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के.एम. अग्रवाल
सालों से मन में यह बात आती थी कि कभी आत्मकथा लिखूँ। फिर सोचा कि आत्मकथा तो बड़े-बड़े लेखक, साहित्यकार, राजनेता, फिल्मकार, अन्तर्राष्ट्रीय खिलाड़ी, वैज्ञानिक, बड़े-बड़े युद्ध जीतने वाले सेनापति आदि लिखते हैं और वह अपने आप में अच्छी-खासी मोटी किताब होती है। मैं तो एक साधारण, लेकिन समाज और देश के प्रति एक सजग नागरिक हूँ। मैंने ऐसा कुछ देश को नहीं दिया, जिसे लोग याद करें। पत्रकारिता का भी मेरा जीवन महज 24 वर्षों का रहा। हाँ, इस 24 वर्ष में जीवन के कुछ अनुभव तथा मान-सम्मान के साथ जीने तथा सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस विकसित हुआ। लेकिन कभी लिखना शुरू नहीं हो सका। एक बार पत्रकारिता के जीवन के इलाहाबाद के अनुज साथी स्नेह मधुर से बात हो रही थी। बात-बात में जीवन में उतार-चढ़ाव की बहुत सी बातें हो गयीं। मधुर जी कहने लगे कि पुस्तक के रूप में नहीं, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में पत्रकारिता के अनुभव को जैसा बता रहे हैं, लिख डालिये। उसका भी महत्व होगा। बात कुछ ठीक लगी और फिर आज लिखने बैठ ही गया।
गतांक से आगे…
‘मेरा जीवन’: के.एम. अग्रवाल: 87:
नीड़ का निर्माण फिर: 16
महराजगंज की “कुछ शक्सियतें”:1
इतिहास की बात करें तो महराजगंज गौतम बुद्ध की धरती मानी जाती है। आधुनिक काल की बात करें तो यह स्वतंत्रता संग्राम सेनानी प्रो. शिब्बनलाल सक्सेना की धरती मानी जाती है। इसी अवधि में कुछ ऐसे व्यक्तित्व भी यहां हुए, जिन्होंने जीवन पर्यंत यहां की सेवा की और अब आज नहीं हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं, जिनसे मैं स्वयं भी गहराई से जुड़ा रहा और जिनके बारे में लिखना ज़रूरी लगता है।
गांधी सिंह
जीवन का अनुभव मनुष्य को धीरे धीरे एक दिशा देता है। यह दिशा कभी तो काफी पहले निर्धारित हो जाती है और कभी कुछ बाद में। गांधी सिंह के साथ भी ऐसा ही हुआ, जब जब 70 वर्ष की अवस्था के बाद एक जबरदस्त मोड़ आया और उन्होंने राजनीति से नाता तोड़कर समाज सेवा और धर्म के प्रचार के लिए स्वयं को पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया। सरल, सीधे स्वभाव एवं आध्यात्मिक प्रवृत्ति के गांधी सिंह की पहचान धीरे धीरे एक संत के रूप में होने लगी।
बिहार के गोपालगंज जिले के सासामूसा गांव में जन्मे गांधी सिंह ने युवा अवस्था में 1942 के आंदोलन में भाग लिया। पुलिस द्वारा उन्हें पकड़ कर छोड़ दिया गया और वह चाहते हुए भी अन्य आंदोलनकारियों के साथ जेल नहीं जा सके थे। फिर वह शिक्षा ग्रहण करने में लग गये। 1955 में उन्होंने अलीगढ़ विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में एम.ए. किया और गोरखपुर आकर थोड़ी बहुत ठेकेदारी करते हुए सोशलिस्ट नेताओं के साथ रहकर राजनीति करने लगे। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर सिंह तथा अन्य बड़े समाजवादी नेताओं के वे काफी निकट रहे, लेकिन यह सब कुछ जीवन को रास नहीं आया। 1967 के बाद से ही उन्हें राजनीति से चिढ़ सी हो गई। 1980 में वह महराजगंज आ गये, जो उनके लिए नया नहीं था और अब उनका कार्यक्षेत्र बन गया।
प्राथमिक शिक्षा सिसवा बाजार में ग्रहण करने और गोरखपुर में लम्बे समय तक रहने के कारण महराजगंज कभी भी उनके लिए अपरिचित नहीं रहा। अविवाहित रहकर कुछ वर्षों तक यहां समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सेवा कार्य करते हुए उन्होंने लोगों को अपने कर्त्तव्य और अधिकार के प्रति जागरूक किया। बिना किसी झिझक के स्पष्टवादी, समाज में वैचारिक तथा व्यवहारिक परिवर्तन लाने का प्रयास करने वाले गांधी सिंह के जीवन में 1976 के आसपास ही पुनः परिवर्तन आने लगा था। ‘कादम्बिनी’ पत्रिका के आध्यात्मिक अंक को पढ़ने के बाद उनके हृदय में उथल-पुथल शुरू हो गया। फिर अचानक गोरखपुर के मानीराम में फर्टिलाइजर के निकट बालापार स्थिित ‘ओंकाराश्रम’ में वहां के साधकों से उनकी मुलाकात हुई और फिर 1986 का वह समय भी आ गया, जब वह ‘गायत्री परिवार’ से जुड़ गए।
अपने सेवाभाव, लगन तथा परिश्रम से ऊंचे से ऊंचा लक्ष्य प्राप्त करने में सफलता के कारण वह गायत्री परिवार के जिला मुखिया बना दिए गये। अपने सादा जीवन, उच्च विचार तथा समाज के प्रति समर्पण के कारण वे इस क्षेत्र में किसी परिचय के मोहताज नहीं थे। 1999 में उन्हें ‘उन्मेष‘ संस्था की ओर से ‘प्रो.शिब्बनलाल सक्सेना सम्मान’ दिया गया। उनके प्रभाव में आकर हजारों की संख्या में लोगों ने मांसाहार छोड़कर शाकाहार अपना लिया। बहुतों ने मादक पदार्थों का भी त्याग कर दिया।
गांधी सिंह जी का लगाव पत्रकारिता से भी रहा है। यही कारण है कि गोरखपुर में रहते हुए वहां के तत्कालीन प्रमुख अखबार ‘हिन्दी दैनिक’ को काफी समय तक अपनी सेवाएं देते रहे। बाद में भी महराजगंज आ जाने के बाद कभी कभी समाज के लिए उपयोगी विषयों पर लिखते रहे।
कहा जाता है, कोई खाने के लिए जीता है, कोई जीने के लिए खाता है। गांधी सिंह के लिए 1985 के आसपास का समय एक नये प्रकार के जीवन में प्रवेश करने का समय था, जब वह सिर्फ जीने के लिए खाते थे। प्राइमरी स्कूल के पीछे खपड़े की एक छोटी सी कोठरी में अकेले एकांत में रहते हुए प्राय: चावल आलू अथवा खिचड़ी खाकर उन्होंने एक प्रयोग शुरू किया कि क्या बिलकुल साधारण भोजन करके शारीरिक और मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ क्या नहीं रहा जा सकता ? उन्होंने पाया कि न सिर्फ जीवित रहा जा सकता है, बल्कि शारीरिक व मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ रहा जा सकता है। वह वैसे भी विविध प्रकार के भोजन पर ध्यान देना, समय की बरबादी ही समझते थे। उन्होंने पैदल तथा जीपों आदि से गायत्री परिवार के उद्देश्यों के अंतर्गत जितनी यात्राएं की हैं, शायद ही दूसरा कोई कर पाये।
1990 के पहले जब एक बार गांधी सिंह जी हरिद्वार स्थित गायत्री शक्तिपीठ पर गये हुए थे, तो उनकी मुलाकात गायत्री परिवार के परम पूज्य गुरुदेव पं.श्रीराम शर्मा आचार्य से हुई। उन्होंने इनका नाम पूछा। गांधी सिंह नाम बताने पर आचार्य जी ने कहा, ‘ गांधी भी और सिंह भी?’
फिर उन्होंने कहा,‘ ठाकुर साहब, आप हमारा कार्य करिये, हम आपका कार्य कर देंगे।’
तभी से गांधी सिंह इस प्रकार प्रभावित हुए कि पूरे मन और हृदय से स्वयं को गायत्री परिवार को समर्पित कर दिया। उनके प्रयास से महराजगंज से लगे नेपाल के कई जिलों में गायत्री परिवार का संदेश पहुंच रहा है। उन्होंने महराजगंज में गायत्री शक्तिपीठ की स्थापना की बात सोची तो उनके प्रयास से कुछ ही वर्षों में शक्तिपीठ का निर्माण हो गया।
गांधी सिंह जी सरल और सहज होने के साथ काफी गंभीर स्वभाव के जरूर थे, लेकिन गंभीरता का चोला नहीं ओढ़े रहते थे। हम सब दो चार लोगों के इकट्ठा होने पर सहज भाव से हंसना हंसाना भी कर लेते थे। वह मानते थे कि जीवन में हंसने का भी महत्व है।
पच्चासी साल की अवस्था तक भी वह पूर्ण स्वस्थ थे और अपना सारा कार्य करते हुए जीप से आवश्यक दौरा भी करते थे। साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में भी सक्रिय भाग लेते रहे। लेकिन एक दिन फिर ऐसा आया, जब 11 अक्टूबर, 2013 को वह गोलोकवासी हो गये। उनकी समाधि की स्थापना मंदिर परिसर में ही की गयी।
क्रमशः 88