विभूति नारायण राय
लेखक सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक हैं और महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति भी रह चुके हैं
‘वकील, पुलिस और न्यायपालिका’
दिल्ली की एक अदालत मे 3 नवम्बर 2019 को जो कुछ हुआ, वह न तो पहली बार घटा है और पूरी उम्मीद है कि यह अंतिम भी नही होगा । कुछ ही महीनों के अंदर हमे ऐसी ही किसी दूसरी घटना के लिये तैयार रहना चाहिये । कुछ अदालतों के परिसर इसके लिये कुख्यात हैं पर देश के किसे भी भाग में यह अप्रत्याशित नहीं है । अप्रत्याशित तो वह प्रतिक्रिया है जो 5 नवम्बर 2019 को दिल्ली पुलिस मुख्यालय के सामने दिखाई दी । हज़ारों की संख्या में पुलिसकर्मी सड़कों पर उतर आए और उन्होंने अपने ग़म और ग़ुस्से का इजहार किया । उनके विज़ुअल टीवी स्क्रीन पर देखते हुये मुझे 1973 के दृश्य याद आये जब दिल्ली समेत देश के कई हिस्सों मे पुलिस ने हड़ताल कर दी थी ।
यहाँ याद दिलाना उचित होगा कि किसी अनुशासन बद्ध सशस्त्र बल की हड़ताल के लिये बग़ावत शब्द का प्रयोग किया जाता है और उससे निपटने के लिये भी वही तरीक़े नही अपनाये जा सकते जो समाज के दूसरे तबक़ों की हड़तालों के दौरान इस्तेमाल किये जाते हैं ।
यह उल्लेखनीय है की सर्वोच्च न्यायालय और कई उच्च न्यायालयों ने कई मौक़ों पर अपने घोषित निर्णयों द्वारा वकीलों की हड़तालो को न सिर्फ़ अवैध घोषित किया है बल्कि भविष्य की हड़तालों पर भी पाबंदी लगाई है पर इन आदेशों का कोई असर शायद ही कभी दिखाई दिया हो। अपवाद स्वरूप कुछ मामलों में वकीलों को दंडित भी किया गया है पर आमतौर से दंड तभी दिया गया है जब वकीलों ने जजों के साथ हिंसा की हो । ऐसा उदाहरण तो ढूँढने पर बिरला ही मिलेगा जिसमें समाज के दूसरे तबके यथा डाक्टर , दुकानदार , पुलिसकर्मी या अदालतों के छोटे कर्मचारी जब वकीलों की हिंसा के शिकार हुये हों तो उनके पक्ष मे भी वैसी ही न्यायिक तत्परता दिखाई दी हो जैसी वकीलों की शिकायत पर दिखने लगती है । यह सवाल किसी भी नागरिक के मन मे उठ सकता है कि अपने सम्मान के प्रति अति संवेदन शील अदालतें बार की हड़तालों को प्रतिबंधित करने वाले अपने फ़ैसलों की धज्जियाँ उड़ती देखकर हड़तालियों के ख़िलाफ़ अवमानना की कार्यवाही क्यों नही करतीं ? इसका उत्तर ढूँढना बहुत मुश्किल नही है ।
देश भर मे वक़ील सबसे संगठित ट्रेड यूनियन हैं । ख़ास तौर से अदालत परिसर मे जहाँ वे बड़ी संख्या मे मौजूद होते हैं उनका आचरण किसी ख़राब ट्रेड यूनियन के सदस्यों जैसा हो सकता है । मुख्य रूप से उनकी ज़्यादतियों के शिकार अदालतों के छोटे कर्मचारी होते हैं , कभी कभी जजों को भी उनके हिंसक व्यवहार का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ सकता है । इन दो के अतिरिक्त अदालतों मे न्यायिक कर्तव्यों के लिये आने वाले पुलिस कर्मी सबसे अधिक उनके शिकार होते हैं । उस पर तुर्रा यह है कि पेशेवर अनुशासन के लिये उन्हीं द्वारा चुनी गयी संस्थाएँ हैं और हम अपवाद स्वरूप ही किसी वक़ील को कदाचरण के लिये इन संस्थाओं द्वारा दंडित किया जाता पाते हैं । उच्च न्यायालयों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने अधीनस्थ न्यायालयों मे अनुशासन और न्यायिक शुचिता क़ायम रखें पर एक बड़े ट्रेड यूनियन समूह के ख़िलाफ़ वे भी बहुत प्रभावी नज़र नही आते ।
अपनी ट्रेड यूनियन ताक़त को लेकर वक़ील कितने आश्वस्त हैं इसका उदाहरण तो 3 की घटना के दूसरे दिन दिल्ली की सड़कों पर देखने को मिला जब वकीलों ने देश की राजधानी मे पुलिस और अन्य जनों को पीटा और संपत्ति को नुक़सान पहुँचाया । यह तब हुआ जब एक दिन पहले बिना पुलिस का पक्ष सुने अदालत उन्हें राहत दे चुकी थी और यही पुलिस कर्मियों के ग़ुस्से का फ़ौरी कारण भी बना ।
ट्रेड यूनियन की यही मनोवृत्ति हम इलाहाबाद, लखनऊ या पटना की सड़कों पर देख सकते हैं जहाँ ज़रूरी नही है कि पुलिस वाले ही उनके शिकार बनें । बहुत से मामलों में दूकानदार , डाक्टर या वाहन चालक उन्हें झेलते हैं । शायद ही उनके ख़िलाफ़ दर्ज सामूहिक हिंसा का कोई मामला तार्किक परिणति तक पहुँचता है । कुछ ही दिनो पहले जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के छात्र नेता कन्हैया कुमार को पुलिस हिरासत से घसीट कर कुछ वकीलों ने पीटा जिसे पूरे देश ने चैनलों पर सजीव देखा पर उनमें अनुशासन क़ायम रखने वाली किसी संस्था ने कोई प्रभावी कार्यवाही की हो , ऐसा नही लगता ।
देश की राजधानी मे जो कुछ हुआ है उसे देखते हुये तो लगता है कि सरकार और सर्वोच्च न्यायालय इसे गम्भीरता से लेंगे । पुलिस कर्मियों का जमावड़ा स्वतःस्फूर्त हो भी तो उसे गंभीरता से लिया जाना चाहिये । किसी सशस्त्रबल के सदस्यों को अपने कमांडरों के हुक्म की इजाज़त नही दी जानी चाहिये । हर बल मे इस स्थिति से निपटने का आंतरिक तंत्र होता है और उम्मीद है कि दिल्ली पुलिस भी इस दिशा में सक्रिय होगी । प
इस बार तो सर्वोच्च न्यायालय से भी सक्रियता की उम्मीद की जानी चाहिये । उसकी इमारत से कुछ ही किलोमीटर के दायरे में क़ानून लागू करने वाली मशीनरी के एक महत्वपूर्ण पुर्ज़े वक़ील क़ानून क़ायदे की धज्जियाँ उड़ाते रहे ।
उसके मन से यह विश्वास ख़त्म होना चाहिये कि वे कुछ भी कर लें उनका कुछ नही बिगड़ेगा । दिल्ली भर के सीसी टीवी कैमरे उनके कुकृत्यों से भरे हुये हैं ।
इसे भी गम्भीरता से देखने की ज़रूरत है कि वकालत के पेशे मे किस तरह के लोग आ रहे हैं । ऐसा तो नही है कि ला कालेजों मे ऐसे छात्रों की भीड़ आ रही है जिन्हें कहीं जगह नही मिल पा रही ?
देश के कुछ चुनिंदा विश्वविद्यालयों और विधि महाविद्यालयों को छोड़ दिया जाय तो ज़्यादातर संस्थानों से अधकचरे ज्ञान और अधूरी समझ वाले क़ानून के विद्यार्थी निकल रहे हैं और भीड़ के रूप में अदालतों मे समा जा रहे हैं । ये कुछ भी कर के रातों रात अमीर होना चाहते हैं । इस गला काट प्रतिस्पर्धा की दुनिया में स्वाभाविक है कि हर अदालत मे कुछ ही सफल होते हैं , शेष ग़ैर पेशेवर तरीक़ों से भी कामयाबी हासिल करना चाहते हैं और इसके लिये कुछ भी कर सकते हैं ।
एक मज़बूत ट्रेड यूनियन का सदस्य होने के कारण उनके ख़िलाफ़ कोई कार्यवाही नही होती और उनका मन बढ़ता जाता है । समय आ गया है कि सरकार को क़ानून की शिक्षा की गुणवत्ता, शिक्षा हासिल कर वकालत का पेशा अपनाने वालो में पेशेवर नैतिकता और अनुशासन क़ायम करन के लिये उसी तरह की ज़िम्मेदार संस्था बनाने के बारे मे सोचना चाहिये जैसा उसने चिकित्सा के क्षेत्र मे किया है।
लेखक : विभूति नारायण राय
लेखक सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक हैं और महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति भी रह चुके हैं