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बंधनमुक्त कृषि अध्यादेश : आढ़ती के शोषण से मुक्ति: राघवेन्द्र सिंह विक्रम

Raghvendra Vikram IAS Rtd

कृषि प्रबंधन सम्बंधी अध्यादेश को किसान विरोधी बताया जाना सही है या गलत, इस सम्बंध में निश्चय ही स्थिति स्पष्ट होनी चाहिए. यदि प्रारंभ में कोई दुष्प्रभाव परिलक्षित होते हैं तो उनके निवारण पर भी विचार किया जाना आवश्यक होगा.. इससे मण्डी बंद नहीं होगी, वह पहले की तरह संचालित रहेगी. वहां किसान, दलाल, व्यापारी, आढ़ती, सरकारी खरीददार सब पूर्ववत् उपलब्ध रहेंगे. हम जानते हैं कि एमएसपी (minimum support price) का उद्देश्य कीमतों का समर्थन करना होता है. साथ ही जरूरत के लिहाज से यह अनाज की सरकारी खरीद का भी आधार बनता है.


यह नयी व्यवस्था किसानों को अब वे विकल्प दे रही है जो उसे पहले कभी उपलब्ध नहीं थे. गेंहूं धान कौन खरीद सकता था ? लाइसेंसी या आढ़ती. सरकारी खरीद के जिलों में कभी 50 कभी 70 सेंटर बनते हैं फिर भी अगर सरकारी कर्मचारी अंदरखाने आढ़ती से मिलकर ही खरीद कर रहे हों तो किसान को फिर उपज आढ़ती को ही तो बेचना पड़ेगा. जाहिर है उसे कभी एमएसपी वाली कीमत तो नहीं मिलेगी. उसके पास आज तक कहीं और बेचने का विकल्प ही नहीं था. अगर आशीर्वाद आटा बनाने वाली कम्पनी सीधे किसानों से गेंहूं खरीद करना चाहे तो यह संभव ही नहीं था कि वह गांव जाए और खरीद ले. उसे मण्डी और आढ़ती दो स्टेशनों से होकर जाना ही होता. और उनके शुल्क देकर ही खरीद करनी पड़ती. यह आढ़ती महोदय तो बीच में थे ही. लेकिन अब जब उनके बगैर भी खरीद हो सकती है तो तकलीफ किसे है ? जाहिर है आढ़ती को और मण्डी के मठाधीशों को. इससे भला किसान को समस्या क्यों होने लगी ?

जब मैं श्रावस्ती में जिलाधिकारी था तो वहां केले के खेती वाले गांवो में जाने का मौका मिला. वहां परेवपुर सहित और भी कई गांवों में केले की खेती जोर पकड़ गयी है. इसने वहां समृद्धि का माहौल बना दिया है. अब वे किस मण्डी में जाते हैं ? कोई मण्डी है ही नहीं. भुसावल और बड़ी राष्ट्रीय मण्डियों को सीधे आन लाइन दाम तय होकर ट्रक जाते हैं. सीधे बिक्री हो रही है. महाराष्ट्र में सैकड़ों किसान फूलों की खेती करते हैं. कहां मण्डी है ? फूल किसानों ने अपना सहकारी संगठन बना लिया है. रोज दो तीन फूल वाले एसी ट्रक मुंबई पुणे जाते है. अब व्यापारी आकर कहेगा कि भाई ये एडवांस लीजिए. हमें इस जिंस की उपज चाहिए, इस दर पर. आलू की कम्पनी खरीदने आयेगी तो बताएगी कि बड़ा आलू होगा तो इस रेट पर लेंगे, छोटा होगा तो इस रेट पर. अब तो संभावनाओं के नये द्वार खुले हैं. आप पुरानी व्यवस्था में रहना चाहें तो मण्डी तो है ही. वह कहां जा रही है.

जमाखोरी के लिए अब नम्बर दो की बड़ी रकम चाहिए. जमाखोरी की आशंका व्यक्त की गई. जमाखोरी एक सीमित कार्यवाही है. इस समय क्यों नहीं हो रही हैं. जब खरीददार बढ़ जाएंगे और खेत तक आएंगे तो भाई जमाखोरी बढ़ेगी कि घटेगी ? कामन सेंस की बात है. सम्पूर्ण मण्डी ही जमाखोरी में लगी हो, ऐसा कहीं सुना है कभी. फिर तो कपड़ों की भी जमाखोरी हो जाए. हर चीज की हो जाए कि रोक लो, कल दाम बढ़ेगा. साबुन मंजन तक न मिले कि कल मिलकर दाम बढ़ाया जाएगा.

उपलब्धता बहुत सीमित होने पर ही जमाखोरी संभव होती है. यह मांग और आपूर्ति के सवाल हैं. हमें सीधा दाम ठीक नहीं मिलेगा तो हम मण्डी चले जाएंगे. खेत पर ही ठीक दाम मिलेगा तो उपज खेत पर बेंचेगे.

सरकारी खरीद की असलियत तो सबको मालूम ही होगी. किससे खरीद होती रही है आज तक ? किसान से ? नहीं. कलक्टरों की लाख कोशिशों के बाद भी खरीद मुख्यतः गेंहूं आढ़ती से और धान मिलों से ही होती रही है. कितने किसानों को सरकारी दाम मिल पाता था ? शोषण यह था कि बेचोगे तो हम आढ़तियों को ही. वरना और कहां जाओगे ? देश की सबसे धनाढ्य कम्युनिटी आढ़तियों की है. लेकिन इस अध्यादेश के बाद अब तो किसान की उपज के खरीदार बढ़ जाएंगे. अब बड़ी कम्पनियां उपज की खरीद में आ जाएगी. वे आढ़ती नहीं हैं. किसान की च्वाइस, विकल्प बढ़ गया है. हां, आढ़तियों का धन्धा बंद होने की समस्या जरूर आ रही है.

अब तक बाजार पर रहा उन पूंजीपतियों का जबरदस्त एकाधिकार प्रभावित हो रहा है. पहली बार यह एकाधिकार जो अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा था, टूटने जा रहा है. किसानों को अब सहकारिता के प्रयोग की आवश्यकता है. हमारे देश के सच्चे अर्थों में एकमात्र किसान नेता स्व. चरण सिंह जी आज होते तो एकाधिकार टूटने के इस अवसर पर उनकी तो खुशी का पारावार न रहता. यह दरअसल किसानों की आजादी का दिवस है …!

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