जनता कर्फ़्यू की सफलता से कुछ उम्मीद बंधती है कि अधिनायक वादी न होने पर भी राज्य नागरिकों को अपने आप को घरों में बंद रहने के लिये प्रोत्साहित कर सकता है।
“इनआँखिन देखी”-9 : विभूति नारायण राय, IPS
जब प्रधानमंत्री ने जनता कर्फ़्यू की बात की तो लोगों के मन मे संशय था । जैसे -जैसे दिन चढ़ता गया, संशय आत्म विश्वास में बदलता गया कि हम कर सकते हैं और हमने कर भी लिया । यह भी हुआ कि जवानों या किसानों की तरह स्वास्थ्य कर्मियों की भी जय जय की गयी ।
विभूति नारायण राय
लेखक सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक हैं और महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति भी रह चुके हैं
… हालात ये हैं कि मृतकों को दफ़नाने के लिये लोग नहीं मिल रहे हैं । परिवारी जन मृतक को कम्बल में लपेट कर घर से बाहर रख दे रहे हैं और सेना अंत्येष्टि कर रही है । सैर सपाटे के शौक़ीन इटैलियन दुनिया के कई हिस्सों में भी वाइरस के संवाहक बने ।
कोरोना ने देश को कई खट्टे मीठे अनुभव दिये । सबसे महत्वपूर्ण तो जनता कर्फ़्यू का है । आम समझ है कि कर्फ़्यू राज्य का विशेषाधिकार है और वही इसे बलपूर्वक लगाता है । हमारे पास कई अनुभव हैं जिनमे जनता कर्फ़्यू किसी एक आंदोलनकारी समूह ने लगाया और फिर ज़बर्दस्ती से उसे लागू किया गया ,खुली दूक़ाने लूटी गयीं या सड़कों पर चल रहे वाहन तोड़े फोड़े गये। कुछ मामलों में उनके साथ आगज़नी की गयी । जब राज्य कर्फ़्यू लगाता है तो उसकी पुलिस और फ़ौज सख़्ती से सड़कों को ख़ाली कराती है । इसलिये जब प्रधानमंत्री ने जनता कर्फ़्यू की बात की तो लोगों के मन मे संशय था । जैसे जैसे दिन चढ़ता गया संशय आत्मविश्वास में बदलता गया कि हम कर सकते हैं और हमने कर भी लिया । यह भी हुआ कि जवानों या किसानों की तरह स्वास्थ्य कर्मियों की भी जय जय की गयी ।
दुनिया भर में कोरोना की लड़ाई राष्ट्रीय स्मृतियों और संस्थाओं से जुड़ी हुई है । हर देश अपनी तरह से इसका मुक़ाबला कर रहा है । शुरुआत दिसम्बर के आसपास चीन से हुई । अधिनायकवादी तंत्र मे जनता से सूचनाएँ छिपाना आसान था सो काफ़ी दिनों तक वुहान मे लोगों को पता ही नहीं चला कि हो क्या रहा है ? जब तक तंत्र के लिये स्वीकार करना मजबूरी हुई, तब तक शहर में हज़ारों लोग संक्रमित हो गये थे । इससे भी ख़तरनाक यह हुआ कि अफ़वाहों और अपुष्ट सूचनाओं के चलते हज़ारों लोग वुहान से भाग निकले और उन्होंने अंतरराष्ट्रीय संक्रमण की शुरुआत कर दी ।
बहरहाल जब वहाँ स्वीकार किया गया कि वे एक अनजान महामारी से निपट रहे हैं, तभी हमें भी उनकी लड़ने की क्षमता का अहसास हुआ । एक हफ़्ते में हज़ार बिस्तरों वाले अस्पताल का निर्माण जिन्नों ने नही, बल्कि महामारी के बीच इंसानो ने ही किया था । लाखों की आबादी वाले पूरे शहर को क्वैरेंटाइन करना और घरों मे बंद लोगों को खाने पीने से लेकर दवाओं तक सभी ज़रूरी सामान पहुँचना, सब कुछ किसी परीकथा सा लगता है। पर यह सब एक दृढ़ इच्छा शक्ति वाले तंत्र ने कर दिखाया। इस पर बाद में बहस होती रहेगी कि अगर आम जन तक सूचनाओं की रसाई पहले हो गयी होती तो क्या नुक़सान कम होता ?
…डा.ली वेनलियांग को पहली बार कोरोना विषाणु की उपस्थिति पर शंका व्यक्त करने पर अफ़वाह फैलाने के जुर्म में जेल न भेज दिया गया होता तो क्या संक्रमण विश्वव्यापी बनने से रोका नहीं जा सकता था?
ये सब अकादमिक प्रश्न एक तरफ़ और दूसरी तरफ़ यह सच्चाई कि अधिनायक तंत्र ने चार महीने के अंदर एक हज़ार बेड वाले अस्पताल के पूरी तरह ख़ाली होने की तस्वीरें प्रसारित करनी शुरू कर दी हैं ।
जातीय व्यवहारों में विशिष्टता की दूसरी झलक इटली या स्पेन समेत दूसरे पश्चिमी समाजों मे देखने को मिलीं । खिलंदड़े और उत्सवधर्मी इटैलियन समाज ने दफ़्तरी या व्यापारिक गतिविधियों पर रोक को मौजमस्ती का उपयुक्त अवसर समझा और और निकल पड़ा समुद्र तटों या नाइट क्लबों की ओर । नतीजतन जल्द ही लाखों इटैलियन वायरस संक्रमित हो कर अस्पतालों की शरण में पहुँच गये और विश्व में ऊंचे पायदान पर स्थित इटली की स्वास्थ्य सेवायें पूरी तरह से ध्वस्त हो गयीं ।
जैसे जैसे चीन में संक्रमण का चार्ट गिरा, इटली का ऊपर उठता गया । पिछले दिनों मृत्यु के मामलों मे इटली ने चीन को पछाड़ दिया है । हालात ये हैं कि मृतकों को दफ़नाने के लिये लोग नहीं मिल रहे हैं ।
परिजन मृतक को कम्बल में लपेट कर घर से बाहर रख दे रहे हैं और सेना अंत्येष्टि कर रही है । सैर सपाटे के शौक़ीन इटैलियन दुनिया के कई हिस्सों में भी वाइरस के संवाहक बने । भारत में शुरुआती मामलों मे कई ऐसे थे जिनका रिश्ता इटली से भारत भ्रमण पर आये पर्यटकों या इटली घूमने गये भारतीय नागरिकों से था ।
इटली की ही तरह एक दूसरे मस्त मौला समाज स्पेन ने भी अपनी आदतों की क़ीमत चुकाई है । वे नुक़सान के तीसरे पायदान पर खड़े हैं । योरोप के कई अन्य मुल्क भी बुरी तरह हिले हुये हैं । संयुक्त राज्य अमेरिका भी इसी श्रेणी मे आ गया है । ये सभी ऐसे देश हैं जो अपनी अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं के लिये जाने जाते हैं । इन सभी में महँगी होने के बावजूद राज्य बीमा या दूसरे हस्तक्षेपों से जीवन रक्षक चिकित्सा अपने नागरिकों को उपलब्ध कराता रहता है । वे लड़खड़ाये तो महज़ इस लिये कि उन्होंने अपनी मस्तमौला दिनचर्या बदलने मे काफ़ी देर कर दी । अभी कल भी अमेरिका के पार्क संगीत का आनंद लेते हुये सैकड़ों नागरिकों की तस्वीरें सोशल मीडिया पर गश्त करती दिखीं ।
हमारे लिये विचारणीय होना चाहिये कि इतनी सुविधाओं के बावजूद अगर इन समाजों मे स्वास्थ्य सेवायें लड़खड़ा गयीं हैं तो हमारा क्या हाल होता? यदि वुहान की जगह कोरोना का शुरुआती हमला दिल्ली , कोलकाता या हैदराबाद में हुआ होता ? जब तक विषाणु हमारे देश पहुँचे हमे तैयारी का वक़्त मिल गया ।
यह ज़रूर मानना होगा कि हमारी सरकारी और ग़ैरसरकारी एजेंसियों ने जब मौक़ा आया तो उसका मुक़ाबला ख़ूब डटकर किया और अभी तक तो सफल ही कहे जायेंगे ।
असली लड़ाई अभी बाक़ी है । क़ोरोना के पाँच चरण होते हैं और अभी हम दूसरे चरण में हैं । अंतिम विजय के लिये ज़रूरी है कि संक्रमण की शृंखला टूटे और इसके लिये सामाजिकता मे कमी लानी होगी । एक लोकतंत्र के लिये बड़ी चुनौती है कि क्या वह चीन की तरह अपने नागरिकों को घरों मे बंद कर सकता है और जिसमें यह सुनिशचित भी हो कि उन्हें घरों में खाने पीने की चीज़ें मिलती रहें । अभावों से घबराकर उनका धैर्य न टूटे और वे बाहर सड़कों पर न आ ज़ाँय । कोरोना अगर सामाजिक संक्रमण के दौर में प्रवेश कर गया तो हमारी स्वास्थ्य सेवायें चरमरा जायेंगी और शुरुआती सफलता किसी काम न आयेगी।
जनता कर्फ़्यू की सफलता से कुछ उम्मीद बंधती है कि अधिनायक वादी न होने पर भी राज्य नागरिकों को अपने आप को घरों में बंद रहने के लिये प्रोत्साहित कर सकता है।लोक कल्याण की यह भावना भी इस बार दिखी कि कुछ राज्य सरकारों ने लाँकडाउन के दौरान रोज़ कमाने और खाने वालों के खातों मे कुछ रक़म भेजने की घोषणा की है । यह अलग बात है कि यह राशि बहुत कम है और सरकारों को चीन से सबक लेकर इस बात की व्यवस्था करनी चाहिये कि घरों में बन्द लोग भूखे न मरें ।
यह एक अच्छा मौक़ा भी है जब हम अपनी स्वास्थ्य सेवाओं का पुनर्मूल्यांकन करें और कोरोना जैसे ख़तरों से निपटने के लिये ख़ुद को तैयार करें ।