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“एक छोटा सा पत्थर बड़े दंगे का कारण बन सकता है”: विभूति नारायण राय IPS

“इन आँखिन देखी” :36: विभूति नारायण राय IPS

…भारतीय समाज मे धार्मिक जुलूस सौ साल से अधिक समय से दोनो समुदायों के बीच तनाव बढ़ाने मे सबसे बड़े कारण रहे हैं और इसीलिये हर राज्य मे पुलिस ने स्थानीय ज़रूरतों के मुताबिक़ इन जुलूसों के प्रबंधन के लिये रणनीति बना रखी है । हर पुलिस थाने मे एक अलग रजिस्टर में इस रणनीति के तहत कुछ सूचनायें दर्ज की जाती हैं । इनमे जुलूस की तिथि , मार्ग , भाग लेने वालों की संख्या , जुलूस मे लगने वाले नारे या बजाये जाने वाले वाद्ययंत्र जैसे विवरणों का इंद्राज होता है।…. 

विभूति नारायण राय, IPS

विभूति नारायण राय, IPS

लेखक उत्तर प्रदेश में पुलिस महानिदेशक रहे हैं और महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति भी रह चुके हैं

“क्यों होते हैं सांप्रदायिक दंगे?”

पिछले छः – सात दिनो के दौरान जनसंख्या और क्षेत्रफल के लिहाज़ से देश का लगभग एक तिहाई हिस्सा एक बार फिर उसी सांप्रदायिक उन्माद का शिकार हो गया जो पिछले कई सौ वर्षों से उसका पीछा नही छोड़ रहा है । यह उन्माद कैसे निर्मित होता है और कब हिंसा मे तब्दील हो जाता है , इसे जाँचना दिलचस्प होगा । कुछ वर्षों पूर्व जब एक फ़ेलोशिप के तहत मै सांप्रदायिक हिंसा पर काम कर रहा था तो यह देख कर चकित रह गया कि एक ही जैसी क्रिया की प्रतिक्रिया अलग अलग स्थानों पर भिन्न हुई है । मसलन मैंने एक शहर मे पाया कि बाज़ार मे दो साड़ों के लड़ जाने के बाद वहाँ भीषणतम दंगे हो गये और कई दिनो तक कर्फ़्यू लगाना पड़ा । उसी के बग़ल मे ऐसा कुछ घटा जिस पर कोई भी दूसरा संवेदनशील इलाक़ा जल सकता था पर वहाँ कुछ नही हुआ । ऐसा अकारण नही होता । मैंने अपने अध्ययन के दौरान पाया कि सांप्रदायिक हिंसा का उभार एक पिरामिड की शक्ल मे होता है । यह पिरामिड धीरे धीरे निर्मित होता है । इस प्रक्रिया मे एक ऐसा बिंदु आता है जब एक पत्थर फ़ेकने, किसी अंतरधार्मिक विवाह या यहाँ तक दो अलग समुदायों के चालकों की सायकिलों के आपस मे टकराने से दंगा भड़क सकता है । यदि यह पिरामिड निर्मित न हुआ हो तो बड़ी से बड़ी घटना भी हिंसा नही करा पाती ।

हालिया दंगो वाले शहरों मे हमे बड़ा स्पष्ट दिखाई देता है कि तनाव का पिरामिड उस स्तर तक पहुँच गया था जहाँ सिर्फ़ एक छोटी सी चिनगारी की ज़रूरत थी और रामनवमी या हनुमान जयंती की ‘शोभा’ यात्राओं ने यह अवसर प्रदान कर ही दिया । दिल्ली मे अभी कुछ महीनो पहले ही दंगे हुये थे और ज़ख्म पूरी तरह से भरे नही थे । ख़ास तौर से अल्पसंख्यक समुदाय के मन मे पुलिस के आचरण को लेकर कसक बाक़ी है । वे पुलिस के आचरण को लेकर सशंकित हैं और अभी भी पुलिस को एक निष्पक्ष तथा क़ानून को लागू करने वाली एजेंसी मानने के लिये तैयार नही हैं ।

मैने अख़बारों और इंटरनेट पर बैठकर राजस्थान , गुजरात , पश्चिम बंगाल , कर्नाटक और बिहार के जिन हिस्सों मे हिंसा की घटनायें घटीं , उनको बारीकी से समझने की कोशिश की । मुझे कोई आश्चर्य नही हुआ कि हर जगह हिंसा का पिरामिड उस बिंदु पर था जहाँ एक छोटा सा पत्थर बड़े दंगे का कारण बन सकता था । यह सवाल लाज़िमी है कि तनाव का यह पिरामिड कोई रातो रात तो बना नही होगा , धीरे धीरे बिगड़ती स्थितियों को संभालने की कोशिश राज्य द्वारा क्यों नही की गयी । कुछ मामलों मे तो साफ़ समझ आ रहा था कि राज्य के कुछ अंगो द्वारा न सिर्फ़ आपराधिक लापरवाही बरती गयी बल्कि कई तो आग भड़काने मे लगे दिखते हैं । ख़ास तौर से राज्य की सबसे दृश्यमान अंग पुलिस पिरामिड को ऊपर बढ़ने से रोकने मे सबसे अधिक असहाय नज़र आती है । शायद इसका सबसे बड़ा कारण पुलिस के रोज़मर्रा के काम मे बढ़ता राजनैतिक हतक्षेप है । स्वाभाविक है कि अगर राज्य का प्रभावी विमर्श सांप्रदायिक हिंसा का पक्षधर है तो पुलिस भी उसे रोकने के अपने क़ानूनी दायित्व से विमुख हो सकती है ।

भारतीय समाज मे धार्मिक जुलूस सौ साल से अधिक समय से दोनो समुदायों के बीच तनाव बढ़ाने मे सबसे बड़े कारण रहे हैं और इसी लिये हर राज्य मे पुलिस ने स्थानीय ज़रूरतों के मुताबिक़ इन जुलूसों के प्रबंधन के लिये रणनीति बना रखी है । हर पुलिस थाने मे एक अलग रजिस्टर में इस रणनीति के तहत कुछ सूचनायें दर्ज की जाती हैं । इनमे जुलूस की तिथि , मार्ग , भाग लेने वालों की संख्या , जुलूस मे लगने वाले नारे या बजाये जाने वाले वाद्ययंत्र जैसे विवरणों का इंद्राज होता है । संवेदनशील इलाक़ों मे पुलिस थानों से यह अपेक्षा की जाती है कि त्योहार के पहले वे सभी सम्बंधित के साथ बैठकें करेंगे , उन्हे निर्धारित रूट , भाग लेने वालों की संख्या या नारों के बारे मे सहमत करेंगे और ज़रूरत पड़ने पर आयोजकों या असामाजिक तत्वों को क़ानूनी प्राविधानों के तहत पाबंद करेंगे। इनमे से कहीं भी कोताही मँहगी साबित हो सकती है ।

जो विज़ुअल्स सोशल या मुख्य धारा की मीडिया पर उपलब्ध हैं उनसे कम से कम दिल्ली और खरगौन मे तो स्पष्ट है कि जुलूस बहुत ही भड़काऊ नारे लगा रहे थे , ख़ास तौर से जब वे किसी ख़ास आबादी वाले इलाक़ों मे से गुजरे या किसी पूजा स्थल के सामने पँहुचे । मेरे पास जानने का कोई साधन नही है कि स्थानीय पुलिस ने रामनवमी या हनुमान जयंती के आयोजकों के सामने रूट या नारों को लेकर कुछ शर्तें रखीं थीं या नहीं पर मेरा पुराना अनुभव कह रहा है कि क़ानून लागू करने वाली एजेंसियों ने ज़रूर कुछ बैठकों मे उन्हे अपनी मंशा से अवगत करा दिया होगा । यह स्पष्ट था कि वे इन शर्तों का उल्लंघन कर रहे थे और उन्हे पूरा विश्वास था कि पुलिस उनके ख़िलाफ़ कोई प्रभावी कार्यवाही नही करेगी और पुलिस ने भी उन्हे निराश भी नही किया ।

एक सामान्य बात हर घटनास्थल पर दिखी । हर जगह अल्पसंख्यक आबादी की छतों और पूजा स्थलों से पथराव हुये। क्या इसे उनके उग्र और हिंसक समुदाय होने के सबूत के तौर पर देखा जाना चाहिये ? मुझे लगता है ऐसा मानना सरलीकरण ही होगा । कहीं ऐसा तो नही है कि एक डरा हुआ समुदाय, जिसे राज्य पर बहुत भरोसा नही है , अपनी सुरक्षा के लिये ख़ुद इंतज़ाम करने की सोचने लगता है । अपने घरों या पूजास्थलों के पास खड़ी भीड़ को उत्तेजक नारे लगाते देख कर अक्सर वह पहला पत्थर फेंक देता है । यदि उसे भरोसा हो कि यदि उसकी जान माल को ख़तरा होगा तो राज्य उसकी सुरक्षा करेगा , तब शायद वह अपनी छतों पर ऐसे इंतज़ाम नही करेगा। यह एक ऐसा विषय है जो एक लंबे समाजशास्त्रीय अध्ययन की माँग करता है ।

अंत मे , यह याद रखना चाहिये कि एक पाँच खरब डालर की अर्थव्यवस्था बनने का सपना देख रहे राष्ट्र मे साम्प्रदायिक हिंसा के लिये कोई स्थान नही होना चाहिये । स्वाभाविक ही है कि आज के वैश्विक परिदृश्य मे दंगों के चलते भारत की छवि धूमिल हुयी है । यह कहकर कि पश्चिम मे भी मनवाधिकारों का उल्लंघन होता है , हम अपना पल्ला नही झाड़ सकते । एक परमाणु संपन्न राष्ट्र का नैतिक होना भी ज़रूरी है और हमारे बीच एक डरे हुये नागरिक समुदाय की उपस्थिति हमे इस नैतिकता से महरूम करती है ।

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