयेंगे।’
दूसरे दिन अमृत प्रभात में प्रथम पृष्ठ पर इस संदर्भ में संपादकीय छपा कि ‘हम झुकेंगे नहीं’।
बताया जाता है कि जिस समय छात्राएँ पत्रिका परिसर के गेट पर प्रदर्शन कर रहीं थीं, इसकी जानकारी शहर में दूर-दूर तक लोगों को हो गयी और सैकड़ों की संख्या में तमाशबीन वहाँ इकट्ठा हो गये।
दो दिन बाद पत्रिका के प्रबंध निदेशक तमाल कांति घोष, स्नेह मधुर को लेकर दिल्ली चले गये और गृहमंत्री आदि से मिलकर लखनऊ होते हुए एक सप्ताह बाद लौटे। तब तक स्थिति काफी कुछ शांत हो चुकी थी। बताया जाता है कि बाद में अधीक्षिका ने स्नेह मधुर से मिलकर प्रदर्शन के लिए खेद व्यक्त किया था।
स्नेह मधुर की व्यंग्य पर भी अच्छी पकड़ है। यही कारण है कि काफी पहले ही ‘घूमता आईना’ नाम से उनकी पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है, जिसमें समय-समय का समाज पूरे व्यंग्य और हास्य के साथ दिखाई देता है। ये मंचीय कवि तो नहीं हैं, लेकिन समय -समय पर इनकी लेखनी कुछ अच्छी कविताएँ भी लिख देती हैं। इनकी दो पुस्तकें पहाड़ खामोश है और किसी के लिए ठहर जाना भी प्रकाशित हो चुकी हैं। स्नेह मधुर भारत के Cultural Ambassador के रूप में 1998 में सीरिया की यात्रा भी कर चुके हैं।
स्नेह मधुर के जीवन से जुड़ी एक महत्वपूर्ण बात बतानी जरूरी है जो उनकी विराट सोच को दर्शाती है। जिस समय उन्होंने विवाह किया, वह लोकप्रियता के शिखर पर थे। हर कोई उनके समारोह में शामिल होने को इच्छुक था। उस समय अमृत प्रभात बंद चल रहा था, लोगों को महीनों से वेतन नहीं मिल रहा था। ऐसे समय में उन्होंने विवाह के बाद प्रीति भोज आयोजित करने से मना कर दिया। उनके परिवार ने बहुत दबाव बनाया कि शादी जीवन में एक बार होती है, खुशी का यह अवसर फिर नहीं आयेगा। लेकिन स्नेह मधुर ने कहा कि जिस पत्रकार कॉलोनी में स्यापा छाया हुआ है, वहां पर इतना बड़ा आयोजन करना लोगों के घावों पर नमक छिड़कने के समान है। अंततः उन्होंने प्रीतिभोज नहीं होने दिया। क्या ऐसा कोई उदाहरण मिलेगा?