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“यह पाकिस्तान है, भारत नहीं”: विभूति नारायण राय IPS

“इनआँखिन देखी”-8 : विभूति नारायण राय, IPS

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहे ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को एक फ़र्ज़ी मुक़दमे में फाँसी चढ़ा देने को तो खुले आम न्यायिक हत्या ही कहा गया । कुछ ही दिनों पहले एक और प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ भी अदालत और सेना के नापाक गठबंधन के शिकार हुए ।

विभूति नारायण राय

लेखक सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक हैं और महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति भी रह चुके हैं

सुप्रीम कोर्ट के कुछ फ़ैसलों ने एक बार फिर इस बहस को जीवित कर दिया है कि सरकार किस हद तक संविधान के बुनियादी ढाँचे के साथ छेड़-छाड़ कर सकती है ? 

यह कोई लतीफ़ा नहीं है कि पाकिस्तान की एक अदालत ने भारतीय अदालतों को नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करने की सलाह दी है। इस्लामाबाद हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस अतहर मिनअल्लाह ने पश्तून आंदोलन के कार्यकर्ताओं की ज़मानत मंज़ूर करते समय एक बड़बोला बयान दिया कि उनकी अदालत द्वारा सभी नागरिकों के संवैधानिक अधिकार सुरक्षित किये जायेंगे क्योंकि ‘यह पाकिस्तान है, भारत नहीं ।’

यह एक आम जानकारी है कि अस्तित्व में आने के बाद से अपनी आधी उम्र फ़ौजी हाकिमों के बूटों तले गुज़ारने वाले पाकिस्तान मे हर संस्था पस्त हिम्मती में ही रही है और न्यायपालिका भी कोई अपवाद नहीं है । वहाँ 1973 तक तो कोई स्थाई संविधान ही नहीं बन पाया था और पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट मे जस्टिस मुनीर जैसे जज मौजूद थे जिन्होंने आवश्यकता के सिद्धांत की ईजाद की थी और इसके तहत पहले तो अय्यूब खान के फ़ौजी तख़्ता पलट को वैध ठहराया गया और बाद मे एक लिखित संविधान बन जाने के बावजूद भी समय समय पर होने वाले फ़ौजी तख़्ता पलट न्यायपालिका के एक हिस्से से ही वैधता पाते रहे हैं ।

प्रधानमंत्री रहे ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को एक फ़र्ज़ी मुक़दमे मे फाँसी चढ़ा देने को तो खुले आम न्यायिक हत्या ही कहा गया । कुछ ही दिनो पहले एक और प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ भी अदालत और सेना के नापाक गठबंधन के शिकार हुये । इतनी ख़राब इतिहास वाली संस्था का एक सदस्य अगर पूरे आत्मविश्वास के साथ भारतीय न्यायपालिका पर ऐसी टिप्पणी तो बहुत स्वाभाविक है कि हम उसे बड़बोला पन कह कर टाल दें। पर जिस उथल पुथल के दौर में यह टिप्पणी की गयी है , मुझे लगता है कि उसे गंभीरता से लिया जाना चाहिये ।

1950 मे संविधान लागू होने के बाद जिन संस्थाओं ने देश में सबसे बड़े उतार चढ़ाव देखे हैं, उनमें शायद देश की न्याय पालिका सबसे ऊपर है । इसके बावजूद आपात काल के संक्षिप्त विचलन को छोड़ कर ज़्यादातर मौक़ों पर उसने नागरिकों के मौलिक संवैधानिक अधिकारों की रक्षा ही की है । ख़ास तौर से 1973 मे केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मुक़दमे मे सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला कि संसद संविधान के मूल ढाँचे से खिलवाड़ नही कर सकती इस दिशा में एक मील का पत्थर साबित हुआ । देखना होगा कि यह मूल ढाँचा है क्या ? उपरोक्त फ़ैसले मे वर्णित इस मूल ढाँचे के सात महत्वपूर्ण अनिवार्य खभों में एक संविधान का धर्मनिरपेक्ष ढाँचा भी था । दूसरा उतना ही महत्वपूर्ण अंग नागरिकों को संविधान में प्रदत्त आज़ादी थी । इसे भी संसद और कार्यपालिका की गरिमा के अनुकूल ही कहा जायेगा कि दोनो ने इस फ़ैसले को कमोबेश स्वीकार कर लिया और उसे उलटने के कुछ प्रयास हुुए ज़रूर, पर धीरे धीरे राज्य व्यवस्था ने इसे अंगीकृत कर लिया ।
हाल के सुप्रीम कोर्ट के कुछ फ़ैसलों ने एक बार फिर इस बहस को जीवित कर दिया है कि सरकार किस हद तक संविधान के बुनियादी ढाँचे के साथ छेड़-छाड़ कर सकती है ? ख़ास तौर से नागरिकता क़ानून    हुआ संशोधन और उसके ख़िलाफ़ देश भर मे चल रहे आंदोलनों मे जिस तरह से देशद्रोह के मुक़दमे क़ायम हो रहे हैं और नागरिकों की अभिव्यक्ति की आज़ादी छीनी जा रही है उससे यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि किस हद तक केशवानंद भारती केस के फ़ैसले की आत्मा खंडित हो रही है ।
क़ानून लागू होते ही उसके ख़िलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय मे याचिकाएँ दाख़िल हो गयीं और उम्मीद की गयी कि मामले की नज़ाकत को देखते हुये अदालत फ़ौरन उसकी सुनवाई करेगी पर यह निराशाजनक था कि अदालत ने उसे लम्बा खींच दिया । कार्यपालिका की संवेदनशून्यता का हाल यह है कि कुछ राज्यों को छोड़ कर लगभग पूरे देश मे किसी भी तरह के विरोध प्रदर्शनों पर रोक लगा दी गयी है । बिना पुलिस की इजाज़त के कहीं विरोध दर्ज नही कराया जा सकता । हालत यह हो गयी है कि छोटे स्कूली बच्चों और उनके अध्यापकों पर नाटक खेलने के लिये देशद्रोह के मुक़दमे क़ायम किये जा रहे हैं । उस पर तुर्रा यह कि ऐक्टिविस्टों को इन मामलों में ज़मानतें हासिल करने मे लम्बा समय लग रहा है ।


सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने समय समय पर कहा है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 का सामान्य और यांत्रिक रूप से इस्तेमाल नही होना चाहिये । पर जिस तरह से इस धारा का इस्तेमाल हो रहा है उससे तो यह मान लिया गया लगता है कि देश मे कहीं भी कोई धरना प्रदर्शन बिना पुलिस की इजाज़त के नही हो सकता। यह सब कुछ सामान्य मनोविज्ञान का इस हद तक अंग हो चुका है कि धारा 144 लागू न होने पर भी लोग पुलिस से इजाज़त के लिये प्रार्थना पत्र देते रहते हैं और पुलिस ने भी मान लिया है कि बिना उसकी इजाज़त कोई विरोध नही दर्ज किया जा सकता । शायद इस लिये भी कि साल भर ये प्रतिबंध लगे ही रहते हैं ।
जिस बर्बरता से देश के अलग अलग हिस्सों मे नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध को कुचला गया है वह केशवानंद भारती मुक़दमे के फ़ैसले की मूल भावना के ख़िलाफ़ तो है ही इससे देश के एक बड़े अल्प संख्यक समुदाय के अलग थलग पड़ जाने का ख़तरा पैदा हो गया है । फिर जितनी आसानी से देशद्रोह के मुक़दमे क़ायम हुये हैं वह भी कम चिंताजनक नही है । किसी एक नारे , कविता की पंक्ति या नाटक पर देशद्रोही का फ़तवा जारी कर देना देश प्रेम की अवधारणा को ही हास्यास्पद बना देने जैसा है । सोशल मीडिया का एक अधोलोक रात दिन सक्रिय है जो लोगों को देशभक्त या देशद्रोही का प्रमाणपत्र बाँट रहा है । कुलमिलाकर कहा जा सकता है कि बहुत सारे ऐसे मूल्य ख़तरे में हैं जो संविधान के प्रावधानों में निहित हैं और न्यायिक समीक्षाओं मे समय पर रेखांकित किये जाते रहे हैं ।
पाकिस्तानी अदालत की टिप्पणी को हम हास्यास्पद कह कर उसकी उपेक्षा कर सकते हैं। पर क्या यह सही नही होगा कि उसमें निहित ख़तरों की तरफ़ भी हमारा ध्यान जाय? पहली बार धर्म के आधार पर एक भेदभाव पूर्ण नागरिकता क़ानून बनाया गया है और उसके ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन के अधिकार से नागरिकों को वंचित किया जा रहा है । स्वाभाविक है कि नागरिक मदद के लिये अदालतों की तरफ़ देख रहे हैं और यदि उन्हें वहाँ से भी निराशा मिली तो वे कहाँ जायेंगे ।

ऊपरी अदालतों द्वारा देशद्रोह की स्पष्ट परिभाषा के बावजूद ज़िला अदालतों मे निरंतर मुक़दमे क़ायम हो रहे हैं और लंबी अवधि तक विरोध प्रदर्शन करने वालों की ज़मानतें तक नही हो पा रही है । यह एक बड़ी चुनौती है और केवल एक सक्रिय सुप्रीम कोर्ट ही केशवानंद भारती केस के फ़ैसले की भावना के मुताबिक़ संविधान के मूल ढाँचे की हिफ़ाज़त कर सकती है ।

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