बॉम्बे हाईकोर्ट के एक ताज़ा फैसले से उन ‘मकोका’ बंदियों में यह आशा जगी है कि वे इससे बच सकते हैं जो यह समझते हैं कि पुलिस या सुरक्षा एजेंसियों ने उनके साथ ‘मकोका’ लगाकर ज़्यादती किया है। बॉम्बे हाईकोर्ट ने माना कि ‘मकोका’ के लिए जानबूझकर अपराध करने की मनःस्थिति ज़रूरी है।
विधि विशेषज्ञ जे.पी.सिंह की कलम से
पहले माना जाता था कि मकोका जिस पर लगा उसका कानून के फंदे से निकलना असम्भव तो नहीं बल्कि बहुत कठिन होगा लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट के एक ताज़ा फैसले से उन मकोका बंदियों में यह आशा जगी है कि वे इससे बच सकते हैं जो यह समझते हैं कि पुलिस या सुरक्षा एजेंसियों ने उनके साथ मकोका लगाकर ज़्यादती किया है।
महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (मकोका) के तहत किसी को गिरफ़्तारी से बचाव का यह पहला उदाहरण है। बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस संबंध में सुरजीत सिंह गंभीर की याचिका स्वीकार कर ली है। न्यायमूर्ति रंजीत मोरे और भारती डांगरे की खंडपीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता पर मकोका के तहत मामला दर्ज करने का फ़ैसला करने वालेआईजी और सीआईडी ने दिमाग़ से काम नहीं लिया है और यह मामला जानबूझकर अपराध करने का नहीं है। इसमें आपराधिक मनःस्थिति का अभाव था।
मकोका के तहत दर्ज हुए मामले में अग्रिम ज़मानत दिये जाने पर अधिनियम की धारा 21(3) के तहत पाबंदी है। प्रावधानों का उल्लेख करते हुए याचिकाकर्ता को सत्र अदालत ने गिरफ़्तारी-पूर्व ज़मानत नहीं दी । इसके बाद याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट में एक रिट याचिका दायर की और मकोका की धारा 21(3) को चुनौती दी और गिरफ़्तारी से संरक्षण की मांग की थी ।
याचिकाकर्ता गंभीर को अहमदनगर के सरकारी अस्पताल में साई भूषण कैंटीन को चलाने का ठेका मिला था। 12 फ़रवरी 2017 को पंचायत समिति और ज़िला परिषद का चुनाव जीतनेवाले उम्मीदवारों ने वहां रात्रि भोज का आयोजन किया था जिसमें लोगों को शराब परोसी गयी जिसके बाद 9 लोगों की उस शराब को पीने के कारण मौत हो गयी और 13 अन्य लोग गंभीर रूप से बीमार हो गये। पुलिस जांच से पता चला कि शराब पीने के कारण लोगों की मौत हुई और इस शराब को सरकारी अस्पताल के कैंटीन में ही बनाया जाता था। इस डिनर पार्टी में शामिल होने वाले लोगों में शिकायतकर्ता बबन अवहाड के दो भाई भी थे। इस मामले की एफआईआर मकोका की धारा 304, 328, 34, 65A, 65B, 65C, 65D, 65E, 68A और 68B तथा धारा 18(1) और (2) के तहत दर्ज किये गये।
जांच में मिलीभगत की बात का पता चलने के बाद याचिकाकर्ता को इस मामले में आरोपी बनाया गया। याचिकाकर्ता के अलावा 19 अन्य लोगों को इस मामले में आरोपी बनाया गया और आरोपी के ख़िलाफ़ मकोका के तहत मुक़दमा चलाने का प्रस्ताव भेजा गया। इस प्रस्ताव के मिलने के बाद विशेष पुलिस महानिरीक्षक, सीआईडी, पुणे ने इसे अपनी स्वीकृति दे दी। इससे इस बात की पुष्टि हुई की आरोपी का चचेरा भाई जगजीतसिंह गंभीर ने संगठित अपराध सिंडिकेट बना रखा था और वह ग़ैरक़ानूनी गतिविधियों में लिप्त था। इसके बाद 10 अगस्त 2017 को सीआईडी, पुणे के अतिरिक्त महानिदेशक ने भी उस पर मकोका के तहत मुक़दमा चलाने की अनुमति दे दी।
क्या है फ़ैसला
याचिकाकर्ता ने कहा कि संगठित अपराध का मामला उसके मामले में नहीं है और हाईकोर्ट उसके ख़िलाफ़ इसके तहत मामले को चलाने की प्रक्रिया को निरस्त करे। याचिकाकर्ता ने कहा कि उसे कैंटीन को चलाने का ठेका मिला था पर बैंक गारंटी नहीं देने और कई और शर्तों को नहीं मानने की वजह से यह कैंटीन उसको सुपुर्द नहीं किया गया था। यह भी कहा गया कि जांच से पता चला कि इस कैंटीन का चार महीने का किराया एक अन्य आरोपी ज़ाकिर शेख़ ने जमा कराया था। याचिकाकर्ता ने कहा कि उसका क्लाइंट कैंटीन के दैनिक कार्यों के देखरेख में शामिल नहीं था।
खंडपीठ ने साक्ष्यों और दस्तावेज़ों पर ग़ौर करने के बाद कहा कि अभियोजन के पास इस तरह का कोई साक्ष्य नहीं है कि जब 2017 की फ़रवरी में यह घटना हुई उस समय याचिकाकर्ता साई भूषण कैंटीन को चलाने से किसी तरह जुड़ा था। खंडपीठ ने कहा कि आपराधिक मनःस्थिति के बिना कोई अपराध नहीं हो सकता और इसलिए किसी भी क़ानून के तहत अपराध के लिए यह ज़रूरी है कि मंशा ग़लत हो और इसके बिना किसी भी तरह के अपराध की बात को स्थापित नहीं किया जा सकता ।
भारत शांतिलाल शाह एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य मामला, जिसमें मकोका की संवैधानिकता के निर्णय का हवाला देते हुए जिसमें अधिनियम की धारा 3 और 4 के प्रावधानों को सही ठहराया गया था और कहा गया था कि इनमें अपराध की नीयत अंतर्निहित है और इसे अपराध की आवश्यक रूप से मुख्य बात मानी जायेगी। खंडपीठ ने याचिका स्वीकार कर ली और कहा कि हम प्रथम दृष्ट्या इस बात से संतुष्ट हैं कि याचिकाकर्ता पर मकोका के प्रावधानों के तहत मुक़दमा चलाने की अनुमति देने का विशेष पुलिस महानिरीक्षक, सीआईडी, पुणे का फ़ैसला उचित नहीं था, क्योंकि इसके समर्थन में कोई ठोस साक्ष्य नहीं पेश किया गया। हमारी राय में याचिकाकर्ता अपनी गिरफ़्तारी से संरक्षण प्राप्त करने के योग्य है।
‘मकोका’ के बारे में जानें
गौरतलब है कि मकोका 1999 में महाराष्ट्र सरकार ने बनाया था। इसके पीछे मकसद मुंबई जैसे शहर में अंडरवर्ल्ड के आतंक से निपटना था। संगठित अपराध पर अंकुश लगाने के लिए ही इस कानून को बनाया गया था। 2002 में दिल्ली सरकार ने भी इसे लागू कर दिया। फिलहाल महाराष्ट्र के अलावा राजधानी दिल्ली में यह कानून लागू है। अंडरवर्ल्ड से जुड़े अपराधियों के अलावा, लगातार जबरन वसूली, किडनैपिंग, हत्या या हत्या की कोशिश और दूसरे संगठित अपराध करने वालों के खिलाफ इस कानून के तहत केस दर्ज किया जाता है।
पुलिस सीधे तौर पर किसी आरोपी के खिलाफ मकोका के तहत केस दर्ज नहीं कर सकती। इसके लिए उसे एडिशनल कमिश्नर ऑफ पुलिस से स्वीकृति लेनी होगी। स्वीकृति मिलने के बाद पुलिस आरोपी के खिलाफ मकोका कानून के तहत केस दर्ज कर सकती है। छानबीन के बाद पुलिस चार्जशीट दाखिल करती है। उसके बाद उसे मुकदमा चलाने के लिए संबंधित अथॉरिटी से सैंक्शन लेनी होती है।
मकोका कानून के तहत किसी आरोपी के खिलाफ केस तभी दर्ज होगा, जब 10 साल के दौरान उसने कम-से-कम दो संगठित अपराध किये हों और उसके खिलाफ एफआईआर के बाद चार्जशीट दाखिल हुई हो। आरोपी के खिलाफ ऐसा केस दर्ज हुआ हो, जिसमें कम-से-कम तीन साल कैद का प्रावधान हो। टाडा और पोटा की तरह ही मकोका में भी जमानत का प्रावधान नहीं है। छानबीन के बाद अगर पुलिस या जांच एजेंसी ने 180 दिनों के अंदर चार्जशीट दाखिल नहीं की, तो आरोपी को जमानत दी जा सकती है। इस कानून के तहत अधिकतम सजा फांसी हो सकती है, जबकि कम-से-कम पांच साल कैद का प्रावधान है।