” एक चर्चा के दौरान मेरे साथ बैठे एक किसान नेता ने जब यह कहा कि उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं को ‘ब्रीफ़’ कर दिया है और कोई अशांति नही होगी, मुझे हंसी आ गयी । मेरा निवेदन था कि वे फ़ौज या पुलिस जैसे किसी बल के सदस्य नही हैं जिन्हे किसी ब्रीफ़िंग पर आचरण करने का प्रशिक्षण मिला होता है । वे एक ऐसी भीड़ के नेता है जिसे उकसाने पर हिंसक होने की आदत तो है पर न तो उसके नेताओं मे इतना नैतिक बल है और न ही उनके अनुयायियों को उनकी शांति की अपील पर आचरण करने की आदत है कि उनकी ब्रीफ़िंग पर वे शांति पूर्वक रैली निकालेंगे । फिर आंदोलित किसानों के चालीस से अधिक संघटन उनके आंदोलन मे शरीक थे । इन सबका अलग अलग एजेंडा था और किसी एक फ़ैसले पर उनका पहुँचना लगभग असंभव था ।
“दिल्ली हिंसा और पुलिस की भूमिका !!!”
विभूति नारायण राय, IPS
लेखक उत्तर प्रदेश में पुलिस महानिदेशक रहे हैं और महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति भी रह चुके हैं
26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर देश की व्यस्ततम राजधानी दिल्ली मे जो कुछ हुआ उसमे कुछ भी अप्रत्याशित नही था। अगर कुछ अस्वाभाविक था तो वह भोलापन है जिसके तहत दिल्ली पुलिस ने मान लिया था कि किसानों के रूप एकत्रित भीड़ अपने नेताओं का अनुशासन मानेगी और उनके वायदे के अनुसार निर्धारित रूट पर ही जुलूस निकालेगी । भीड़ के आंदोलनों का अब तक का यही इतिहास रहा है कि भीड़ कभी भी अनुशासित तरीके से अपने नेतृत्व की बातें नहीं मानती। इसीलिए मंगलवार को राजधानी दिल्ली की सड़कों पर जो कुछ हुआ, वह काफी हद तक प्रत्याशित था।
हाल मे एक चर्चा के दौरान मेरे साथ बैठे एक किसान नेता ने जब यह कहा कि उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं को ‘ब्रीफ़’ कर दिया है और कोई अशांति नही होगी, मुझे हंसी आ गयी । मेरा निवेदन था कि वे फ़ौज या पुलिस जैसे किसी बल के सदस्य नही हैं जिन्हे किसी ब्रीफ़िंग पर आचरण करने का प्रशिक्षण मिला होता है। वे एक ऐसी भीड़ के नेता है जिसे उकसाने पर हिंसक होने की आदत तो है पर न तो उसके नेताओं मे इतना नैतिक बल है और न ही उनके अनुयायियों को उनकी शांति की अपील पर आचरण करने की आदत है कि उनकी ब्रीफ़िंग पर वे शांति पूर्वक रैली निकालेंगे । फिर आंदोलित किसानों के चालीस से अधिक संघटन उनके आंदोलन मे शरीक थे । इन सबका अलग अलग एजेंडा था और किसी एक फ़ैसले पर उनका पहुँचना लगभग असंभव था ।
मैंने टीवी चैनलों पर दिन भर की गतिविधियाँ देखीं और एक बात तो बिना किसी हिचक के कह सकता हूँ कि अराजकता की घटनायें किसान नेतृत्व के साथ साथ दिल्ली पुलिस के नेतृत्व की अक्षमता का भी बखान कर रहीं थीं । मुझे लगता है कि इस तरह का दयनीय प्रदर्शन दिल्ली पुलिस ने सिर्फ़ 1984 के सिक्ख विरोधी दंगो मे दिखाया था । जहाँ से हिंसा की शुरुआत हुई और बाद मे जहाँ जहाँ अराजकता दिखी, कहीं भी एक पेशेवर पुलिस नेतृत्व के दर्शन नही हुये । शायद बहुत अधिक राजनैतिक हस्तक्षेप ने इस बल को इस लायक नही छोड़ा है कि वह कोई पेशेवर फ़ैसला कर सके ।
सुप्रीम कोर्ट ने रैली निकालने या न निकालने की बात पुलिस के विवेक पर छोड़ दी थी, ऐसी स्थिति मे उनके सामने सांप छ्छूँदर जैसी स्थिति पैदा कर दी थी । यदि वे रैली की इजाज़त न देते तो उन्हें अलोकतांत्रिक रवैया अपनाने का दोषी ठहराया जाता और इजाज़त देते समय उन्होंने जिनकी गारंटी ली , वे किसान नेता किसी भी नैतिक बल से रहित थे ।
मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं कर रहा कि किसानों की मांगें सही हैं या सरकार का रुख ठीक है, लेकिन सच यही है कि दोनों पक्ष अड़ गए हैं और दोनों अपने-अपने रवैये को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं। न सरकार इन तीनों कृषि किसानों को वापस लेने को तैयार दिख रही है, और न किसान इन कानूनों को रद्द किए बिना वापसी को तैयार हैं। यह एक ऐसा गतिरोध है, जिसको खत्म करने के लिए बीच का सम्मानजनक रास्ता निकाला ही जाना चाहिए। मगर ऐसा नहीं हो सका, और मंगलवार को जो कुछ हुआ, उससे इस आंदोलन की बदनामी हुई और यह आंदोलन कमजोर हुआ है ।
फिर भी, दिल्ली की तमाम सीमाओं को पार करते किसानों की जो तस्वीरें आई हैं, वे यही बता रही हैं कि शुरू में पुलिस को जिस तरह की सख्ती बरतनी चाहिए थी और उनको नियंत्रित करना चाहिए था, वैसा वह नहीं कर पाई। नतीजतन, बैरिकेट तोड़कर ट्रैक्टर शहर के अंदर आ गए। निहंग घोड़ों पर हथियार लेकर ख़तरनाक ढंग से घूम रहे थे। उनको रोकने का प्रभावी तरीका पुलिस के पास नहीं था। पुलिसकर्मियों ने आंसू गैस के गोले भी छोड़े, तो उसका बहुत असर पड़ता नहीं दिखा। संभवत: पुलिस की यह सदिच्छा रही होगी कि कम-से-कम बल प्रयोग करके भीड़ को तितर-बितर किया जाए और नियम भंग करने वाले किसान वापस तय रास्तों पर लौट जाएं। दरअस्ल यह स्थिति एक अक्षम पुलिस नेतृत्व के कारण ही बनी और इसका उल्लेख मैं ऊपर कर ही चुका हूँ ।
आजादी के आंदोलन और उसके बाद के तमाम आंदोलनों का अनुभव यह बताता है कि भीड़ नेतृत्व की बात सुनती नहीं है। असहयोग आंदोलन को याद कीजिए। जब यह आंदोलन अपने शीर्ष पर था, तो महात्मा गांधी ने चौरी चौरा कांड के बाद इसे वापस ले लिया। जाहिर है, आज ऐसा कोई नेतृत्व हमारे पास नहीं है, जिसके पास गांधी जी जैसा नैतिक बल हो कि एक आह्वान पर वह आंदोलन वापस ले लेे।
दिल्ली हिंसा का एक नुकसान और है। शायद ही राजधानी में अब कोई इन किसान नेताओं पर विश्वास करेगा। हिंसा की इजाजत कोई सरकार नहीं दे सकती। आंदोलन के नेताओं को सम्मानजनक वापसी के लिए सोचना चाहिए।
बड़े आन्दोलनों की एक बड़ी समस्या यह भी होती है कि आयोजक किसी सम्मानजनक वापसी का दरवाज़ा खुला नही रखते ।पिछले साल शाहीनबाग आंदोलन में यही हुआ कि अपने चरम पर पंहुच कर आंदोलन कर्ताओं को समझ नही आया कि वे वापसी कैसे करें । अंत में उन्हें एक भयानक निराशा ही हाथ लगी । किसान आंदोलन में मज़ेदार बात यह हुई कि सरकार और किसान नेताओं के बीच दस से अधिक बैठकें हुईं पर हर बार जब लगता था कि कोई रास्ता निकल आयेगा , किसी न किसी वजह से फ़ैसला टल जाता । किसी के गले यह नही उतरा कि अगर सिर्फ़ यही कहना था कि बिना कृषि क़ानूनों के वापस लिये वे आंदोलन नही ख़त्म करेंगे तो इसके लिये विज्ञान भवन जाने की ज़रूरत क्या था ? शायद नेतृत्व की बहुलता इसके पीछे बड़ा कारण था । बहरहाल 26 जनवरी का अनुभव इतना खराब रहा है जिसे दिल्ली पुलिस , सरकार और किसान नेता – सभी भूल जाना चाहेंगे ।