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“समाज का गठन संवाद से होता है’ : दीक्षित

“समाज का सहज संवाद”

डॉ दिलीप अग्निहोत्री

भारतीय चिंतन में संवाद का बहुत महत्व रहा है। यह हमारे दर्शन का अत्यंत सहिष्णु पक्ष रहा है।  एक  दैनिक ने इसी परम्परा को नए कलेवर के साथ प्रस्तुत किया है। यह साहित्य संवाद तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह अभिव्यक्ति की सँवादी है। इसमे अपने क्षेत्र के दिग्गजों के साथ आमजन की भी सहभागिता थी। वह भी अपने प्रश्नों के साथ इसमें शामिल हुए।


इस संवाद के प्रथम औपचारिक सत्र में उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष और प्रसिद्ध लेखक हृदय नारायण दीक्षित ने विचार व्यक्त किये।
उन्होंने कहा कि समाज का गठन संवाद से होता है। प्रकृति भी संवाद करती है। आकाश की तरफ देखने से लगता है कि चंद्रमा अक्सर तारों से बात करता है। आकाश गंगा भी संवाद के अनुरूप देखी गई। इसे आकाश की गंगा कह कर सम्मानित किया गया।

विश्वमित्र व गंगा के बीच संवाद होता है। विश्वमित्र ने कहा कि आप पृथ्वी पर आइए। गंगा कहती है कि मैं वैसे ही नीचे आती हूँ जैसे मां बच्चों को दूध पिलाती है। इस तरह संवाद से गंगा माता हो गई। यहां पशु पक्षियों के बीच भी संवाद को जाना पहचाना गया। इस संवाद से पशु पक्षियों के प्रति करुणा का भाव जागृत हुआ। काक भुसुंडि का संवाद प्रसिद्ध है।

शिव पार्वती का संवाद अमर है

सभा समिति जैसी संवाद संस्थाएं प्राचीन भारत मे रही है। आधुनिक प्रजातंत्र में ऐसी संस्थाए है। लेकिन वैदिक सभा समिति में प्रीति पूर्ण संवाद होता था। अब उसका अभाव है। पूरा वैदिक साहित्य संवाद पर आधारित है।ऋशियों ने इसे देखा, समझा, इसलिए संवाद किया कि मनुष्य का जीवन भी लय बद्ध हो। इसी के लिए धर्म का प्रादुर्भाव हुआ। इसमें भी संवाद की पूरी गुंजाइश छोड़ी गई। भारत जैसे अभिव्यक्ति की आजादी व संवाद की परम्परा विश्व में कहीं नहीं रही।

प्रकृति के रहस्य जानने की जिज्ञाषा हमारे देश मे अति प्राचीन काल से रही है। यह जिज्ञाषा सदैव रहा। ब्रह्मांड का चिंतन हुआ, पृथ्वी के केंद्र पर विचार हुआ। ज्ञान व विज्ञान को मिलाकर अनुसंधान किये गए। वर्तमान पीढ़ी का प्राचीन के बारे में संशय रहा है। लेकिन भारतीय संस्कृति में इस संशय का समाधान भी संवाद से होता है। यहां संशय के बाद भी टकराव नहीं है। पश्चिमी सभ्यता ने ही टकराव को बढ़ाया है।
भारत व अन्य देशों की आधुनिकता में अंतर होना चाहिए। हमारी परंपरा हमारे अतीत की विरासत से पृथक नहीं होनी चाहिए। ऋग्वेद में वरुण देव हस्तक्षेप करते दिखाई दिए। कहा गया कि वह ईश्वर जैसे दिखते है। ईश्वर करुणा दया करने वाले है। यह पुचकारने वाले ईश्वर की कल्पना थी। विदेशी सभ्यता में माना गया कि ईश्वर पापियों का उद्धार करते है सजा देते है। इस धारणा में भय था। इसमें भय था।
भारत के जीवन दर्शन में जिज्ञाषा है। यह नहीं कहा कि जो लिखा गया, वह अंतिम सत्य है। भारतीय चिंतन में संवाद है।
वैज्ञानिक खोज करते है कि पृथ्वी कैसे चलती है। हमारे यहां ईश्वर के दर्शन की जिज्ञासा है।
ऋग्वेद की शैली संवाद की है। विज्ञान और भारत के धर्म में के बीच अलगाव नहीं है। दोनों मिल कर आगे बढ़ें। ऋग्वेद में मधु शब्द प्रसन्नता उत्साह के लिए प्रयुक्त किया गया। इसमें वार्ता, संवाद, जल प्रकृति ,ज्ञान, अभिलाषा आदि सभी के मधु होने की कल्पना की गई। भारतीय संस्कृति, सभ्यता ,विचार, जीवन मूल्यों के अनुरूप होने वाले कार्य अनुष्ठान बन जाते है। यह हमको लोकरंजन की ओर ले जाती है। ऐसा जीवन ही समाज के अनुकूल होता है।

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