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‘गरीबी का अर्थशास्त्र’ : कटियार

गरीबों के आर्थिक जीवन पर जो शानदार रिसर्च पेपर अभिजीत बनर्जी और एम आइ टी की उनकी सहयोगी एवं उनकी पत्नी एस्टर डफ्लो ने लिखा है, उसके केंद्र में गुन्टूर में डोसा बनाने वालीं गरीब औरतें हैं | अपने इस आर्थिक सोच को उन्होंने अपनी किताबों “पुअर इकनामिक्स’, “रिथिन्किंग पावर्टी एंड द वेज टू इंड इट” में विस्तार दिया है |


भगवान स्वरूप कटियार

हम सच्चाई से कितना भी भागें पर बहुत दूर तक और बहुत देर तक भाग नहीं सकते | हम जितना तेज भागते हैं सच्चाई भी उसी गति से हमारा पीछा करती है साये की तरह | हमें उसका सामना करना ही पड़ता है | कर्ज आधारित तथा उत्पदान और रोजगार विहीन अर्थव्यवस्था देश और समाज को आर्थिक बदहाली और आर्थिक गुलामी की ओर ही ले जाती है | लैटिन अमेरिकी देश और बरबाद ग्रीस इसके जीते जागते उदहारण हैं |

लैटिन अमेरिकी देशों को आर्थिक गुलाम बनाने की अमेरिका की कोशिशें अभी भी जारी हैं वेनुजुला जिसका ताजा उदाहरण हैं | तिकड़म और छल प्रपंच से सत्ता हथिया कर देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ करना देश की मौजूदा सरकार घोर अपराध कर रही है | कर्ज चुकाने के लिए कर्ज लेना,उत्पादन और रोजगार स्रजन को दरकिनार कर सिर्फ निजीकरण और कार्पोरेट के हित साधना सरकार की देश की जनता के साथ सरासर नाइंसाफी है और संवैधानिक अपराध भी |

इसको यह कह कर न्याय संगत ठहराना कि तो फिर जनता उन्ही को ही क्यों चुनती है सरासर अनुचित है | क्योकि सरकार जो करती है वह उनकी पार्टी के चुनावी घोषणापत्र में नही होता और जो उनके चुनावी घोषणापत्र में होता है वह सरकार करती नहीं है | यह देश की जनता के साथ धोखा और संवैधानिक अपराध है |


अर्थशास्त्र में वर्ष 2019 का का नोबेल सम्मान पाने वाले भारतीय मूल के अभिजीत बनर्जी और फ़्रांसिसी मूल की उनकी पत्नी एस्टर डफ्लो की चिन्ता थी कि आखिर अपनी तक़दीर संवारने के लिए गरीबों को मुश्किलें क्यों आती हैं? यह वही मिलियन डालर का सवाल है जिस पर अभिजीत बनर्जी,उनकी पत्नी एस्टर डफ्लो और एक अमेरिकी अर्थशास्त्री माइकल रोबर्ट क्रेमर ने अपना शोध प्रबन्ध तैयार किया | यह काम उन्होंने किसी प्रयोगशाला या चमकते दमकते पुस्तकालय में ही बैठ कर नहीं किया | बल्कि वे गरीबी और गरीबों के पास गये | उनसे मिले,उनसे बातें की उनकी मुश्किलात समझीं और उन पर गहन मंथन और विचार विमर्श किया | विकास दर में लगातार होती ब्रध्दी और उसी अनुपात में बढ़ती भूख और आर्थिक बदहाली खास कर तीसरी दुनियाँ के देशों की उलटबांसी ने इन नौजवान अर्थशास्त्रियों को व्याकुल किया उनके दिलोदिमाग में छटपटाहट पैदा की और वे उसके कारणों और समाधान की तलाश में जुट गये | गरीबों के आर्थिक जीवन पर जो शानदार रिसर्च पेपर अभिजीत बनर्जी और एम आइ टी की उनकी सहयोगी एवं उनकी पत्नी एस्टर डफ्लो ने लिखा है उसके केंद्र में गुन्टूर में डोसा बनाने वालीं गरीब औरतें हैं | अपने इस आर्थिक सोच को उन्होंने अपनी किताबों “पुअर इकनामिक्स’, “रिथिन्किंग पावर्टी एंड द वेज टू इंड इट” में विस्तार दिया है | गरीबों के जीवन और उनकी आर्थिक समस्याओं को समझने के लिए इस दंपत्ति ने जमीनी प्रयोग किये | इसके लिए उन्होंने जो तकनीकी अपनाई वह मेडिकल रिसर्च वाली थी | जैसे उनका लोगों के दो समूहों को बिना किसी क्रम के चुनना फिर किसी एक समूह की दिनचर्या में थोड़ा बदलाव करना और दूसरे को यथावत रखना आदि | फिर एम आइ टी की टीम ने दोनों समूहों के नतीजों की जांच-पड़ताल करती है | एस्टर डफ्लों कहती हैं कि गरीबों के साथ समय बिताने पर उन्होंने जाना कि हम सामान्य लोगों की तुलना में गरीब कहीं अधिक जटिल जीवन जीते हैं और “हेज फण्ड मैनेजर” की तरह पैसे को खर्च करते हैं |

हेज फण्ड मैनेजर से आशय है कि किसी निवेशक से पैसे लेकर उसे विभिन्न प्रकार की संपत्तियों में निवेश करना | उनका कहना है कि गरीब लोगों को साफ पानी मुहैया कराने, ईंधन उपलब्ध कराने जैसे रोजमर्रा की जरूरतों के साथ-साथ गरीबी से लड़ने की जरूरतों पर भी ध्यान देना होगा | कुछ समय पहले यह अर्थशास्त्री दम्पत्ति राजस्थान के उदयपुर में काम कर रहे था | तब उन्होंने देखा कि स्थानीय महिलाएं सरकार की मुफ्त टीकाकरण योजना का लाभ उठाने अपने बच्चों को नहीं ला रहीं थीं | उन्होंने इसके कारण की पड़ताल की और इसके लिए उन्होंने हर टीका लगवाने वाले परिवार को एक किलो दाल देने की व्यवस्था की | जल्द ही दाल वितरण की बात आसपास के इलाके में फ़ैल गयी और टीकाकरण की दर में इजाफ़ा होने लगा | उनका निष्कर्ष था पिछड़े समाज वाले देशों में इस तरह के जन कल्याणकारी अभियानों को सीधे लाभ की सुविधाओं के साथ जोड़ कर चलाने की जरुरत है ताकि अपनी दिहाड़ी के नुकसान के कारण टीकाकरण जैसे अपरिहार्य अभियान से जुड़े और उसका महत्व समझें |
इस अर्थशास्त्री शोध दंपत्ति ने गरीब लोगों के पैसे खर्च करने के व्यवहार पर काफी काम किया जिसके लिए वे गरीब वस्तियों के परिवारों में गये ,उनसे जुडे और उनकी जीवन शैली को नजदीक से देखा और समझा | इन्होने पाया कि गरीब लोग अपने अतरिक्त पैसे को अपनी सुख सुविधाओं जैसे टेलीविजन, त्योहारों और स्वादिष्ट भोजन के लिए खर्च करते हैं |

उन्होंने पाया कि गरीब लोगों की प्राथमिकता उन चीजों की है जो उनकी ऊब कम कर सके | उन्हें लम्बा जीवन जीने के लिए सिर्फ पोषण ही नहीं चाहिए बल्कि लम्बा जीवन जीने की वजह भी चाहिए | बनर्जी और डूफ्लो ने वर्ष 1970 के दशक में आर्थिक विकास के लिहाज से एक खास मैक्रो इकनामिक्स मुद्दे को सामने रखा जिसे बाद में मैक्रो फाउंडेशन से जोड़ कर देखा गया | इसका आशय यह है कि जमीनी विवरणों को जोड़ कर एक बड़ी तस्वीर बनाई गयी | उदहारण के लिए जिन जन पंचायतों का नेतृत्व महिलाओं के हाथ में होता है उनमें सार्वजनिक मद में उनकी प्राथमिकताओं पर अधिक धन खर्च होता है

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यह आमधारणा है कि गरीबों को यदि अनाज के बदले नकद पैसा दे दिया जाय तो वे उसका इस्तेमाल गैर जरुरी चीजों के लिए करेंगे जैसे गहने-जेवर, शराब जुआ आदि में | यह एक हद तक सही है पर इसके मद्दे नज़र उनकी प्राथमिकताओं में फेर बदल अनुचित होगा | इसकी बजाय उनकी जरूरत की चीजें बेहद किफ़ायती दरों पर उपलब्ध करायीं जानी चाहिए | जैसे आयरन और आयोडीन युक्त नमक सस्ता होगा तो वे निरोग भी रहेंगे और जो पैसा बचेगा उनसे मनोरंजन के लिए टेलीविजन भी खरीद सके गें और सार्वजनिक धन का सही इस्तेमाल हो सकेगा | अ

बनर्जी और एस्टर डफ्लो ने मौजूदा भारत सरकार से अपेक्षा की है कि देश के हर नागरिक को स्वस्थ और सम्मानजनक जीवन यापन के लिए उनकी क्रय क्षमता बढ़ानी चाहिए चाहे वह सीधे नकदी की आपूर्ति करके अथवा रोजगार मुहैया करा कर | स्वास्थ्य,शिक्षा,रोजगार, सामाजिक सुरक्षा और टीकाकरण जैसे महत्वपूर्ण कार्य सरकार को शीर्ष प्राथमिकता पर रखना चाहिए |


इस सम्मान के तीसरे भागीदार 58 वर्षीय अमेरिकी अर्थशास्त्री माइकल रोबर्ट क्रेमर जो गत बीस सालों से हॉवर्ड यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं और उन्होंने कैंसर पीड़ितों की मदद पर शोध किया है | वह अमेरिकन एकेडमी ऑफ़ साइंस एंड आर्ट्स के फेलो हैं | उनका इनोवेशन ऑन पावर्टी एक्सन संगठन सामाजिक और अंतर्राष्ट्रीय विकास समस्याओं के समाधान का मुल्यांकन करता है | उन्होंने हॉवर्ड से अर्थशास्त्र में स्नातक और वहीँ से पी एच डी की है | गत बीस साल से हावर्ड में ही अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं | उन्होंने विकासशील देशों में टीकाकरण के तंत्र को विकसित करने के लिए महत्वपूर्ण काम भी किया है |

अभिजीत बनर्जी की पत्नी और इस सम्मान की सहभागीदार एस्टर डूफ्लो का जन्म 1972 में पेरिस में हुआ | वह अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार पाने वाली दुनियां की दूसरी महिला हैं | उन्होंने इतिहास और अर्थशास्त्र में स्नातक की पढाई की | उन्होंने 1994 में पेरिस स्कुल ऑफ इकनामिक्स से एम ए किया | 1999 में एम आइ टी अमेरिका से पी एच डी की | वह एम आइ टी में ही पावर्टी एलिवेशन एण्ड डेवलपमेंट की प्रोफ़ेसर हैं | उन्होंने पी एच डी अभिजीत बनर्जी के मार्गदर्शन में की और और गरीबी से लड़ने के तरीकों पर अभिजीत बनर्जी के साथ तार्किक शोधपत्र लिखा है | कोलकता में जन्मे अभिजीत बनर्जी प्रेसिडेंसी कालेज के पढ़े है | उनके माता-पिता भी इकनामिक्स के प्रोफेसर रहे हैं | 1983 में जे एन यू से इकनामिक्स एम ए में किया और 1988 में हॉवर्ड यूनिवर्सिटी अमेरिका से इकनामिक्स में पी एच डी किया और इस समय एम आइ टी अमेरिका में प्रोफेसर हैं | उन्होंने दो डोकुमेंटरी फ़िल्में भी निर्देशित की हैं |

नोबेल कमेटी के मुताबिक इन तीनों अर्थशास्त्रियों ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारी मात्रा में सब्सिडी देने का मॉडल तैयार किया है जिससे तीसरी दुनियां के देशों के गरीब लोगों को मदद मिलेगी | इसी को कहते हैं मानवीय अर्थशास्त्र यानी कार्पोरेट मुनाफ़े से इतर ह्युमनेटेरियन इकनामिक्स | तीनों महानुभावों को बधाई |

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