डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी, प्रयागराज
श्रावण पूर्णिमा को श्रावणी का पर्व, सनातनी पूर्णिमा और रक्षाबंधन के रूप में मनाया जाता है। सामान्यतया सनातन धर्म के चार प्रमुख त्यौहार श्रावणी ,दशहरा ,दिवाली और होली चार वर्णों -ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य ,शूद्र के त्यौहार के रूप में जोड़े जाते हैं। वस्तुतः मनुष्य एक वर्णीय नहीं होता वह चारो वर्णो के तत्वों का एकीकरण होता है। मनुष्य की सम्पूर्णता चारों वर्णो के समन्वित स्वरूप से है। वर्ष का पहला त्यौहार ब्राह्मण वर्ण का श्रावणी है जो ज्ञानदोष ,कर्मदोष के परिष्कार हेतु प्रायश्चित का पर्व है।
जग जीवन की गति -इच्छा -ज्ञान -कर्म के चक्र से संचालित होती है। इच्छा है प्रभु की इच्छा ब्रह्म -प्रजापति की इच्छा ब्रह्मा की इच्छा ,ज्ञान हैं वेद और कर्म हैं ऋषि। ब्राह्मणत्व ,पौरोहित्य तथा ऋषित्व कार्य में संकल्पित लोग सहज रूप से ज्ञानदोष ,कर्मदोष से अछूते नहीं रह पाते। श्रावणी के दिन इस दोष से मुक्ति पाने के लिए ब्रह्मा ,वेद और ऋषियों का पूजन अर्चन कर वे दोषमुक्ति हेतु प्रायश्चित करते हैं। शिखा और सूत्र ब्राह्मण पुरोहित का प्रतीक है –शिखा से ज्ञान का बोध होता है तथा सूत्र -जनेऊ से धर्मानुसार कर्म। पूजन अर्चन के पूर्व द्विजत्व के नवीनीकरण तथा ऋषित्व के वर्द्धन के लिए शिखा सिंचन और सूत्र का नवीनीकरण किया जाता है। प्रायश्चित के उपरांत पुरोहित यजमानो को रक्षासूत्र बांधकर सनातन संस्कृति के अनुशासन के बंधन में बांधते हैं और उनकी रक्षा का उत्तरदायित्व लेते हैं। श्रावणी समरस समाज के निर्माण और सामाजिक चेतना का पर्व है।
राखी के त्यौहार के रूप में यह पर्व नारी की गरिमा से भी जुड़ा हुआ है। नारी को बहन, पुत्री, माता की दृष्टि से देखने का भाव रक्षाबंधन के पर्व के साथ जुड़ा हुआ है। बहन भाई को राखी बांधकर एक अटूट बंधन में जोड़ती है की वह पराई नहीं हुई है। भाई को कर्तव्य बोध कराती है।
Chandra Vijay Chaturvedi